सोमवार, 25 सितंबर 2023

पुस्तक समीक्षा: बहुआयामी साक्षात्कारों का अनूठा प्रतिबिंब

साहित्यकारो एवं संस्कृतिकर्मियों के कृतित्व का उल्लेख 
पुस्तक: प्रतिबिंब 
लेखक: ओ.पी.पाल 
प्रकाशक: चाणक्य वार्ता प्रकाशन समूह,नई दिल्ली 
मूल्य: 750 रुपये 
पृष्ठ: 311 
समीक्षक-सत्यवीर नाहड़िया 
 हिंदी साहित्य में साक्षात्कार विधा का प्राचीन काल से अपना मौलिक महत्व रहा है। साहित्यकारों तथा संस्कृतिकर्मियों से बातचीत न केवल उनके बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व का रेखांकन होता है,अपितु संबंधित विधाओं तथा क्षेत्रों के संदर्भ में भी प्रासंगिक अनछुई जानकारियां तथा रोचक संस्मरण अनायास इसका हिस्सा हो जाते हैं। अच्छे साक्षात्कार में उपरोक्त बिंदुओं के अलावा संबंधित संदर्भ से जुड़े अनेक ऐसे पक्ष स्वत: शामिल हो जाते हैं, जो साहित्य एवं संस्कृति को दिशा प्रदान करते हैं। आलोच्य कृति प्रतिबिंब में साक्षात्कार विधा के तमाम मूलभूत तत्वों को सहज ही महसूस किया जा सकता है। वरिष्ठ पत्रकार ओ.पी. पाल के रचनात्मक लेखन से उपजे इस नवप्रकाशित साक्षात्कार संग्रह में विभिन्न विधाओं में अपनी मौलिक पहचान रखने वाले हरियाणा प्रदेश के पचास रचनाकारों तथा संस्कृतिकर्मियों को शामिल किया गया है। एक ओर जहां इस संग्रह में हरियाणा साहित्य अकादमी की विभिन्न साहित्यिक पुरस्कारों से अलंकृत विभिन्न विधाओं के पर्याय कहे जाने वाले वरिष्ठ रचनाकारों को स्थान दिया गया है, वहीं प्रदेश की अनूठी सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में जुटे संस्कृतिकर्मियों तथा कलाकारों को भी मंच प्रदान किया गया है। इन साक्षात्कारों की एक अन्य विशेषता यह भी है कि सभी साक्षात्कार वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं विश्लेषण के साथ एक खास फॉर्मेट में लिखे गए हैं, जिसमें रचनाकार के जीवनवृत्त, विचारधारा के अलावा उनकी रचनाधर्मिता, पुरस्कारों तथा व्यक्तिगत विवरण बेहद विस्तार से दिया गया है, जिसमें विभिन्न अवसरों के यादगार छायाचित्र साक्षात्कार को चार चांद लगाने में सफल रहे हैं। इन साक्षात्कारों में संबंधित बहुआयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अलावा साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में समसामयिक चुनौतियों, बदलावों, अपेक्षाओं, जरूरतों पर आधिकारिक टिप्पणियां उनकी प्रासंगिकता को दिशाबोध प्रदान करते हैं। साहित्य की विभिन्न विधाओं के अलावा रंगमंच, गायन,वादन आदि सांस्कृतिक पक्षों से जुड़े विशेषज्ञों के समर्पण एवं अनुभवों से लोक सांस्कृतिक विरासत के अनेक अनछुए पहलू इन साक्षात्कारों में उजागर हुए हैं। साहित्य के क्षेत्र में जिन रचनाकारों को इस संग्रह में शामिल किया गया है, वे अपने आप में स्वनाम धन्य साधक हैं, जिनमें डॉ जय भगवान गोयल, डॉ. चंद्र त्रिखा, डॉ. कमल किशोर गोयनका, प्रो. लालचंद गुप्त 'मंगल', माधव कौशिक, चंद्रकांता, ज्ञानप्रकाश विवेक, डॉ. पूर्णचंद शर्मा, रामफल चहल, डॉ. संतराम देशवाल, सुदर्शन रत्नाकर, डॉ दिनेश दधीचि, रवि शर्मा, प्रो. रूप देवगण, रोहित यादव, विकेश निझावन, कमलेश मलिक, राजकुमार निजात, डॉ. सुभाष रस्तोगी, रघुविंद्र यादव, डॉ.