बुधवार, 28 मई 2014

मोदी टीम में सहयोगी दलों व राज्यों पर रहा फोकस!



ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद के साथ उनकी टीम के 45 अन्य मंत्रियों ने शपथ ली है, जिसमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश व महाराष्टÑ को तरजीह दी गई। इस टीम में सहयोगी दलों को भी स्थान देकर राजग में भी संतुलन बनाने की कवायद की गई।
सोमवार शाम को देश के 15वें प्रधानमंत्री के तौर पर राष्टÑपति प्रणब मुखर्जी ने नरेन्द्र मोदी को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। मोदी के साथ ही उनके केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों को भी शपथ दिलाई गई। मोदी की टीम में उनके अलावा 23 कैबिनेट मंत्रियों, दस राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) तथा 12 राज्य मंत्रियों ने शपथ ग्रहण की। मोदी के मंत्रिमंडल में जहां सहयोगी दलों को स्थान दिया गया है, वहीं राज्यों को भी प्रतिनिधित्व मिला है। सहयोगी दलों में बिहार से लोजपा प्रमुख राम विलास पासवान को कैबिनेट व रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाह को राज्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई है। वहीं आंध्र प्रदेश से तेदेपा के पशुपति अशोक गजपति राजू ने शपथ ग्रहण की, तो महाराष्टÑ से शिवसेना के अनंत गीते और शिरोमणि अकाली दल की पंजाब से हरसीमरत कौर बादल को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है।
मोदी की टीम में राज्यों को भी फोकस किया गया है, जिसमें उत्तर प्रदेश से पांच कैबिनेट समेत सर्वाधिक नौ सांसदों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। इनमें कैबिनेट मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह, उमा भारती, नजमा हेपतुल्ला, कलराज मिश्र, मेनका गांधी ने शपथ ली, तो जनरल वीके सिंह व संतोष गंगवार को राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाया गया है, जबकि डा. संजीव बालियान व मनोज सिन्हा को राज्य मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। इसके बाद महाराष्टÑ से नितिन गडकरी, अनंत गीते,गोपीनाथ मंडे को कैबिनेट, प्रकाश जावडेकर, पीयूष गोयल को राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) तथा राव साहेब दादाराव दानवे को राज्यमंत्री बनाया गया है। बिहार से रविशंकर प्रसाद सिंह, राधामोहन सिंह, राम विलास पासवान को कैबिनेट, धमेन्द्र प्रधान को राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार दिया गया तथा उपेन्द्र कुशवाह को राज्य मंत्री बनाया गया है। मध्य प्रदेश से सुषमा स्वराज, नरेन्द्र सिंह तोमर, थांवरचंद गहलोत को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। दिल्ली की चांदनी चौक से जीते डा. हर्षवर्धन को कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। जबकि छत्तीसगढ़ की रायगढ़ सीट से जीते विष्णुदेव साई को राज्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। राजस्थान से भी निहाल चंद को राज्य मंत्री बनाया गया। हरियाणा से राव इंद्रजीत सिंह को स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री व कृष्णपाल गुर्जर को राज्य मंत्री बनाया गया। इसके अलावा कर्नाटक से अनंत कुमार व सदानंद गौडा को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। जबकि जीएम सिद्धेश्वर को राज्यमंत्री बनाया गया है। आंध्र प्रदेश से एम वैंकया नायडू व अशोक गजपति राजू को कैबिनेट व निर्मला सीतारमण को स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई। उडीसा के जोएल ओराम को कैबिनेट मंत्री की शपथ दिलाई गई। अरुणाचल प्रदेश से किरन रिजिजू को राज्यमंत्री, असम से सर्वानंद सोनवाल को स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री, गोवा से श्रीपद यसो नाईक को स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री, जम्मू-कश्मीर से डा. जितेन्द्र सिंह को स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री बनाया गया है। झारखंड से सुदर्शन भगत को राज्य मंत्री बनाया गया है। गुजरात से मनसुख भाई धानजी भाई वसावा को राज्यमंत्री बनाया गया है। तमिलनाडु की कन्याकुमारी से जीतकर आए भाजपा के पी राधाकृष्ण को राज्यमंत्री बनाया गया है, इसके अलावा यूपी की अमेठी से राहुल गांधी के मुकाबले हारी राज्यसभा सदस्य स्मृति ईरानी तथा अमृतसर से पराजित हुए राज्यसभा सदस्य अरूण जेटली को भी कैबिनेट मंत्री बनाया गया है।
27May-2014

यूपी से मोदी की टीम में हो सकते हैं एक दर्जन मंत्री!

जोशी को लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा
ओ.पी.पाल
. नई दिल्ली।
देश में कल सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनके मंत्रिमंडल की शपथ ग्रहण होते ही मोदी राज शुरू हो जाएगा। मोदी की टीम में उत्तर प्रदेश से एक दर्जन मंत्रियों को शामिल करने की संभावना है। यूपी में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज कर विरोधी दलों को धूल चटाई है।
केंद्र में बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोमवार को शपथ लेते ही देश की बागडौर संभाल लेंगे। भाजपानीत राजग की नई सरकार की कमान संभालने वाले मोदी के साथ उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को भी संविधान एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई जाना तय है। इस शपथ ग्रहण समारोह में उत्तर प्रदेश से ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली भाजपा के सांसदों की निगाहें भी टिकी होंगी कि सूबे से कितने सांसदों का मोदी की टीम में शामिल किया जाता है। इसमें स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी यूपी से ही माना जाएगा। इनके अलावा नरेन्द्र मोदी की टीम के लिए जो फार्मूला तैयार किये जाने की चर्चाएं हैं तो उसके हिसाब से यूपी की 80 में से भाजपा के हिस्से में उसके सहयोगी दल की दो सीटों समेत 73 सीटें आई हैं। ऐसे में यूपी की नजरें मोदी और उसके मंत्रिमंडल के सदस्यों की शपथ ग्रहण पर लगी होंगी। जैसा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के लिए भाजपा के साथ मंथन करके मोदी टीम के लिए दस या 12 सांसदों में से एक कैबिनेट मंत्री बनाने का फार्मूला तैयार किया गया है और उसमें भाजपा ने मंत्रिमंडल के लिए भी जातीय संतुलन साधने का खाका खींचा है, तो यूपी में सहयोगी अपना दल के दो निर्वाचित सदस्यों में से एक का मोदी टीम में शामिल होना तय माना जा रहा है, जिसके लिए मिर्जापुर से जीती अनुप्रिया पटेल को मंत्री बनाया जा सकता है। कानपुर से जीत दर्ज करने वाले डा. मुरली मनोहर जोशी को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाएगा, बल्कि उन्हें लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना है, जबकि लखनऊ से जीते भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कैबिनेट में आना तय माना जा रहा है। बुंदेलखंड की झांसी से जीती उमा भारती, पूर्वांचल से कांग्रेस का पाल छोड़कर डुमरियागंज से भाजपा के टिकट से जीते जगदंबिका पाल,गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ, देवरिया से कलराज मिश्र के अलावा रूहेलखंड की बरेली सीट से जीतकर आए संतोष कुमार गंगवार के साथ सुल्तानपुर से जीते वरूण गांधी के साथ ऐटा से जीते राजबीर सिंह को भी मोदी अपनी टीम का हिस्सा बना सकते हैं। इनके अलावा केंद्रीय मंत्रिमंडल में सूबे के अलग- अलग क्षेत्रों और सामाजिक संतुलन बनाने का भी प्रयास रहेगा।
हुकुम व सत्यपाल भी दौड़ में आगे
मोदी का मंत्रिमंडल छोटा होने के संकेत मिल रहे हैं लेकिन पश्चिम उत्तर प्रदेश से कैराना से जीते वरिष्ठ नेता हुकुम सिंह और बागपत से अजित सिंह को हराकर लोकसभा पहुंचे डा. सत्यपाल सिंह मंत्रिमंडल की दौड़ में आगे हैं, जबकि गाजियाबाद से निर्वाचित हुए पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह भी कैबिनेट का हिस्सा हो सकते हैं। कैराना से जीतकर आए सांसद हुकुम सिंह का सूबे की सियासत में बड़ा कद है और उन्हें मंत्री बनाकर गूर्जर समाज से पार्टी रिश्ते को बेहतर करने का प्रयास होगा। पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व के समक्ष मंत्रिमंडल गठन में पूरे देश के प्रतिनिधित्व को दर्शाना भी जरूरी होगा, लेकिन यूपी में हुकुम जैसे कद्दावर दावेदारों की संख्या भी बड़ी है। हुकुम सिंह यूपी में नारायणदत्त तिवारी से लेकर राजनाथ सिंह की यूपी सरकार में वरिष्ठ मंत्रियों का हिस्सा रहे हैं और उनके पास सत्यपाल सिंह व वीके सिंह से कहीं ज्यादा राजनीतिक अनुभव भी है, इसलिए उनके मोदी की टीम में शामिल होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। मोदी फार्मूले के मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश से दो या तीन सांसदों को ही कैबिनेट में शामिल किया जा सकता है। इन तीन सांसदों के सामने मेरठ से जीते राजेन्द्र अग्रवाल को अभी प्रतीक्षा सूची में रखा जा सकता है।
26May-2014

राग दरबार-रहनुमा भी न रहे मुसलमान

बमबम हैं पासवान
रामविलास पासवान के बारे में प्रचलित है कि जिस दल को वे समर्थन देते हैं वह सत्ता में आती है। आमतौर पर उनकी नजर केंद्र की सरकारों पर रहती है। पहले भाजपानीत राजग के साथ सत्ता भोगी फिर कांग्रेसनीत यूपीए में 5 सालों तक मंत्री रहे। लोकसभा चुनाव हार गए तो लालू प्रसाद की मदद से राज्यसभा में जगह पक्की की और अब फिर से राजग कुनबे में शामिल होकर खुद तो जीते ही भाई रामचंद्र पासवान और बेटे चिराग पासवान को भी जिता कर ले आए हैं। और तो और उनकी पार्टी के बाहुबली नेता रमा सिंह ने राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह को हराने में सफलता पाई। मोदी लहर ने राजद-कांग्रेस से छिटके पासवान कुनबे की नई सियासी ताबीर लिख दी। उम्मीद है कि मोदी मंत्रिमंडल में वे जगह भी पा लेंगे। पूर्व के उनके साथी लालू प्रसाद अब नीतीश कुमार के साथ मिलकर अपनी राजनीतिक जमीन बचाने की जुगत में लगे हैं।
बुझता हुआ नाग-मणि
कभी बिहार की राजनीति में नागमणि की तूती बोलती थी। सूबे के 15 फीसदी कुशवाहा वोटों पर एकछत्र राज था। जेपी आंदोलन की उपज रहे नागमणि शुरूआती दिनों में लालू प्रसाद के साथ रहे और अब वे ऐसी कोई पार्टी नहीं है जहां चार-छह महीने नहीं रहें हों। एक समय ऐसा आया था जब राजग सरकार में केंद्र में मंत्री पद तक से नवाजे गए। उनकी पत्नी नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में मंत्री रहीं। मुख्यमंत्री से अनबन के कारण नागमणि ने पत्नी का इस्तीफा करवा लिया। उसके बाद से उनके दिन लगातार खराब चल रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें बड़ा गेम-प्लान किया। राकांपा के प्रदेश अध्यक्ष इस उम्मीद के साथ बने कि यूपीए की गणित के तहत उन्हें एक टिकट तो मिल ही जाएगा,मगर राकांपा कोटे का वह एक टिकट तारिक अनवर लपक ले गए। बुझे हुए नागमणि ने झारखंड की अपनी पुरानी सीट चतरा से आजसू की टिकट पर उतरे। न केवल बुरी तरह हारे बल्कि चौथे नंबर पर रहे।
योग्यता का प्रदर्शन
भाजपा के एक पूर्व महासचिव इन दिनों अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने में जुटे हुए हैं। जब से चुनाव नतीजे सामने आए हैं इन नेताजी ने नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार में अपनी जगह फिट करने के लिए दिमागी कसरत तेज कर दी है। अलसुबह ही ये नेताजी अंग्रेजी अखबारों के संपादकों को फोन लगाकर बकायदा हालचाल ले रहे हैं। बात-बात में वह कानून से लेकर देश- विदेश की मौजूदा परिस्थितियों पर तफ्सील से चर्चा करते हैं। फिर मौका मिलते ही वह संपादक जी से उनके अखबार में अपना इंटरव्यू कराने की पेशकश कर देते हैं। इतना तक तो ठीक है, पर वह संपादक को इंटरव्यू का विषय भी खुद ही सुझा देते हैं ताकि उनका मंतव्य पूरा हो सके। पर, संयोग देखिए कि किसी भी संपादक ने अब तक उनके आग्रह पर गंभीरता से विचार नही किया है। जिस कारण खुद को कानून का धुरंधर साबित करने वाले इन नेताजी की प्रतिभा खुल कर मोदी जी तक नही पहुंच पाई है। चर्चा है कि उन्होंने अब अंग्रेजी चैनलों का रूख कर लिया है।
बायोडेटा की चिंता
मनोनीत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब से भाजपा सांसदों से उनका बायोडेटा मंगाया है, तब से पार्टी के तमाम सांसद अपने विरोधी गुट वाले सांसद के बारे में यह पता लगान में जुट गए हैं कि उसने अपने बायोडेटा में क्या खास लिखवाया है। ताकि विरोधी के बायोडेटा के बारे में जानकारी मिलने के बाद वह उससे बेहतर अपना बायोडेटा बनवा  सके। इसके अलावा कई सांसदों को दूसरी ही चिंता सता रही है। वह ये कि बायोडेटा हिन्दी में बनवाया जाए अथवा अंग्रेजी में। इसके लिए वह अपनी जान पहचान के पत्रकारों से संपर्क साध कर सलाह भी ले रहे हैं कि, खुद तो अंग्रेजी आती नही और बायोडेटा अंग्रेजी में बनवा दिया तो कहीं मामला खटाई में न पड़ जाए। अब ऐसे सांसदों के इस सवाल का उनके शुभेच्छू पत्रकार जवाब क्या देते हैं यह तो अलग बात है पर उनका माखौल खुब उड़ा रहे।
रहनुमा भी न रहे मुसलमान
देश के बंटवारे के समय जो पाकिस्तान चले गये थे वे आज भी मुहाजिर कहलाने की जिल्लत झेल रहे हैं और जो मुसलमान भारत में रह गये थे वे आज तक अपने आपको राष्टÑवादी साबित नहीं कर सके। वैसे तो देश की राजनीति में नेहरूजी और इंदिराजी के बीच हेमवतीनंदन बहुगुणा और वीपी सिंह भी मुसलमानों के नेता रहे, तो राजीव गांधी को भी मुसलमानो ने अपना नेता माना। सूबाई स्तर पर लालू यादव, मुलायम सिंह याद और नीतीश कुमार ने भी मुसलमानो की रहनुमाई की, तो ऐसे में मुसलमानो को अलग से मुसलमान नेता की जरूरत नहीं है। यह एक हकीकत भी रही है कि मुसलमान राष्टÑीय स्तर पर किसी मुसलमान को नेता स्वीकार नहीं कर पाए। मुसलमानो के बीच नेताओं की इतनी दुकाने हैं कि कोई किसी को अहमियत देने को तैयार नहीं है। धर्मनिरपेक्षता का चोला पहने कुछ सियासी दल व उनके नेता उनके रहनुमा होने का नाटक करते रहे हैं। इस बार के चुनाव में उत्तर प्रदेश ऐसा सूबा है जहां मुसलमानों के रहनुमाओं का शासन है लेकिन ये रहनुमा इस सूबे से एक भी मुसलमान को लोकसभा का प्रतिनिधित्व देने में विफल रहे। जिन्ना के बाद यूपी जैसे विशाल सूबे से मुस्लिम सांसद न दे पाना मुसलमानों को साल रहा है। वे यह समझ रहे हैं कि वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो मुस्लिम बहुल इलाकों से भी हिंदू उम्मीदवारों में बाजी मारी।
केजरीवाल की कसक
सियासत ही ऐसी चीज है कि उसका नशा जिस पर चढ़ जाए उतरने का नाम ही नहीं लेता। इसी नशे में चूर नजर आ रहे आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल, जिसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी भी समय से पहले नसीब हुई, लेकिन उन पर सियासत इतनी सवार हुई कि उसे लात मारकर वह पीएम की कुर्सी का ख्वाब देखने लगे और लोकसभा चुनाव में इतने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाया कि इतनी संख्या प्रमुख राष्टÑीय दलों भाजपा व कांग्रेस की भी नहीं थी। बहरहाल वे स्वयं भी फैलाए गये रायते से तर होकर मात खा गये और मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने की भूल मानते नजर आए। केजरीवाल की सियासत करने की कसक ने उन्हें लोकसभा के बजाए तिहाड़ जेल जाने का मजबूर कर दिया। भाजपा के वरिष्ठ नेता नीतिन गडकरी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को एक तरफ तो वे साबित नहीं कर पाए ऊपर से बेल-बांड भरकर कानूनी प्रक्रिया पूरी करके जमानत लेने से भी इनकार कर दिया। संविधान का सम्मान करने के बजाए जज को सियासत का ककहरा पढ़ाना चाहा तो जज ने सलाखों के पीछे डाल दिया।
यूपीए बनाम अंग्रेजी
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेसनीत यूपीए की करारी हार का कारण राकांपा प्रमुख शरद पवार ने खोज लिया,जिबकि कांग्रेस हार के कारण अभी तलाश ही रही है। राकांपा नेता का मानना है कि यदि यूपीए सरकार ने अपने महत्वपूर्ण निर्णय अंग्रेजी में लिये हैं और हिंदी का उपयोग नाममात्र को किया है। इसलिए यूपीए को हार का सामना करना पड़ा है। राकांपा मानती है कि देश की जनता हिंदी भाषणा ज्यादा समझती है और यदि सरकार की अंग्रेजी देश की मातृभाषा पर सवार न होती तो इस जिल्लत का सामना न करना पड़ता। लेकिन सदन में भी कांग्रेसी मंत्री अंग्रेजी में जवाब देना अपनी शान समझते रहे, इसका ही खामियाजा इन चुनाव में भुगतना पड़ा है। इसके विपरीत भाजपा के नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में हिंदी में संवाद को बढ़ावा दिया और उसका ईनाम जनता ने भाजपा को बहुमत में लोकसभा भेजकर दिया है।
25May-2014

