मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

हॉट सीट: अहमदाबाद पूर्व-सियासी पर्दे पर अदाकारी में दांव पर परेश की किस्मत!

हरिन पाठक ने सात बार जीत हासिल कर बनाई भाजपा की रणभूमि
ओ.पी.पाल

गुजरात की राजधानी की अहमदबाद पूर्व लोकसभा सीट पर इस बार भाजपा ने पिछले लगातार सात बार के विजेता सांसद हरिन पाठक को दरकिनार करके फिल्म अभिनेता पेरश रावल को सियासी पर्दे पर अदाकारी के लिए उतारा है, लेकिन हरिन पाठक की अनदेखी से बढ़ती दिख रही अंदरूनी खींचतान में यहां कांग्रेस के हिम्मत सिंह पटेल को चुनौती देने के लिए परेश रावल के पसीने छूटते दिख रहे हैं, हालांकि इस सीट पर मोदी मैजिक में रावल की सियासी राह कोई कठिन भी नहीं है।
भाजपा की रणभूमि बनाने वाले हरिन पाठक यहां से लगातार सात बार सांसद निर्वाचित हो चुके हैं, लेकिन इस बार भाजपा ने अहमदाबाद पूर्व लोकसभा सीट से बॉलीवुड अभिनेता परेश रावल पर दांव खेला है। परेश रावल को प्रत्याशी बनाने के बाद भाजपा में यहां अंतर्कलह भी नजर आई और हरिन पाठक के समर्थकों ने विरोध भी किया, लेकिन भाजपा शायद इस बार हरिन पाठक को राज्यसभा भेजने का मन बना चुकी है? लेकिन इसके बावजूद रावल के लिए मौजूदा सांसद हरिन पाठक के चहेते भाजपाई ही खतरा बने हुए हैं, भले ही इस हल्के-फुल्के विरोध के बावजूद पाठक पार्टी के साथ होने का दावा कर रहे हैं। परेश रावल के लिए इस सियासी पर्दे पर कांग्रेस प्रत्याशी एवं पूर्व मेयर हिम्मत सिंह पटेल कड़ी चुनौती देते दिखाई दे रहे हैं। राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं इस बात की भी हैं कि अहमदाबाद पूर्व में भाजपा में चल रहे अंतर्विरोध का लाभ कांग्रेस प्रत्याशी हिम्मत सिंह पटेल को मिलेगा। हालांकि इसके बावजूद परेश रावल ने जनसंपर्क पर फोकस ज्यादा रखते हुए इस सीट में शामिल सभी सातों विधानसभाओं की खाक छानने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसलिए फिल्म जगत की हस्तियों में शुमार परेश रावल को नामी होने का फायदा भी मिलने की संभावना है। दूसरे देशभर में मोदी मैजिक के चलते भी रावल के हौंसले बुलंद हैं। इसलिए भी परेश रावल की राह मुश्किल नहीं लगती, क्योंकि इस संसदीय क्षेत्र की सात विधानसभाओं में से छह में भाजपा के विधायक काबिज हैं।
दस दलों की प्रतिष्ठा
अहमदाबाद पूर्व लोकसभा सीट पर 14.07 लाख से ज्यादा मतदाताओं के चक्रव्यूह को भेदने के लिए भाजपा, कांग्रेस, बसपा, आप, जदयू, विश्व हिंदुस्तानी संगठन, अखिल भारतीय कांग्रेस दल, बहुजन शक्तिदल व प्रजातंत्र आधार पार्टी समेत दस दलों के प्रत्याशियों समेत कुल 14 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इस सीट पर निर्दलीयों की किस्मत भी चमकी है इसलिए निर्दलीय प्रत्याशी भी चुनाव के मैदान में हैं।
भाजपा का ज्यादा चला सिक्का 
15वीं लोकसभा चुनाव से पहले नए परिसीमन में सात विधानसभाओं से सृजित इस अहमदाबाद पूर्व लोकसभा सीट पर वर्ष 1989 से 2009 तक के लगातार सात चुनाव जीतकर भाजपा की रणभूमि बनाने वाले हरिन पाठक से पहले 1984 में यहां कांग्रेस के हरोभाई मेहता और 1980 में मगनभाई बारोट जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। उससे पहले 1967 से 1977 तक इस सीट पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है। जबकि 1957 व 1962 के चुनाव में यहां नूतन महागुजरात जनता परिषद के टिकट पर आईके याज्ञनिक लोकसभा में जा चुके हैं। पहला चुनाव कांग्रेस के नाम ही रहा है। परिसीमन से पहले यह सीट अहमदाबाद लोकसभा के नाम से ही जानी जाती थी।
सियासी लहर का नहीं होता असर
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में हालांकि मोदी की लहर का जिक्र आता है, लेकिन अहमदाबाद पूर्व संसदीय क्षेत्र के लोग लहरों और हवाओं के प्रभाव से अछूते ही माने गये हैं। मसलन यह ऐसी सीट है जिसके मतदाता व्यक्ति को तवज्जो देते हैं। यही कारण है कि आजादी के बाद सिर्फ पहले चुनाव में कांग्रेस को सफलता मिली। इसके बाद आईके याज्ञनिक क्षेत्रीय पार्टी और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चार बार चुने गए। 1977 में जनता पार्टी के लहर के बावजूद यहां से कांग्रेस जीतकर आई, लेकिन उसके बाद 1989 से लगातार हरिन पाठक ने जीत हासिल करके भाजपा का परचम लहराया है।
29Apr-2014

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

हॉट सीट: वडोदरा- भाजपाई गढ़ में नमो को टक्कर देना बेमानी!

पहले ही राज्यसभा पहुंचे कांग्रेस प्रत्याशी मधुसूदन मिस्त्री
ओ.पी.पाल. वडोदरा।

सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रही सियासी जंग में पूरे देश की नजरे बनारस की तरह संस्कार नगरी नामक शहर के रूप में पहचानी जाने वाली वडोदरा लोकसभा सीट पर इसलिए भी टिकी हुई है कि इन सीटों पर भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। मोदी के गृह राज्य और भाजपा का गढ़ मानी जाने वाली वडोदरा सीट पर दिलचस्प चुनावी मुकाबले में कांग्रेस के राष्टीय महासचिव मधुसूदन मिस्त्री के लिए नमो को टक्कर देना इतना आसान नहीं है, जिसकी कांग्रेस उम्मीद पाले बैठी है।
मराठा वंश गायकवाड़ की रियासत रही वडोदरा लोकसभा सीट पर अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ रहे राज्य के मुख्यमंत्री भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की सियासी राह हालांकि उनके अपने गृहराज्य में बेहद आसान नजर आ रही है, लेकिन कांग्रेस ने मोदी को चुनौती देने के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव मधुसूदन मिस्त्री के आने से सियासी जंग दिलचस्प तो हो गई है, लेकिन नमो को सियासी टक्कर देना मिस्त्री या अन्य किसी दल के प्रत्याशी के लिए बेमाने नजर आ रही है। इसका कारण साफ है कि वडोदरा लोकसभा में शामिल सात विधानसभा सीटों पर कांग्रेस कहीं नहीं है, बल्कि छह सीटों पर भाजपा के ही विधायक काबिज हैं और एक सीट सावली पर भाजपा निर्दलीय विधायक ने जीत हासिल की थी। मोदी को चुनौती देने में शायद कांग्रेस भी पहले ही धरातल पर है, जिसने मोदी के सामने नरेन्द्र रावत की जगह मजबूत प्रत्याशी बताकर मधुसूदन मिस्त्री को रणभूमि में उतारा है, लेकिन लोकसभा चुनाव होने से पहले ही कांग्रेस मधुसूदन को गुजरात से ही राज्यसभा का टिकट देकर संसद में दाखिल करा चुकी है, जिन्होंने सदन की सदस्यता की शपथ भी ग्रहण कर ली है। ऐसे में इस सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए इस सीट पर कुछ खोने को नहीं है। इसलिए मोदी के बड़े कद तथा उनके भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने के साथ-साथ् गुजराती मूल के कारण भी इस सीट पर उनके पक्ष में भावनात्मक कार्ड जैसी बातों ने उनकी राह और भी आसान बनाने का काम किया है।
सियासी मिजाज
गुजरात के अहमदाबाद व सूरत के बाद सबसे बड़ी जनसंख्या वाले वडोदरा शहर में चोतरफा नमो-नमो है। यह वही लोकसभा सीट है जहां 1991 के चुनाव में रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण में सीता का किरदार निभाने वाली दीपिका चिखलिया ने जीत का स्वाद चखकर लोकसभा में दस्तक दी थी। वैसे भी पिछले करीब दो दशक से इस सीट पर भाजपा का ही कब्जा है। हालांकि कांग्रेस प्रत्याशी मधूसूदन मिस्त्री की पृष्टभूमि भी मोदी की ही तरह आरएसएस की रही है। गुजरात में 1995 में जब भाजपा की सरकार बनी उस समय तक मिस्त्री भी शंकर सिंह वाघेला के साथ आरएसएस कार्यकर्ता ही थे,लेकिन शंकर सिंह वाघेला के भाजपा से बगावत करके राष्ट्रीय जनता पार्टी के नाम से पार्टी बनाई तो मधूसूदन मिस्त्री भी उसमें शामिल हो गए। बाद में इस पार्टी का 1999 में कांग्रेस में विलय हो गया। वैसे भी मिस्त्री गुजरात के आदिवादी नेताओं के रूप में शुमार है और दो बार साबरकांठा सीट से सांसद रह चुके हैं।
सियासी समीकरण
गुजरात की सात विधानसभाओं सावली, वाघोडिया, वडोदरा शहर, सयाजीगंज, अकोटा, रावपुरा व मंजालपुर से सृजित वडोदरा लोकसभा सीट पर 15.70 लाख से ज्यादा मतदाताओं का चक्रव्यूह बना हुआ है, जिसमें करीब 7.34 लाख महिलाएं भी निर्णायक भूमिका के लिए तैयार हैं। मतदाताओं के इस जाल में पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजाति के मिला कर लगभग 4. 47 लाख मतदाता हैं। इनके अलावा  क्षत्रिय करीब 2.33 लाख, ब्राह्मण 1.93 लाख, पटेल 1. 69 लाख तथा मुस्लिम करीब 1.58 लाख बताए जा रहे हैं। यहीं नहीं वडोदरा सीट पर गायकवाड़ राज होने के कारण गुजराती के अलावा मराठी और हिंदीभाषी भी अच्छी तादाद में है। इन मतदाताओं को भेदने के लिए भाजपा के नरेन्द्र मोदी व कांग्रेस के मधुसूदन मिस्त्री, आप के सुनील कुलकर्णी के अलावा सपा व बसपा समेत कुल आठ प्रत्याशी सियासी रणभूमि में है।
लोकसभा का सफरनामा
15वीं लोकसभा चुनाव में इस सीट पर भाजपा के बालकृष्ण खांडेकर शुक्ला ने 57.39 प्रतिशत मत लेकर कांग्रेस के सत्यजीत सिंह गायकवाड़ को पटखनी दी थी, जो इस सीट से 1996 में कांग्रेस के टिकट पर ही सांसद रह चुके हैं, लेकिन उसके बाद 1998, 1999 व 2004 में जयबेन ठक्कर ने लगातार जीत हासिल कर भाजपा की तिकड़ी बनाई थी। इस सीट पर पहले तीन चुनाव में कांग्रेस का बोलबाला रहा, जिसमें 1957,1962, 1971व 1977 में फतेहसिंह गायकवाड़ ने कांग्रेस का झंडा लहराया है। आपातकाल में भी कांग्रेस विरोधी लहर का यहां कोई असर नहीं था, लेकिन मंडल-कमंडल के दौर में 1989 में यहां जनता दल का परचम लहराया, तो उसके बाद भाजपा ने रामायण की सीता दीपिका चखलिया ने भाजपा को पहली जीत दिलाई थी। इस बार कांग्रेस मधूसूदन मिस्त्री के सहारे इस सीट पर वापसी की उम्मीद पाले हुए है, जो इतनी आसान नजर नहीं आ रही है।
28Apr-2014

रविवार, 27 अप्रैल 2014

हॉट लोकसभा सीट:वलसाड- केंद्र की सत्ता का पत्ता यहीं खुलेगा?

वलसाड ही चुनता रहा है देश का प्रधानमंत्री
ओ.पी.पाल

देश में शायद गुजरात की वलसाड लोकसभा सीट ऐसी सियासत में शुमार है जो केंद्र की सत्ता के पत्ते खोलती रही है। मसलन इस सीट पर आजादी से अब तक जिस दल का भी प्रत्याशी निर्वाचित हुआ है केंद्र में उसी राजनीतिक दल के नेता ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली है। अब सवाल उस इत्तेफाक पर अटका है कि क्या इस बार यह सीट अपने इतिहास को दोहराकर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाएगी?
देश के पहली बार गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देशाई की जन्म स्थली जिले की वलसाड लोकसभा सीट के इस सियासी मिजाज के इतिहास को सुनकर भले ही आश्चर्य हो रहा हो, लेकिन आजादी से 15वीं लोकसभा तक तो यह सीट केंद्र की सत्ता का पत्ता खोलती आई है। गुजरात की इस लोकसभा सीट को यदि देश की सबसे भाग्यशाली सीटों में एक मान लिया जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। यह तो इस सीट का इतिहास गवाह है कि जिस दल का प्रत्याशी निर्वाचित हुआ उसी दल से प्रधानमंत्री पद पर विराजमान हुआ। इस लोकसभा सीट की भाग्यशाली सियासत के ही मायने हैं कि देश में 1951 से 2009 तक हुए 15 लोकसभा चुनाव के लिए हुए चुनाव में यही इतिहास दोहराया गया है। देश की सत्ता 1951 से 1971 तक लगातार कांग्रेस के हाथों में रही है और इन पांचों चुनाव में यहां कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। आपातकाल के बाद 1977 में जब पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार के रूप में जनता पार्टी की सरकार बनी तो वलसाड में जन्मे मोराजी देसाई प्रधानमंत्री को ही प्रधानमंत्री बनाया गया। इसके बाद 1980 व 1984 के चुनाव में इस सीट पर फिर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते और देश में भी कांग्रेस की सरकार बनी और इंदिरा गांधी व राजीव गांधी ने पीएम की कुर्सी संभाली। वर्ष 1989 में यहां से मंडल-कमंडल की सियासत में जनता दल इस सीट जीती तो कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटे जीतने वाली पार्टी थी, लेकिन भाजपा और जनता दल व अन्य दलों ने जनमोर्चा तैयार करे सरकार बनाई, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली जनता दल के नेता वीपी सिंह ने। वीपी सिंह सरकार में तोड़फोड होने से भंग लोकसभा के लिए फिर मध्यावधि चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की सरकार बनी और सीट पर भी कांग्रेस ने कब्जा किया, तो पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया। इसके बाद लगातार तीन चुनाव में इस सीट पर भाजपा ने परचम लहराया और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। चौदहवीं व पंद्रहवी लोकसभा में फिर कांग्रेस की सरकार बनी और इस सीट पर कांग्रेस की जीत हुई। इस सीट केसियासी मिजाज को देखते हुए यदि इसी इतिहास को दोहराती रही तो  क्या यह सीट नरेन्द्र मोदी के लिए भाग्यशाली साबित होगी? ऐसे सियासी मिजाज के इतिहास के बीच 2014 का चुनाव भी काफी रोचक है। खासकर तब जब गुजरात के सीएम के रुतबे से निकलकर नरेंद्र मोदी भाजपा के पीएम कैंडिडेट हैं। इसलिए सभी राजनीतिक दलों के साथ-साथ अब देश की जनता की निगाह भी वलसाड की सीट पर होगी।
लोकसभा सीट का सफर
गुजरात की अनूसचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित वलसाड़ लोकसभा सीट पर नानूभाई पटेल का 1957 से 1977 तक इस सीट पर कब्जा रहा, जिसमें पहले चार चुनाव में कांग्रेस और 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर निर्वाचित हुए। 1980 व 1984 के चुनाव में इस सीट पर कांग्रेस के उत्तमभाई एच.पटेल ने लगातार दो बार लोकसभा में दाखिल होने का सौभाग्य हासिल किया। जबकि 1989 के चुनाव में जनता दल के अर्जुनभाई पटेल और फिर 1991 में कांग्रेस के उत्तमभाई एच. पटेल ने इस सीट को कब्जाया। 1996, 1998 व 1999 के चुनाव में यहां भाजपा के मनीभाई रामजीभाई चौधरी ने तिकड़ी जमाई, तो पिछले दो चुनाव से इस सीट पर कांग्रेस के किशनभाई पटेल काबिज है, जिससे इस सीट पर कब्जा करने के लिए भाजपा के केसी पटेल कांग्रेस
के किशनभाई पटेल को पटखनी देने के लिए मोदी मैजिक का सहारा ले रहे हैं।
12 प्रत्याशियों की किस्मत दांव पर
वलसाड जिले की सात विधानसभाओं डांग्स, वनसाडा, धर्मपुर, वलसाड, पर्दी, कपराडा व उम्बेरगांव से मिलकर बनाई गई वलसाड लोकसभा सीट पर भाजपा के केसी पटेल व कांग्रेस के मौजूदा सांसद किशन पटेल के लिए आप के गोविंद पटेल, बसपा के रतिराम विजीरभाई ठकरिया तथा जदयू के शैलेश पटेल समेत कुल 12 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। दलित बाहुल्य सीट पर करीब 16 लाख मतदाताओं का चक्रव्यूह इन उम्मीदवारों के भेदने के लिए बना हुआ है।
27Apr-2014