अशोक बत्रा, राजेंद्र गौतम, सविता चड्ढा, हरिकृष्ण द्विवेदी, डॉ.विनोद बब्बर, प्रेम देहाती, डॉ. बालकिशन शर्मा, डॉ. घमंडीलाल अग्रवाल, डॉ. शील कौशिक, विजय भाटोटिया, महेंद्र शर्मा, डॉ अशोक भाटिया, हरविंद्र मलिक, रमाकांत शर्मा, अर्चना सुहासिनी, सत्यवीर नाहड़िया,अमरजीत 'अमर', सतीश वत्स ,वीएम बेचैन, प्रो. राजेंद्र बडगूजर, आशा खत्री 'लता', गुलशन मदान, मनजीत सिंह, रामफल गौड़, दिनेश शर्मा, सुभाष नगाड़ा, नंदिनी, दलबीर 'फूल' राजेश भारती आदि उल्लेखनीय हैं। कलात्मक आवरण, सुंदर छपाई, प्रदेश के महामहिम राज्यपाल व मुख्यमंत्री के संदेश आदि पक्ष इस कृति के अतिरिक्त खूबियां कही जा सकती हैं, किंतु पृष्ठ 38 पर तीसरा फोटो प्रासंगिक नहीं है। कुल मिलाकर दैनिक हरिभूमि समाचार पत्र के साप्ताहिक स्तंभ के रूप में छपे इन साक्षात्कारों को पुस्तकाकार देने हेतु लेखक ने अतिरिक्त मेहनत की है, जो साफ नजर आती है तथा प्रभाव छोड़ती है। यह साक्षात्कार संग्रह हरियाणा प्रदेश के साहित्यकारों एवं साहित्यकर्मियों पर शोध कार्यों हेतु आधार सामग्री का काम करेगा तथा शीघ्र इसका दूसरा भाग भी प्रकाश में आएगा-ऐसा विश्वास है। 
25Sep-2023

साक्षात्कार:समाज को इतिहास से प्रेरित करते साहित्यकार कमलेश शर्मा

काव्य संग्रह के साथ कैथल के इतिहास पर किया शोध
                    व्यक्तिगत परिचय 
नाम: कमलेश शर्मा 
जन्मतिथि: 23 अगस्त 1947 
जन्म स्थान: जलालपुर जट्टां जिला गुज़रांवाला (पाकिस्तान) 
शिक्षा:‍ बीएससी(एजुकेशन), एमए(इतिहास) 
संप्रत्ति:‍ सेवानिवृत्त प्राध्यापक(इतिहास), शिक्षा विभाग हरियाणा 
संपर्क: 308, सेक्टर-20, हुड्डा कैथल(हरियाणा), मोबाइल: 94162 53051,ई मेल kamleshsharma2315@gmail.com 
BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में हरियाणवी संस्कृति, सभ्यता एवं परंपराओं के प्रति समाज को प्रेरित करने की दिशा में अनेक विद्वानों, लेखकों व साहित्यकारों ने साहित्य साधना की जा रही है। ऐसे ही लेखकों में कमलेश शर्मा ऐसे साहित्यकारों में शुमार है, जिन्होंने समाज के सामने ऐतिहासिक शोध कार्य किया और खासतौर से कैथल के इतिहास को समाज के सामने उजागर किया है। उन्होंने पौराणिक नगर कपिस्थल से कैथल बनने तक के अपने शोध कार्य का उल्लेख उस इतिहास को पेश किया, जिसमें महाभारत, वामन पुराण, पाणिनी की अष्ठाध्यायी, बराह मिहिर की बृहत् संहिता जैसे प्राचीन ग्रन्थों में कपिस्थल यानी कैथल धर्मिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है, वहीं यह शिक्षा के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध महत्वपूर्ण नगर रहा है। अपने साहित्यिक और कपि स्थल:अतीत के झरोखे से वर्तमान की दहलीज तक शोध तक के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान वरिष्ठ साहित्यकार एवं इतिहासकार कमलेश शर्मा ने कई ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों का भी जिक्र किया है, जिसमें इतिहास के प्रति भी समाज प्रेरणा मिलती है। 