शनिवार, 24 मई 2014

नये सांसदों की आवभगत में जुटा लोकसभा सचिवालय!

संसद तक लाकर पंजीकरण कराने और ठहरने जैसे सुविधाएं कराई मुहैया
ओ.पी.पाल
. नई दिल्ली।
सोलहवीं लोकसभा का चुनाव जीतने वाले नए सांसदों की आवभगत के लिए लोकसभा सचिवालय ने सभी दरवाजे खोल दिये हैं। मसलन हवाई अड्डो व रेलवे स्टेशनों से संसद तक लाने और संसद में उनके पंजीकरण व आवश्यक औपचारिकताएं पूरी कराने के लिए उनके नई दिल्ली में ठहरने जैसी सभी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं, जिसका पूरा खर्च लोकसभा सचिवालय ही उठा रहा है।
संसद भवन के कक्ष न. 62 में लोकसभा सचिवालय ने नए सांसदों के रजिस्ट्रेशन करने की मुहिम गत 17 मई से ही शुरू कर दी थी, जो 26 मई तक जारी रहेगी। लोकसभा सचिवालय के सूत्रों ने हरिभूमि को बताया कि अभी निर्वाचित 541 सांसदों में से दस प्रतिशत सांसद भी अपना पंजीकरण कराने नहीं पहुंच पाए हैं। शुक्रवार शाम तक केवल 52 सांसदों ने ही अपना पंजीकरण कराया है। इनमें सबसे ज्यादा कांग्रेस के 20 सांसद पहुंचे हैं, जबकि तृणमूल कांग्रेस,अन्नाद्रमुक का एक भी सांसद अभी संसद भवन तक नहीं पहुंचा है। छोटे राज्यों दिल्ली, पुडुचेरी, जम्मू-कश्मीर के अलावा आंध्र प्रदेश के तेदपा व अन्य दलों के निर्वाचित सांसद भी पंजीकरण कराने वालों में शामिल हैं। चूंकि यह पंजीकरण 26 मई तक होगा और इसी दिन शाम को मोदी व उसके मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण समारोह भी है तो उम्मीद जताई जा रही है कि 25 व 26 मई को पंजीकरण कराने वाले सांसदों की अधिकांश संख्या संसद भवन पहुंच सकती है। उधर सात रेसकोर्स रोड के प्रधानमंत्री निवास को नए प्रधानमंत्री के लिए उसकी साज-सज्जा का काम जारी है। यह बंगला पांच बंगलों को मिलाकर बनाया गया क्लस्टर है, जहां प्रधानमंत्री के आवास के अलावा उनका कार्यालय उनकी सुरक्षा के लिए तैनात होने वाली एसपीजी उनका कार्यालय और हेलीपैड भी होता है।
सपत्नीक परिचय पत्र
संसद में पंजीकरण के लिए सांसदों को अस्थाई परिचय पत्र उनकी पत्नी या महिला सांसद के लिए उनके पति समेत दिये जा रहे हैं। सचिवालय द्वारा नए सांसदों के बायोडाटा, ईमेल व फोन नम्बर के अलावा अन्य सभी जानकारियों को एकत्र किया जा रहा है। मौके पर ही सांसदों के फोटोग्राफ लिये जा रहे और उनके हस्ताक्षरों के नमूने जैसी जानकारियों के साथ पंजीकरण किया जा रहा है। इसके बाद यदि सांसद दिल्ली स्थित अपने संबन्धित राज्य भवनों में ठहरना चाहे तो उसकी सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है, वहीं अशोका, सम्राट होटल व आईटीडीसी के तीन होटलों जनपथ में डेढ सौ से भी ज्यादा कमरे बुक कराए जा चुके हैं। इसके अलावा अन्य गेस्ट हाउसों में भी सांसदों के ठहरने की व्यवस्था की गई है। सूत्रों के अनुसार सांसदों के पंजीकरण के दौरान उन्हें व उनके जीवन साथी को तीन माह के लिए अस्थाई परिचय पत्र दिये जा रहे हैं और तीन माह के लिए ही उनके ठहरने की व्यवस्था लोकसभा सचिवाल ने अपने खर्च पर की है। हालांकि संपदा निदेशालय और लोकसभा सचिवालय ने चुनाव हार चुके सांसदों को अपने बंगले खाली करने के लिए नोटिस भेजने की तैयारी को भी अंजाम देना शुरू कर दिया है, ताकि नई लोकसभा सदस्यों के बारे में अधिसूचना जारी होने के एक माह के भीतर सरकारी बंगले खाली कर दिये जाएं। यह स्वाभाविक भी है कि हार चुके सांसदों के लिए तत्काल आवास खाली कराना संभव भी नहीं है, इसलिए नए सांसदों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करना सचिवालय का दायित्व भी हैँ। लोकसभा सचिवालय के अनुसार नए सांसदों को हवाई अड्डो व तीन प्रमुख रेलवे स्टेशनों से संसद भवन तक लाने के लिए संसदकर्मियों की टीम वाहनों के साथ मार्गदर्शन करने के लिए दिन-रात तैयार हैं जो इन सांसदों को उनके बताए स्थान तक पहुंचाएंगी।
शपथ लेने के बाद पीएम आवास पहुंचेंगे मोदी
सूत्रों के अनुसार नए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए शपथ ग्रहण से पहले पीएम हाउस सात रेसकॉर्स को ठिकाना बनाना असंभव है। इसका कारण है कि निवर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 26 मई को राष्ट्रपति भवन में नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने के बाद ही 7 रेसकोर्स रोड स्थित अपना सरकारी बंगला खाली करेंगे। प्रधानमंत्री कार्यालय के सूत्रों ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि शपथ ग्रहण समारोह से लौटने के तुरंत बाद मनमोहन सिंह ढ़ाई एकड़ में फैले 3 मोती लाल नेहरू स्थित बंगले में चले जाएंगे।
पहली बार लोकसभा पहुंचे 315 सांसद
सोलहवीं लोकसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत 315 सांसद पहली बार दाखिल हो रहे हैं, पिछले तीन दशक में यह आंकड़ा पहली बार रिकार्ड कायम करने जा रहा है। जबकि 215 सांसद ऐसे हैं जो इससे पहले भी निर्वाचित होकर सदन में हाने का गौरव हासिल कर चुके हैं, इनमें 165 सांसदों की संख्या ऐसी है जो 15वीं लोकसभा में भी बतौर सांसद थे और दूसरी बार निर्वाचित होकर आए हैं।
24May-2014

गुरुवार, 22 मई 2014

महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों ने दबाया ईवीएम का बटन!



लोकसभा चुनाव विश्लेषण

ओ.पी.पाल
देश की बदले राजनीतिक और सामाजिक परिवेश में हुए सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के नतीजे आने पर चुनावी इतिहास में कई नई तस्वीरों के साथ नए पन्ने जुड़े हैं, जिसमें केंद्रीय निर्वाचन आयोग भी चुनाव सुधार की कवायद में कहीं हद तक आगे बढ़ता दिखाई दिया। इस बार हालांकि महिलाओं से ज्यादा पुरुष मतदाताओं ने जोश-खरोश के साथ वोटिंग की है, वहीं चुनावी इतिहास में मतदान प्रतिशत को रिकार्ड के मुकाम पर ले जाने पर चुनाव आयोग की उम्मीद को भी पंख लगे हैं।
सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों में आजाद भारत में हुए लोकतंत्र के महासंग्राम में सर्वाधिक 66.40 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, जिसमें महिलाओं के 65.30 प्रतिशत मतों के प्रयोग की अपेक्षा पुरुषों ने 67.09 प्रतिशत बटन दबाकर पिछले चुनाव के 50.97 प्रतिशत के जोश की अपेक्षा तेजी पकड़ी है, जबकि पिछले चुनावों में महिलाओं द्वारा डाले गये 65.96 प्रतिशत वोट की रफ्तार में इस बार 0.66 की कमी दर्ज की गई। आयोग के आंकड़ों के मुताबिक इस बार देश की 543 सीटों के लिए 8251 उम्मीदवारों के सामने 83 करोड़ 41 लाख एक हजार 479 मतदाताओं का जाल था, जिसमें से 55 करोड़ 38 लाख एक हजार 801 वोटरों ने ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया। यदि 15वीं लोकसभा के लिए पिछले आम चुनाव पर नजर डाले तो 71 करोड़ 69 लाख 85 हजार 101 वोटरों में से 41 करोड़ 72 लाख 36 हजार 311 यानि 58.19 प्रतिशत ने मतदान में हिस्सेदारी की थी। चुनाव आयोग की उम्मीदों के मुताबिक इस बार मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई इससे पहले आठवीं लोकसभा के लिए 1984 में हुए आम चुनाव में 64.01 प्रतिशत का रिकार्ड था, जिसमें नया पन्ना जुड़ गया है।
नागालैंड इस बार भी अव्वल
देशभर में जहां रिकार्ड 66.40 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, वहीं राज्यों में नागालैंड में 87.82 प्रतिशत मतदान हुआ, जो 15वीं लोकसभा में भी सर्वाधिक
89.99 प्रतिशत के साथ पहले पायदान पर था। सबसे कम मतदान जम्मू-कश्मीर में 49.52 प्रतिशत रहा, जबकि 50 और 60 प्रतिशत के बीच बिहार व उत्तर प्रदेश ही रहे, जिनमें क्रमश: 56.58 व 58.35 प्रतिशत ईवीएम के बटन दबे। शेष सभी राज्यों का मतदान प्रतिशत 60 प्रतिशत से अधिक हुआ है। अस्सी प्रतिशत से ज्यादा मतदान वाले राज्यों में नागालैंड के अलावा दार नागर हवेली में 84.06 प्रतिशत, लक्ष्यद्वीप में 86.61 प्रतिशत, पुडुचेरी में 82.10 प्रतिशत, सिक्किम में 83.37 प्रतिशत, त्रिपुरा में 84.72 प्रतिशत व पश्चिम बंगाल में 82.16 प्रतिशत मतदान हुआ। जहां तक 15वीं लोकसभा का सवाल है उनमें पिछले आम चुनाव में बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मात्र 47.78 प्रतिशत और बिहार में 44.46 प्रतिशत मतदान दर्ज कर पाए थे। हालांकि न्यूनतम जम्मू एवं कश्मीर में 39.68 प्रतिशत मतदान था जिसमें इस बार कुछ बढ़ोतरी हुई है। बड़े राज्यों में गुजरात में इस बार पिछले चुनाव के 47.9 प्रतिशत से बढ़कर 63.60 प्रतिशत का मतदान दर्ज हुआ, जबकि भाजपा शासित राजस्थान ने भी पिछले चुनाव के 48.4 प्रतिशत से छलांग लगाकर इस बार 63.09 फिसदी पहुंचा। यदि लोकसभा सीटों के हिसाब से देखा जाए तो असम की धुबरी लोकसभा सीट पर सबसे ज्यादा 88.22 प्रतिशत मतदान हुआ, तो सबसे न्यूनतम 25.90 प्रतिशत मतदान जेएंडके की श्रीनगर सीट पर हुआ।
निर्दलीयों पर नहीं जताया भरोसा
सोलहवीं लोकसभा में मतदाताओं ने निर्दलीय प्रत्याशियों पर ज्यादा भरोसा नहीं जताया है। नतीजन इस बार 3234 आजाद उम्मीदवारों में से केवल तीन निर्दलीय सांसद निर्वाचित होकर लोकसभा में आए हैं, जो आजादी से अभी तक के चुनावों में सबसे कम होने का रिकार्ड है। पिछले चुनाव में 3831 निर्दलयों ने किस्मत आजमाई थी और नौ का सितारा बुलंद हुआ था। अभी तक के चुनावी इतिहास में सर्वाधिक 42 निर्दलीय सांसद दूसरी लोकसभा के लिए 1957 के चुनाव में जीतकर आए थे। दसवीं लोकसभा से अब तक निर्दलीय दहाई का अंक हासिल नहीं कर पाए हैं।
नहीं टूटा प्रत्याशियों का रिकार्ड
लोकसभा चुनावों में अपनी किस्मत आजमाने वाले उम्मीदवारों का हालांकि आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। इस बार चुनाव मैदान में 8251 प्रत्याशी थे, जबकि पिछले चुनाव में 8070 उम्मीदवार चुनाव लड़े थे। भारतीय चुनावी इतिहास में सर्वाधिक 13952 उम्मीदवारों ने ग्यारहवीं लोकसभा के लिए 1996 में हुए चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई थी, जो अभी एक रिकार्ड बना हुआ है। चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो 1952 में जहां 489 सीटों के लिए 1874 उम्मीदवार थे, वहीं 1971 में उम्मीदवारों की संख्या बढ़कर 2784 हो गई। 1980 के चुनावों में उम्मीदवारों की संख्या बढकर 4629 हो गयी। नवें आम चुनाव में 6160 उम्मीदवार मैदान में थे, वहीं 10वें आम चुनाव में 543 सीटों के लिए 8668 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। जबकि 12वीं लोकसभा में उम्मीदवारों की संख्या भारी तौर पर घटकर 4750 थी।
464 दलों ने लड़ा चुनाव, 36 जीते
सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में इस बार छह राष्ट्रीय व 39 क्षेत्रीय समेत पंजीकृत 464 दलों के प्रत्याशियों ने किस्मत आजमाई, लेकिन 36 दलों के प्रत्याशी ही लोकसभा में दाखिल हुए हैं। जबकि चुनाव आयोग में छह राष्ट्रीय व 47 क्षेत्रीय दलों समेत पंजीकृत 1687 दल चुनाव लड़ने के लिए अधिकृत थे। पिछले चुनाव में सात राष्ट्रीय व 34 क्षेत्रीय दलों समेत 363 दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया था।
22May-2014

बुधवार, 21 मई 2014

मोदी की जादूगरी: नमो के सामने विपक्षी हो गए बेदम!