लोकसभा चुनाव: दागी उम्मीदवारों ने लांघा हजार का आंकड़ा!

भाजपा के सर्वाधिक 112 प्रत्याशी
102 दागियों के साथ कांग्रेस दूसरे पायदान पर 
ओ.पी. पाल
लोकसभा चुनाव में शायद सभी राजनीतिक दल इस बार आपराधिक दाग वाले उम्मीदवारों पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं, तभी तो लोकसभा के लिए जारी सियासी जंग में सातवें चरण तक दागी उम्मीदवारों की संख्या हजार के आंकड़े को पार कर चुकी है। इन दागी उम्म्मीदवारों में सर्वाधिक भाजपा के 112 प्रत्याशी चुनाव के मैदान में हैं जबकि 102 दागी प्रत्याशियों के साथ कांग्रेस दूसरे पायदान पर है। आगामी 30 अप्रैल को सातवें चरण के चुनाव में नौ राज्यों की 89 सीटों के लिए होने वाले चुनाव में कुल 1295 में से 222 उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं, जबकि छह चरण के चुनाव में 879 ऐसे प्रत्याशियों की किस्मत पहले ही ईवीएम में कैद हो चुकी है।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सुधार की दिशा में चुनाव आयोग की कवायद में सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन करते हुए भले ही अपराध को राजनीति से अलग रखने की हमेशा दुहाई दी हो, लेकिन यह सच है कि 16वीं लोकसभा के चुनाव में जिस प्रकार राजनीतिक दल दागियों पर सियासी भरोसा जता रहे हैं शायद इससे पहले ऐसा कम ही देखने को मिल रहा था। अभी तक लोकसभा की 349 सीटों के लिए चुनाव हो चुके हैं जिसमें ईवीएम में बंद 5432 प्रत्याशियों की किस्मत में 879 दागियों का भाग्य भी शामिल है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म और इलेक्शन वॉच द्वारा प्रत्याशियों के खंगाले गये शपथपत्रों से सामने आए तथ्यों पर नजर डालें तो आगामी 30 अप्रैल को नौ राज्यों की 89 सीटों पर चुनाव होना है जिसके लिए मैदान में कूदे उम्मीदवारों में 222 पर आपराधिक दाग है। इन 222 में सर्वाधिक 27 कांग्रेस, 24 भाजपा, 16 बसपा, दस सपा, आठ जदयू, सात-सात आप और टीआरएसख् पांच सीपीआई(एम) के उम्मीदवार भी शामिल है। हालांकि पिछले दौर के चुनाव की तरह ऐसे दागियों में इस बार 112 निर्दलीय व छोटे दलों के प्रत्याशी शामिल हैं। इन 222 दागियों में 139 ऐसे प्रत्याशी हैं जिनके खिलाफ हत्या, लूट, बलात्कार और अन्य संगीन मामले लंबित हैं। जहां तक सातवें दौर के चुनाव में राज्यों का सवाल है उनमें गुजरात में सर्वाधिक 65 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं, जबकि आंध्र प्रदेश की 17 सीटों पर 49, उत्तर प्रदेश की 14 सीटो पर 36, बिहार में सात सीटों पर 31, पंजाब में 23, पश्चिम बंगाल में 13 दागी प्रत्याशियों की फेहरिस्त है। संगीन मामलों से जुड़े उम्मीदवारों की सूची में सर्वाधिक 19 भाजपा, दस बसपा, सात-सात कांग्रेस, सपा व टीआरएस, पांच जदयू के अलावा 72 निर्दलीय व छोटे दलों के सियासी योद्धा शामिल हैं।
सात चरण तक के दागी
लोकसभा चुनाव में सातवें चरण तक 438 सीट बनती है, जिनमें छठे दौर तक 349 सीटों पर मतदान हो चुका है, जिनमें 879 दागियों का भाग्य ईवीएम में कैद हो गया और अब 222 का 30 अप्रैल को सातवें दौर के चुनाव में कैद हो जाएगा। इन सातों चरण में 1101 दागियों की फेहरिस्त सामने आ चुकी है। इसमें सर्वाधिक 112 भाजपा, 102 कांग्रेस, 81 बसपा, 51 आम आदमी पार्टी, 41 सपा, 25-25 दागी उम्मीद वार सीपीआई(एम), सीपीआई(माले) व जदयू के शामिल हैं। सीपीआई के 19, तृणमृल के 11, शिवसेना के 21, जद-एस के 10, राकांपा के 16 उम्मीदवार दागियों की सूची में हैँ। जबकि निर्दलीय और छोटे दलों की संख्या सर्वाधिक 408 तक पहुंच गई हैं, जो बाहुबल के जरिए लोकसभा में जाने की जुगत में हैं।
रेड अलर्ट सीट
सातवें दौर के लिए 89 सीटों पर होने वाले मतदान के लिए 42 सीटें ऐसी चिन्हित की गई हैं, जहां तीन या उससे ज्यादा प्रत्याशी सियासी जंग में हैं। इनमें सर्वाधिक सात प्रत्याशी बिहार की खगडिया सीट पर आप, लोजपा, लोकदल, राजद व आएनडी के उम्मीदवार हैं। जबकि छह-छह उत्तर प्रदेश की कानपुर व लखनऊ, व पंजाब की लुधियाना सीट जंग में हैं। गुजरात की महसाना, अमरेली, जामनगर, वलसाड, आंध्र प्रदेश की सिकंदराबाद व पेड्डापल्ली, पंजाब की खडूर साहिब व बिहार की समस्तीपुर सीट पर पांच-पांच दागी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे है। इसके अलावा 12 सीटों पर चार-चार तथा शेष पर तीन-तीन प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत दांव पर लगाई है।
27Apr-2014

राग दरबार-कांग्रेस के मिस्त्री

लोकसभा चुनाव में गुजरात की वडोदरा सीट पर भाजपा की ओर से पीएम के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के सामने चुनौती देने से पहले ही कांग्रेस शायद यह मान चुकी थी कि वहां पार्टी के लिए मोदी के सामने जीत आसान नहीं है। इसीलिए कांग्रेस ने मजबूत प्रत्याशी को खड़ा करने का बखेड़ा करके ऐसे प्रत्याशी को टिकट दिया है, जिसे कांग्रेस पहले ही राज्यसभा भेज चुकी है। ऐसे में कांग्रेस प्रत्याशी मधुसूदन मिस्त्री को इस सीट पर हार-जीत का डर कैसा, जब वह राज्यसभा की सदस्यता की शपथ लेकर संसद में अपनी सीट तो पुख्ता कर ही चुके हैं। अब तो कांग्रेस को वडोदरा में कांग्रेस प्रत्याशी के लिए केवल मोदी के खिलाफ भोकाल मात्र ही मचाने का रह गया है। तभी तो वडोदरा से प्रत्याशी घोषित होते ही मधुसूदन मिस्त्री ने पोस्टर फाड़ने की सियासत करके मोदी को गीदड़ भभकी देने की कोशिश की थी।
इमोशनल अत्याचार
देश की राजनीति में इस लोकसभा चुनाव से पहले कभी ऐसे बेतुके बोल नहीं देखे, जिन्हें सुनकर जब बेतुके बोल अपनी तरफ मुड़े तो मां व भाई के चुनाव प्रचार में प्रियंका गांधी के अपने पति राबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों से ऐसा भावुकता का बयान आया कि विरोधी दल भाजपा भी नरम पड़ती नजर आई। लेकिन प्रियंका का यह बदजुबानी करने वालों को नसीहत थी या भावात्मक अत्याचार, क्योंकि उनको यह भी समझना चाहिए कि उनकी मां सोनिया गांधी ने ही मोदी को मौत का सौदागर कहकर इस बेतुके बोल की शुरुआत की थी, जिसे भाई राहुल ने जाने क्या-क्या मॉडल की संज्ञा देकर बुलंदियों तक पहुंचा रहे हैं। अब जब ये बेतुके बोल खुद पर भारी पड़ने लगे तो भावुकता का चोला सामने आ गया, लेकिन सियासत की गलियों में तो अब यही चर्चा आम हो रही है कि चरम पर पहुंची बदजुबानी के चलते प्रियंका मां व भाई के पक्ष में विरोधियों पर इमोशनल अत्याचार कर रही हैं।
जहर की राजनीति
कहते हैं काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती यहां तो फिर भी कई बार चढ़ चुकी है। देश के राजनेताओं ने देश की जनता को अपने हाल पर भी रहने लायक नहीं छोड़ा। 21वीं सदी की सियासत से तो साठ साल पहले की सियासत ही अच्छी है। फिलहाल की राजनीति तो ऐसी नजर आने लगी है कि सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की जंग में तो यह पहचानना ही मुश्किल हो गया है कि कौन धर्मनिरपेक्ष और कौन सांप्रदायिक है। हाल ही में तोगड़िया ने मुसलमानो की सम्पत्ति पर कब्जा करने का बयान दिया तो मोदी फोबिया ने इस तबके की नींद ही हराम कर दी। ऐसा ही एक बयान का दावा धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक से कोसो दूर होने का दावा करने वाली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की शाजिया इल्मी ने मुस्लिमों को कम्युनल होने का पाठ पढ़ाने की कोशिक की है, जो ऐसे में तोगड़िया या इल्मी के बयानों में क्या फर्क रह गया और अलग तरह की राजनीति करने वाली आप कैसे कह पाएगी कि वह अन्य दलों से अलग है। सवाल यही है कि हमाम में सब नंगे हैं, क्योंकि लहर और जहर की राजनीति में जनता ही गेंहू के साथ घुन की तरह पिसती है।
नहीं गली दाल
देवरिया लोकसभा सीट से कलराज मिर्शा को टिकट मिलने के कारण बगावत की राह धरते धरते रह गए उत्तर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही का हृदय परिवर्तन हो गया है। वह आजकल अपने साथियों से ज्यादा विरोधियों के घर जाकर कलराज मिर्शा के लिए वोट की अपील कर रहे हैं। उनका यह बदला रूख देख के कलराज की कोर टीम के सदस्य हैरान। कि कहां, कल तक तो शाही जी ने मुर्दाबाद के नारे लगवाए ,पुतला दहन कराए और यकायक इतना सर्मपण भाव क्यों। फिर क्या शुरु हो गई पड़ताल। जो बात सामने आई तो पता चला कि शाही जी भीतर ही भीतर सपा से टांका जोड़ रहे थे। किंतु बात नही बन पाई। शाही के कुछ व्यापारी सर्मथक भी हवा का रूख देखकर निकल लिए। उन्होंने अपने कुछ खासमखास सर्मथकों को घर बुला उनकी राय ली। क्या किया जाए। शाही को उनके सर्मथकों ने कुछ गंभीर सलाह दी, जो जंच गई। उसके बाद से ही शाही जी और उनके सर्मथक घूम घूमकर ‘अच्छे दिन आने वाले है’ नारा लगा रहे हैं। शाही को जानने वालों ने कलराज को सलाह दी है कि.. संभल कर चलने का असल वक्त आ गया है। चर्चा है कि कलराज ने भी मेहनत तेज कर दी है।
27Apr-2014

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

हॉट सीट : टोंक सवाई माधोपुर- भाजपा के गढ़ में फंसी अजहर की सियासी पारी!