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रियाणा के वरिष्ठ साहित्यकार और इतिहासकार कमलेश शर्मा का जन्म 23 अगस्त 1947 को कस्बा जलालपुर जट्टां, जिला गुज़रांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ। गुज़रांवाला को साहित्यकारों और कलाकारों की धरती कहा जाता है। यहां जन्मी और पली कई विभूतियों ने यहां की मिट्टी की खुशबू को दूर दूर तक फैलाया है, जिनमें पंजाब की चर्चित विश्वप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम भी गुज़रांवाला की ही रही। उनके पिता देशराज शर्मा अपने जमाने के मशहूर शायर जनाब सीमाब अकबरावादी के शागिर्द थे। पिता द्वारा लिखत काव्य संग्रह ‘हदीसे नातमाम’ साल 1940 में आगरा से प्रकाशित हुआ था। माता शाम प्यारी शर्मा धार्मिक संस्कारों वाली एक गृहणी थी। परिवार में साहित्यिक पढ़ने लिखने का माहौल था। बकौल कमलेश शर्मा, बचपन में उनके लिए घर में 'चंदामामा' नामक पत्रिका आती थी, माता जी के लिए गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित 'कल्याण' पत्रिका और पिता के उर्दू की एक दो पत्रिकाएं आती थी। इसलिए कहा जा सकता है कि उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में ही मिली। मैट्रिक पास करने के बाद उन्हें अगस्त 1962 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में बीएससी(एजुकेशन) में दाखिला मिल गया, जहां सहपाठी नरेन्द्र मोहन मल्होत्रा से उनकी गहरी दोस्ती हो गई, जो कविताएं लिखते थे। उन्होंने ही मल्होत्रा से नरेन्द्र निर्मोही नाम से लिखने के लिए सुझाव दिया था, जो उसे अच्छा लगा। संगत का असर उनके ऊपर पड़ना स्वाभाविक था और वह भी अपने भावों को शब्द देने लगे। उन्होंने बताया कि साल 1982 में जब हरियाणा फक्रे शायर डा. राणा प्रताप गन्नौरी ने मेरे स्वर के खुले दरवाजे पर दस्तक दी। वह हरियाणा अब्र सीमाब साहब के बारे में जानने के लिए आये थे। उस्ताद शायर डा. राणा गन्नौरी साहित्य सभा कैथल के सचिव थे। उन्होंने मुझे साहित्य सभा की गोष्ठियों में आने के लिए कहा और इन्हीं गोष्ठियों से उन्हें उचित माहौल मिला और मेरी नज्म को रफ्तार मिली। कमलेश अपनी अपनी कविताएं पत्रिकाओं में भेजने में संकोच करते रहे। जब उनका पहला काव्य संग्रह ‘सहमा हुआ समय’ वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ, जिसे हरियाणा साहित्य अकादमी ने श्रेष्ठ कृति पुरस्कार से नवाजा। उन्होंने यात्रा शब्दों की (पहले भाग से पांचवें भाग तक) का सह-सम्पादन तथा प्राध्यापक संवाद पत्रिका का सम्पादन भी किया है। कमलेश शर्मा आकाशवाणी, दूरदर्शन, जनता टीवी से काव्य-पाठऔर जी न्यूज टोटल टी वी आदि से बतौर इतिहासकार वार्ताओं के अलावा साहित्यिक कार्यक्रमों में भाग ले चुके हैं । वह भारतीय इतिहास संकलन समिति के प्रांतीय अध्यक्ष भी रहे हैं। साहित्यिक समीक्षक का अनुभव रखने वाले शर्मा अनेक समाचार-पत्रों में पुस्तकों के लिए समीक्षाएं भी लिख चुके हैं और पिछले कईं वर्षों से साहित्य सभा कैथल के उप प्रधान पद की जिम्मेदारी भी संभाल रहे हैं। 
सामाजिक व राष्ट्रीय परिवेश पर फोकस 