कम वोट पर बहुमत हासिल कर भाजपा ने रचा इतिहास
ओ.पी.पाल

सोलहवीं लोकसभा में देश के सियासी इतिहास में नए ऐतिहासिक पन्ने जोड़ती कई दिलचस्प तस्त्वीरें उभरकर सामने आई हैं। आजादी के इतिहास में कम वोट लेने के बावजूद बहुमत के साथ 282 सीटे हासिल करके भाजपा ने एक नया इतिहास रचा है, इससे पहले कभी 1967 में कांगे्रस ने महज 40.8 प्रतिशत वोट पर 283 सीटे लेकर बहुमत हासिल किया था।
देश की बदलती सियासत में इस बार के आम चुनाव में कई दिलचस्प तस्वीर देखने को मिल रही है, जिसमें सत्ता संभालने जा रही भाजपा ने 283 सीटों पर परचम लहराकर बहुमत हासिल किया है, लेकिन अब तक के चुनावी इतिहास में बहुमत हासिल करने वाली भाजपा ऐसी पार्टी बन गई है, जिसे वोट महज 31 प्रतिशत मिला है। इससे पहले इस फेहरिस्त में कांग्रेस भी जिसने 1967 के लोकसभा चुनाव में 40.8 प्रतिशत वोट लेकर बहुमत हासिल करते हुए 283 सीटों पर कब्जा किया था, लेकिन उस समय लोकसभा में 520 ही सीटें थी। मसलन इस बार वोट प्रतिशत का आंकड़ा इस बात का गवाह बन रहा है कि विभिन्न पार्टियों के बीच वोटों की बंदरबांट किस कदर हुई और ऐसे में भाजपा एक तिहाई से कम 31 फीसदी वोट पाने के बावजूद बहुमत के 272 के  आंकड़े को पार कर 282 सीटों पर जीतकर आई। इसके लिए भाजपा को कुल वैध मतों के 31 प्रतिशत वोट ही मिले। राजनीतिकारों इसे इस नजरिए से समझ रहे हैं कि 10 में से चार वोटरों ने भी भाजपा के पक्ष में वोट नहीं दिया। जबकि 2009 के चुनाव में भजापा को 18.5 प्रतिशत वोट मिला था और उसके हिस्से में 116 सीटों की जीत आई थी। यह कांग्रेस की खराब किस्मत का तकाजा ही रहा कि वह 19.3 फीसदी के बाद 44 सीट पर ही सिमट गई यानि कांग्रेस को वोट देने वाले वोटरों की तादात भाजपा से भी कम रही। वैसे भाजपा और कांग्रेस को इस बार मिले वोटों पर नजर डालें तो देश के आधे से कुछ ज्यादा वोटरों ने इन दोनों पार्टियों को वोट दिया और बाकी वैध वोट में अन्य सभी दल सिमट गये। वोट प्रतिशत के मामले में इस बार बसपा 4.1 प्रतिशत वोट हासिल करके तीसरे पायदान पर रही, लेकिन लोकसभा में उसे एक सीट पर भी जीत का स्वाद नहीं मिल सका। इसके बाद तृणमूल कांग्रेस को 3.8, सपा को 3.4, अन्नाद्रमुक को 3.3, सीपीएम को 3.2 और निर्दलयों को तीन प्रतिशत वोट हासिल हुआ। बाकी सभी 29 दलों का वोट प्रतिशत तीन से कम ही रहा।
गठबंधन में भी राजग आगे
इस बार लोकसभा के चुनाव में यदि कांग्रेसनीत यूपीए और भाजपानीत राजग के वोटों को देखा जाए तो भी राजग को 38.5 और यूपीए को करीब 23 प्रतिशत वोट हासिल हुए। इन दोनों गठजोड़ को को मिला दिया जाए तो शेष करीब 39 प्रतिशत वोट यानि राजग को मिले मतों के बराबर में अन्य सभी पार्टियां सिमट कर रह गई हैं। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में राजग को मिले 38.5 प्रतिशत वोट किसी सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन को मिले सबसे कम वोट नहीं है इससे पहले कांग्रेसनीत यूपीए-1 को 2004 के चुनाव में 35.9 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे और केंद्र में सरकार बनाई थी। 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन को करीब 36 प्रतिशत से कुछ कम वोटों के साथ 220 सीटें मिली थीं, लेकिन यूपीए को सपा, वामदल और पीडीपी जैसे दलों का बाहर से समर्थन मिला था। इससे पहले 991 में पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार के लिए कांग्रेस को 38.2 प्रतिशत वोट मिले थे।
21May-2014

मंगलवार, 20 मई 2014

रावत की कवायद के बावजूद संकट में उत्तराखंड सरकार

कांग्रेस की जारी गुटबाजी का फायदा उठा सकती है भाजपा
ओ.पी.पाल

लोकसभा चुनाव के नतीजों ने जिस प्रकार से कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों को हलकान कर दिया है, उसमें बिहार का सियासी घमासान अभी थमा नहीं है,लेकिन पहले से ही भाजपा के निशाने पर रहे उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार संकट में नजर आ रही है, भले ही मुख्यमंत्री हरीश रावत मंत्रिमंडल में संतुलन बनाने की कवायद को बचाव का हथियार मान कर चल रहे हों।
लोकसभा के चुनाव में मोदी की सुनामी का असर उत्तराखंड में भी साफ दिखने लगा है। सोमवार को दूसरे दलों की बैशाखी पर टिकी उत्तराखंड सरकार में संतुलन बनाने की कवायद में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने मंत्रिमंडल में फेरबदल करके कुछ ऐसे विधायकों को लालबत्ती थमाई जिन्हें वह अपने लिए खतरे की घंटी मानकर चल रहे थे। जबकि उत्तराखंड सरकार पर तो उसी दिन संकट के बादल छा गये थे, जब लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तराखंड में अपना सियासी वजूद रखने वाले कांग्रेस सांसद सतपाल महाराज ने भाजपा का दामन थामा और भाजपा को सूबे में कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने का मौका दिया,जिसका परिणाम यह हुआ कि पांचों लोकसभा सीटों पर भाजपा का परचम लहराता नजर आया। पहले से पार्टी में चल रही गुटबाजी क चलते सूबे में कांग्रेस की एक भी सीट बचाने में नाकाम रहे कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री हरीश रावत अपनी नैतिक जिम्मेदारी तो क्या लेते उल्टे संकट के द्वार जाती दिख रही कांग्रेस सरकार को बचाने की एक कवायद की, लेकिन भाजपा के पाले में गये सतपाल महाराज की पत्नी श्रीमती अमृता रावत को मंत्रिमंडल से बाहर करके एक बड़ा जोखिम भी ले लिया। मसलन सतपाल महाराज के साथ कम से कम उनकी पत्नी समेत आधा दर्जन से ज्यादा कांग्रेस विधायक अभी भी एकमुस्त खड़े हुए हैं। ऐसे में नहीं लगता कि हरीश रावत की यह कवायद उनकी सरकार के संकट को टाल गई हो। जहां तक सूबे में दलीय स्थिति का सवाल है उसमें भाजपा व कांग्रेस के विधायकों के संख्या बल में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। मसलन उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों में कांग्रेस के 32 विधायक हैं, तो रमेश पोखरियाल के हरिद्वार से संसदीय चुनाव जीतने के बाद फिलहाल भाजपा के अब घटकर 30 विधायक रह गये हैं। कांग्रेस की सरकार यूकेडी, पीडीएफ और बसपा के सात विधायकों के समर्थन का ही सहारा है। यदि सतपाल महाराज के भाजपा में जाने की खुन्नस में उनकी पत्नी को मंत्रिमंडल से बाहर करके तीन नाराज विधायकों को लालबत्ती दे दी है। इसके बावजूद भी निर्दलीयों और छोटी पार्टियों के समर्थन से सरकार चला रहे हरीश रावत सरकार संकट से कतई बाहर नहीं है, हालांकि हरीश रावत ऐसी संभावना से इंकार कर रहे हैं।
महंगी पड़ सकती है सियासी खुन्नस
राजनीतिक विशेषज्ञों की माने तो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत का अपने मंत्रिमंडल से सतपाल महाराज की पत्नी अमृता रावत को बर्खास्त करने का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। पहले से सतपाल महाराज को अपने खेमे में लेकर भाजपा की नजर उत्तराखंड में फेरबदल करने पर है, जो लोकसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार कर रही थी। सूबे में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने पर भाजपा ने नैतिक जिम्मेदारी की नसीहत देते हुए हरीश रावत को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की मांग उठाई थी, जिनके साथ अमृता रावत ने भी सुर में सुर मिलाकर लोकसभा चुनाव में कांगे्रस को मिली करारी हार के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत को जिम्मेदार ठहराया था। उसी खुन्नस में हरीश रावत ने अमृता को पदमुक्त कर दिया है। अमृता रावत के तेवर अभी भी हरीश रावत के लिए बागी हैं और कहती हैं कि नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा देना चाहिए था, लेकिन उन्होंने इसके बजाय एक महिला को बर्खास्त कर दिया।
भाजपा करेगी उलटफेर
उत्तराखंड की सियासत में पैर जमाने के लिए सक्रिय हुई भाजपा केंद्र में मोदी की सरकार का गठन होने के बाद उत्तराखंड में उलटफेर कर सकती है। ऐसी संभावनाएं राजनीति के जानकार भी जता रहे हैं, जिनका मानना है कि सूबे में भाजपा का परचम लहराने में सतपाल महाराज की भूमिका को टाला नहीं जा सकता, जिनके कांग्रेसी समर्थक भी अंदरखाने उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर जुटे रहे। भाजपा ने यदि उत्तराखंड में उलटफेर करने की रणनीति बनाई तो हरीश रावत सरकार का बचना मुश्किल होगा। इसका कारण है कि सतपाल महाराज के खेमे में अभी भी आधा दर्जन से कांग्रेस विधायक उनके पक्ष में खड़े हो सकते हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों की माने तो भाजपा यदि ऐसा उलटफेर करने में कामयाब रही तो उत्तराखंड की सरकार का नेतृत्व सतपाल महाराज को भी सौंपा जा सकता है। हालांकि यह भी भविष्य के गर्भ में हैं।
20May-2014

सोमवार, 19 मई 2014

लोकसभा में दिखेगा दागियों का वर्चस्व !

संसद के इतिहास में पहली बार बढ़ा दागियों का आंकड़ा
1398 ने आजमाई थी किस्मत, 186 का बुलंद हुआ सितारा
ओ.पी.पाल