ओ.पी. पाल
राजस्थान की टोंक-सवाई माधोपुर लोकसभा सीट में शामिल सभी आठों विधानसभा सीटें भाजपा के कब्जे में हैं। ऐसे में मुरादाबाद का रण छोड़कर भाजपा के इस राजनीतिक गढ़ में कांग्रेस के लिए पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद अजरूद्दीन की सियासत की दूसरी पारी फंसती दिखाई दे रही है। अजहर के लिए इस सीट पर चुनावी राह इसलिए भी आसान नहीं दिख रही है, क्योंकि सूबे में कांग्रेस शासन के बावजूद पिछले आम चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर केंद्र में मंत्री बने नमोनरायण मीणा मात्र 317 मतों के अंतर से बामुश्किल लोकसभा पहुंच पाए थे। संसदीय क्षेत्र के मिजाज का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है  कि कुल आठ विधानसभा वाले इस क्षेत्र में सभी विधायक भाजपा के हैं।
रणथम्भौर बाघ परियोजना के लिए मशहूर सवाई माधोपुर जिले और तहजीब और राजस्थान की नवाबों की नगरी टोंक को मिलाकर नए परिसीमन में सृजित की गई टोंक-सवाई माधोपुर संसदीय सीट पर 24 अप्रैल को होने वाली सियासी जंग में कांग्रेस ने भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान रहे क्रिकेटर मोहम्मद अजहरूद्दीन का उतारा है, जिन्होंने पिछला चुनाव मुरादाबाद लोकसभा सीट से सियासत की पहली पारी जीती थी। मीणा, गुर्जर और मुस्लिम बाहुल्य इस संसदीय सीट से कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने जातिगत समीकरणों को साधने के लिए पैराशूट प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे हैं। भले ही अजहर इस सीट पर कांग्रेसियों के बाहरी होने के ताने सुनकर यह कहते हों कि भारत में कहीं से भी चुनाव लड़कर बाहरी उम्मीदवार नहीं हो सकता, लेकिन पैराशूट से उतारे जाने वाले अजहर ही नहीं है, भाजपा ने भी पैराशूट से गुर्जर नेता सुखबीर सिंह जौनपुरिया पर सियासी दांव आजमाया है। विधाानसभा चुनावों की तरह इस सीट पर भाजपा व कांग्रेस के बीच ही टक्कर मानी जा रही थी, लेकिन सूबे में राजनीतिक पहचान बनाने वाले किरोड़ी लाल मीणा ने अपने भाई जगमोहन मीणा को राजपा का प्रत्याशी बनाकर सियासी जंग को त्रिकोणीय बना दिया है। हालांकि करीब छह माह पहले ही राजस्थान विधानसभा चुनाव में इस लोकसभा सीट में निहित सभी आठ सीटों पर भाजपा ने जीत का परचम लहराकर इसे अपनी पार्टी का गढ़ बना दिया है। पिछले आम चुनाव में कांग्रेस के नमोनारायण मीणा भाजपा के किरोडी सिंह बैंसला से मात्र 317 वोट ज्यादा लेकर लोकसभा पहुंचे थे। इस बार वह दौसा लोकसभा सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
लोकसभा सीट का सफर
टोंक-सवाई माधोपुर संसदीय सीट के अस्तित्व में आने पर पहला चुनाव 2009 में कांग्रेस के नमोनारायण मीणा ने जीता, जिन्होंने 14वीं लोकसभा का चुनाव टोंक लोकसभा सीट से जीता था। इससे पहले टोंक व सवाई माधोपुर संसदीय सीटों पर कांग्रेस ने जीती, उसके बाद दोनों सीटों पर स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवारों ने परचम लहराया था। 1971 में टोंक पर कांग्रेस तो सवाई माधोपुर सीट कांग्रेस ने कब्जाई। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में दोनों सीटों पर जनता पार्टी ने कब्जा जमाया, तो उसके बाद दों आम चुनाव में इन सीटों पर फिर कांग्रेस जीतकर आई। वर्ष 1989 में दोनों सीटों को जनता पार्टी ने फिर कांग्रेस के जबडे से निकाली। जबकि 1991 के चुनाव में इन दोनों सीटों पर भाजपा का तो 1996 के चुनाव में एक भाजपा व एक कांग्रेस के पास गई। 1998 के चुनाव में फिर दोनों सीटों पर कांग्रेस का परचम लहराया। तो 1999 में इन दोनों सीटों पर भाजपा के प्रत्याशी जीत कर आए। 2004 के चुनाव में इन सीटों पर फिर कांग्रेस जीतकर आई।
मतदाताओं का चक्रव्यूह
टोंक जिले की चार मालपुरा, निवाई, टोंक व देवली-उनियारा तथा सवाई माधोपुर जिले की गंगापुर, बामनवास, सवाई माधोपुर व खंडार विधानसभओं से 2008 के परिसीमन में सृजित टोंक-सवाई माधोपुर लोकसभा सीट पर करीब आठ लाख महिलाओं समेत 17.10 लाख मतदाओं का जाल बिछा हुआ है,जिसे भेदने के लिए इस सीट पर भाजपा, कांग्रेस, राजपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, लोकदल, आप एनपीपी,जेएमबीपी जैसे दलों समेत इस चरण के चुनाव में सबसे ज्यादा 22 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इस सीट पर मीणा बिरादरी के अलावा अगडी जातियो के वोट बैंक पर अच्छा प्रभाव रखने वाले मक्खन लाल मीणा भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में इस चुनावी मुकाबले को प्रभावित करते दिख रहे हैँ।
चुनावी मिजाज
टोंक-सवाई माधोपुर संसदीय सीट पर इस बार कांग्रेस ने क्रिकेटर मो. अजहरूद्दीन को टिकट देकर स्थानीय कांग्रेसियों का विरोध भी मोल ले लिया है,जहां मोहम्मद अजहरूद्दीन को बाहरी उम्मीदवार करार देते हुए कांग्रेस के पूर्व विधायक समेत अन्य पदाधिकारियों का खुला विरोध भी झेलना पड़ रहा है,लेकिन इस विरोध का कांग्रेस आलाकमान पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा। यही नहीं भाजपा के भी कांग्रेस के कदमों पर चलते हुए टोंक-सवाई माधोपुर संसदीय क्षेत्र सें गुर्जर मतों को साधने के इरादे से बाहरी उम्मीदवार सुखबीर सिंह जौनपुरिया को भी अंदरूनी खींचतान का शिकार होना पड़ रहा है। पिछले चुनाव में कांग्रेस के नमोनारायण मीणा से मामूली मतों से हारे कर्नल किरोडी सिंह बैंसला हालांकि अब कांग्रेस की नाव में सवार हैं। राजनीतिज्ञ पंडितों का मानना है कि कर्नल किरोडी सिंह बैंसला जौनपुरिया की जीत की राह में रोड़ा बनने का प्रयास कर रहे हैं। कर्नल का गुर्जर मतों पर काफी प्रभाव है और राजस्थान में चले गुर्जर आरक्षण आन्दोलन के दौरान बैंसला और जौनपुरिया के रिश्तों में छत्तीस का आंकड़ा रहा है। भाजपा प्रत्याशी सुखबीर सिंह जौनपुरिया मूलरूप से हरियाणा के हैं और तीन साल पहले उस समय चर्चाओं में आए जब उन्होंने बेटी की शादी में शाही खर्च करके सुर्खियां बटोरी। यही नहीं उनहोंने पिछला चुनाव भी लड़ा था लेकिन सियासी रंग पटरी पर नहीं चढ़ पाया था।
24Apr-2014

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

हॉट सीट: मैनपुरी- मुलायम का सियासी तिलिस्म तोड़ना आसान नहीं!

25 साल से बना है सपा का सियासी गढ़
ओ.पी.पाल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अंतिम जिला माने जाने वाले जिले की मैनपुरी लोकसभा संसदीय क्षेत्र समाजवादी पार्टी का गढ़ माना जाता है। मुजफ्फरनगर दंगों के कारण सपा से नाराज दिख रहे मुस्लिमों को शाक्य व अपने परंरागत वोट बैंक में समेटने की नीयत से बसपा सोशल इंजीनिरिंग की रणनीति से सीट कब्जाने के प्रयास में हैं, तो वहीं भाजपा भी मोदी मैजिक के सहारे इस सीट पर मुलायम सिंह को घेरेने की तैयारी से सियासत की जंग में हैं। इन रणनीतियों के बावजूद भाजपा व बसपा या अन्य किसी दल के लिए इस सीट पर ढाई दशक से जारी मुलायम सिंह के सियासी तिलिस्म को तोड़ना बेहद कठिन नजर आ रहा है।
ब्रिटिश राज में स्वतंत्रता आंदोलन की वीर गाथाओं को समेटे मैनपुरी लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी ने वर्ष 1989 में अपनी राजनीति का सिक्का जमाया और तभी से खासकर भाजपा व बसपा की सभी राजनीतिक कसरते सपा के गढ़ को भेदने में नाकाम रही। सूबे में सत्तारूढ़ सपा के शासन पर दंगों के दाग ने हालांकि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की परेशानी बढ़ाई हैं, शायद इसलिए उन्होंने मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया। कांग्रेस ने इस सीट पर मुलायम सिंह के खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारा, लेकिन नेताजी के हलकान होने के कारण भाजपा और बसपा को सपा से मुस्लिमों की बढ़ी नाराजगी से इस बार उम्मीदें बढ़ी हैं। इस सीट पर जब से सपा का सियासी तिलिस्म जारी है तभी से भाजपा व बसपा की सियासी कसरतें तो जारी रही, लेकिन चार बार भाजपा और तीन बार बसपा को उप विजेता के रूप में ही संतोष करना पड़ा है। राजनीति के धुरंधर और संयुक्त मोर्चा के पीएम पद के उम्मीदवारों में से एक मुलायम सिंह यादव को इस सीट पर चुनौती देने के लिए भाजपा ने जातियी समीकरण को साधते हुए शत्रुघ्न सिंह चौहान तथा बसपा ने डा. संघमित्रा मौर्य को सियासत की जंग में उतारा है। ऐसे में आम आदमी पार्टी ने भी इस सीट पर यूपी में ईमानदारी छवि के साथ प्रशासनिक अधिकारी रहे बाबा हरदेव सिंह पर दांव खेला है, तो पीस पार्टी के अबु नसीम पठान व फारवर्ड ब्लाक के सतेन्द्रवीर चौहान भी किस्मत आजमा रहे हैं।
नेता जी की प्रतिष्ठा का सवाल
उत्तर प्रदेश में तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव को सियासत का पहलवान भी कहा जाता है, जो कभी भी किसी को भी उसी तरह सियासी पटखनी देने में माहिर है जैसे वे पहलवानी के दौरान अखाड़ें में पछाड़ते थे। अध्यापन कार्य व पहलवानी छोड़कर 1967 में यपूी विधानसभा का चुनाव जीतकर राजनीतिक सफर शुरू करने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। चौधरी चरण सिंह का उत्तराधिकारी मानने वाले मुलायम सिंह यूपी में सात बार विधायक और पांच बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं और छठी बार लोकसभा में जाने की तैयारी कर रहे हैं। चूंकि गैर भाजपा व गैर कांग्रेसी दलों को एक मंच पर लाकर संयुक्त मोर्चा के पीएम उम्मीदवारों में से भी नेताजी एक हैं। इसलिए इस बार वह मैनपुरी के साथ आजमगढ़ सीट से भी चुनावी जंग में हैं।
मैनपुरी सीट का सियासी सफर
मैनपुरी लोकसभा सीट पर 15 लोकसभा के लिए 16 चुनाव हो चुके हैं। वर्ष 2004 के आम चुनाव में इस सीट से बसपा के अशोक शाक्य को हराकर 63.96 प्रतिशत वोट लेकर वे चुनाव जीते, लेकिन उधर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार गिरने से कांग्रेस व रालोद के साथ मिलकर सपा ने सरकार बनाई तो मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ही बने और उन्हें यह सीट छोड़ी पड़ी, लेकिन उन्होंने यहां उप चुनाव में अपने भतीजे धर्मेन्द्र यादव को लोकसभा पहुंचाया। पिछला चुनाव भी बसपा को हराकर मुलायम सिंह ने जीता। उससे पहले नेताजी 1998 व 1999 का चुनाव संभल सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। जबकि 1996 में पहली बार लोकसभा पहुंचे मुलायम सिंह यादव जनमोर्चा की वीपी सिंह की केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री भी रहे। इस सीट पर पहला चुनाव कांग्रेस और दूसरा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के कब्जे में गया, जबकि इसके बाद लगातार तीन चुनाव में कांग्रेस का परचम लहराया गया। आपातकाल के बाद 1977 में यहां भारतीय लोकदल और 1980 में जनता दल-सेक्युलर के टिकट पर रघुनाथ सिंह वर्मा लगातार दो बार लोकसभा पहुंचे। 1984 में फिर कांग्रेस के चौधरी बलराम सिंह यादव जीते, जिसके बाद कांग्रेस यहां कभी नहीं जीती। 1989 व 1991 में उदय प्रताप सिंह ने जनता दल व जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता। जबकि 1991 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने अन्य किसी दल के यहां सियासी पैर नहीं जमने दिये।
जातीय समीकरण
मैनपुरी लोकसभा सीट यादव बाहुल्य है, जहां दूसरे पायदान पर शाक्य व दलित वर्ग के मतदाता हैं। इसके बाद राजपूत जाति के वोटर इस सीट के लिए निर्णायक रहे हैं। अनुसूचित जाति के वोटरों की संख्या भी लगभग ढाई लाख से कम नहीं है। सपा यहां परंपरागत वोटरों के अलावा मुस्लिम और ओबीसी के समर्थन पर सियासत की जमीन पर खड़ी है। मैनपुरी, करहल, भौगांव, किशनी, जसवंतनगर विधानसभाओं को मिलाकर बनी इस सीट पर 7.32 लाख महिलाओं समेत 16.08 लाख मतदाताओं का जाल है, जिससे भेदने के लिए इस सीट पर 13 उम्मीदवार चुनावी जंग में हैं। राजनीतिक दलों के अलावा छह उम्मीदवार निर्दलीय रूप से भी किस्मत आजमा रहे हैं।
खाली होते कटोरे ने बदला मिजाज
आजादी के बाद 1990 तक मैनपुरी की पहचान सारे देश में धान के कटोरे के रूप में होती थी। तकरीबन 143 राइस मिलों के पहिए जब घूमते थे, तो पूरे देश में यहां के चावल की पहचान होती थी। मगर धान का कटोरा लगातार खाली होता गया। अब महज 14 राइस मिलें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। हालांकि एक चीनी यात्री हुएन सांग ने अपनी यात्रा वर्तांत में मैनपुरी का जिक्र कपिथ नामक शहर के रूप में किया है। बौद्ध धर्म के प्राचीन सांस्कृतिक स्थान सनकिसा की पहचान यहां बसंत गांव के रूप में की गई है। यहां प्राचीन शीतला मां का मंदिर है जहां पर चैत्र अपे्रल माह में 20 दिनों तक मेला लगता है। फूलबाग और लोहियाबाग भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं। यदि मैनपुरी के इतिहास को देखे तो यह जानकार हैरत होगी कि मैनपुरी जिला किसी जमाने में एक पूरा राज्य हुआ करता था। यहां राजाओं का राज्य था, उनकी सत्ता थी। मैनपुरी के चैहानवंशीय महाराजाओं ने जिले में जगह-जगह पर ऐतिहासिक इमारतों, किलों, दुर्ग और सरायों का निर्माण कराया था।
23Apr-2014

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

स्टेट रिपोर्ट: यूपी ब्रज भूमि में अटकी हैं छह सियासी घरानों की सांसे !