प्रसिद्ध साहित्यकार कमलेश शर्मा ने बताया कि उनकी साहित्यिक रचनाओं का फोकस समाज, सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश रहा है। लेकिन कोई घटना जब उन्हें अधिक कचोटती है, तो उनका मन मस्तिष्क उसे शब्द देने के लिए विशव करता है और वह कलम उठा कर लिखने में संकोच नहीं करते। उनका कहना है कि यह उनकी कमजोरी हो सकती है कि वह किसी के कहने पर किसी विषय विशेष पर वह कविता नहीं लिख पाते। उन्होंने अपने दिलचस्प किस्से साझा करते हुए बताया कि जब वर्ष 2000 में उनकी कृति ‘सहमा हुआ समय’ प्रकाशित होकर आई तो कुछ मित्रों के उसे कृति पुरस्कार के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी को जरुर भेने के सुझाव टालते रहे। संयोग से वह एक दिन किसी शिक्षा विभाग कार्यालय में किसी कार्य से चंडीगढ़ जाने लगे, तो मित्रों के कहने से पांच पुस्तकें अपने साथ ले गया और अकादमी पहुंच गया, जहां अकादमी के अधीक्षक चौहान साहित्य सभा कैथल के सचिव होने के नाते उन्हें जानते भी थे। उन्होंने अपनी पांच पुस्तकें उन्हें दी और इसके लिए उन्होंने कृति पुरस्कार के लिए फार्म भरवा लिया। तभी उन्होंने देखा कि उनकी पुस्तक के कवर पेज और कुछ पेज फाड़कर डस्टबिन में डाले जा रहे थे। इस पर उन्होंने चौहान साहब से पूछा कि पुस्तक अच्छी नहीं लगी? तो मेरे सामने तो इसे ऐसे मत फाड़कर फेंको। वह हंसकर कहने लगे कि शर्मा जी यह पुस्तकें मूल्यांकन के लिए चार साहित्यकारों के पास भेजनी है। इसमें आपका नाम या कोई और पहचान नहीं होनी चाहिए, ताकि मूल्यांकन निष्पक्ष हो सके। इसलिए इसका मुख्य पृष्ठ और आरंभ के पेज फाड़े गये हैं। इस पर उन्हें अपनी अनभिज्ञता पर शर्मिंदगी हुई और क्षमा याचना की। उन्होंने बताया कि एक और बात, जब पिता जी का देहांत अगस्त 1967 में हो चुका था, लेकिन उन्हें 1982 में डा. राणा गन्नौरी से मिलने पर पता चला कि उनके पिता भी एक शायर थे, जो अब्र सोमाब के नाम से लिखते थे। हालांकि सीमाब अकबरावादी साहब को उनके लैटर पैड पर उर्दू में लिखा एक खत भी हदीसे नातमाम से मिला था। दरअसल राणा साहब को यह सब मुझे उर्दू का ज्ञान न होने के कारण हुआ। 
साहित्य का बदला मापदंड 
आज के आधुनिक युग में साहित्य के बारे में कमलेश शर्मा का कहना है कि वर्तमान में साहित्य की स्थिति अधिक अच्छी नहीं है, साहित्य लिखा तो बहुत जा रहा है, लेकिन स्तरीय नहीं है। मन मस्तिष्क को झकझोरता नहीं है। कालजयी रचनाएं बहुत कम लिखी जा रही है और छपने का शौक है। श्रेष्ठ साहित्यकार होने का मापदंड केवल प्रकाशित कृतियों की संख्या हो गया है। वर्तमान में साहित्य लेखन में भी मौलिकता कम होती जा रही है। किसी प्रतिष्ठित चर्चित साहित्यकार के शब्दों को मिलते जुलते शब्दों में लिखकर किसी विचार को कुछ कोई सुझाव या तर्कपूर्ण आलोचना सहने को तैयार नहीं है। उन्हें बस किसी न किसी संस्था से सम्मान चाहिए। आज ऐसी कई संस्थाएं हैं जो पैसा लेकर साहित्य गौरव, साहित्य सम्राट या साहित्य रत्न जैसे सम्मान दे रही हैं और रचनाकार ले रहे हैं। उनका कहना है कि सत्तर व अस्सी के दशक तक साहित्य खूब पढ़ा जाता था। कई साहित्यिक पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित होती थी, परंतु टीवी ने इस पर नकारात्मक प्रभाव डाला और अब मोबाइल व इंटरनेट के युग में युवा वर्ग गूगल और यूट्यूब की दुनियां में गुम होकर रह गया है। इससे समाज पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। हर आदमी आत्मकेंद्रित और अकेला होता जा रहा है। इसी प्रकार उन्हें याद है कि पचास-साठ के दशक में छुट्टियों में स्कूल के सभी छात्रों को दो दो पुस्तकें पढ़ने के लिए दी जाती थी और शिक्षक कहता था कि छुट्टियों के बाद इन पुस्तकों में से तुमसे प्रश्न पूछे जाएंगे। परंतु आजकल विद्यालयों, महाविद्यालयों में शिक्षा का लक्ष्य ही बदल गया है। छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पढ़ने और इसकी तैयारी करने के लिए कहा जाता है। आजकल कोई विरला छात्र ही पुस्तकालय से कोई साहित्यिक पुस्तक पढ़ने के लिए लाता होगा। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार और इतिहासकार की प्रकाशित पुस्तकों में काव्य संग्रह ‘बेटियां बेहतर समझती हैं’ व ‘सहमा हुआ समय’ के अलावा कपि स्थल: अतीत के झरोखे से वर्तमान की दहलीज तक (इतिहास) आदि कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। जबकि मुगलकाल का कैथल, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हरियाणा का योगदान नामक पुस्तक भी जल्द पाठकों के हाथों में होगी। 
पुरस्कार व सम्मान हरियाणा साहित्य अकादमी से वर्ष 2000 में श्रेष्ठ कृति पुरस्कार से सम्मानित हो चुके कमलेश शर्मा को हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन का पुरस्कार भी मिल चुका है। हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी ने भी उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में सम्मानित किया है। जबकि साहित्य सभा कैथल से बीएन गुप्ता अवार्ड के सम्मान के अलावा उन्हें मानव भारतीय शिक्षा समिति हिसार, अखिल भारतीय साहित्य परिषद् करनाल, पंजाबी साहित्य सभा सिरसा, समता मंच हरियाणा, हिरयाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन सिरसा, जिला प्रशासन कैथल, श्रीदुर्गा सेवा समिति कैथल, आर्य युवक परिषद कैथल से भी पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। 
 25Sep-2023

रविवार, 24 सितंबर 2023

हरियाणा में तेजी से बढ़ी प्रति व्यक्ति आय

पिछले नौ साल में दोगुना से ज्यादा की दर्ज की गई वृद्धि
घरेलू उत्पाद में भी पडोसी राज्यों से आगे हरियाणा 
ओ.पी. पाल.नई दिल्ली। देश में पिछले तीन साल में प्रति व्यक्ति आए में तेजी से बढ़ोतरी देखी गई है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें आय बढ़ाने के लिए जो कदम बढ़ा रही है। देश में वित्तीय वर्ष 2023 में औसतन प्रति व्यक्ति आय दो लाख रुपये सालाना है। इसमें राज्यों की बात की जाए तो हरियाणा में पिछले नौ साल में प्रति व्यक्ति आय दोगुना से भी ज्यादा बढ़कर करीब तीन लाख रुपये सालाना के नजदीक पहुंच गई है, जबकि हरियाणा पिछले तीन साल में राज्य घरेलू उत्पाद भी बढ़कर दो लाख रुपय के आंकड़े के नजदीक आंका गया है।
 