देश की राजनीति पर आपराधीकरण किस तरह हावी है यह सोलहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी सामने आ गया। मसलन इस बार लोकसभा में दागियों की संख्या संसदीय इतिहास में अपने चरम पर है। इस बार लोकसभा में निर्वाचित होकर आए 186 यानि 34 प्रतिशत सांसदों का आंकड़ा एक रिकार्ड बनता नजर आया, जिसमें सर्वाधिक 98 भाजपा के सांसद शामिल हैं।
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में 543 सीटों के लिए हुए चुनाव में 8230 प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आजमाई, जिसमें 1398 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले लंबित थे। चुनाव आयोग की कवायद में सहयोग करती आ रही गैर सरकारी संस्थाएं नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने हर चरण में प्रत्याशियों के शपथपत्रों को खंगालकर उनके बारे में तथ्य उजागर किये। इस बार चुनाव मैदान में उतरे 1398 दागियों में से 543 सीटों में से 186 दागी लोकसभा में दाखिल हो चुके हैं, जबकि 15वीं लोकसभा में यह संख्या 158 थी, जिनमें 77 सांसद ऐसे थे, जिनके खिलाफ हत्या,हत्या का प्रयास, लूट, अपहरण, बलात्कार और सांप्रदायिक अशांति जैसे संगीन मामले लंबित थे। इस बार निर्वाचित 186 दागियों में ऐसे संगीन मामलों में संलिप्त आरोपियों की संख्या भी बढ़कर 112 हो गई है। इन चुनाव में भाजपा ने पूर्ण बहुमत से आगे 282 सीटें जीती हैं, जिनमें से 98 यानि 35 फिसदी नवनिर्वाचित सांसदों पर आपराधिक दाग है, इनमें भी सर्वाधिक 63 के खिलाफ संगीन मामले लंबित हैं। दूसरे पायदान पर दागी सांसदों में राजग घटक के ही शिवसेना के हैं जिनके 18 सांसदों में 15 यानि 83 फिसदी दागी है और उनमें भी आठ के खिलाफ संगीन मामले लंबित हैं। उसके बाद कांग्रेस तीसरे पायदान पर है भले ही वह विपक्षी होने का भी आंकड़ा पूरा न कर पाई हो, लेकिन कांग्रेस के 44 में से दागी सांसद लोकसभा में पहुंचे हैं, जिनमें तीन के खिलाफ संगीन मामले लंबित हैं। तृणमूल कांग्रेस के 34 सांसदों में से सात पर आपराधिक दाग है, जिनमें चार के खिलाफ संगीन धाराओं के मामले लंबित चल रहे हैं। अन्नाद्रमुक के 37 में से छह दागी हैं और उनमें तीन के खिलाफ संगीन अपराध करने का आरोप है।
नौ हत्यारोपी भी पहुंचे लोकसभा
सोलहवीं लोकसभा में निर्वाचित होकर पहुंÞचे 186 दागियों में 112 के खिलाफ संगीन अपराध करने के मामले लंबित हैं। इनमें नौ के खिलाफ हत्या के मामले लंबित हैं, जिसमें चार भाजपा और एक-एक कांग्रेस, लोजपा, राजद, स्वाभिमान पक्ष व निर्दलीय सांसद शामिल है। हत्या का प्रयास करने वाले 17 सांसद भी लोकसभा में दाखिल हुए हैं, जिसमें दस भाजपा, दो तृणमूल कांग्रेस के अलावा एक-एक कांग्रेस, राकांपा, राजद, शिवसेना व स्वाभिमान पक्ष का जनप्रतिनिधि शामिल है। महिलाओं के खिलाफ मामलों में आरोपित केरला से निर्दलीय रूप से निर्वाचित जॉएस जार्ज तथा महाराष्ष्टÑ की चन्द्रपुर सीट से भाजपा के अहीर हंसराज गंगाराम भी लोकसभा में नजर आएंगे। लूट व डकैती के मामलों में आरोपी दस सांसद भी संसद में दाखिल हुए हैं, जिसमें सात भाजपा, एक-एक राजद, निर्दलीय व स्वाभिमान पक्ष का सांसद शामिल है। सात नवनिर्वाचित सांसद अपहरण करने के आरोपी हैं जिनमें तीन भाजपा तथा एक-एक तृणमूल कांग्रेस, लोजपा, राजद व निर्दलीय शामिल है। सांप्रदायिकता अशांति फैलाने के आरोप में जिन निर्वाचित सांसदों के खिलाफ अदालतों में मामले लंबित है उनकी संख्या 16 है जिसमें 12 भाजपा तथा एक-एक टीआरएस, पीएमके, एआईयूडीएफ व आल इंडिया मजलिस-एक मुस्लिम का सांसद सदन में नजर आएगा।
कुबेरो से चहकेगी लोकसभा
लोकसभा में इस बार करोड़पति सांसदों की भरमार है। मसलन 543 में 442 सांसद करोड़पतियों की फेहरिस्त में शामिल है। जबकि सोलहवीं लोकसभा में 2208 धनकुबेरों ने अपनी किस्मत आजमाई थी। 15वीं लोकसभा में करोड़पति सांसदों की संख्या 300 थी। धनकुबेर सांसदों में भी भाजपा ने ही बाजी मारी है, जिसके 282 में से 237 करोड़पति सांसद निर्वाचित होकर आए हैं। जबकि कांग्रेस के 44 में 35, अन्नाद्रमुक के 37 में 29 तथा तृणमूल के 34 में 21 सांसद कुबरों की फेहरिस्त में शामिल हैं।
75 फीसदी स्नातक
सोलहवीं लोकसभा में चुने गए लगभग 75 फीसदी सांसदों के पास कम से कम स्नातक की डिग्री है जबकि 10 फीसदी सांसद सिर्फ दसवीं पास हैं। यह संख्या 15वीं लोकसभा से कुछ कम है क्योंकि उसमें 79 फीसदी सांसदों के पास स्नातक की डिग्री थी। हालांकि दसवीं तक पढ़े हुए सांसदों की संख्या 17 से घटकर महज 10 फीसदी रह गई है। डॉक्टरेट डिग्री वाले सांसदों की संख्या इस दोगुना यानि 6 फीसदी हो गई है। दिलचस्प बात यह है कि जो 10वीं पास नहीं हैं, उनकी संख्या में भी इस बार तीन फिसदी से बढ़कर 13 फीसदी पहुंच गई है।
ग्लैमर का रूतबा भी बढ़ा
लोकसभा चुनाव इस बार लोकसभा में रूपहले पर्दे व संगीत जगत की कई हस्तियां भी दिखाई देंगी, जिनमें ड्रीमगर्ल हेमा मालिनी, मुन मुन सेन, किरण खेर, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, मनोज तिवारी, परेश रावल, बाबुल सुप्रियो प्रमुख रूप से शामिल हैं। इनके अलावा बांग्ला फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्रियों ने भी संसद में उपस्थिति दर्ज कराई है, जिनमें दीपक अधिकारी ऊर्फ देव, शताब्दी रॉय, संध्या रॉय और तापस पाल के साथ ही मलयालम फिल्मों के सितारे इन्नोसेंट ने वाम मोर्चे के समर्थन से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चालाकुडी से चुनाव जीता है।
19May-2014

मोदी की सुनामी में हिले कई सूबाई छत्रप !

बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, हिमाचल पर छाया संकट
ओ.पी.पाल

सोलहवीं लोकसभा चुनाव में तीन दशक बाद किसी एक दल के बहुमत के साथ बनने जा रही सरकार भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की सियासी सुनामी का परिणाम है। मोदी की इस सुनामी में कई राज्यों के क्षेत्रीय दल खासकर जिनका सूपड़ा साफ हो गया है पूरी तरह से हलकान होते दिखाई दे रहे हैं। असम व बिहार के मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया तो कुछ कुंडली जमाए बैठे हुए हैं तो कुछ इस्तीफे की नौटंकी करते नजर आ रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के नतीजों ने इस बार केई सूबों में क्षेत्रीय दलों का सूपड़ा साफ करके उन्हें उनके वजूद का अहसास करा दिया है। इनमें बिहार सबसे ज्यादा सुर्खियों में आया, जहां सत्तारूढ़ दल मात्र दो सीटों पर आकर थमा तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पार्टी की नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगाई की तर्ज पर अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि राजनीतिक जानकार इसका कारण कुछ और ही बता रहे हैं, जिसमें एक कारण प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेन्द्र मोदी से प्रोटोकॉल के कद में नीचे आना भी माना जा रहा है। बहरहाल मोदी की सुनामी से बिहार की सियासत फिलहाल गरम है, जहां भाजपा के विधायक वरिष्ठ नेता सुशील मोदी पिछले सप्ताह ही जदयू के कई दर्जन विधायकों का भाजपा से संपर्क में होने का दावा कर रहे थे। हालांकि रविवार को बिहार मे नीतीश कुमार के इस्तीफे के बाद जदयू विधायक दल की बैठक में नए नेता का चुनाव कर लिया गया है और जदयू के समर्थन में लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राजद के तीन विधायक भी इस्तीफा देकर बिहार की सियासत में बखेड़ा खड़ा कर चुके हैं। राजनीतिक विशेषज्ञ तो यह भी कह रहे हैं कि नीतीश से सबक लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी सपा, उत्तराखंड व हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने पर इन राज्यों की कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हरीश रावत व वीरभद्र सिंह को भी नैतिक जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दे देना चाहिए। झारखंड की सियासत भी हिली हुई है, लेकिन झारखंड में भाजपा के वरिष्ठ नेता रघुवर दास ने स्पष्ट किया है कि भाजपा का फिलहाल झारखंड की हेमंत सोरेन नीत सरकार गिराने का कोई इरादा नहीं है। दास का मानना है कि बेरोकटोक भ्रष्टाचार और खनिजों की लूट तथा सत्तारूढ़ पार्टी के अंदर पनपी गुटबाजी ही सूबे की सरकार गिरने का कारण बन जाएगी। उसके बाद झारखंड में होने वाले चुनावों में भाजपा को सरकार बनाने से कोई नहीं रोक पाएगा।
इस्तीफा देकर लिया वापस
तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक ने जिस प्रकार से लोकसभा में ऐतिहासिक जीत का परचम लहराया है उससे प्रतिद्वंद्वी द्रमुक का इस बार पूरी तरह से सफाया हो गया। यही कारण है कि द्रमुक प्रमुख करूणानिधि ने लोकसभा अभियान की बागडौर अपने बड़े बेटे अलगिरी को नजरअंदाज करके पार्टी में कोषाध्यक्ष पद पर दूसरे बेटे एमके स्टालिन को सौंपी थी, जिसने द्रमुक की हार की जिम्मेदारी लेते हुए पार्टी में सभी पदों से इस्तीफा दिया, लेकिन जब पार्टी से निष्कासित उनके बड़े भाई एमके अलगिरी ने इसे नौटंकी करार दिया तो पार्टी के एक वरिष्ठ नेता दुरई मुरूगन के कहने पर करूणानिधि ने स्टालिन  से इस फैसले को वापस लेने का अनुरोध किया। इस अनुरोध पर स्टालिन ने कुछ घंटों बाद ही अपना फैसला वापस ले लिया।
इन्होंने नहीं मानी नैतिक जिम्मेदारी
उत्तराखंड में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने पर सूबे के भाजपाईयों ने कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री हरीश रावत से इस्तीफा देने की मांग की थी, लेकिन वह लोकसभा चुनाव की घोषणा से कुछ दिन पहले ही मुख्यमंत्री पद पर आए थे, तो उनके ऊपर सूबे में कांगे्रस की पराजय का कोई असर नहीं दिखाई दिया। यही हालत हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का है, जहां भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ करके सभी चार सीटों पर कब्जा जमाया है। वैसे तो जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंसनीत सरकार भी इसी दायरे में हैं जहां अपनी सीटें हारकर नेशनल कांफ्रेंस लोकसभा में अपना वजूद खो चुकी है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुला ने यह कहकर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर दी कि उनकी पार्टी शीघ्र ही सूबे में ऐतिहासिक वापसी करेगी। द्रमुक व नेशनल कांफ्रेंस की तरह पहले ही इस बार बसपा व रालोद भी लोकसभा से पूरी तरह नदारद हो चुकी है।
19May-2014

राग दरबार-काश! बहनजी का भी होता परिवार

बदले बदले नजर आते हैं सरकार
भौंहे चढ़ा व आंखे तरेर कर पत्रकारों को बाइट देने वाले भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के बदले व्यवहार से सभी मीडिया कर्मी हैरत में हैं। 16 मई को जब भाजपा को बड़ी सफलता मिली उसके बावजूद बिहार से आने वाले ये नेताजी बड़ी ही विनम्रता के साथ पत्रकारों के सवालों का जवाब दे रहे थे। सवाल चाहे चुभने वाला रहा हो या टेढ़ा पर नेताजी ने आपा खोए बिना ही सारे सवालों का मुस्कुरा के जवाब दिया। कहां कल तक किसी तीखे सवाल पर बिदक जाते थे और अब इतनी विनम्रता। इससे सभी अचंभे में थे। जहां दो चार पत्रकार खड़े हों वहीं इसकी चर्चा शुरू हो जाए। इतने में महाराष्ट्र से आने वाले एक नेताजी कुछ पत्रकारों से टकरा गए। पत्रकारों ने बातों बातों में उन नेताजी के बदले मिजाज की सराहना तो की ही, कौतूहल वश ये भी पूछ लिया कि आखिर इन नेताजी का मिजाज कैसे बदला? मराठी नेताजी ने जो जवाब दिया उससे माजरा समझ में आ गया। उन्होंने बताया कि जनाब, मोदी जी के मंत्रिमंडल में अपनी मनमाफिक जगह पर फिट होने की फिराक में हैं। सो, किसी से भी आजकल बड़े ही विनम्रता से रूबरू हो रहे हैं। सही बात है..अच्छे दिन ऐसे ही थोड़ा आ सकते हैं।
मैडम का एजेंडा
भाजपा की सुनामी में जीत हासिल करने वाले नेता आला नेताओं के घर पहुंचकर उनका धन्यवाद करने में जुटे हुए हैं। हर किसी की कोशिश है कि वह ज्यादा से ज्यादा बड़े नेताओं से मुलाकात कर उनका आशीष ले सके। इस क्रम में एक महत्वपूर्ण सीट से जीत हासिल करने वाली महिला नेत्री भी हैं। ये नेत्री अध्यक्ष राजनाथ सिंह, वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज समेत कई नेताओं से मिलकर अपनी सफलता के लिए उनका धन्यवाद देने में जुटी हुई हैं। चर्चा है कि मुलाकात के दौैरान वह आला नेताओं से इस बात की चर्चा करना नही भूलती कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए वह एक एजेंडें पर काम कर रही हैं। अपने इस एजेंडें के बारे में उपरी तौर पर चर्चा के बाद वह यह जोड़ना नही भूलती कि, संबंधित मामले का मंत्रालय जिस किसी को भी दिया जाए पर इस एजेंडे पर जरुर फोकस होना चाहिए।. . अब आला नेता तो ये बखूबी समझ रहे हैं कि..उनके सुरक्षा एजेंडें के पीछे का एजेंडा क्या है।
काश! बहनजी का भी होता परिवार
कहते हैं कि मुश्किल घड़ी में हर इंसान अच्छे-बुरे निर्णय को एक बारगी अपनी सोच की तराजू पर जरूर तौलता है। इस सियासत की जंग के नतीजों के बाद चर्चा है कि उत्तर प्रदेश में चली मोदी की सुनामी में बड़े-बड़े सूरमाओं को सियासत के मैदान में धूल चाटनी पड़ी है। यूपी में देश व प्रदेश की राजनीति करने वाले ऐसे दो सियासी घराने ही अपनी लाज बचा सके हैं। इनमें एक गांधी परिवार में कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी अपनी और अपने शहजादे राहुल गांधी की सीट बचा सकी हैं, वहीं दूसरे समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव अपने घराने को इस मोदी सुनामी से सुरक्षित बचाने में सफल रहे, जिसमें उन्होंने अपनी दो सीटों के अलावा पुत्रवधु और दो भतीजों की सीट बचाई है। बाकी सभी राजनीतिक घराने मोदी सुनामी में तबाह हो गये हैं। सबसे बुरा तो बसपा सुप्रीमों मायावती के साथ हुआ, जिनका यूपी से सूपड़ा ही साफ हो गया। अब.. बसपा में अंदरखाने दबी जुबां से ऐसी चर्चा हो रही है कि यदि बहनजी का भी परिवार होता तो शायद बसपा का हाथी जंगल का रूख न करके सूबे में कहीं तो बंधा ही रहता।
केजरी के तीर
आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के बारे में यह सभी जानते हैं कि वे किसी पर भी आरोप मंढने में तनिक भी देर नहीं लगाते। दिल्ली विधानसभा चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक के राजनीतिक सफर में उनके आरोपों की गिनती करना, सिर के बालों को गिनने जैसा है। सियासत के मैदान में न जाने किस-किस नेता और किन-किन दलों पर उन्होंने अपनी पार्टी के खिलाफ मिलीभगत के आरोप लगाए हैं, इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद मोदी की सुनामी न जाने कितनों की सियासत को तबाह कर गई और अब वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। राजनीति के गलियारों में इस बात का इंतजार हैं कि कब अरविंद केजरीवाल का नया आरोप आने वाला है कि पूरे देश की जनता मोदी के साथ मिली हुई है।
घर के रहे न घाट के...
हम तो डुबेंगे के सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे! यह कहावत कांग्रेस-रालोद गठबंधन के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सियासी जंग में सटीक बैठती है। इन दोनों दलों ने एक-दूसरे दलों के सहारे इस इलाके में लोकसभा की सीटें जीतने की रणनीति बनाई। रालोद ने तो कभी सपा में मुलायम के खासमखास रहे अमर सिंह और उनकी सहयोगी जयाप्रदा को भी अपने टिकट पर लड़ाकर सहारा दिया, लेकिन न तो फिल्मी अभिनेत्री जयाप्रदा और न ही कांग्रेस के ग्लैमर में नगमा व राजबब्बर की सियासी जमीन बच पाई। जाट आरक्षण भी रालोद व कांग्रेस की नैया पार नहीं लगा सका, बल्कि मोदी की लहर में आए चुनावी नतीजों में रालोद प्रमुख अजित सिंह अपनी बागपत और अपने बेटे जयंत की मथुरा सीट तक बचाने में नाकाम रहे। 18May-2014
-नेशनल ब्यूरो

रविवार, 18 मई 2014

मोदी की सुनामी में बह गये तीसरे मोर्चे के अरमान!