24 अप्रैल को होना है मतदान
ओ.पी.पाल 
सोलहवीं लोकसभा के लिए छठे चरण और उत्तर प्रदेश में तीसरे चरण की सियासी जंग की पटकथा ब्रजभूमि में ही लिखी जाए, ऐसा ही दिखाई दे रहा है। ब्रज इलाके में एक नहीं, मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, चौधरी अजित सिंह, सलमान खुर्शीद, रामबीर उपाध्याय, राजा महेन्द्र अरिमदन जैसे छह सियासी घरानों की सियासी प्रतिष्ठा दांव पर हैं, जहां राजनीति दलों और राजनीति के धुरंधरों, उनके पुत्रों, बहू एवं बेटी के अलावा एक फिल्म अभिनेत्री सियासत की अमर कथा लिखने जा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव ही केवल एक नेता नहीं, राजनीतिक घराने के मुखिया हैं। राजनीतिक घराने के रूप में उन्हें नंबर एक की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसे केई राजनीतिक घरानों की आगामी 24 अप्रैल को उत्तर प्रदेश की ब्रजभूमि की 12 लोकसभा सीटों पर मतदान के दौरान प्रतिष्ठा दांव पर रहेगी। सूबे की सत्तारूढ़ सपा के प्रमुख मुलायम सिंह यादव स्वयं मैनपुरी से अग्नि परीक्षा दे रहे हैं तो उनकी बहू और यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की धर्मपत्नी श्रीमती डिंपल यादव कन्नौज लोकसभा सीट पर सियासत की दूसरी पारी खेल रही हैं। मुलायम सिंह यादव के परिवार से ही रामगोपाल यादव के शहजादे अक्षय कुमार यादव सियासी जंग में हैं। यूपीए के सहयोगी रालोद प्रमुख और केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह के सुपुत्र जयंत चौधरी जो गांव और किसान की ताकत को स्थापित करने वाले चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने का दावा कर चुके हैं की भी मथुरा लोकसभा सीट पर इस बार अग्नि परीक्षा है, जिनका मुकाबला भाजपा प्रत्याशी और फिल्म अभिनेत्री हेमामालिनी से होना है। पिछड़े वर्ग की सियासत में सत्ता का जुनून भरने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की अगली पीढ़ी विरासत को कितना सहेजेगी इस फैसले के लिए भी उनके शहजादे राजबीर सिंह एटा लोकसभा सीट पर सियासी जंग में हैं। एटा संसदीय क्षेत्र से पुत्र व पूर्व मंत्री राजबीर सिंह राजू भैया को चुनावी अखाड़े में उतारकर कल्याण सिंह ने विरासत की सियासत में एक और दांव लगाया है। गत दो विधानसभा चुनावों में डिबाई क्षेत्र से हार चुके राजू भैया इस बार मोदी मैजिक के सहारे सांसद चुने गए तो कल्याण परिवार का रुतबा बना रहेगा। ब्रज क्षेत्र में सियासी घराने के रूप में उपाध्याय परिवार दो दशक के भीतर मजबूत सियासी ताकत बनकर उभरा है। मसलन पूर्व मंत्री रामवीर उपाध्याय न केवल अपनी पत्नी सीमा उपाध्याय को सांसद बनाने में सफल रहे, वरन अपने भाइयों को सत्ता के केंद्र बनाए रखा। रामवीर की पत्नी सीमा उपाध्याय फतेहपुर सीकरी से दूसरी बार लोकसभा में जाने की जुगत में है, जहां उनका मुकाबला रालोद प्रत्याशी अमर सिंह व भाजपा के चौ. बाबूलाल से होना है। ब्रज क्षेत्र में राजा भदावर परिवार का अर्से से राजनीति में बड़ा असर रहा है और इस इलाके में मजबूत सियासी घराना माना जाता है। राजा महेंद्र रिपुदमन सिंह छह बार विधायक चुने गए, तो महेंद्र अरिमदन सिंह भी कम नहीं रहे हैं। कैबिनेट मंत्री महेंद्र अरिमदन ने अपनी विरासत कायम रखने के लिए पत्नी पक्षालिका सिंह को सपा उम्मीदवार के रूप में फतेहपुर सीकरी से सांसद बनने को चुनावी जंग में उतारा है। फरूखाबाद में केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद का भी एक मजबूत सियासी घराना रहा है, जहां उनकी स्वयं अग्नि परीक्षा होनी है। हालांकि इस चरण के चुनाव में हाथरस से सपा के रामजीलाल सुमन, फिरोजाबाद से भाजपा के प्रो. एसपी सिंह बघेल, मथुरा में भाजपा प्रत्याशी और सिने तारिका हेमामालिनी, अकबरपुर में कांग्रेस सांसद राजाराम पाल जैसे नेताओं को भी अग्नि परीक्षा से गुजरना है।
मौजूदा सियासी तस्वीर
ब्रज भूमि इलाके की जिन 12 लोकसभा सीटों पर 24 अप्रैल को चुनाव होना है, उनकी मौजूदा तस्वीर को देखें तो 2009 के चुनाव में सपा चार, कांग्रेस तीन, रालोद दो तथा भाजपा व बसपा एक-एक सीट पर काबिज हुई थी। 16वीं लोकसभा की तस्वीर तो अभी भविष्य के गर्भ में छिपी है, जिसे 16 मई को आने वाले नतीजे ही साफ कर सकेंगे। 24 अप्रैल को जिन 12 सीटों पर चुनाव होना है उनमें आगरा (सु), फतेहपुर सीकरी, फिरोजाबाद, मैनपुरी, हाथरस(सु), एटा, हरदोई (सु) फरूर्खाबाद, इटावा (सु), कन्नौज और अकबरपुर शामिल हैं।
22Apr-2014

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

हॉट सीट: हाथरस- कांग्रेस की बैसाखी पर आसान नहीं रालोद की राह!


नब्बे के दशक से भाजपा का है दबदबा
ओ.पी.पाल 
हिंदी जगत के सुप्रसिद्ध कवि और काव्य कोष के धनी काका हाथरसी की नगरी हाथरस लोकसभा सीट पर वैसे तो जनता ने कभी क्षेत्रीय या छोटे दलों को एक सिरे से नकारा है। अयोध्या आंदोलन के बाद देशभर में चली रामलहर का असर हाथरस सीट पर कुछ ज्यादा देखने को मिला, जिसका लगातार दबदबा बना रहा है। पिछले चुनाव में रालोद की जीत को भाजपा की मजबूत बैशाखी के सहारे ही मिल पाई थी। इस बार रालोद कांग्रेस की बैशाखी के सहारे फिर से सियासत की जंग जितने की फिराक में है, लेकिन इस बार भाजपा की पहाड़ सी चुनौती के सामने रालोद की राह आसान नहीं लगती।
आगरा मंडल की हाथरस लोकसभा सीट देश के प्रथम चुनाव से ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित रही है। काका हाथरसी की की यह नगरी भी कभी कानपुर की भांति उद्योगों के मामले में अपनी पहचान बना चुकी थी। 17 साल पहले इस नगरी को आगरा और मथुरा के हिस्से काटकर जिले का दर्जा दिया गया तो लोगों को लगा था कि यहां का विकास अब तेजी से होगा, लेकिन सूबे की खासकर सपा व बसपा की सरकारों ने इन 17 सालों में इस जिले का नाम सात बार बदलने का काम किया है। मसलन जब बसपा सत्ता में आई तो उसने इसे महामायानगर नाम दिया और भाजपा या फिर सपा सरकार इसका नाम फिर हाथरस करती रही है। इस सीट का सियासी मिजाज ही कुछ ऐसा देखने को मिला जहां जातिवाद, तुष्टीकरण, जोड़-तोड़ व सियासी चालों में माहिर क्षेत्रीय व छोटे दलों को यहां की जनता ने वोट काटू मानते हुए हमेशा नकाराने का काम किया है। पिछले वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में भी रालोद की सारिका बघेल इसलिए जीतकर लोकसभा पहुंच गई थी, कि वह भाजपा-रालोद की संयुक्त प्रत्याशी थी। वरना इस सीट पर यहां की जनता ज्यादातर कांग्रेस या भाजपा को कसौटी पर कसती रही है। इस रालोद भाजपा के गठजोड़ के अनुभव पर कांग्रेस की बैशाखी पर है लेकिन भले ही पश्चिम उत्तर प्रदेश में रालोद अपना सियासी असर रखती हो, लेकिन कांग्रेस विरोधी लहर में उसकी सियासी डगर बेहद मुश्किल है।
चुनावी इतिहास
हाथरस लोकसभा चुनाव के इतिहास पर नजर डालें तो शुरूआती चार दशक में जहां कांग्रेस पांच बार जीती, तो 90 के दशक से इस सीट पर भाजपा का ही दबदबा है। मसलन पिछले चुनाव में श्रीमती सारिका बघेल (रालोद )की जीत में भी भाजपा का ही सेहरा बंधा था। आजाद भारत के पहले चुनाव दो और चौथी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस के नरदेव स्नातक जीते। तीसरी लोकसभा का चुनाव आरपीआई के जोती स्वरूप जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। वर्ष 1971 चन्द्रपाल सैलानी ने चौथी और 1984 में पूरन चंद ने कांग्रेस का पांचवी जीत दिलाई। आपातकाल के बार चली कांग्रेस विरोधी लहर में 1977 में आरपी देशमुख तथा 1980 में चन्द्रपाल सैलानी ने जनता पार्टी का परचम लहराया। 1989 का चुनाव जनता दल के बंगाली सिंह ने जीता, जिसके बाद 1991 में लाल बहादुर रावल ने जीत हासिल कर भाजपा का खाता खोला, जिसके बाद भाजपा ने पीछे मुडकर नहीं देखा और 1996 समेत लगातार चार जीत हासिल कर किशनलाल दिलेर भाजपा के टिकट पर लगातार लोकसभा पहुंचते रहे। इस बार इस सीट पर भाजपा के टिकट पर राजेश कुमार दिवाकर सियासी जंग में हैं, जबकि कांग्रेस के तालमेल में रालोद ने सारिका बघेल की बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले निरंजन सिंह धनगर को सीट बचाने की फिराक में खड़ा किया है। 15वीं लोकसभा में पहुंची सारिका बघेल की सदन में उपस्थिति तो 94 प्रतिशत हैं लेकिन क्षेत्र के लिए कुछ खास नहीं कर पाई और मात्र 23 सवाल पूछे और एक बहस में हिस्सा ले पाई।
मतदाताओं का चक्रव्यूह
आगरा, अलीगढ़ और मथुरा के हिस्से काटकर 17 साल पहले बनाए गये हाथरस जिले की इस लोकसभा सीट को नए परिसीमन के बाद छर्रा, इगलास,हाथरस, सादाबाद व सिकन्दराऊ विधानसभाओं को मिलाकर सृजित किया गया है। हाथरस लोकसभा सीट पर करीब 7.68 लाख महिलाओं समेत 17.13 लाख मतदाताओं का चक्रव्यूह बना हुआ है, जिसे भेदने के लिए इस सीट पर भाजपा के राजेश दिवाकर व रालोद के निरंजन सिंह धनगर के अलावा सपा के रामजीलाल सुमन, बसपा के मनोज कुमार सोनी व आप के सुनहरी लाल समेत नौ प्रत्याशी सियासत की जंग में हैं। रालोद के निरंजन सिंह के हमनाम भी एक निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव के मैदान में है।
अतीत की पहचान किला
ब्रज क्षेत्र के हाथरस का इतिहास महाकाव्य महाभारत और हिंदू पौराणिक कथाओं के साथ जुड़ा हुआ है, जहां शहर के पूर्वी छोर पर राजा दयाराम का किला अपने अतीत में इतिहास समेटे हुए है और इस शहर की पहचान भी है। अंग्रेजी हुकूमत के आगे न झुकने की गवाही भी किले पर बने दाऊजी मंदिर की प्राचीर देता है। एक जमाना था जब यहां ऊंचे-ऊंचे टीले और खाई किले के इतिहास की गवाही देते थे, लेकिन बदलती परिस्थितियों और सियासी जंजाल में यह किला जर्जर होने के कगार पर खड़ा हुआ है।
21Apr-2014

हॉट सीट: आगरा सीट पर नमो मैजिक करेगा कमाल!

ओ.पी. पाल. आगरा से 
विश्वप्रसिद्ध ताजनगरी के रूप में पहचाने जाने वाले शहर की आगरा लोकसभा सीट पर मोदी मैजिक के चलते भाजपा के लिए अपनी सीट को बचाने की दरकार होगी।   इस सीट पर कांग्रेस पिछले 34 साल से जीत का स्वाद नहीं चख पाई है, जिसने इस बार दलित वोट बैंक के भरोसे उपेन्द्र जाटव को भाजपा को चुनौती देने के लिए सियासत की जंग में उतारा है, जबकि बसपा अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने के प्रयास में है। सपा ने ऐनमौके पर महिला उम्मीदवार को जंग से हटाकर उसी बिरादरी के महाराज सिंह धनगर पर दांव खेला है। अब देखना है कि इस चतुष्कोणीय सियासी जंग में किसके सिर जीत का ताज बंधता है। आगरा लोकसभा सीट पर पिछला चुनाव भाजपा प्रत्याशी डा. रामशंकर कठेरिया ने बसपा के कुंवर चंद को पराजित करके जीता था और सपा के रामजीलाल 

ये है दलों की चिंता
इस सीट पर कांग्रेस पिछले 34 साल से जीत का स्वाद नहीं चख पाई है, जिसने इस बार दलित वोट बैंक के भरोसे उपेन्द्र जाटव को भाजपा को चुनौती देने के लिए सियासत की जंग में उतारा है, जबकि बसपा अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने के प्रयास में है। सपा ने ऐनमौके पर महिला उम्मीदवार को जंग से हटाकर उसी बिरादरी के महाराज सिंह धनगर पर दांव खेला है। अब देखना है कि इस चतुष्कोणीय सियासी जंग में किसके सिर जीत का ताज बंधता है। आगरा लोकसभा सीट पर पिछला चुनाव भाजपा प्रत्याशी डा. रामशंकर कठेरिया ने बसपा के कुंवर चंद को पराजित करके जीता था और सपा के रामजीलाल सुमन को तीसरे पायदान पर धकेल दिया था। यह सीट 1999 व 2004 के चुनाव में फिल्म अभिनेता राज निर्वाचन आयोग से लेकर राजनीतिक दलों की एक ही चिंता है कि मतदान प्रतिशत कैसे बढ़ाया जाए। आगरा लोकसभा सीट पर जनता पार्टी की लहर में कांग्रेस के प्रति आपातकाल के गुस्से वाले 1977 के चुनाव में 65.75 प्रतिशत मतदान का रिकार्ड अभी भी कायम है। इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ विरोधी लहर है, तो जिसे चुनाव आयोग के अभियान में इस बार इस रिकार्ड को ध्वस्त करने की दरकार होगी। उस समय बीएलडी के शम्भूनाथ चतुर्वेदी ने रिकार्ड 70 प्रतिशत वोट हासिल कर कांग्रेस के विजयी रथ को रोका था। 
प्रत्याशी व मतदाताओं का भ्रम
आगरा लोकसभा सीट नए परिसीमन के बाद जिस तरह से सृजित की गई है उसमें एटा जिले के निधौली कलां विकास खंड तमाम वोटरों व आगारा व एटा लोकसभा सीट के प्रत्याशियों के लिए भ्रमजाल बना हुआ है। यह सिर्फ इसलिए कि विकास खंड एक होने के बावजूद भी यहां के मतदाता दो सांसदों का चुनाव अलग-अलग लोकसभा क्षेत्रों के लिए करते हैं। ऐसे में प्रत्याशियों के प्रचार वाहन एक-दूसरे की सीमाओं में पहुंचकर अशिक्षित ग्रामीणों के लिए भ्रम पैदा कर देते हैं। 

रविवार, 20 अप्रैल 2014

हॉट सीट:आगरा- किसके सिर बंधेगा सियासी ताज !

