योगी दावं में चित्त कांग्रेस
देश की सियासत भी अजीब है, जो कोरोना महामारी
के संकट में भी शाह-मात का खेल दिखा रही है। मसलन जब देश कोरोना
वायरस से लड़ रहा हो तो भी सियासी दलों को मुद्दे तलाशने की ललक रहती है। इस मामले
में प्रमुख विपक्षी दल को तो शायद सत्ता विहीन होने का मलाल सत्ता रहा है। शायद इसलिए
कोरोना संकट में लॉकडान के कारण देश की अर्थव्यवस्था और देश की जनता को राहत देने के
केंद्र सरकार के तौरतरीके भी उसे रास नहीं आ रहे हैं। यही कारण है कि लॉकडाउन में देश
में फंसे प्रवासी मजदूरों की घरवापसी के लिए किये गये इंतजामों का फोबिया कांग्रेस
को घर कर गया और कांग्रेस ने कोरोना के बजाए सरकार के खिलाफ जंग में मजदूरों की सियासत
के लिए जान फूंकना बेहतर समझा। इसके लिए कांग्रेस ने सबसे पहले उत्तर प्रदेश जैसे राज्य
को निशाने पर लिया, जहां कांग्रेस जनाधार तलाने के प्रयास में
प्रियंका गांधी वाड्रा को राजनीति में ले आई, लेकिन मजदूरों की
सियासत की बागडौर संभालने से पहले शायद वाड्रा यह भूल गई कि जब सरकारें मजदूरों की
घर वापसी के लिए दनादन ट्रेने व बसे चला रही है तो उन्हें यूपी के प्रवासियों के लिए
अलग से बसों का इंतजाम करके श्रेय लेने की क्या जरूरत थी। इस बसों की सियासत में अनुभवहीन
नेत्री अपने ही जाल में ऐसी फंसी, कि योगी सरकार को एक हजार बसों
की सूची के नाम पर स्कूटर, मोटर साईकिल, ऑटो रिक्शा, ट्रक तक के नंबर सौंप दिये। फिर क्या यूपी
के सीएम योगी तो अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं, जिनके इस दांव ने कांग्रेस
को ऐसा चित्त किया कि अपने सियासी जाल में खुद फंसी नई नेवली कांग्रेस नेत्री को सभी
बसे वापस भेजनी पड़ी। राजनीतिकारों की माने तो बसों की सूची की जांच कराकर यूपी सीएम
क्या गलत किया, क्योंकि जब यूपी सरकार ने कोटा से छात्रों को
वापस लाने के लिए बसें भेजी थी तो राजस्थान के सीएम ने भी तो उनकी जांच कराई थी। इसलिए
शायद देश में ऐसे संकट के समय कांग्रेस की इस प्रकार की सियासत समाजवादी पार्टी और
बहुजन समाज पार्टी को भी रास नहीं आई ,जो कांग्रेस खासकर प्रियंका
गांधी से खासी नाराज है, जिनकी बसों की सियासत में यह लग रहा
है कि यूपी में प्रियंका उनके वोट बैंक पर राजनीति करके शोहरत हासिल करना चाहती है।
कोराना बनाम मजदूर
दुनियाभर के साथ भारत में कोरोना
वायरस का प्रकोप बढ़ने पर जहां पूरा देश इस महामारी के खिलाफ जंग लड़ने के लिए एकजुटता
की दुहाई दे रहा था, लेकिन मोदी सरकार द्वारा लॉकडाउन के दौरान जिस प्रकार के उपायों को अंजाम दिया
गया और ऐसे उपायों की दुनियाभर के देशों में चर्चा शुरू हुई तो प्रधानमंत्री मोदी की
यह लोकप्रियता विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस को आंख में तीर की तरह चुभने लगी। मसलन
कहां तो भारत को कोरोना वायरस से लड़ना था और कहां अब सारी लड़ाई मजदूरों के संकट को
दूर करने में बदल गई है। यह मेडिकल का संकट अब मानवाधिकार के संकट में तब्दील होता
नजर आ रहा है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि भारत न तो मेडिकल के
मोर्चे पर इस लड़ाई का डट कर मुकाबला कर पा रहा है और न ही मानवाधिकार के मोर्चे पर
लड़ाई में सफल होता दिख रहा है। भारत को एक तरह से दोहरे मोर्चे से जूझना पड़ रहा है।
दरअसल ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि देश की केंद्र सरकार और ज्यादातर राज्यों की सरकारों
ने कोरोना संकट को गंभीरता से नहीं लिया, जिसके कारण गैर भाजपाई
शासित राज्यों ने अपनी वोटबैंक की सियासत को सर्वपरि रखते हुए कोरोना के खिलाफ जंग
को तरजीह नहीं दी, जिसमें सत्ता की हनक में एक राज्य केंद्र सरकार
के लागू लॉकडाउन के निर्देशो को मानने से ही इंकार कर देता है, तो कुछ राज्य केंद्र सरकार के उपायों को झूठ का पुलिंदा बताकर सवाल खड़े करते
देखे जा रहे हैं। खासकर मजदूरों के आवागमन की अनुमति के बाद जिस प्रकार कोरोना की जंग
ने पलटी मारी है उसमें यह लड़ाई मजदूरों की नजर आ रही है। सियासी गलियारों में तो यहां
तक कहा जा रहा है कि जिस प्रकार विपक्ष ने केंद्र सरकार के खिलाफ नागरिकता संशोधन कानून
को लेकर मोर्चा खोला था, ठीक उसी प्रकार मजदूरों को मुद्दा बनाकर
सियासी खेल शुरू करके कोरोना के खिलाफ देश की जंग को कमजोर करने का प्रयास किया है।
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