लोकसभा में विपक्ष की भूमिका रहेगी कमजोर
ओ.पी.पाल

लोकसभा चुनावों से पहले ही भाजपा की ओर से पीएम के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को रोकने के इरादे से गैर भाजपा व गैर कांग्रेस दलों ने एक मंच पर आकर तीसरे मोर्चे की हांडी पकानी शुरू की थी। चुनावों के दौरान बहती मोदी सुनामी में यह ताकतें यहां तक पहुंची कि मोदी को रोकने के लिए भले ही कांग्रेस को समर्थन देने या लेने की जरूरत पडे तो उससे भी कोई परहेज नहीं होगा। चुनाव नतीजों ने ऐसी करवट ली की इन तीसरी तीसरी ताकतों के अरमान मोदी की सुनामी में बहते नजर आए।
संसद के अंतिम सत्र के दौरान ही ग्यारह गैर भाजपा व गैर कांग्रेसी दलों ने तीसरी ताकतों को जोड़ना शुरू किया था तो लग रहा था कि इनमें दम है और इस बार तीसरी ताकत लोकसभा चुनाव में सियासत का रूख बदल सकती हैं, लेकिन करीब 140 सीटों वाले गैर-राजग और गैर-संप्रग दल चुनावी संग्राम में ऐसे खेमें में बंटते दिखे कि उनके बदले कांग्रेस की ओर से तीसरे मोर्चे को समर्थन देने की बात उठने लगी और तीसरी ताकतों में खासकर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यहां तक कहते नजर आए कि तीसरे मोर्च की सरकार के लिए कांग्रेस के समर्थन लेने या उसे समर्थन देने में भी कोई गुरेज नहीं होगा। जैसे ही चुनाव के नतीजे सामने आए तो वामदलों और तीसरे मोर्चे का सिरमौर बनने का प्रयास कर रहे जदयू व सपा महज दो व पांच सीटों पर सिमट गये और वामदल भी दस सीटों तक सीमित हुए। मोदी की सुनामी में भाजपा ही अकेले 282 सीट लेकर आई, जिसके मुकाबले अन्य सभी दल एकजुट होकर नया गठजोड़ भी तैयार कर लें, तो मोदी को रोकना कहीं तक भी संभव नहीं है। पिछली लोकसभा में तीसरे मोर्चा का मंच तैयार करने वाले इन 11 दलों पर नजर डालें तो समाजवादी पार्टी के सर्वाधिक 22, जद-यू के 19, माकपा के 16, बीजद के 14, एडीएमके के 9, भाकपा के 4, आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक के 2, असमगण परिषद,आरएसपी, जद-एस व झारखंड के विकास मोर्चा के एक-एक ही सदस्य थे। इस बार वामदलों के हिस्से में केवल दस सीट ही आई हैं, जबकि बीजद 20 और एडीएमके 37 सीटों पर जीते हैं लेकिन उनकी निगाहें राजग के पाले में आने पर हैं। ऐसे में तीसरे मोर्चे की हवा निकल गई और इन दलों के अरमान धरे के धरे रह गये। वामपंथी दलों की बात करें तो पिछले चुनाव में ये दल 24 के आंकड़े पर थे, लेकिन इस बार आधे से भी कम सीटों पर सिमट गए हैं।
न चुनौती और न दबाव
सोलहवीं लोकसभा में गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस दलों की सियासत उस मुकाम पर पहुंच गई है कि न तो लोकसभा में वामदलों का दबाव होगा और ना ही किसी मोर्चे की चर्चा का कोई नाम लेवा होगा। मसलन सदन में नरेंद्र मोदी सरकार के लिए विपक्ष की चुनौती ही दूर के ढोल सुहावने नजर आने लगे है। यहां तक कि कांग्रेस तो प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में भी कहीं तक नजर नहीं आ रहा है जिसकी दस प्रतिशत यानि 54 सीटें भी सदन में नहीं होगी। कांग्रेस को 44 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है और यदि यूपीए की बात करें तो कुल 58 सीटों पर सिमट गया है। जहां तक क्षेत्रीय दलों का सवाल है उसमें तमिलनाडु में जयललिता की अन्नाद्रमुक जरूर सीटों की संख्या के लिहाज से राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी है, लेकिन वह भी मोदी सरकार से टकराव के बजाय उनके साथ मिलकर ही चलने का संकेत दे रही है। जबकि चौथे नंबर पर ममता बनर्जी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होगी,लेकिन कांग्रेस के साथ उसका पहले से ही छत्तीस का आंकड़ा होगा, तो ऐसे में लोकसभा के भीतर चुनौती की संभावना कम ही रहेगी। बिहार में लालू प्रसाद की राजद को छोड़कर कांग्रेस की ज्यादातर सभी सहयोगी पार्टियां राकांपा भी अब उस स्थिति में नहीं है, जबकि अजित सिंह की रालोद, माया की बसपा, फारूख अब्दुला नेशनल कांफ्रेंस का लोकसभा से वजूद ही खत्म हो गया। इन दलों को आप के चार सदस्यों का सहारा भी लेना पड़े तो सदन में  सरकार को चुनौती देना आसान नहीं होगा।
18May-2014

यूपी: दलित बहुल सीटों पर भी भाजपा का परचम!

मायावती ने भाजपा के सिर फोड़ा ठींकरा
ओ.पी.पाल 
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश की सियासत ने जिस तरह की करवट बदली है उसमें कई अजीबों गरीब  परिस्थितियों ने जन्म लिया है। जात-पांत की सियासत करने वाली बसपा को इस बार मोदी मैजिक के सामने उत्तर प्रदेश की सियासत ने ठेंगा दिखा दिया है, जहां पार्टी की स्थापना के बाद पहली बार बसपा अपना खाता तक नहीं खोल पाई। मसलन इस पर सूबे में चिन्हित अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लिये सभी सुरक्षित 17 सीटों पर भाजपा ने अपना परचम लहराया है।
देश की सबसे ज्यादा 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश जैसे विशाल सूबे में इस बार भाजपा ने जो इतिहास रचा है उससे पहले कभी कांग्रेस ने सभी 85 सीटे जीतकर रचा था। उस समय उत्तराखंड यूपी का ही हिस्सा था। भाजपा ने अपना दल की दो सीटों समेत 73 सीटों पर कब्जा जमाया है। जहां तक सुरक्षित 17 सीटों का सवाल है उ नमें 12 लोकसभा सीटें ही ऐसी रही, जहां दूसरे स्थान पर रही बसपा समेत सभी प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी भाजपा प्रत्याशियों को मीलों दूर नजर आये।राज्य की प्रमुख सुरक्षित सीटों में नगीना, बुलन्दशहर, हाथरस, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशाम्बी,बाराबंकी, बहराइच, बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर और राबर्ट्सगंज शामिल हैं, सभी पर भाजपा का भगवा लहराया है। जबकि पिछले 15वीं लोकसभा के चुनाव में सपा ने इन 17 में से 10 सीटों पर कब्जा किया था। इस बार सोलहवीं लोकसभा में बसपा ने सिर्फ इन्हीं 17 सीटों पर दलितों को टिकट दिये थे और वे सभी मोदी की सुनामी का शिकार होकर परास्त हो गये। जाहिर है कि यूपी में जात-पांत की सीमाएं तोड़कर मतदाताओं ने भाजपा को जनादेश देने का साहस दिखाया।
12 सीटों पर मुकाबले में रही बसपा
यूपी में लोकसभा चुनाव नतीजों पर गौर करें तो इस बार राज्य की सुरक्षित सीटों में से 12 पर बसपा दूसरे नम्बर पर रही, लेकिन मतों के लिहाज से उसके प्रत्याशी भाजपा के उम्मीदवारों के कही तक भी करीब नहीं आ सके। मतों का सबसे कम अंतर लालगंज संसदीय सीट पर रहा, जहां भाजपा प्रत्याशी ने बसपा प्रत्याशी को 63 हजार 86 मतों से हराया। जबकि बुलन्दशहर सीट चार लाख 11 हजार 973, हाथरस सीट तीन लाख 26 हजार 386, आगरा सीट तीन लाख 263, बिजनौर जिले की नगीना सीट 92 हजार 390, शाहजहांपुर सीट दो लाख 35 हजार 529, मिश्रिख सीट 87 हजार 363, मोहनलालगंज सीट एक लाख 45 हजार 416, जालौन सीट दो लाख 87 हजार 202, बांसगांव सीट एक लाख 89 हजार 516, मछलीशहर सीट एक लाख 71 हजार 523, तथा राबर्ट्सगंज लोकसभा सीट पर एक लाख 90 हजार 443 मतों के अंतर से भाजपा प्रत्याशियों ने भगवा झंडा लहराया। हालांकि इन सभी सीटों पर बसपा प्रत्याशी उप विजेता के रूप में सामने आये।
ऐसे बिफरी माया
उत्तर प्रदेश में मोदी की ऐसी लहर चली की बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नसीब नहीं हुई। ये हश्र उस पार्टी के साथ हुआ जो खुद को दलितों और अल्पसंख्यकों की इकलौती हितैषी होने का दावा करती है। पार्टी के सफाए पर खींज उतारने के लिए मायावती ने इस हार का ठींकरा भाजपा के सिर फोड़ने का प्रयास किया और यहां तक कहा कि हथकंडों से भाजपा ने बसपा का सियासी खेल खराब किया है। मायावती शनिवार को लखनऊ में संवाददाता सम्मेलन करके यह कहने से भी परहेज करती नहीं दिखी कि देश की जनता राजग को केंद्र सत्ता देकर पछताएगी। हालांकि मायावती ने बसपा हार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि कांग्रेस के खिलाफ जनता का गुस्सा उनके जैसे दलों को झेलना पड़ा है।
18May-2014

शनिवार, 17 मई 2014

उत्तर प्रदेश: जात-पंथ से ऊपर बस, नमो-नमो !


यादव व गांधी परिवार को मिली सात सीटें
बसपा व रालोद का सूपड़ा साफ
ओ.पी.पाल

केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है, इस तथ्य के आधार पर लोकसभा के चुनाव में सभी राजनीतिक दलों का ध्यान यूपी जैसे सूबे की रणनीति पर केंद्रित रहती हैं। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में इस बार भाजपा की रणनीति के सामने अन्य सभी दल गच्चा खाते नजर आए हैं। मसलन 80 सीटों में से 73 भाजपा-अपना दल के अलावा बाकी सात सीटें कांग्रेस व सपा के परिवार के कब्जे में गई है। जबकि बसपा और रालोद इस बार खाता तक नहीं खोल सकी।
देश में सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में सोलहवीं लोकसभा एक इतिहास के पन्नों में दर्ज हो रही है, जहां पहली बार जातीगत समीकरण की धारणा पूरी तरह से ध्वस्त होती नजर आई है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि इस बार यूपी में नमो-नमो की लहर में मतदाताओं ने जातिय समुदाय से ऊपर उठकर मतदान करके भाजपा के पक्ष में इतिहास रच दिया है। 80 सीटों में से भाजपा ने 71 व उसके सहयोगी दल अपना दल ने दो सीटों पर शानदार परचम लहराया है। बाकी सात सीटों में गांधी परिवार से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को राय बरेली और उनके शहजादे राहुल गांधी को अमेठी में जीत मिल सकी। जबकि पांच सीटों पर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के परिवार का कब्जा रहा है, जिसमें आजमगढ़ व मैनपुरी से स्वयं सपा
प्रमुख मुलायम सिंह यादव, कन्नौज से उनकी पुत्रवधु डिंपल यादव के अलावा फिरोजाबाद व बदांयू से उनके भतीजे अक्षय यादव व धर्मेन्द यादव ने जीत हासिल की है। पिछले चुनाव में यूपी में भाजपा को दस, कांग्रेस व बसपा को 21-21 व सपा को 23 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इस बार के चुनाव नतीजों से साफ जाहिर है कि सूबे में न तो सपा का वाई-एम और न ही बसपा का डी-एम-बी जातीय समीकरण कोई असर नहीं दिखा सका। इसी का परिणाम है कि बसपा का पूरी तरह से सूपड़ा साफ हो गया है। इसी तर्ज पर रालोद का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सियासी गढ़ भी पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है, जिसने कांग्रेस के तालमेल से आठ सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह न तो विरासत में मिली अपनी परंपरागत बागपत सीट ही बचा सके और न ही उनके शहजादे मथुरा सीट को बचा सके। इन सभी सीटों पर भाजपा ने अपना परचम लहराया है। पिछले चुनाव में रालोद ने भाजपा से तालमेल करके पांच सीटें कब्जाई थी, लेकिन इस बार उसे कांग्रेस के साथ चुनाव मैदान में आने का खामियाजा भुगतना पड़ा है। यूपी के चुनावी इतिहास में शायद यह भी पहला मौका है कि इस बार किसी निर्दलीय पर भी किसी ने भरोसा नहीं किया।
धुरंधरों ने मुहं की खाई
यूपीए सरकार में मंत्री पदों पर बैठे दिग्गज के लिए यहां इस बार जीत हासिल करना तो दूर की बात है, उप विजेता भी नहीं रह सके। ऐसे दिग्गजों में केंद्रीय मंत्री रहे बेनी प्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद, आरपीएन सिंह, श्रीप्रकाश जायसवाल, जतिन प्रसाद, प्रदीप जैन आदित्य, चौधरी अजित सिंह के अलावा कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष निर्मल खत्री, पूर्व अध्यक्ष श्रीमती रीता बहुगुणा, कांग्रेस के ही राज बब्बर, रवि किशन, नगमा, रालोद की जया प्रदा व अमर सिंह, सपा के रेवती रमन सिंह, नीरज शेखर, बसपा के दारा सिंह चौहान जैसे कई दर्जन धुरंधरों ने नमो-नमो के सामने मुहं की खाई है।

 लोस में बसपा, द्रमुक, एनसी व आरएलडी का वजूद खत्म
नई दिल्ली। जातिवाद और क्षेत्रवाद की राजनीति करने वाले बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, आरएलडी और द्रविड़ मुनेत्र कषगम का 16वीं लोकसभा में वजूद खत्म हो गया है। लोकसभा के आए नतीजों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यूपीए सरकार के सुख-दुख की साथी रही नेशनल कांफ्रेंस भी अब लोकसभा में नजर नहीं आएगी। नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष और केन्द्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला र्शीनगर से चुनाव हार गए हैं। इसके अलावा पार्टी का कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया। 15वीं लोकसभा में पार्टी के तीन सांसद थे। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से जातिगत राजनीति के सहारे राष्ट्रीय पटल पर छाई बसपा का सूपड़ा साफ हो गया है। वर्तमान लोकसभा में 21 सांसदों वाली बसपा नई लोकसभा में एक सांसद के लिए तरस गई।
17May-2014

तीन दशक बाद टूटा खिचड़ी सरकार का तिलिस्म!