सपा-बसपा-कांग्रेस के लिए चुनौती भाजपा
ओ.पी.पाल

विश्वप्रसिद्ध ताजनगरी के रूप में पहचाने जाने वाले शहर की आगरा लोकसभा सीट पर मोदी मौजिक के चलते भाजपा के लिए अपनी सीट को बचाने की दरकार होगी। इस सीट पर कांग्रेस पिछले 34 साल से जीत का स्वाद नहीं चख पाई है, जिसने इस बार दलित वोट बैंक के भरोसे उपेन्द्रग जाटव का भाजपा को चुनौती देने के लिए सियासत की जंग में उतारा है, जबकि बसपा अपने परंपरागत वोट बैंक को बचाने के प्रयास में है। सपा ने ऐनमौके पर महिला उम्मीदवार को जंग से हटाकर उसी बिरादरी के महाराज सिंह धनगर पर दांव खेला है। अब देखना है कि इस चतुष्कोणीय सियासी जंग में किसके सिर जीत का ताज बंधता है।
आगरा लोकसभा सीट पर पिछला चुनाव भाजपा प्रत्याशी डा. रामशंकर कठेरिया ने बसपा के कुंवर चंद को पराजित करके जीता था और सपा के रामजीलाल सुमन को तीसरे पायदान पर धकेल दिया था। यह सीट 1999 व 2004 के चुनाव में फिल्म अभिनेता राज बब्बर ने सपा के टिकट पर जीती थी,लेकिन मनमुटाव के कारण राज बब्बर ने सपा छोड़कर पिछला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर फतेहपुर सीकरी से लड़ा, लेकिन हारने पर उन्होंने फिरोजाबाद सीट पर उप चुनाव में लोकसभा में दस्तक दी। इस बार सपा व बसपा यहां भाजपा को चुनौती देने की जुगत में हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी की हवा के सामने भाजपा को चुनौती देना इन दलों के लिए आसान नहीं दिखता। इस सीट पर आम आदमी पार्टी ने भी अपनी जमीन तैयार करने की तैयारी कर जंग में हिस्सेदारी की है। आगरा लोकसभा सीट के नए परिसीमन से गड़बड़ाए सियासी समीकरण के कारण सभी राजनीतिक दल बेहाल हैं, केवल इस शहरी सीट पर भाजपा ने अपना प्रभाव कायम किया है। आजादी के बाद लगातार पांच बार कांग्रेस के पास रही इस सीट पर विजयी रथ आपातकाल के बाद हुए चुनाव में थमा था और उसके बाद कांग्रेस 1980 का चुनाव ही जीत पाई है, उसके बाद कांग्रेस जीत के लिए तरस गई है। 1991 व 1998 में यहां भाजपा के भगवान शंकर रावत ने अपना परचम लहराया था, उसके बाद भाजपा पिछले चुनाव में फिर काबिज हुई।
प्रत्याशी व मतदाताओं का भ्रम
आगरा लोकसभा सीट नए परिसीमन के बाद जिस तरह से सृजित की गई है उसमें एटा जिले के निधौली कलां विकास खंड तमाम वोटरों व आगारा व एटा लोकसभा सीट के प्रत्याशियों के लिए भ्रमजाल बना हुआ है। यह सिर्फ इसलिए कि विकास खंड एक होने के बावजूद भी यहां के मतदाता दो सांसदों का चुनाव अलग-अलग लोकसभा क्षेत्रों के लिए करते हैं। ऐसे में प्रत्याशियों के प्रचार वाहन एक-दूसरे की सीमाओं में पहुंचकर अशिक्षित ग्रामीणों के लिए भ्रम पैदा कर देते हैं। दरअसल 15वीं लोकसभा के गठन से पहले हुए नए परिसीमन में निधौली कलां को मारहरा विधानसभा का नाम मिला, तो यह विकास खंड क्षेत्र विभाजित होकर एटा व आगरा लोकसभा से जुड़ गया। 2009 के चुनाव की में भी इस तरह का भ्रम बना रहा। यहां के लोगों की माने तो निधौली ब्लाक के पांच दर्जन गांव व मजरों को आगरा लोकसभा क्षेत्र में जोड़ दिया गया। इसके अलावा अन्य क्षेत्र एटा लोकसभा का हिस्सा बन गया। निधौली कला ब्लाक ऐसा क्षेत्र है जहां के मतदाता एक नहीं दो सांसदों का निर्णय करते हैं।
ये है दलों की चिंता
निर्वाचन आयोग से लेकर राजनीतिक दलों की एक ही चिंता है कि मतदान प्रतिशत कैसे बढ़ाया जाए। आगरा लोकसभा सीट पर जनता पार्टी की लहर में कांग्रेस के प्रति आपातकाल के गुस्से वाले 1977 के चुनाव में 65.75 प्रतिशत मतदान का रिकार्ड अभी भी कायम है। इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ विरोधी लहर है, तो जिसे चुनाव आयोग के अभियान में इस बार इस रिकार्ड को ध्वस्त करने की दरकार होगी। उस समय बीएलडी के शम्भूनाथ चतुर्वेदी ने रिकार्ड 70 प्रतिशत वोट हासिल कर कांग्रेस के विजयी रथ को रोका था। ऐसी लहर इंदिरागांधी की हत्या की सहानुभूति में भी नहीं चल पाई, जिसके बाद हुए वर्ष 1984 के चुनाव में 54.35 प्रतिशत मतदान हुआ था। हालांकि यह 1980 से अब तक हुए लोकसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत का रिकार्ड फिल्म अभिनेता राजबब्बर का जादू भी नहीं तोड़ सका। 1998 से तो मतदान प्रतिशत लगातार गिर रहा है। पिछले चुनाव में तो न्यूनतम 42.03 प्रतिशत ही वोट डाले जा सके थे। इसके अलावा 1980 में 53.98, 1984 में 54.35, 1989 में 42.89, 1991 में 45.61, 1996 में 43.31, 1998 में 53.92, 1999 में 51.39 तथा 2004 के चुनाव में 44.92 प्रतिशत मतदान हुआ था।
जातीय समीकरण
भारतीय लोकसतंत्र में हालांकि जातीय आंकड़े राजनीतिक दल अपने हिसाब से साधते हैं। नए परिसीमन में आगरा और एटा जिले के कुछ हिस्से को जोड़ते हुए एत्मादपुर, जलेसर, आगरा कैंट, आगरा साउथ व आगरा नोर्थ विधानसभाओं से सृजित आगरा लोकसभा सीट पर करीब आठ लाख महिलाओं समेत 17.61 लाख से ज्यादा वोटर हैं। इस सीट के इस मतदाताओं के चक्रव्यूह को भेदने के लिए भाजपा के मौजूदा सांसद डा. रामशंकर कठेरिया को चुनौती देने के लिए कांग्रेस के उपेन्द्र सिंह, सपा के महाराज सिंह धनगर, बसपा क नारायण सिंह सुमन, आप के रविन्द्र सिंह, जदयू के रमेश समेत 15 प्रत्याशी सियासत की जंग में हैं। राजनीतिक दलों के कयासों के मुताबिक तीन-तीन लाख वैश्य व दलित, 2.50 लाख मुस्लिम, दो लाख कोली, खटीक, कुशवाह व वाल्किकी 60 हजार यादव, 45 हजार जाट, 50 हजार ब्राहमण, 80 हजार राजपूत, 80 हजार बघेल के अलावा एक लाख पंजाबी मतदाताओं का जाल है, जिन्हें साधने के लिए हर दल तरह-तरह के हथकंडे अपना रहा है।
बेजोड़ इतिहास का धनी
उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिÞला शहर विश्व का अजूबा ताजमहल आगरा की पहचान है और यह यमुना नदी के किनारे बसा है। इस ऐतिहासिक नगर का इतिहास मुख्य रूप से मुगल काल से जाना जाता है। ई.स. 1631 में शाहजहाँ की बेगम मुमताज की मृत्यु होने पर उसकी याद में शाहं जहां ने एक भव्य महल-नुमा मकबरा बनवाने का निर्णय लिया, जिसने ताजमहल का रूप धारण किया। हालांकि यहां के इतिहास मे पहला जिक्र आगरा का महाभारत के समय से माना जाता है, जब इसे अग्रबाण या अग्रवन के नाम से संबोधित किया जाता था। कहते हैं कि पहले यह नगर आयॅग्रह के नाम से भी जाना जाता था। तौलमी पहला ज्ञात व्यक्ति था जिसने इसे आगरा नाम से संबोधित किया। वहीं आगरा का किला एक यूनेस्को घोषित विश्व धरोहर स्थल है। यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण किला है। भारत के मुगल सम्राट बाबर, हुमायुं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां व औरंगजेब यहां रहा करते थे, व यहीं से पूरे भारत पर शासन किया करते थे।
20Apr-2014

सियासत:- दागियों से दलों को नहीं चुनावी परहेज !

लोकसभा को दागी बनाने में जुटे  दल
छठे चरण में 321 दागियों पर खेला दांव
557 की किस्मत ईवीएम में हुई कैद
ओ.पी.पाल

15वीं लोकसभा में दागी सांसदों को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का डंडा चला और दो सांसदों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इस शिकंजे और चुनाव आयोग के चुनाव सुधार की जारी कवायद से ऐसा लग रहा था कि 16वीं लोकसभा के चुनाव में राजनीतिक दल दागियों से परहेज करेंगे, लेकिन ऐसा कतई नहीं हुआ और उससे भी ज्यादा दागियों को राजनीतिक दल लोकसभा में भेजने की तैयारी में जुटे हुए हैं। मसलन छठे चरण के चुनाव तक मात्र 349 लोकसभा सीटों पर ही 879 आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर सभी दलों ने दांव आजमाया है। इनमें से 557 प्रत्याशियों के भाग्य तो ईवीएम में कैद भी हो चुके हैं।
लोकसभा चुनाव का छठे चरण में 12 राज्यों की 117 सीटों पर चुनाव होना है, जहां 2077 प्रत्याशियों में 321 प्रत्याशियों पर आपराधिक दाग है। इससे पहले संपन्न हुए पांच चरणों के चुनाव में 557 की किस्मत को ईवीएम में कैद किया जा चुका है। चुनाव सुधार के लिए देशभर में काम कर रही गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) और इलेक्शन वाच ने अभी तक के प्रत्याशियों के शपथपत्रों को खंगाला है, जिसमें इतनी बड़ी संख्या में प्रत्याशियों ने स्वयं को आपराधिक, आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के मामलों में दागी स्वीकार किया है। जहां तक 24 अप्रैल को छठे चरण की 117 सीटों पर होने वाले चुनाव का सवाल हैं उसमें ऐसे दागी प्रत्याशियों की संख्या 321 है जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। इनमें 204 के खिलाफ हत्या, लूट, डकैती, अपहरण, बलात्कार, धोखाधड़ी जैसे संगीन मामले लंबित चल रहे हैं। इनमें तमिलनाडु की कन्याकुमारी सीट से आप के प्रत्याशी उदय कुमार एसपी के खिलाफ सर्वाधिक 382 मामले दर्ज है, जबकि दूसरे पायदान पर थूथूकूडी सीट से आप के ही प्रत्याशी एम. पुष्पपारायण हैं,जिनके खिलाफ 380 मामले लंबित चल रहे हैं। छठे चरण के चुनाव में हालांकि सर्वाधिक 30 दागी प्रत्याशियों को कांग्रेस ने टिकट दिया है, जबकि बसपा के 27, भाजपा के बीस, आप व सपा के 13-13, जदयू व सीपीआईएम के आठ-आठ, अन्नाद्रमुक, द्रमुक व सीपीआई-माले के सात-सात प्रत्याशी इस फेहरिस्त में शामिल हैं। हालांकि इन दागियों में 76 निर्दलीयों समेत छोटे दलों के सर्वाधिक 169 उम्मीदवार इस चरण में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। जहां तक संगीन मामलो वाले 204 उम्मीदवारों का सवाल है उसें सर्वाधिक बसपा के 17, कांग्रेस के 15, भाजपा व आप के 12-12, और 99 निर्दलीय व छोटे दलों के प्रत्याशी शामिल हैं।
तमिलनाडु में सर्वाधिक दागियों पर दांव
छठे चरण के चुनाव में तमिलनाडु की 39 सीटों पर खडेÞ 845 प्रत्याशियों में 103 दागी हैं, इसके बाद महाराष्ट्र 68 दागी प्रत्याशियों के साथ दूसरे पायदान पर है। बिहार में 38, उत्तर प्रदेश में 27, मध्य प्रदेश में 21, झारखंड में 19, छत्तीसगढ़ में 12, पश्चिम बंगाल में 11, असम में आठ, राजस्थान में सात, पुडुचेरी में छह व जम्मू-कश्मीर में एक प्रत्याशी दागियों की सूची में शामिल है। पांच या उससे अधिक मामलों वाले सांसदों में भाजपा के वरुण गांधी, कांग्रेस के संजय निरूपम, भाजपा के सीआर पाटिल, तृणमूल कांग्रेस के तपस पाल, कांग्रेस के एन. धरम सिंह और राजकुमारी रत्ना सिंह के नाम हैं। अब देखना यह है कि दागी सांसदों वाले अध्यादेश के खिलाफ बढ़-चढ़कर बोलने वाले राजनीतिक दलों के नेता अपने इन महारथियों के टिकट काटने की हिम्मत जुटा पाएंगे। यूपी में फरुर्खाबाद लोकसभा क्षेत्र में सपा के रामेश्वर सिंह, मथुरा में बसपा के योगेश कुमार पर हत्या का मुकदमा दर्ज है, जबकि पांच प्रत्याशियों पर हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज है।
रेड अलर्ट सीट
ऐसी लोकसभा सीटों को रेड अलर्ट के रूप में परिभाषित किया गया है, जहां तीन या उससे ज्यादा दागी सियासत की जंग में हैँ। छठे चरण के चुनाव में 117 में से ऐसी 55 सीटें हैं। सबसे ज्यादा सात दागी बिहार की भागलपुर सीट पर हैं, जबकि सात सीटों पर छह-छह, 11 सीटों पर पांच-पांच, 12 सीटों पर चार-चार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, शेष सीटों पर तीन-तीन ऐसे प्रत्याशी सियासत की जंग में हैं।
20Apr-2014