हरिभूमि ब्यूरो 
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा ने स्वयं बहुमत साबित करके पिछले तीस साल से चले आ रहे खिचड़ी सरकार के तिलिस्म को तोड़ दिया है। इससे पहले आठवीं लोकसभा के लिए 1984 में हुए चुनाव में आखिरी बार कांग्रेस पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली पार्टी थी। लेकिन उसके बाद लगातार सात लोकसभा चुनाव में केंद्र में गठबंधन की सरकारें बनती आई हैं।
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस विरोधी और मोदी लहर में भाजपा ने पहली बार 272 प्लस अभियान सफल रहा, जिसके अकेले दल की निर्वाचित सीटों का आंकड़ा बहुमत से ऊपर पहुंच रहा है। हालांकि भाजपा नेतृत्व वाले राजग में तेरह दलों से ज्यादा पार्टियां हैं जिन्हें मोदी मैजिक का सहारा मिला और राजग तीन सौ से ज्यादा सीटे लेकर केंद्र में सरकार बनाने की तैयारी में जुट गया है। इससे पहले आठवीं लोकसभा के लिए 1984 में लोकसभा चुनाव हुए, यह चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी की हत्या के बाद हुए जिसमें कांग्रेस के लिए सहानुभूति की लहर चली और कांग्रेस 415 सीटें लेकर बहुमत से बहुत आगे थी और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। 1984 के चुनावों में 1984 के चुनावों में पहली बार बॉलीवुड के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को कांग्रेस ने इलाहाबाद से टिकट देकर राजनीति को ग्लैमर से जोड़ दिया, जिसके बाद यह ग्लैमर सियासत में सिर चढ़कर बोलने लगा,लेकिन सोलहवीं लोकसभा में फिल्मी हस्तियों का ग्लैमर कांगे्रस या उसके सहयोगी दलों के किसी काम न आ सका। 1984 का यह वही दौर था जब हेमवती बहुगुणा और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गजों को हार का मुहं देखना पड़ा था। 1984 के चुनाव में ही सर्वाधिक 64 प्रतिशत मतदान ने पिछले रिकार्ड ध्वस्त हुए थे और सर्वाधिक 42 महिलाएं लोकसभा में दाखिल हुई थी, लेकिन महिलाओं के लोकसभा में आने का रिकार्ड तो 15 लोकसभा में ही टूट चुका है, जहां 62 महिलाएं निर्वाचित हुई थी। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में तीन दशक पहले 1984 में बने 64 फीसदी मतदान प्रतिशत के रिकार्ड भी ध्वस्त हुआ है, जहां 66 प्रतिशत मतदान रिकार्ड किया गया।
पिछले सात चुनाव पर एक नजर
1984 के चुनाव के बाद सात लोकसभा चुनाव हुए हैं, जिसमें कोई भी एक दल बहुमत के आंकड़े को नहीं छू सकी और गठबंधन की सरकारों को दौर नौवीं लोकसभा के चुनाव से ही शुरू हो गया था। 1989 में नौवीं लोकसभा में कांग्रेस को 197, जनता दल को 143 व भाजपा को 85 सीटें मिली थी। दसवीं लोकसभा के लिए 1991 में हुए चुनाव में कांग्रेस232, भाजपा को 141, जनता दल को 59 सीटों पर सब्र करना पड़ा था। ग्यारवीं लोकसभा के 1996 में हुए चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसे 161 सीटें मिली, जबकि कांग्रेस को 140 व जनता दल को 46 सीटे मिली। 1998 में भाजपा को 182, कांग्रेस को 141, सीपीआईएम को 32 सीटें प्राप्त हुई थी। तेरहवीं लोकसभा के लिए 1999 में भाजपा ने फिर 182, कांग्रेस ने 114 व वामदलों ने 33 सीटे हासिल की। जबकि 14वीं लोकसभा के 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने 145, भाजपा ने 138, व वामदलों ने 43 सीटे जीती। 15वीं लोकसभा में कांग्रेस 206 भाजपा 116, सपा 23, बसपा 21, जदयू 20, टीएमसी 19 सीटों पर विजयी रही। तीन दशकों से सात चुनावों में किसी भी एक दल बहुमत तक नहीं पहुंच सका, जिसका तिलिस्म सोलवीं लोकसभा में भाजपा ने तोड़ा है।
17May-2014

बुधवार, 14 मई 2014

लोकसभा चुनाव: दागियों व कुबेरों के सामने हाशिए पर महिलाएं!

महिलाओं के सम्मान व उत्थान पर खूब चली नेताओं की जुबां
ओ.पी.पाल

देश में सोलहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान सभी राजनीतिक दल महिलाओं के सम्मान और उनके उत्थान की बात तो करते नजर आएं, लेकिन संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व देने से खूब परहेज किया, जबकि दागियों और करोड़पतियों को सभी दलों ने जमकर भरोसा जताया है। मसलन इस सियासी दंगल में जहां 17 प्रतिशत दागियों और 27 प्रतिशत करोड़पतियों ने दांव आजमाया है, वहीं महिला उम्मीदवारों की संख्या मात्र 8 फीसदी ही रही है।
लोकसभा की 543 सीटों के लिए हुए चुनाव में उतरे कुल 8230 उम्मीदवारों में जहां इंफोसिस के पूर्व सीईओ और विशिष्ट पहचान पत्र प्राधिकरण के अध्यक्ष, फिल्मी हस्तियों, क्रिकेटरों, ज्योतिषियों, कहानीकारों, क्रांतिकारी के अलावा भिखारियों व किन्नरों ने भी सियासी पारी खेली है, वहीं इस बार शिक्षा जगत, इंजीनियरों, रियल एस्टेट, वकीलों, चिकित्सकों, वैज्ञानिकों, सोशल वर्करों और मूल खेतीबाड़ी से जुड़े उम्मीदवारों की कमी देखी गई है। अब बात की जाए महिलाओं की, जिसके लिए संसद और विधानसभाओं में केंद्र सरकार पिछले कई दशकों से महिला आरक्षण बिल तक पारित नहीं कर सकी हैं,लेकिन महिलाओं को सामाजिक और राजनितिक के अलावा अन्य क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी देने की बात करने वाला कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है, लेकिन जब संसद में प्रतिनिधित्व की देने की बारी यानि चुनाव आते हैं तो उसमें महिलाओं को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया जाता है। देश की इस सियासत की दिशा को देखा जाए तो 16वीं लोकसभा में मात्र आठ प्रतिशत यानि 631 महिलाओं को ही चुनाव लड़ाया गया है। जबकि सभी राजनीतिक दलों ने दागियों व करोड़पतियों पर बेतहाशा भरोसा किया है। भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, जदयू जैसे सभी प्रमुख दलों के नेताओं ने चुनावी सभाओं में महिलाओं, युवाओं, किसानों और कमजोर वर्गो के उत्थान की जुबान बोलने में कोई कमी नहीं छोड़ी, लेकिन चुनाव लड़ाने के लिए सभी दलों ने दागियों व करोड़पतियों पर पूरा भरोसा किया। यही कारण है कि इस बार दागी उम्मीदवारों के सियासी जंग में आने का पिछला सभी रिकार्ड ध्वस्त हो गया है। दागियों व करोड़पतियों को सियासी जंग में लाने में भाजपा, कांगे्रस, बसपा, सपा, आप, तृणमूल, वामदल, जदयू जैसे प्रमुख दलों ने ही ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है।
2009 में जीती सर्वाधिक महिलाएं
वर्ष 2009 के आम चुनाव में 556 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था और 62 यानि11.41 प्रतिशत ही सदन में उनका प्रतिनिधित्व था। लोकसभा में महिला सांसदों की यह संख्या आजादी के बाद सर्वाधिक थी। जबकि महिला आरक्षण में 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन राजनीति में इससे ज्यादा महिलाओं को टिकट दिया जाए, तभी सदन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ना संभव है। 15वीं लोकसभा में जीतकर आई 62 महिलाओं में से भाजपा व कांग्रेस की 13-13 सांसद थी, जिन्होंने क्रमश: 44 व 43 महिलाओं को टिकट थमाए थे। महिलाओं के अलावा 15वीं लोकसभा चुनाव में 29 उद्यमी, आठ मीडियाकर्मी, 20 चिकित्सक, आठ प्रोफेसर, 13 लेखक, 18 अध्यापक, सात खिलाड़ी, चार ट्रांसपोर्टर जैसे पेशे से जुड़े सांसद भी मौजूद रहे।
खेती-किसानी उम्मीदवार टॉप पर
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में ऐसे उम्मीदवारों की भरमार है जिनके पास खेती की जमीन है और वे पेशे से किसान कहलाते हैं, लेकिन राजनीति करना उनकी वरीयता पर है। ऐसे सांसद पिछले चुनाव में भी सर्वाधिक 214 यानि 39.41 प्रतिशत जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे, जबकि इस बार 23.25 प्रतिशत अपनी किस्मत ईवीएम में कैद करा चुके हैं। लेकिन खेती करने वाले जहां पिछले चुनाव में 25 सांसद बने थे, तो इस बार केवल 2.92 प्रतिशत ही अपनी किस्मत आजमाने आए हैं। जहां पेशेवर राजनीतिज्ञों की संख्या मात्र चार प्रतिशत ही है, तो इस चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या 8 प्रतिशत ही है। जबकि कृषक व राजनीति के इन सूरमाओं के बाद इस बार उद्यमी उम्मीदवारों की संख्या 18.3 प्रतिशत, जो पिछली लोकसभा में 16.39 यानि 89 सांसद के रूप में दाखिल हुए थे। इन चुनावों में सेवानिवृत्ति के बाद 7.15 नौकराशाहों ने भी दांव आजमाया है। पिछली लोकसभा में 73 वकील सांसद थे, लेकिन इस बार वकीलों ने सियासी जंग में 6.65 प्रतिशत की संख्या में ही नजर आए। इस बार सियासी दंगल में 9.35 सोशल वर्करों, 2.92 शिक्षाविदों, 1.21 रियल एस्टेट से जुड़े उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में कैद है। प्राइवेट नौकरी करने वाले 5.27 प्रतिशत उम्मीदवारों क अलावा 1.27 प्रतिशत मीडियाकर्मी, 2.17 चिकित्सक, 1.05 बेरोजगार व 0.31 प्रतिशत छात्र भी इस बार सियासी जंग में किस्मत आजमा चुके हैं। दिलचस्प बात है कि इस बार जहां बड़े से बडेÞ उद्यमी सियासत के मैदान में हैं तो वहीं छोटे व्यापरी और यहां तक कि टायर पंचर की दुकानों और सब्जी बेचने वाले भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। ऐसे उम्मीदवारों की संख्यया 3.91 प्रतिशत है।
14May-2014

मंगलवार, 13 मई 2014

लोकसभा चुनाव के दौरान दर्ज हुए 20350 मुकदमें

चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन 7708 मामले दर्ज
पांच सौ करोड़ से ज्यादा जब्त हुई नकदी
करोड़ों लीटर मादक पदार्थ भी पकड़े गये
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली

निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव के दौरान निष्पक्ष चुनाव कराने की दिशा में चलाए गये अभियान के कारण इस बाद आचार संहिता उल्लंघन समेत 20350 मुकदमें दर्ज हुए हैं, जिनमें 13642 मुकदमें नकदी, हथियार व मादक पदार्थ बरामद होने के शामिल हैं। इस बाद आयोग ने कालेधन के उपयोग को रोकने के लिए चलाए गये अभियान के दौरान पांच सौ करोड़ से ज्यादा नकदी बरामद करने का भी दावा किया है।
वाराणसी में सोमवार को अंतिम चरण के मतदान के दौरान कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने का यह 7708 वीं एफआईआर थी। इसके अलावा केंद्रीय चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 13642 मामले कालेधन,हथियार, शराब, हेरोईन और अन्य मादक पदार्थो से संबन्धित दर्ज किये गये। लोकसभा चुनाव के दौरान आयोग ने राजनीतिक दलों पर निष्पक्ष चुनाव कराने के इरादे से जिस तरह से शिकंजा कसने के लिए राजस्व विभाग, आयकर विभाग, सतर्कता विभाग के अधिकारियों का एक बोर्ड गठित करके उड़न दस्ते तैयार किये और और अभियान को दिशा दी तो, पांच सौ करोड़ की नकदी भी बरामद की गई। इस दौरान चुनाव आयोग के छापामार व तलाशीमार दलों ने करीब 571 करोड़ रुपये की नकदी जब्त की है, जिसका उपयोग चुनाव के दौरान किया जाना था। इसमें सबसे ज्यादा 153 करोड़ की नकदी आंध्र प्रदेश से जब्त की गई, जबकि कर्नाटक से 28.11 करोड़, महाराष्टÑ से 25.67 करोड़, तमिलनाडु से 25.05 करोड़, उत्तर प्रदेश से 24.7 करोड़ तथा पंजाब से 12.99 करोड़ की नकदी जब्त की गई है। इसके अलावा अन्य राज्यों से भी इसी प्रकार की नकदी को जब्त किया गया है। इन मामलों में कुछ लोग गिरफ्तार भी किये गये। चुनाव आयोग के अनुसार नकदी बरामदगी का मामला अभी अनसुलझा है जिसका यह पता लगाया जा रहा है कि कालाधन किस-किस राजनीतिक दल का है।
नशा भी चुनावी हथकंडा
आयोग के सूत्रों ने बताया कि अभी तक चुनाव के दौरान जहां 132 लाख लीटर अंग्रेजी व देशी शराब पकड़ी जा चुकी है। इस मामले में भी आंध्र प्रदेश अव्वल है, जहां 1.40 लाख लीटर शराब पकड़ी जा चुकी है, जबकि गुजरात में 11.32 लाख, पश्चिम बंगाल में 8.25 लाख, पंजाब में 11.50 लाख व उत्तर प्रदेश में 7.25 लाख लीटर शराब पकड़ी जा चुकी है। अंतिम चरण के चुनाव तक आयोग 1.39 लाख किलोग्राम हेरोइन जैसे मादक पदार्थ भी बरामद कर चुका है। इसमें सबसे ज्यादा यूपी से 24 हजार किलोग्राम व राजस्थान से दस हजार किलोग्राम शामिल है। इसयही नहीं चुनाव में धनबल के अलावा बाहुबल का प्रयोग भी काबू में नहीं है, जिसके तहत चैंकिंग के दौरान आयोग द्वारा गठित दलों ने पुलिस बलों की मदद से भारी मात्रा में हथियार व कारतूस के अलावा बम भी बरामद किये हैं।
चुनाव आयोग भी हैरान
चुनाव आयोग के एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर हरिभूमि को बताया कि चुनावों में काले धन और शराब का इस्तेमाल पहले भी जमकर होता रहा है, लेकिन इतनी बड़ी मात्रा में ड्रग्स पकड़ी जाने से चुनाव आयोग भी हैरान है। इस अधिकारी की माने तो पकड़ी गई ड्रग्स में हेरोइन, अफीम,हशीश, गांजा और केमिकल ड्रग्स शामिल हैं। इनकी कीमत हजारों करोड़ रुपये है। यह संभवत: पहला मौका है, जब आयोग वोटरों को दी जाने वाली घूस पर लगाम कसने में कामयाब होता दिख रहा है। 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित क्षेत्रों से जुड़ी आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा नशीली सामग्री उत्तर प्रदेश व हिमाचल प्रदेश में पकड़ी गई। इसके बाद राजस्थान का नंबर है। चुनाव आयोग के अभियान के तहत जब्त की गई ब्लैक मनी, शराब और ड्रग्स के ताजा आंकड़ों से जाहिर है कि इन सबका इस्तेमाल वोटरों को खरीदने और चुनाव की खर्च सीमा से आगे जाकर पैसे लुटाने में होना था।
ऐसा फैलाया आयोग ने जाल
चुनाव आयोग ने इस बार धनबल, बाहुबल और वोटरों को लुभाने वाले राजनीतिक दलों के हथकंडों पर शिकंजा कसने के लिए जिस तरह का जाल बुना उसमें इस बार आयकर, सतर्कता, राजस्व खुफिया शाखा, निदेशक आॅफ राजस्व तत्र, केंद्रीय आर्थिक खुफिया ब्यूरो, नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और बीएसएफ, सीमा सुरक्षा बल और आरपीएफ की खुफिया इकाइयों के दलों को गठित किया। आयोग के तहत काम कर रहे इन अधिकारियों को हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल कर रहे नेताओं और पार्टी कार्यकतार्ओं पर भी नजर रखने के निर्देश दिये गये थे। मतदाताओं को लुभाने की नीतियों पर भी इन दलों की तीसरी आंख नजरे लगाए रही हैं। यहीं नहीं आयोग ने हवाई अड्डों पर भी ऐसे दलों को तैनात किया था। हवाई अड्डो से जब्त किया गया सामान सामान्य तौर पर कोर्ट कस्टडी में रखने का प्रावधान बनाया गया, ताकि जब तक संबंधित व्यक्ति या पक्ष यह साबित न कर दें कि वह वैध है। ऐसा साबित होने पर ही ऐसा सामान संबन्धित पक्ष को दिया जा सका है, अन्यथा उसे जब्त कर लिया गया।
13May-2014

सोमवार, 12 मई 2014

लोकसभा चुनाव: सियासी पिच पर अंतिम ओवर !

काशी पर हैं पूरे देश की निगाहें
अंतिम दौर में दांव पर लगी दिग्गजों की प्रतिष्ठा
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।

सोलहवीं लोकसभा के महासंग्राम के अंतिम दौर के चुनाव में कल सोमवार को तीन राज्यों की 41 सीटों पर होने वाले मतदान में वैसे तो राजनीति के बड़े-बड़े सूरमाओं की प्रतिष्ठा लगी हुई हैं, लेकिन इस चुनाव की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण सीट बनारस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई है, जहां भाजपा की ओर से पीएम के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के लिए आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस के अजय राय जैसे दिग्गजों ने पूरी ताकत झोंकी है। इस दौर के चुनाव में यूपी की आजमगढ़ सीट पर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, बिहार में वैशाली सीट से पूर्व मंत्री रघुवंश प्रसाद,पश्चिम चंपारन से फिल्म निर्माता प्रकाश झा, पश्चिम बंगाल में केंद्रीय मंत्री अधीररंजन चौधरी, पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी, सौगात राय, सुदीप बंदोपाध्याय व शिशिर अधिकरी के अलावा जादूगर पीसी सरकार जैसे दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर है।
नौवें दौर के लिए वाराणसी सीट का चुनाव भाजपा के नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लामबंदी की रणनीति पर आप, कांग्रेस, सपा, बसपा व अन्य दलों के एक बड़ी चुनौती होगी, जहां सभी दलों की प्रतिष्ठा दांव पर है। यूपी में नरेन्द्र मोदी के अलावा गोरखपुर से योगी आदित्य नाथ, डुमरियागंज से जगदंबिका पाल,महाराजगंज से कुवंर अखिलेश, कुशीनगर से केंद्रीय मंत्री आरपीएन सिंह, देवरिया से कलराज मिश्र, आजमगढ़ से सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व रमाकांत यादव, घोसी से बसपा के दारा सिंह चौहान, बलिया से नीरज शेखर, जौनपुर से भोजपुरी फिल्म स्टार रविकिशन, धनंजय सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर होगी। बिहार में पूर्व केेंद्रीय मंत्री एवं वैशाली से राजद प्रत्याशी रघुवंश प्रसाद, पश्चिम चंपारण से फिल्म निर्माता श्रीप्रकाश झा के अलावा पश्चिम बंगाल की बहरामपुर सीट पर रेल राज्यमंत्री अधीर रंजन चौधरी की साख दांव पर लगी हुई है।
यूपी में सपा के सामने चुनौती
यूपी की में सपा की 18 सीटों में सबसे ज्याद छह सीटे सपा के कब्जे में हैं, जबकि भाजपा व बसपा के पास चार-चार सीटें हैं, तो कांग्रेस के पास तीन और एक सीट पर निर्दलीय का कब्जा है। भाजपा का जिस तरह से केंद्र की सत्ता तक जाने के लिए उत्तर प्रदेश की सियासत पर फोकस है और उसमें भी खासतौर से वाराणसी की जंग सूबे की नजर से ही नहीं, बल्कि पूरे देश की नजर में सबसे महत्वपूर्ण सीट मानी जा रही है, जहां भाजपा की ओर से पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को रोकने के लिए आम आदमी पार्टी के केजरीवाल सीधी टक्कर देने का दावा कर रहे हैं, तो कांग्रेस के अजय राय और अन्य दलों की मोदी के खिलाफ लामबंदी साफ दिख रही है, जिसके कारण यहां दिलचस्प चुनाव होना तय है। यूपी की अन्य सीटों पर भी सभी का मुकाबला भाजपा के उम्मीदवारों से माना जा रहा है। ऐसे में सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी के सामने कड़ी चुनौती होगा।
बिहार: मुश्किल में जदयू
सोमवार को राज्य की छह सीटों पर होने वाले मतदान में दिलचस्प जंग है, जहां जदयू मुश्किलों में है और उसे अपनी दो सीटें बचानी भी भारी लग रही है,जिसका कारण माना जा रहा है कि यहां भाजपा और राजद के बीच ही कड़ा मुकाबाल है। हालांकि यहां दो सीटों पूर्वी चंपारण व पश्चिम चंपारण दोनों सीटों पर भाजपा ही काबिज है, जिसके सामने इन्हें सुरक्षित रखते हुए इनकी संख्या बढ़ाने के लिए भाजपा अन्य दलों को कड़ी चुनौती दे रही है। फिलहाल यहां राजद और एलजेपी के पास एक-एक सीट है।
ममता को सीटे बचाने की चुनौती
प. बंगाल की जिन 17 सीटों पर सोमवार को अंतिम दौर के वोट पड़ेंगे उनमें सबसे ज्यादा 14 सीटें तृणमूल के कब्जे में है, जबकि एक कांग्रेस, एक सीपीआई व एक एजीपी के पास है। ऐसे में यहां भाजपा व कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, तो तृणमूल प्रमुख एवं सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने अपनी सीटों को बचाए रखने की कड़ी चुनौती है। इसका कारण है कि इस बार भाजपा पश्चिम बंगाल में अपनी बिसात बिछाने के लिए बेहतर तरीके और रणनीति के साथ आम चुनाव में है। राज्य में बहरामपुर से कांग्रेस उम्मीदवार अधीर रंजन चौधरी ही एकमात्र ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके खिलाफ हत्या का मामला लंबित है, जबकि भाजपा के पी.सी.सरकार और राहुल सिन्हा, कांग्रेस के धनंजय मित्रा पर महिलाओं के खिलाफ अपराध का आरोप है। करोड़पति उम्मीदवारों की बात करें तो जाधवपुर और कोलकाता दक्षिण से चुनाव लड़ रहीं शामली दास ने 2,000 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की है।
रेड अलर्ट: 21 सीट
तीन राज्यों की 41 सीटों में से आधे से ज्यादा यानि 21 सीटें ऐसी हैं जहां तीन या उससे ज्यादा दागी उम्मीदवार सियासी जंग में हैं। सबसे ज्यादा दस दागी प्रत्याशी बिहार की वैशाली सीट पर हैं, जबकि यूपी की सबसे हॉट सीट वाराणसी पर कांग्रेस के अजय राय, बसपा विजय प्रकाश जायसवाल, सपा के कैलाश चौरसिया, आप के अरविंद केजरीवाल, अग्रजन पार्टी के एके अग्रवाल समेत छह दागी प्रत्याशी सियासत की जंग में हैं। बिहार की गोपालगंज, वाल्मिकीनगर, पश्चिम चंपारन, यूपी की आजमगढ़  गाजीपुर, महाराजगंज व जौनपुर सीट पर पांच-पांच, बिहार की सीवान, यूपी की रॉबर्टगंज, घोसी, सलेमपुर, गोरखपुर व चंदौली सीट पर चार-चार उम्मीदवार बाहुबली हैं। यूपी की कुशीनगर, लालगंज, मिर्जापुर के अलावा पश्चिम बंगाल की बासीरथ, टुमलुक व कोलकाता उत्तर सीट पर तीन-तीन दागी उम्मीदवार सियासत की जंग में हैं।
दागियों की सियासत
अंतिम चरण में सोमवार को तीन राज्यों की 41 सीटो पर हो रहे चुनाव में 606 उम्मीदवारों में से 119 दागी भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इनमें उत्तर प्रदेश की 18 सीटों पर चुनाव लड़ रहे 328 उम्मीदवारों में सर्वाधिक 63 आपराधिक छवि के हैं। जबकि बिहार की छह सीटों पर 90 प्रत्याशियों में 30 तथा पश्चिम बंगाल की 17 सीटों में 188 उम्मीदवारों में 26 प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इस चरण में 119 दागियों में सर्वाधिक 14 भाजपा, 12-12 कांग्रेस व बसपा, आठ सीपीइआई-माले, सात सपा के प्रत्याशी हैं। तृणमूल कांग्रेस के छह, आप, जदयू व सीपीआईएम के चार-चार के अलावा एक राजद का प्रत्याशी इस फेहरिस्त में शामिल है। हालांकि सबसे ज्यादा दागियों की संख्या 47 निर्दलीयों व छोटे दलों की है। इन दागियों में 92 उम्मीदवारों के खिलाफ हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, बलात्कार, डकैती और जबरिया वसूली जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। ऐसे प्रत्याशियों में भी भाजपा के 11, बसपा के 10, कांग्रेस के आठ, सपा के सात, आप, जदयू व तृणमूल कांग्रेस के तीन-तीन प्रत्याशी हैं।
171 कुबेरो का दांव
नौवें और अंतिम दौर के तीन राज्यों की 41 सीटों पर हो रहे चुनाव में करोड़पति उम्मीदवारों की फेहरिस्त में 171 प्रत्याशी हैं, जिसमें सर्वाधिक 93 उत्तर प्रदेश की 18 सीटों पर चुनाव मैदान में हैं, पश्चिम बंगाल में 17 सीटों के लिए हो रहे चुनाव में 41 धनकुबेर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं तो बिहार की छह सीटों पर 37 करोड़पति प्रत्याशी सियासत की जंग लड़ रहे हैं। दलों के हिसाब से धनकुबेर प्रत्याशियों पर नजर डाली जाए तो भाजपा के 39 में 23,कांग्रेस के 37 में 18, बसपा के 40 में 18, सपा के 19 में 16, तृणमूल कांगे्रस के 21 में 13, आप के 25 में 12, जदयू के 11 में सात, राजद के चारों करोड़पति प्रत्याशियों में शामिल हैं। इनके अलावा 153 निर्दलीयों में 20 तथा अन्य छोटे दलों के 232 उम्मीदवारों में से 35 करोड़पति चुनाव के मैदान में हैं।
इन राज्यों की 41 सीटों पर चुनाव
उत्तरप्रदेश-डुमरियागंज, महाराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, बांसगांव, लालगंज, आजमगढ़, घोसी, बलिया, सैलमपुर, जौनपुर, मछलीशहर, गाजीपुर,
चंदौली, वाराणसी, मिर्जापुर और रार्ब्टसगंज।
बिहार-वाल्मिकि नगर, पश्चिम चंपारण, पूर्वी चंपारण, वैशाली, गोपालगंज व सिवान।
प. बंगाल- बहरामपुर, कृष्णानगर, राणाघाट, बनगांव, बारगपुर, दम-दम,बारसत, बसिरहत, जयनगर, माथुरापुर, डायमंड हार्बर, जादवपुर, कोलकात्ता दक्षिण, कोलकात्ता उत्तर, तमलुक, कांठी व घाटल।
अंतिम चरण के चुनाव पर एक नजर
  राज्य          सीट प्रत्याशी/महिला-दागी-करोड़पति- कुल मतदाता
1.बिहार            06       90     05        30        37          80,33,901
2.उत्तर प्रदेश     18      328    14         63        93          3,16,80,539
3.पश्चिम बंगाल 17    188     20        26        41           2,56,17,362
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  कुल योग        41    606    39       119       171        6,61,31,802
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12May-2014

रविवार, 11 मई 2014

हॉट सीट: आजमगढ़- सियासी चक्रव्यूह में बुरे फंसे मुलायम !