राग दरबारः-मुनियप्पा के अप्पा

कें द्रीय मंत्री हैं केएच मुनियप्पा। कर्नाटक की सियासत में जाना पहचाना दलित चेहरा। कांग्रेस के टिकट पर कोलार से लगातार जीतते रहे हैं। चुनावी सभा के दौरान मंच पर सोनिया गांधी के पैर छूने झुके तो अगले दिन सभी अखबारों के पहले पेज पर थे चरण वंदना करते मुनियप्पा। सोनिया गांधी की व्यक्तिगत रुचि के कारण वे यूपीए-1 में रेल राज्यमंत्री रहे। यूपीए-2 में प्रोन्नति देकर उन्हें भारी उद्योग का स्वतंत्र प्रभार दिया गया। पूजा-पाठ और मंदिरों में अगाध र्शद्धा इतनी कि दिल्ली के जिस मंदिर में पूजन-हवन को वे जाते रहे उसके पुजारी को मंत्रालय में कहीं न कहीं ‘सेट’ करते रहे। हर हफ्ते गुरुवार को शिरडी के साईंबाबा के दर्शन करने जाना उनकी आदतों में शुमार रहा। अंधविश्वास इतना कि वोट देने होराहल्ली स्थित अपने पोलिंग बूथ पर गए तो वास्तुशास्त्र के अनुसार पोलिंग अधिकारी को वोटिंग मशीन रखने की हिदायत दी। अधिकारी मान गए। दक्षिण मुखी मशीन को उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मोड़ दिया। बात बड़े अधिकारियों तक पहुंची तो पोलिंग अधिकारी नप गए। मगर, मुनियप्पा के अप्पा खुश हैं कि मशीन वास्तुशास्त्र के हिसाब से रखा गया इसीलिए उनकी जीत फिर से निश्चित है।
मोदी बनाम इंदिरा
लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर है या नहीं, इस बारे में हर किसी का अपना मत हो सकता है। ऐसा ही 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी की लहर में था। उस समय भी तमाम विरोधी दल इंदिरा गांधी पर उसी प्रकार हमले कर रहे थे। जैसे इस चुनाव में मोदी के खिलाफ लामबंदी करते दिख रहे हैं। ऐसी लहर इस बार देखने को मिल रही है, जहां इसे कुछ को महसूस कर रहे हैं तो कुछ इसे मीडिया प्रायोजित प्रचार मान रहे हैं। लेकिन एक बात साफ है कि इस बार के संसदीय चुनाव के केंद्र में सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी हैं। एक तरफ हिंदुस्तान की सारी सियासी ताकतें तो दूसरी तरफ मोदी। समर्थक और विरोधी दोनों अपनी जीत पक्की करने को मोदी राग अलाप रहे हैं। कुछ ऐसा ही 1971 के आम चुनाव में था जहां जनसंघी, सोशलिस्ट, पीलू मोदी की पार्टी वाले स्वतंत्र, बूढ़ी कांग्रेस के नेता सब इंदिरा जी के पीछे पड़े थे। उस समय इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था तो विरोधियों का नारा इंदिरा हटाओ था। फर्क इतना है कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस की जगह भाजपा है और इंदिरा गांधी की जगह नरेंद्र मोदी। यह कहावत भी है कि जब ताकतवर के विरोध में सब एकजुट हुए तो इंदिरा की तरह फिलहाल मोदी ही ताकतवर लग रहे हैं।
किताब में नया क्या
यह लोक भी तुम्हारा, वह लोक भी तुम्हारा, पर छू नहीं सकते अधिकार है हमारा। हाल ही में पत्रकार संजय बारू और पूर्व कोयला सचिव पारेख की किताबों से जो खुलासे हुए हैं उसमें कांग्रेस की त्यागमूर्ति श्रीमती सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर इसी कहावत को चरितार्थ किया है। संजय बारू भले ही पीएमओ के लिए अब विश्वसनीय न रहे हों पर जनता उनके लिखे को सौ फीसदी सत्य मानकर चल रही है। हालांकि बारू की किताब आने से पहले ही देश में बच्चे-बच्चे की जुबान पर यह जुमला आम रहा है कि मनमोहन सिंह उन्हीं फैसलों को लागू करते हैं जिसे कांग्रेस प्रमुख पसंद करती है यानि मनमोहन दस जनपथ के रिमोर्ट कंट्रोल से सरकार चलाते आ रहे हैं। भले ही कांग्रेस युवराज उन्हें कभी कभी बकवास भी क्यों न घोषित कर दें। मसलन ऐसे में बारू की किताब में रहस्योद्घाटन जैसा कुछ नहीं है। वही सब लिखा है जो पूरा देश पहले से ही जानता है।
किसके हैं गीत
भाजपा को जीत का परचम लहराने के लिए एक अदद जोश से भरे गीत की जरूरत थी। गीत के साथ सुरीला मगर जोश से भरे संगीत की जरूरत थी। गीत और संगीत की व्यवस्था की गई। मशहूर गीतकार प्रसून जोशी ने गीत तैयार किए। जिसे आवाज दी सुखविंदर ने। जोश से भरा गीत-संगीत बनते ही सियासी शमां में छा गया। सौगंध मुझे इस मिट्टी की.। अचानक अहमदाबाद का एक 26 साल का नवयुवक कुलदीप सिंह जाडेजा नमूदार होता है। दावा करता है कि 24 लाइनों का यह गीत नरेंद्र मोदी के लिए उसने लिखा था। जिसे पोस्ट से भेजा गया था। उसी गीत के बोल को इधर-उधर कर आवाज दी गई है। गत 25 मार्च को अपना दावा पुख्ता करने के लिए जडेजा ने अपनी गीत को यू-ट्यूब पर पोस्ट कर दिया। अब तक 3 लाख लोगों ने उसके गीत को देखा और सुना है। मगर, न तो भाजपा की ओर से और न ही प्रसून जोशी की ओर से इस विवाद पर कोई जवाब आया है। जाडेजा को उम्मीद है कि उसने जिस उम्मीद से गीत को लिखा था, वह लक्ष्य तो पूरा हो गया मगर उसका नाम बेनाम नहीं होना चाहिए।
बर्खास्त होंगे सांसद
संसद के इतिहास में यह पहली बार होगा कि कोई राज्यसभा सांसद अपनी मियाद पूरी करने से पहले से अध्यक्ष की ओर से बर्खास्त किया जाएगा। डीएमके से सांसद टीएम सेल्वगणपति पर बर्खास्तगी की तलवार लटक रही है। सीबीआई की चेन्नई कोर्ट ने 1995-96 के मशहूर क्रिमेशन-शेड-स्कैम में सेल्वगणति को दोषी करार दिया है। तब वे तत्कालीन जयललिता सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। बाद में पाला बदलकर सूबाई सियासत में जयललिता के धुर विरोधी माने जाने वाले डीएमके सुप्रीमो करुणानिधि के साथ हो लिए। करुणानिधि में उन्हें वर्ष 2008 में पहली बार राज्यसभा भेजा थे। ऊपरी संसद में अपनी दूसरी पारी खेल रहे वरिष्ठ तमिल नेता को ये इल्म भी न होगा कि दो दशक पुराने केस में वे बुरी तरह उलझ सकते हैं। बतौर सांसद उनका कार्यकाल वैसे तो वर्ष 2019 तक है, मगर कोर्ट ने उन्हें दोषी करार दिया है इसीलिए या तो उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना होगा या फिर वे राज्यसभा से बर्खास्त किए जाएंगे। मुख्यमंत्री जयललिता ने राज्यसभा अध्यक्ष उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को पत्र लिखकर सेल्वगणपति को बर्खास्त करने की मांग की है।
20apr-2014

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

हॉट सीट: फतेहपुर सीकरी- मोदी की हवा में अमर सिंह की पगड़ी का सवाल!

सीमा उपाध्याय की राह हुई कठिन
आगरा से लौटकर ओ.पी. पाल

मुगल सम्राट अकबर व राणा सांगा की कहानी व कृतियों व अपनी ऐतहासिक धरोहरों के इतिहास को समेटे फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट पर सियासी सूरमाओं की जंग में रालोद-कांग्रेस गठबंधन में अमर सिंह, भाजपा के बाबूलाल चौधरी, सपा की रानी पक्षलिका सिंह के सामने मौजूदा सांसद सीमा उपाध्याय को बसपा के टिकट पर इस बार कड़ी चुनौती मिल रही है। इस सीट पर रालोद प्रमुख अजित सिंह व फिल्म स्टार राजबब्बर की साख भी के कारणों से दांव पर है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आगरा जिले की जाट व राजपूत बाहुल्य फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट पर 18 साल से राज्यसभा सांसद अमर सिंह पहली बार वाया जनता दरबार लोकसभा में जाने की हसरत पाले आए हैं। जो इस ऐतिहासिक फतेहपुर सीकरी लोकसभा क्षेत्र से रालोद-कांग्रेस गठबंधन के संयुक्त प्रत्याशी हैं। उनके सामने बसपा से मौजूदा सांसद सीमा उपाध्याय, भाजपा से पूर्व मंत्री चौ. बाबूलाल हैं, तो सपा से कैबिनेट मंत्री अरिदमन सिंह की पत्नी पक्षालिका सिंह चुनावी मैदान में हैं। अपने बेजोड़ मैनेजमेंट के साथ मैदान में उतरे अमर सिंह का मुकाबला भाजपा की मोदी लहर और बसपा के वोट बैंक से है, तो उनके लिए सबसे रोचक एपीसोड उस सपा से शुरू होगा, जिसे कभी वह मुखिया मुलायम सिंह के साथ मिल कर चलाया करते थे। ऐसे में जगजाहिर है कि अमर सिंह के लिए रालोद प्रमुख अजित सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है, तो वहीं भले ही सपा में अमर सिंह के साथ मतभेद के चलते फिल्म स्टार राज बब्बर को 2007 में सपा त्यागकर कांग्रेस का हाथ थामना पड़ा और कांग्रेस को पिछले चुनाव में फिरोजाबाद सीट को सपा के जबड़े से निकालकर कांग्रेस की झोली में डाली है। इस बार चूंकि अमर सिंह रालोद-कांग्रेस के प्रत्याशी हैं तो सभी मतभेद भूलकर अमर सिंह की प्रतिष्ठा के लिए राज बब्बर के दमखम की भी अग्नि परीक्षा होनी है। दूसरा कारण यह भी है कि इसी सीट से पिछले चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर राजबब्बर बसपा की सीमा उपाध्याय से मामूली मतों के अंतर से मात खा गये थे तो इस बार उस हार के बदले को चूकता करने की भी फिराक में हैं। वैसे भी आगरा मंडल में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने स्टार प्रचारक के रूप में राज बब्बर को पूरी ताकत झोंकने का जिम्मा सौंपा हुआ है। दरअसल नए परिसीमन के बाद सृजित फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट पर चुनावी समीकरण को लेकर सभी राजनीतिक दलों के पसीने छूटे हुए हैं। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के सामने चिंता इस बात की है कि बदले हालात में चुनावी मैदान में खडे प्रत्याशी जातीय गणित के हिसाब से अपना दांव लगाकर कैसे सीट हासिल करें। क्षेत्र का भूगोल बदलने से किस बिरादरी के कितने वोट किस सीट पर निर्णायक होंगे यह एक बड़ी दुविधा बनी हुई है। फतेहपुर सीकरी, बाह, खेरागढ़ विधानसभा सीट से रालोद प्रत्याशी कई बार जीत का परचम लहरा चुके हैं, इसलिए भी रालोद के अमर सिंह लोकसभा में दस्तक देने की उम्मीद से अपनी प्रतिष्ठा दांव
पर लगाए हुए हैं।
सियासी मिजाज
जाट बाहुल्य फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट में शामिल आगरा ग्रामीण, फतेहपुर सीकरी, खेरगढ़, फतेहाबाद व बाह विधानभाओं पर नजर डाले तो इनमें चार पर बसपा और एक पर सपा का विधायक है। फतेहपुर सीकरी सीट पर पिछले चुनाव में भाजपा तीसरे नंबर पर रही थी, जहां भाजपा के टिकट पर सपा सरकार में वर्तमान केबिनेट मंत्री अरिदमन सिंह चुनाव लड़े थे। इस बार भाजपा ने जाट, ठाकुर, ब्राह्मण और गुर्जर के जातिगत समीकरण को साधने की रणनीति के तहत बाबूलाल चौधरी पर दांव आजमाया है। सबसे ज्यादा जाट मतदाता फतेहपुर सीकरी और आगरा ग्रामीण के दयालबाग विधानसभा सीट पर ही हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक मोदी मौजिक में इस बार बसपा की सीमा उपाध्याय के लिए यहां जीत की राह आसान नहीं होगी। स्थानीय लोगो की माने तो इस बार सियासत की जंग भाजपा के बाबूलाल चौधरी और रालोद के अमर सिंह के बीच होगी, जिसमें भाजपा के प्रत्याशी को मोदी की लहर तो अमर सिंह को अपने कद और ठाकुरो और जाटों के परम्परागत वोटो का लाभ मिलने की संभावना है।
रणभूमि बनाने की होड़
फतेहपुर सीकरी लोकसभा सीट को अपनी रणभूमि बनाने में एक नहीं चौदह दल चुनावी मैदान में हैं। भाजपा, सपा, बसपा, रालोद-कांग्रेस के अलावा आप, लोकदल, गरीब आदमी पार्टी, राकांपा, रासद, पीस पार्टी जैसे छोटे-बड़े दल समेत इस सीट पर 28 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, जिनमें आधे यानि 14 निर्दलीय प्रत्यशी अपनी छवि व जातीय समीकरण की चौसर पर हैं। इनके सामने इस सीट पर 15.54 लाख मतदाताओं का जाल है, जिसमें 6.90 लाख से ज्यादा महिलाएं निर्णायक साबित होंगी।
बुलंद दरवाजा
मुगल बादशाह बाबर ने राणा सांगा को सीकरी नामक स्थान पर हराया था और फतेहपुर सीकरी का निर्माण महान मुगल सम्राट अकबर ने कराया था। एक सफल राजा होने के साथ-साथ वह कलाप्रेमी भी था। फतेहपुर सीकरी हिंदू और मुस्लिम वास्तुशिल्प के मिश्रण का सबसे अच्छा उदाहरण है। फतेहपुर सीकरी मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि यह मक्का की मस्जिद की नकल है और इसके डिजाइन हिंदू और पारसी वास्तुशिल्प से लिए गए हैं। मस्जिद का प्रवेश द्वार 54 मीटर ऊँचा बुलंद दरवाजा है, जिसका निर्माण 1570 ई. में किया गया था। मस्जिद के उत्तर में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह है जहाँ नि:संतान महिलाएं दुआ मांगने आती हैं।
19Apr-2014

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

हॉट सीट: फिरोजाबाद- मनिहारों के गढ़ में होगी दिलचस्प सियासी जंग !