विरोधियों की घेराबंदी से मुश्किल बनी सपा की राह
ओ.पी.पाल. आजमगढ़।

कुश्ती के अखाड़े से निकल सियासी दंगल में बड़े बड़े सूरमाओं को धूल चटा चुके सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव को इस बात का इल्म भी न रहा होगा कि आजमगढ़ के चुनावी दंगल में वह अपनी ही पेशबंदी में इस कदर घिर जाएंगे कि एक एक पल उन पर खासा भारी पड़ेगा। कुश्ती के अखाड़े में धोबिया पाट से बड़े बड़े पहलवानों को चित्त करने के साथ ही नेताजी ने राजनीति के दंगल में भी विरोधियों के हर दांव का तोड़ लेकर सूबे से लेकर दिल्ली तक की राजनीति में अपना अलग रसूख कायम किया। लेकिन अबकी बार नेताजी को अपने सियासी कद को बरकरार रखने के लिए न सिर्फ कड़ी मशक्कत करनी पड़ा रही है, बल्कि उनका पूरा कुनबा ही सैंफई से निकल आजमगढ़ की गलियों को नाप रहा है।
लोकसभा के चुनावी दंगल में भाजपा प्रत्याशी रमाकांत यादव को पटखनी देने के इरादे से उनके सियासी गुरू रहे सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने एम-वाई यानि मुस्लिम-यादव समीकरण के भरोसे पूर्वांचल की आजमगढ़ लोकसभा सीट पर भी दांव आजमाया है। इसी कारण उत्तर प्रदेश के पूर्वी आंचल की आजमगढ़ लोकसभा सीट हॉट सीट के रूप में देखी जा रही है। इसके बावजूद यहां मुलायम सिंह यादव के जिताऊ वाई-एम समीकरण कोर् ध्वस्त करने के लिये प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी घेराबंदी करके मुश्किलें बढ़ा रखी हैं। इनमें भाजपा प्रत्याशी रमाकांत यादव भी हैं जिन्हें मुलायम सिंह ने ही राजनीतिक के गुर सिखाकर संसद तक भेजा था, जो सपा छोड़कर बसपा के रास्ते भाजपा के कुनबे में आ गये और पिछला चुनाव भाजपा के टिकट पर ही जीता था। रमाकांत यादव व उनके भाई उमाकांत यादव की गिनती आजमगढ़ के दबंगों में शुमार है। इसलिए मुलायम के लिए यहां जीत की राह आसान नहीं लगती। राजनीतिक विशेषज्ञ मान रहे हैं कि आजमगढ़ में भाजपा व बसपा उम्मीदवारों और इन दलों की सियासी पकड़ भी मुलायम सिंह की पेरशानी का सबब बनी हुई है। इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी एवं मौजूदा सांसद रमाकांत यादव, बसपा के शाह आलम, आप के राजेश यादव के साथ मुलायम सिंह यादव की मुश्किलें सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट बैंक पर डांका डालकर राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना आमिद रशदी मदनी पैदा कर चुके हैं जो स्वयं सियासत की जंग में हैं।
सियासी मिजाज
उत्तर प्रदेश में बसपा और भाजपा के साथ त्रिकोणीय सियासी संघर्ष में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की जीत और हार का फैसला तो अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन जातीय समीकरण, मुजफ्फरनगर दंगों के बाद मुसलमानों के बीच पैदा हुई अविश्वास की खाई, स्वजातीय यादव समाज में आजमगढ़ के मौजूदा सांसद और भाजपा प्रत्याशी रमाकांत यादव की गहरी सेंध के अलावा पूर्व विधायक सीपू हत्याकांड से क्षत्रिय समाज की नाराजगी ने भी मुलायम की मुश्किलों में इजाफा किया है। जहां तक इस सीट के मौजूदा सियासी मिजाज का सवाल है उसमें यहां धुवीकरण की रणनीति में भाजपा और बसपा बाजी मारते दिख रहे हैं। भाजपा नेता अमित शाह के विवादित भाषण ने भी धु्रवीकरण को हवा दी है, लेकिन मुस्लिम वोट बैंक में सपा से पहले ही बसपा प्रमुख मायावती ने दलितों के साथ मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में प्रभावित किया है। राजनीतिक जानकार यह भी बताते हैं कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का दो सीटों से चुनाव लड़ने का कारण अपने छोटे पुत्र प्रतीक यादव या भतीजे तेज प्रताप यादव उर्फ तेजू की आजमगढ़ में सियासी जमीन तैयार करना है। अंतिम चरण के इस चुनाव में सपा प्रमुख मुलायम सिंह का भाजपा के रमाकांत यादव व बसपा के शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली से कड़ी चुनौती मिल रही है और इस त्रिकोणीय सियासी जंग में मुलायम सिंह की राह आसान नजर नहीं आती। आजमगढ़ को लेकर विवादित भाषणों का भी यहां की जनता गंभीरता से ले रही है, जहां की धरती से हाल ही में पांच आईएएस एवं 15 पीसीएस में चयनित हुए हुए युवाओं ने परचम लहराया है। ऐसे में आतंकवाद का मुद्दा उठाना किसी को गंवारा नहीं है। यही कारण माना जा रहा है कि इस बार यहां जाति-धर्म पर नहीं, बल्कि विकास को मुद्दे को ज्यादा बल दिया जा रहा है।
जातीय समीकरण
आजमगढ़ सीट पर चार लाख यादव के बाद करीब 1. 50 हजार मुस्लिम मतदाताओं का स्थान है। मुस्लिम-यादव को सपा का परम्परागत वोट माना जाता है, लेकिन पिछले तीन चुनावों के दौरान यह समीकरण ऐसा बिखरा कि कभी बसपा व कभी भाजपा ने झंडा लहराया। सवर्ण व वैश्यों को भाजपा का वोट आ रहा है। निर्णायक वोटर रहे यादव और मुस्लिमों में सेंधमारी के साथ उन्हें एकजुट करने के प्रयास भी जारी हैं। ऐसे में यहां मुसलमान वोट असमंजस की स्थिति में हैं, तो वहीं पिछड़ा वर्ग के पत्ते खुलने को तैयार नहीं हैं, जो ब्राह्मण वोट और अन्य हिंदू वोटर नरेन्द्र मोदी की हवा के रूख को भांपकर इस सीट पर निर्णायक साबित हो सकता है। जिले की गोपालपुर, सागरी, मुबारकपुर, आजमगढ़ व मेहनगर विधानसभाओं से मिलकर बनी आजमगढ़ लोकसभा सीट पर भाजपा, बसपा, सपा, आप, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल जैसे 13 राजनीतिक दलों समेत कुल 18 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इस सीट पर करीब 7.60 लाख महिलाओं समेत 17 लाख 118 मतदाताओं का जाल बना हुआ है। सबसे दिलचस्प बात है कि इस सीट में शामिल पांच विधानसभाओं में चार पर सपा और एक पर बसपा काबिज है।
कब कौन बना सांसद
आजमगढ़ लोकसभा सीट पर पिछले तीस साल से कांग्रेस जीत के लिए तरस रही है, जहां कांग्रेस के संतोष सिंह ने अंतिम बार 1984 में आखिरी बार जीत दर्ज की थी। 1989 में बसपा क रामकृष्ण, 1991 में जनतादल के चंद्रजीत ने जीत दर्ज की। यहां आपातकाल में भारतीय लोकदल के रामनरेश यादव द्वारा जीत हासिल करने के बाद जब सीट छोड़ी थी, तो 1978 के उपचुनाव में कांग्रेस की मोहसिना किदवई ने जीत दर्ज की थी। जहां तक मौजूदा सांसद रमाकांत का सवाल है उन्होंने अपने गुरू मुलायम सिंह के आशीर्वाद से 1996 में पहली जीत दर्ज कर लोकसभा का दरवाजा खटखटाया, लेकिन 1998 के चुनाव में वे बसपा के अकबर अली डंपी से परास्त हो गये थे। जबकि 1999 में उन्होंने फिर यहां सपा को जीत दिलाई, लेकिन सपा से नाराज होकर वे बसपा में चले गये और 2004 का चुनाव जीतकर बसपा का परचम लहराया। एक हत्याकांड के मामले में बसपा मुख्यमंत्री मायावती ने अपने ही सांसद को जेल भिजवाया और यहां 2008 में उपचुनाव कराकर अकबर अली डंपी को संसद में पहुंचाया। इस तरह रमाकांत यादव भाजपा का दामन थामकर पिछला चुनाव में अपनी ताकत दिखाई और लोकसभा में पहुंचे। इससे पहले 1971 तक के लोकसभा चुनाव में यहां कांग्रेस का ही परचम लहराता रहा है।
11May-2014

लोकसभा चुनाव: दागियों ने ध्वस्त किए सभी रिकार्ड !

लोकसभा सीट 543 और दागी उम्मीदवारों की संख्या 1398
2009 के  चुनाव में 1158 दागियों में जीते थे 162
ओ.पी.पाल

महात्मा गांधी द्वारा बताये गये हिंसा के बुनियादी कारणों में एक कारण सिद्धांतहीन राजनीति भी है, लेकिन इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की चुनावी राजनीति पर नजर डाली जाए तो तेजी के साथ देश की सियासत अब सिद्धांतहीन और उससे उपजी हिंसा ही इस राजनीति का मूल आधार बन गया है। यही कारण है कि इस बदलती सियासत के दौर में सभी राजनीतिक दल गांधी जी के सिद्धांतों को धत्ता बताकर आपराधीकरण की राजनीति पर उतर आए हैं। मसलन सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में 543 सीटों के लिए 1398 दागी उम्मीदवारों की सियासत दांव पर लगाई गई है। इन दागियों में अभी तक 502 सीटों के लिए हुए चुनाव में 1279 की किस्मत तो ईवीएम में कैद भी हो चुकी है।
राजनीति को अपराधों से दूर रखने की दुहाई देने वाले बड़े-छोटे दलों ने दागियों पर सियासी दांव खेलने में कोई परहेज नहीं किया है, जबकि सुप्रीम कोर्ट भी दागियों पर अपने निर्णय देकर राजनीतिक दलों को नसीहत दे चुकी हैं। चुनाव आयोग की कवायद में सहयोग करने वाली गैर सरकारी संस्था नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने सोलहवीं लोकसभा के लिए 543 सीटों के लिए चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने उतरे सभी 8230 उम्मीदवारों के शपथपत्रों को खंगालकर जो तथ्य उजागर किये हैं वह किसी चिंता से कम नहीं है। मसलन इन उम्मीदवारों में से दागी उम्मीदवारों की संख्या 1398 हैं, जिनमें 889 के खिलाफ तो हत्या, हत्या का प्रयास, लूट, अपहरण, बलात्कार और सांप्रदायिक अशांति जैसे संगीन मामले लंबित हैं। इन संगीन मामलों में हत्यारोपी के 57, हत्या का प्रयास के 173, महिलाओं के खिलाफ अपराध के 58, लूट व डकैती के 57, अपहरण के 40 तथा सांप्रदायिक अशांति फैलाने के मामले 54 उम्मीदवारों के खिलाफ लंबित हैं। 15वीं लोकसभा के चुनाव में इन सीटों के लिए सामने आए 8163 उम्मीदवारों में 1158 दागियों ने अपनी किस्मत आजमाई थी, जिनमें से 162 जीतकर लोकसभा में दाखिल हुए थे। इनमें 608 के खिलाफ संगीन मामले दर्ज थे।
लोकतंत्र पर शतकीय प्रहार
लोकसभा चुनाव में रिकार्ड आंकड़े को छूने वाले 1398 दागी उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा भाजपा के 426 में 140, कांग्रेस के 462 में 128, बसपा के 501 में 114 प्रत्याशी सियासी मैदान में हैं। जबकि आम आदमी पार्टी ने 427 में से 65 दागियों को टिकट दिया है, तो सपा ने 59, सीपीआई(माले)ने 37, जदयू व सीपीआई(एम) ने 33-33, शिवसेना ने 23, राजद व सीपीआई ने 19-19, तृणमूल कांग्रेस व राकांपा ने 18-18, वाईएसआर कांग्रेस ने 13, जद-एस व तेदेपा ने 10-10 दागियों पर दांव लगाया हुआ है। इनमें गंभीर मामलों वाले उम्मीदवारों में भाजपा के 89, बसपा के 75, कांग्रेस के 61, सपा के 46, आप के 42, सीपीआई माले के 31, जदयू के 23, राकांपा के 14, तृणमूल, राजद व शिवसेना के 13-13, वाईएसआर के 10 प्रत्याशी शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश अव्वल
दागियों को चुनावी मैदान में उतारने में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है, जहां 80 सीटों पर 1262 उम्मीदवारों में सर्वाधिक 235 उम्मीदवार दागियों की फेहरिस्त में हैं। इसके बाद बिहार में 40 सीटों पर 606 उम्मीदवारों में से 187 दागियों के साथ दूसरे पायदान पर है, जबकि महाराष्ट्र में 48 सीटों 883 में से 175 प्रत्याशियों पर आपराधिक दाग सामने आया है। आंध्र प्रदेश की 42 सीटों पर 506 उम्मीदवारों में से 106, तमिलनाडु में 39 सीटों पर 844 में से 103,केरला में 20 सीटों पर 257 में से 74, पश्चिम बंगाल में 42 सीटों पर 472 में से 70, मध्य प्रदेश में 29 सीटों पर 370 में से 65, गुजरात की 26 सीटों पर 332 में से 65, झारखंड में 14 सीटों पर 236 में से 62, कर्नाटक में 28 सीटों पर 432 में 55, ओडिसा में 21 सीटों पर 195 में से 39, पंजाब में 13 सीटों पर 253 तथा दिल्ली की सात सीटों पर 150 में से 23-23 प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। राजस्थान में 25 सीटों पर 319 में से 22,छत्तीसगढ़ की 11 सीटों पर 208 में से 19, हरियाणा में 11 सीटो पर 229 में से 15 दागी प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। इनके अलावा दागियों के दांव से अन्य कोई राज्य या केंद्र शासित प्रदेश अछूता नहीं रहा है, भले ही अरूणाचल प्रदेश में ऐसा एक ही प्रत्याशी क्यों न हो।
रेड अलर्ट ने भी बनाया रिकार्ड
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में ऐसी सीट को रेड अलर्ट माना गया है, जहां तीन या उससे ज्यादा दागी प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा है। 543 सीटों में इन सीटों में 245 सीटें सामने आई हैं, जहां बिहार की वैशाली व महाराष्टÑ की रावेड सीट पर दस-दस दागियों ने चुनावी दांव खेला है, जबकि महाराष्ट्र की बीड व झारखंड की धनबाद सीट पर नौ-नौ दागी, तो बिहार की जहानाबाद सीट पर आठ दागियों में मुकाबला हुआ है। इनके अलावा 12 सीट पर सात-सात,21 सीटों पर छह-छह, 56 सीटों पर पांच-पांच, 67 सीटों पर चार-चार तथा अन्य बची शेष सीटों पर तीन-तीन दागी उम्मीदवारों ने अपनी किस्मत आजमाई है। वर्ष 2009 के चुनाव में ऐसी 196 सीटे थी।
अंतिम चरण में 119 दागी
सोमवार 12 मई को अंतिम चरण में तीन राज्यों की 41 सीटों पर हो रहे चुनाव में 606 प्रत्याशियों का फैसला होना है, जिनमें 119 प्रत्याशी दागियों की सूची में शामिल हैं, इनमें सर्वाधिक 63 दागी यूपी की 18 सीटों पर उतरे 328 उम्मीदवारों में शामिल हैं। जबकि बिहार की छह सीटों पर 90 प्रत्याशियों में 30 तथा पश्चिम बंगाल की 17 सीटों में 188 उम्मीदवारों में 26 प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें 92 उम्मीदवारों के खिलाफ संगीन अपराध वाले मामले भी शामिल हैं।
11May-2014