प्रो. एसपी सिंह बघेल सभी के लिए बने बड़ी चुनौती
ओ.पी.पाल

उत्तर प्रदेश में खनखनाती कांच की चूड़ियों के उद्योग के लिए प्रसिद्ध शहर की फिरोजाबाद लोकसभा सीट पर इस बार दिलचस्प मुकाबला होने की संभावना है, जहां पिछले चुनाव और फिर उप चुनाव दोनों में बसपा के टिकट पर पिछड़े प्रो. एसपी सिंह बघेल इस बार भाजपा के टिकट पर सपा के अक्षय यादव, कांग्रेस के अक्षय यादव तथा बसपा के विश्वदीप के लिए सियासी जंग में एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं।
सपा शासित यूपी में फिरोजाबाद लोकसभा सीट को मुलायम सिंह यादव ने प्रतिष्ठा का सवाल बनाया हुआ है, जहां इस परिवार के राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव के सुपुत्र अक्षय कुमार को सियासी मैदान में उतारा है। वर्ष 2009 के आम चुनाव में इस सीट पर सूबे के मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख मुलायम सिंह के शहजादे अखिलेश यादव ने बसपा के टिकट पर चुनाव लड़े प्रो. एसपी सिंह बघेल को करीब सात हजार से ज्यादा मतों से हराया था,लेकिन बाद में कन्नौज लोकसभा सीट से भी अखिलेश जीते और इस सीट को छोड़ दिया, जिसके कारण यहां की जनता को उप चुनाव झेलने के लिए मजबूर होना पड़ा। उप चुनाव में अपनी विरासत को धर्मपत्नी डिंपल यादव को सौंपने के इरादे से चुनाव मैदान में उतारा, लेकिन यहां सपा छोड़कर आए कांग्रेस ने फिल्म अभिनेता राज बब्बर को टिकट दिया और बसपा ने फिर एसपी सिंह बघेल को उतारकर सपा से हिसाब चूकता करने का लक्ष्य रखा। इस उप चुनाव मुलायम परिवार की बहू को रास नहीं आया और वह कांग्रेस के राज बब्बर से नौ हजार से ज्यादा वोटों से हारी और बघेल तीसरे नंबर पर खिसक आए। बसपा ने बघेल को राज्यसभा भेज दिया, चूंकि फिरोजाबाद बघेल की रणभूमि रही है इसलिए राज्यसभा सदस्य होते हुए उन्होंने पिछले दो चुनाव में मिली हार का बदला चूकता करने के लिए लोकसभा चुनाव की जंग में उतरना पड़ा। भले ही उन्हें बसपा का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थामना पड़ा है। भाजपा के उम्मीदवार के रूप में एसपी बघेल इस चुनाव में अन्य सभी दलों के लिए एक बड़ी चुनौती माने जा रहे हैं। यहां राम लहर में भाजपा की लगातार तीन चुनाव में लगी जीत की तिकड़ी को पार्टी को बघेल के सहारे आगे बढ़ने की उम्मीद लगी हुई है।
चुनावी इतिहास
फिरोजाबाद लोकसभा सीट पर वर्ष 2009 में फिल्म अभिनेता से राजनेता बने राज बब्बर के ग्लैमर के बल पर कांग्रेस ने 25 साल बाद वापसी की थी, इससे पहले इस सीट पर कांग्रेस को वर्ष में गंगाराम ने जीत दिलाई थी। इस सीट पर 1957 में निर्दलीय ब्रजराज, 1967 में एसएसपी के एससी लाल, 1971 में कांग्रेस के छत्रपति अंबेश ने झंडा बुलंद किया था। आपात काल के बाद भारतीय लोकदल के टिकट पर रामजीलाल सुमन जीते तो में फिर निर्दलीय राजेश कुमार सिंह ने जीत हासिल की। 1989 में रामजीलाल सुमन ने जनता दल के टिकट पर फिर से सीट कब्जाई, लेकिन उसके बाद लगातार तीन चुनाव में प्रभु दयाल कथेरिया ने जीत हासिल करके भाजपा की तिकड़ी लगाई। 1999 व 2004 में सपा के टिकट पर रामजीलाल सुमन लोकसभा पहुंचे। दरअसल फिरोजाबाद लोकसभा सीट 2008 के परिसीमन के बाद भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों को बहुत बदल चुकी है, जिसके कारण राजनीतिक दलों को सिरे से राजनीति तय करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
चक्रव्यूह में फंसे 15 उम्मीदवार
फीरोजशाह तुगलक द्वारा बसाए गये फिरोजाबाद की इस सीट को परिसीमन के बाद टुंडला, जसराना, फिरोजाबाद, शिकोहाबाद व सिरजागंज विधानसभाओं से सृजित किया गया है, जहां भाजपा के प्रो. एसपी सिंह बघेल, कांग्रेस के अतुल चतुर्वेदी, सपा के अक्षय यादव व बसपा के ठा. विश्वजीत सिह के अलावा आप क राकेश यादव सियासी जंग में हैं, जहां लोकदल, शिवसेना, मुस्लिम लीग, पीस पार्टी समेत 13 दलों के प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं। इन उम्मीदवारों के सामने 7.21 लाख महिलाओं समेत 16.09 लाख मतदाताओं का चक्रव्यूह भेदने के लिए है।
इतिहास भी ऐतिहासिक
भारत में सबसे अधिक काँच की चूड़ियाँ, सजावट की काँच की वस्तुएँ, वैज्ञानिक उपकरण, बल्ब आदि बनाये जाते हैं। फिरोजाबाद में चूड़ियों का व्यवसाय मुख्यता: होता है। घरों के अन्दर महिलाएँ भी चूडियों पर पॉलिश लगाकर रोजगार अर्जित कर लेती हैं। इस शहर के अधिकांश लोग काँच के किसी न किसी सामान के निर्माण से जुड़े उद्यम में लगे हैं। सबसे अधिक काँच की चूड़ियों का निर्माण इसी शहर में होता है।
18Apr-2014

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

हॉट सीट:बरेली- किसका झुमका गिरेगा बरेली के बाजार में ?

वापसी को बेताब संतोष गंगवार
ओ.पी.पाल

महाभारत काल की अद्वितीय विरासत के रूप में पहचानी जाने वाली बरेली लोकसभा सीट का सियासी इतिहास भले ही कैसा रहा हो, लेकिन भाजपा की ओर से पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने बरेली के मांझे की डोर गुजरात की पतंग से जोड़ने के संदेश ने चुनाव को दिलचस्प मोड़ पर पहुंचा दिया। यही कारण है कि बरेली को अपनी सियासी रणभूमि बना चुके भाजपा के संतोष गंगवार इस बार यहां से फिर से वापसी करने को बेताब हैं, जिनके विजयी रथ को पिछले आम चुनाव में कांग्रेस के प्रवीन ऐरन ने रोक दिया था।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गिनी जाने वाली बरेली लोकसभा सीट का इतिहास ऐसा है जिसमें भाजपा नेता संतोष गंगवार भी निरंतर अपनी जीत दर्ज कराने वालों की फेहरिस्त में शामिल हैं। फिल्मी गीत बरेली के बाजार में झुमका गिरा रे..के नाम से पहचानी जा रही बरेली लोकसभा क्षेत्र से लगातार छह बार अपने नाम जीत दर्ज करा चुके संतोष गंगवार ‘मोदी है नाम-कमल है निशान’ का नारा देकर भाजपा की परंपरागत सीट को फिर से कांग्रेस के जबड़े से छीनने की जुगत में है। गंगवार की सियासी नैया को पार लगाने के इरादे से ही नरेन्द्र मोदी ने उनके समर्थन में की रैली में बरेली के इतिहास और परंपरा तक छुआ। मोदी का यह संदेश यहां के लोगों के दिलों तक इसलिए भी पहुंचा कि उन्होंने बरेली के प्रसिद्ध मांझा उद्योग को गुजरात के पतंग उद्योग से जोड़ने की बात से गंगवार को संजीवनी दी। हालांकि गंगवार पिछला चुनाव ज्यादा अंतर से नहीं हारे थे और उन्हें भरोसा है कि वे इस बार अपनी वापसी करने में कामयाब हो जांएंगे। अटल सरकार में पेट्रोलियम मंत्री रहे संतोष गंगवार की बरेली में व्यक्ति छवि भी उनके लिए खेवनहार का काम करती दिख रही है। इनका मुख्य मुकाबला कांग्रेस के प्रवीन ऐरन से ही है। प्रवीन ऐरन भी अपनी सीट को बचाने के लिए हर हथकंडे अपनाने में पीछे नहीं है। जबकि सपा की आइशा इस्लाम और बसपा के मैनेजमेंट गुरू माने जाने वाले उमेश गौत्तम इस मुकाबले में आने की जुगत में हैं। जबकि आप ने भी सुनील कुमार पर दावं खेला है, जहां कुल 14 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
बसपा को तौकिर का सहारा
बरेली लोकसभा सीट पर चूंकि सपा व बसपा समेत छह मुस्लिम प्रत्याशी किस्मत आजमा रहे हैं, इसलिए बसपा को दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाए रखने के लिए उमेश गौत्तम ने मुस्लिम वोटों के धु्रवीकरण की गरज से आइएमसी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा खां का सहारा लिया है। यहां के वरिष्ठ पत्रकार सीपी सिंह का कहना है कि इसके बावजूद मुस्लिम वोटों का विभाजन तय है और मुजफ्फरनगर दंगों को लेकर तौकिर रजा विवादों में आए है तो जाहिर सी बात है कि मुस्लिमों के वोट बैंक पर तौकिर की अपील का प्रभाव होने वाला नहीं है, जिसका फायदा सीधे भाजपा को मिलने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
सीट का इतिहास
बरेली लोकसभा सीट के इतिहास की बात करें तो भाजपा और उसके अनुसांगिक संगठन भारतीय जनसंघ का डंका ज्यादा बजा है, आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी के राममूर्ति की जीत भी इसी का हिस्सा मानी जा सकती है। आजादी के पहले दो चुनावों में कांग्रेस के सतीश चंद्रा जीते, लेकिन 1962 व 1967 में इस सीट पर भारतीय जनसंघ का कब्जा रहा, जिसके बाद 1971 में फिर इस सीट को कांग्रेस के सतीश चंद्रा और 1980 व 1984 में बेगम आबिदा अहमद ने जीत हासिल कर कांग्रेस का परचम लहराया। इसके बाद लगातार हुए छह लोकसभा चुनाव में भाजपा के संतोष गंगवार ने विजय रथ चलाकर इसे अपनी कर्मभूमि का रूप दे दिया, लेकिन वर्ष 2009 का पिछला चुनाव गंगवार कांग्रेस के प्रवीन ऐरन से मात्र 1.32 प्रतिशत मतों से परास्त हो गये थे, जो इस बार बदला चूकता करने की फिराक में हैं। बरेली मंडल की मीरगंज, भोजीपुरा, नवाबगंज, बरेली शहर व बरेली कैंट विधानसभाओं को मिलाकर बनी बरेली लोकसभा सीट पर इस बार 16.05 लाख मतदातओं का चक्रव्यूह है, जिसमें करीब 7.25 लाख महिलाओं की भूमिका निर्णायक रहने वाली है।
16Apr-2014

हॉट सीट:मुरादाबाद-अजहर की रुखसती से भाजपा की उम्मीदों को लगे पंख


भाजपा को खाता खोलने की है दरकार
ओ.पी.पाल

उत्तर प्रदेश में पीतलनगरी के नाम से मशहूर मुरादाबाद संसदीय सीट पर लोकसभा चुनाव की सियासी जंग में भाजपा के लिए अपना खाता खोलने की दरकार है, जो किसी चुनौती से कम नहीं है। सूबे की सबसे बड़ी मुस्लिम बाहुल्य लोकसभा सीट पर बहुष्कोणीय मुकाबला माना जार रहा है। हालांकि मोहम्मद अजरूद्दीन को जिताने के बाद सबक ले चुके मुरादाबाद वासियों को कांग्रेस व बसपा के बाहरी प्रत्याशियों के अपेक्षा स्थानीय प्रत्याशियों को तरजीह देने की मुहिम चला रहे हैं, जिसके कारण भाजपा और सपा के बीच सीधा मुकाबला होने की संभावना है।
मुरादाबाद मंडल मुख्यालय की इस लोकसभा सीट पर भाजपा ने पिछले चुनाव में कांग्रेस के पैराशूट प्रत्याशी के रूप में सियासी जंग में कूदे क्रिकेटर मोहम्मद अजहरूद्दीन के सामने उप विजेता रहे कुंवर सर्वेश कुमार सिंह पर एक बार फिर दांव खेला है। जबकि कांग्रेस ने मुस्लिम वोट बैंक के सहारे भाजपा को इस सीट पर खाता खोलने से रोकने की रणनीति के तहत रामपुर लोकसभा सीट पर लगातार दो बार फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा से मात खाती आई नूरबानो को अपना प्रत्याशी बनाया है। बसपा की नजरें भी मुस्लिम वोट बैंक पर हैं तो उसने मेरठ के हाजी याकूब को चुनाव मैदान में उतारा है,  जबकि सत्तारूढ़ सपा ने स्थानीय नेता एच़ टी़ हसन को उम्मीदवार बनाया है। इस सीट पर इन दलों के प्रत्याशियों समेत कुल 18 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, जिसमें छह प्रत्याशी मुस्लिम हैं। जहां तक मुख्य चुनावी मुकाबले का सवाल है उसमें भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा के बीच सियासत की जंग होनी है, हालांकि इस मुकाबले में आम आदमी पार्टी न भी स्थानीय विमल कुमार को उतारकर शामिल होने का प्रयास किया है।
मुस्लिम सांसदों को रास आई सीट
मुरादाबाद मंडल की बराहपुर, कांठ, ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद नगर व मुरादाबाद ग्रामीण विधानसभाओं को मिलाकर बनाई गई मुरादाबाद लोकसभा सीट पर 18 उम्मीदवारों के सामने करीब 17.21 लाख मतदाताओं का चक्रव्यूह भेदने के लिए है, जिसमें 7.85 लाख से ज्यादा महिलाएं हैं। इस लोकसभा सीट पर अभी तक हुए 15 लोकसभा चुनाव में दस बार मुस्लिम प्रत्याशियों को लोकसभा में जाने का मौका मिला है। पिछले चुनाव में कांग्रेस के मोहम्मद अजरूद्दीन से पहले 2004 का चुनाव सपा के सफीकुर्रहमान बर्क के खाते में गया था, जो इससे पहले 1996 व 1998 में भी सपा को काबिज कर चुके थे। इस सीट पर सबसे ज्यादा जीत का स्वाद गुलाम मोहम्मद खान 1977 में भारतीय लोकदल, 1980 में जनता पार्टी(एस) के अलावा 1989 व 1991 में जनता दल के टिकट पर जीते। जहां तक कांग्रेस का सवाल है अजहर के अलावा प्रथम दो चुनाव और 1984 में इस सीट पर कब्जा कर चुकी है, लेकिन 1971 में जनसंघ के बाद भाजपा और बसपा यहां अपने पैर नहीं जमा सकी।
सियासी जंग का मिजाज
लोकसभा चुनाव की तस्वीर के बारे में स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार भुवनचंद्र का कहना है कि बसपा, सपा और कांग्रेस के साथ पीस पार्टी द्वारा मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा करने से इस बार भाजपा के प्रत्याशी कुंवर सर्वेश सिंह का पलड़ा भारी है। इसका कारण बताते हुए उनका कहना है कि चूंकि मुस्लिम मतों का विभाजन होना तय है इसलिए इस बार बदलाव की बयार में वोट बैंक का धु्रवीकरण होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता, जिसका सीधा लाभ भाजपा का मिल सकता है। कांग्रेस की बेगम नूर बानो और बसपा के हाजी याकूब कुरैशी को बाहरी माना जा रहा है, जिसका सबक यहां की जनता मोहम्मद अजरूद्दीन को जिताकर सीख चुकी है जो पांच साल में एक भी बार यहां की सुध लेने नहीं आये। इसलिए भाजपा और सपा के स्थानीय प्रत्याशियों को इस बार मुख्य मुकाबले में माना जा रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में सर्वेश सिंह ने कांग्रेस के अजहरुद्दीन से करीब साठ हजार मतो से मात खाई थी। इस बार मुस्लिम वोट बैंक विभाजित हुआ तो यह सीट भाजपा की झोली में जा सकती है।
ऐसा है मुरादाबाद का इतिहास
उत्तर प्रदेश में पीतल हस्तशिल्प के निर्यात के लिए पीतलनगरी के रूप में मुरादाबाद राम गंगा नदी के तट पर विश्व में प्रसिद्ध है। मुरादाबाद शहर की स्थापना मुगल शासक शाहजहाँ के पुत्र मुराद बख्श ने की थी। जिसके नाम पर ही इस जगह का नाम मुरादाबाद पड़ गया। रामगंगा और गंगा यहाँ की दो प्रमुख नदियाँ हैं। मुरादाबाद विशेष रूप से प्राचीन समय की हस्तकला, पीतल के उत्पादों पर की रचनात्मकता और हॉर्न हैंडीक्राफ्ट के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध है। मुरादाबाद स्थित मुख्य बाजार पीतल मंडी है। इस जगह पर कई सौ छोटी और बड़ी दुकानें है जहां तांबा और कांसा की ब्रिकी की जाती है।
15Apr-2014

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

बंगलूरू दीक्षिण सीट: निलकेणी के आधार पर हावी अनंत की राजनीति!

अनंत कुमार  की जीत का छक्का रोकने की जुगत में कांग्रेस
ओ.पी.पाल
कर्नाटक की बंगलूरू दक्षिण लोकसभा सीट पर इस बार कांग्रेस ने भाजपा के तिस्मिल को तोड़ने के लिए कांग्रेस ने यूपीए सरकार की आधार कार्ड योजना की जिम्मेदारी निभाने वाले इंफोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलकेणी को सियासत के मैदान में उतारा है, जहां आईटी के हब में कांग्रेस के कारपोरेट फार्मूले पर राजनीति के खिलाड़ी अनंत कुमार भाजपा के प्रत्याशी के रूप में अपनी सीट को बचाने के लिए पूरी तरह से हावी हैं।
सोलहवीं लोकसभा के लिए कर्नाटक की इस अहम् संसदीय सीट वैसे तो नब्बे के दशक से भाजपा के कब्जे में हैं, जहां भाजपा के उम्मीदवार अनंत कुमार मंजे और घुटे हुए राजनीज्ञों की फेहरिस्त में शामिल हैं और पांच बार जीत कर लोकसभा में बने रहते हुए जीत का छक्का मारने के इरादे से सियासत की जंग में हैं। कांग्रेस ने राजनीतिक मैदान की सीमा पर अनंत की सियासी बैटिंग में जीत के छक्के को रोकने के लिए कांग्रेस ने नये खिलाड़ी के रूप में इंफोसिस के मुख्यकार्यकारी अधिकरी रहे नंदन नीलेकणी पर दांव खेला। भाजपा प्रत्याशी अनंत कुमार के विजयी रथ को रोकने के लिए कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में राजनीति की नई पारी खेलने आए नंदन नीलकेणी की पहचान ‘आधार’ के रूप में सामने उस समय आई, जब कांग्रेसनीत यूपीए-2 ने उन्हें यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी आॅफ इंडिया के अध्यक्ष बनाकर अपनी पहचान पत्र आधार कार्ड बनाने वाली योजना की जिम्मेदारी सौंपी। भाजपा के वर्चस्व को खत्म करने की रणनीति के तहत कांग्रेस प्रत्याशी नंदन नीलेकणी के सामने यह एक बड़ी चुनौती होगी कि बंगलूरू में आईटी का चेहरा बनकर जिस तरह से उन्होंने कारपोरेट स्टाइल का प्रतीक बनकर शौहरत लूटी, क्या वह राजनीति के क्षेत्र में अपनी पहचान को सिर चढ़ा पाएंगे। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि कारपोरेट में नीलकेणी मौजूदा वक्त में एक बड़ा नाम है। इसलिए बंगलुरु दक्षिण लोकसभा सीट पर भाजपा के अनंत कुमार और कांग्रेस के नंदन नीलकेणी के बीच कांटे का मुकाबला होने की संभावनाओं पर सबकी नजरें लगी हुई हैं। इनके अलावा इस सीट पर वैसे तो 23 उम्मीदवार लोकसभा में दस्तक देने के लिए सियासी जंग का हिस्सा हैं।
वर्चस्व की जंग में कांग्रेस
कर्नाटक की बंगलूरू दक्षिण लोकसभा सीट के इतिहास पर नजर डालें तो कांग्रेस का सियासी प्रदर्शन भी कम नहीं रहा है, जिसनें कभी बंगलौर लोकसभा और कभी बंगलूरू दक्षिण के रूप में परिसीमित होती रही इस लोकसभा सीट पर आजादी के बाद शुरूआती पांच लोकसभा के चुनाव में सफल रही है। मुख्य रूप से मध्य और निम्न मध्यवर्गीय आबादी वाली इस सीट पर आपातकाल के बाद कांग्रेस की जीत का मिथक टूटा। मसलन 1977 के चुनाव में केएस हेगडे, 1980 में टीआर शामन्ना तथा 1984 में वीएस कृष्णा अय्यर ने जनता पार्टी के टिकट पर लगातार जीत हासिल कर कांग्रेस के वर्चस्व का सफाया किया। हालांकि 1989 के चुनाव में फिर कांग्रेस के आर गुंडुराव ने वापसी की, लेकिन उसके बाद 1991 के चुनाव में के.वेन गौडा ने भाजपा की जमीन तैयार की, जिसे उसके बाद हुए पांच चुनावों में अनंत कुमार कायम रखे हुए हैं। अब कांग्रेस इस वर्चस्व की जंग में टेक्नोक्रेट और ब्यूरोक्रेट रहे नीलेकणी के सहारे वापसी करने की जुगत में हैं। पिछला चुनाव भाजपा के अनंत कुमार ने 48.20 प्रतिशत मत हासिल करके कांग्रेस के कृष्णा वयरा गौडा को परास्त किया था।
प्रत्याशियों की है भरमार
कर्नाटक की आठ विधानसभा सीटों चिकपेट, विजयनगर,गोविंदराजनगर,पद्यनाभ ननगर, बीटीएम लेआउट, जयनगर, बासवानगुडी व बोम्मानहल्ली से मिलकर सृजित की गई इस लोकसभा की इस सीट पर भले ही भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर हो, लेकिन यहां हो रही सियासी जंग में भाजपा और कांग्रेस के अलावा बसपा, जद-एस, आप, सपा, आलइंडिया फारवर्ड ब्लाक, जदयू, बीआर अंबेडकर जनता पार्टी, पैरामिड पार्टी समेत 23 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, जिनके सामने करीब 20.31 लाख मतदाताओं का चक्रव्यूह भेदने के लिए है, जिसमें करीब 9.50 महिला मतदाताओं के निर्णायक जनादेश को भी नकारा नहीं जा सकता। इस सीट पर 17 अप्रैल को मतदान होना है।
14Apr-2014

रविवार, 13 अप्रैल 2014

हॉट सीट: पीलीभीत- मेनका की कर्मभूमि पर कांग्रेस की नजरें !



मेनका के खिलाफ युवा विधायक संजय कपूर
ओ.पी.पाल
उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र की पीलीभीत संसदीय सीट का इतिहास चाहें जो रहा हो, लेकिन केंद्र की सियासत में इसकी पहचान मेनका गांधी से है। मसलन इस सीट पर सियासी जंग में जिसका भी मुकाबला होना है वह कमल के फूल से ही होना तय है। कांग्रेस के विजयी रथ को लगातार रोकती आ रही मेनका गांधी के लिए यह सीट दूसरे गांधी परिवार के रूप में कर्मभूमि बनना इसका बड़ा कारण है। हालांकि यहां अपनी सियासी जमीन को हासिल करने के लिए कांग्रेस की नजरें इस बार कुछ तिरछी देखी जा रही हैं।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू गांधी परिवार की बहू मेनका गांधी ने ससुराल से अलगाव के बाद वर्ष 1984 में अमेठी से अपने ज्येष्ठ राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव हारने के कारण अपना संसदीय क्षेत्र पीलीभीत को चुना और वर्ष 1989 में जनता दल के टिकट से चुनाव लड़कर कांग्रेस के विजय रथ को तो मंडल कमीशन की लहर में रोकने में सफल रही। लेकिन वर्ष 1991 के उप चुनाव में भाजपा के मुकाबले वह अपनी सीट नहीं बचा सकी। मेनका ने इस सीट पर इरादा पक्का करते हुए 1996 के चुनाव में जनता दल के टिकट पर भाजपा को रिकार्ड मत हासिल करके पटखनी देने में कामयाब रही। उसके बाद इस सीट पर निरंतर दो जीत तो निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में ही हासिल की। बाद में भाजपा ने इसी सीट पर मेनका गांधी को प्रत्याशी बनाया और दो लगातार चुनाव जिताए। पिछले चुनाव में मेनका गांधी ने अपने बेटे वरूण गांधी को पीलीभीत सीट से लड़ाया, जिसने मां से भी ज्यादा वोट हासिल कर लोकसभा का दरवाजा खटखटाया। जबकि स्वयं आंवला लोकसभा सीट से निर्वाचित होकर लोकसभा दाखिल हुई। भाजपा ने इस बार वरूण गांधी को सुल्तानपुर से प्रत्याशी बनाया है जबकि मेनका गांधी ने वापसी अपनी कर्मभूमि पर सियासत की जंग लड़ने का निर्णय लिया। कांग्रेस अपनी जमीन वापसी करने के लिए इस बार मेनका के खिलाफ युवा विधायक संजय कपूर को लाई है, लेकिन अपनी कर्मभूमि बना चुकी मेनका पीलीभीत की जनता के बीच लोकप्रिय हैं और राजनीतिक जानकारों की माने तो जिसका भी मुकाबला होना है वह भाजपा की मेनका गांधी से ही होगा। इस सीट पर सपा और बसपा भी जोर आजमाइश कर अपना खाता खोलने की जुगत में है।
तैयार हुआ राग-द्वेष का मिश्रण
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में बतौर भाजपा प्रत्याशी अपने पुराने संसदीय क्षेत्र में वापस आई मेनका गांधी इस सीट पर पांच बार तथा एक बार उनका सुपुत्र वरूण गांधी ने क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति मतदाताओं के राग-द्वेष का जो मिश्रण तैयार किया है व मेनका की वापसी पर साफ दिखता है। जहां तक पीलीभीत के राजनीतिक इतिहास का सवाल है उसमें पीलीभीत संसदीय सीट का इतिहास काफी रोचक रहा है। आजाद भारत में संविधान लागू होने के बाद सन 1952 में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जीत गई, लेकिन इसके बाद लगातार तीन चुनावों पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का कब्जा रहा। जिन्हें बाद में 1971 का चुनाव जिताकर कांग्रेस ने उनके लिए जीत का चौका लगवाने में अपनी भूमिका निभाई। आपातकाल के बाद वर्ष 1977 के८ चुनाव में कांग्रेस विरोधी लहर में भारतीय लोकदल के टिकट पर मो. शम्सुल हसन खान ने परचम लहराया, लेकिन उसके बाद 1980 और 1984 के चुनाव हरीश गंगवार व भानुप्रताप सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर जीते। कांग्रेस के इस तिस्लिम को तोड़ने वाली एक मेनका गांधी ही थी, जिसने 1991 के चुनाव को छोड़कर अभी तक इस सीट पर भाजपा समेत कांग्रेस, सपा व बसपा को परास्त किया है।
मतदाताओं का जाल
बरेली मंडल की बेहड़ी, पीलीभीत, बरखेडा, पूरनपुर व बीसलपुर विधानसभओं को मिलाकर सूजित की गई पीलीभीत लोकसभा सीट पर 16.38 लाख मतदाताओं का जाल है, जिसमें 7.51 लाख से ज्यादा महिला वोटर हैं। इस चक्रव्यूह को भेदने के लिए इस सीट पर भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, आप,सीपीएम समेत 12 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। परिसीमन के बाद अपनी सीट पर वापस लौटी मेनका के लिए हालांकि राजनीतिक व भौगोलिक परिस्थिति बदली हुई मिली हैं। मेनका की कर्मभूमि मानी जा रही इस सीट पर जातीय समीकरण कोई मायने नहीं रखता है।
यह भी है इतिहास
हिमालय के बिलकुल समीप स्थित होने के बावजूद इसकी भूमि समतल है। पीलीभीत की अर्थ व्यवस्था कृषि पर आधारित है। यहां के उद्योगों में चीनी, कागज, चावल और आटा मिलों की प्रमुखता है। कुटीर उद्योग में बांस और जरदोजी का काम प्रसिद्ध है। यह नगर ज्ञान एवं साहित्य की अनेक विभूतियों का कर्मस्थल रहा है। नारायणानंद स्वामी 'अख्तर' संगीतज्ञ, कवि, साहित्यकार तथा इतिहासकार के रुप में प्रसिद्ध रहे हैं। चंडी प्रसाद 'हृदयेश' कहानीकार,एकांकीकार, उपन्यासकार, गीतकार एवं कवि थे। कविवर राधेश्याम पाठक 'श्याम' ने गद्य एवं पद्य दोनों साहित्य का सृजन किया और प्रसिद्ध फिल्मी गीतकार अंजुम पीलीभीती ने 'रतन','अनमोलघड़ी,'जीनत,'छोटी बहन'एवं'अनोखी अदा' आदि फिल्मों के प्रसिद्ध गीत लिखकर पीलीभीत जिले को गौरवान्ति किया है।
13Aprail-2014

राग दरबार :नकवी की चुटकी

धर्मनिरपेक्षता के रक्षक
लोकसभा चुनाव में तीसरे विकल्प की ताल ठोककर पीएम बनने का ख्वाब देख रहे मुलायम सिंह से बड़ा सुक्युलर भला कौन हो सकता है, जिन्होंने खासकर दुराचारियों को संदेश देने का प्रयास किया कि यदि वे पीएम बने तो कानून बदलकर बलात्कारियों को माफ कर देंगे। राजनीतिक गलियारों में रेपिस्टों को फांसी की सजा देने की खिलाफत करते नजर आए सपा प्रमख के इस बयान पर राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि पहले से ही महिलाओं के आरक्षाण का विरोधी और मुस्लिमों के हितैषी होेने का दावा करने वाली सपा ने हिंदु-मुस्लिम एकता को कुछ इस तरह मजबूत करने का दम भरने को प्रयास किया है, जिसमें संविधान संशोधन के तात्पर्य है कि एक वर्ग के रेपिस्टों को भले ही फांसी हो, लेकिन जिस धर्म की पुस्तक में काफिरों की औरतो पर जुल्म ढ़ाना जायज है उन मासूमों को फांसी नहीं होनी चाहिए। इन्हें तो केवल धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने की सियासत करनी है महिलाओं की इज्जत तो इनके लिए आती जाती बला है।
नतीजा हुए बेनतीजा
लोकसभा के तीसरे चरण में खासकर दिल्ली, हरियाणा, यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश आदि सूबे की सीटों पर हुए रिकार्ड मतदान पर सभी राजनीतिक दल अपने पक्ष में मतदान मानकर इतने प्रफ्फुलित हैं कि यह कहने में कोई परहेज नहीं कर रहे कि यह बदलाव की बयार है और उनकी भारी जीत का संकेत है। कहीं ऐसा न हो मतदान का रिकार्ड ऐसे दावों करने वाले दलों के लिए उलटा दांव न पड़ जाए। दरअसल चुनाव में बदलाव की बयार तो सब दल महसूस कर रहे हैं लेकिन इस तरह के बयान से ऐसे राजनीतिक दल अगले चरणों में होने वाले चुनाव के लिए माहौल तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं के इतना खुश होने पर चर्चा यही है कि कम से कम चुनाव के नतीजों का इंतजार तो कर लिजिए।
सेक्युलर और लामबंदी
लोकसभा चुनाव में यह पहली बार देखने को मिल रहा है कि भाजपा की ओर से पीएम के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की घेराबंदी करने के लिए पूरे हिंदुस्तान के राजनीतिक दल सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट हो रहे हैं। इन दलों को अपनी हार-जीत की चिंता कम, मोदी के पीएम की रेस तक जाने वाले रथ को रोकने की ज्यादा है। तभी तो कांग्रेस-रालोद, सपा, बसपा और आम आदमी पार्टी जैसे सबके सब दल मोदी को गरियाने में रात-दिन एक किये हुए हैं। ऐसे में मुसलिमों की हालत तो एक अनार सौ बीमार जैसी हो गयी है, जिन्हें इस्तेमाल करने के लिए इन दलों में अपनी उम्मीद कायम रखने के लिए भी नजरें हैं। लेकिन लोकतंत्र के इस महासंग्राम में तो जनता को जनादेश देना है, ऐसे में सारे सेक्युलर सूरमाओं के चक्रव्यूह क्या किसी की हार-जीत को रोक पाएगा या आज तक रोक पाए हैं।
13Apr-2014