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2023 तक प्रतिव्यक्ति आय में निरंतर वृद्धि देखी जा रही है। आंकड़ो के मुताबिक देश में औसतन प्रति व्यक्ति आय दो लाख रुपये सालाना है, जिसमें वित्तीय वर्ष 2030 तक 70 फीसदी होने की उम्मीद जताई गई है। जबकि आजादी के 100 साल पूरा होने यानि साल 2047 तक देश में औसतन प्रति व्यक्ति आय 15 लाख रुपये सालाना पहुंचने की उम्मीद है। केंद्र सरकार देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की इस कवायद के कारण भारत पांचवी अर्थव्यस्था बन चुका है और आने वाले पांच साल में विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था की राह पर है। इसके लिए सभी राज्य सरकारें भी श्रमिकों, किसानों और अन्य सभी क्षेत्र में कार्य करने वाले कामगारों की आय बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयास करने में जुटी हुई हैं। मंत्रालय के आंकड़ो के मुताबिक फिलहाल प्रति व्यक्त आय में तेलंगाना पहले और कर्नाटक दूसरे पायदान पर है। साल 2022 में सिक्किम व गोवा इस मुकाम पर रहे हैं। देश की अर्थव्यस्था में योगदान देने के लिए सभी राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। 
हरियाणा ने पडोसी राज्यों को पछाड़ा 
हरियाणा में मनोहर लाल सरकार सरकार ने खेती और किसानी पर फोकस करते हुए प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाने के लिए कई योजनाएं चला रही है। इन्हीं प्रयासों का नतीजा है कि हरियाणा में प्रति व्यक्ति आय जहां साल 2014 में 1,35,700 रुपये सालाना थी, वहीं साल 2023 में यह बढ़कर 2,96,685 रुपये प्रति वर्ष दर्ज की गई यानी दोगुना से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई। वहीं राज्य घरेलू उत्पाद 1,81,961 रुपये सालाना आंका गया है। सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2022 में यह प्रति व्यक्त आय 2,64,835 तथा 2021 में 2,29,065 रुपये सालाना दर्ज की गई थी। हरियाणा प्रति व्यक्ति आय को लेकर फिलहाल अपने पड़ोसी राज्यों पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश से आगे चल रहा है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2023 में प्रति व्यक्ति आय प्रतिवर्ष पंजाब में 1,73,873 रुपये, राजस्थान में 1,56,149 रुपये, हिमाचल प्रदेश में 2,22,227 रुपये है। जबकि उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय महज 83,565 रुपये सालाना दर्ज की गई है। 
योजनाओं से आमदनी बढ़ाने की कवायद 
हरियाणा सरकार ने पिछले नौ वर्ष के दौरान राज्य के निवासियों की आय बढ़ाने और उनके जीवन स्तर में सुधार करने के लिए अनेक योजनाएं और कार्यक्रम चलाए हैं। हरियाणा की लगभग 90 प्रतिशत आबादी कृषि के आधार पर जीवन यापन करती है। इसलिए सरकार ने खेती किसानी पर सर्वाधिक ध्यान दिया है। किसानों के लिए प्राकृतिक आपदा से निपटने में मुआवजे में वृद्धि की गई और फसल विविधीकरण तथा कृषि के आधुनिकीकरण पर जोर दिया गया। हरियाणा प्रगतिशील किसान सम्मान योजना और सेम एवं कल्याण भूमि सुधार योजना इन में प्रमुख है। सरकार ने किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए सब्जियों और फलों की बागवानी पर भी फसल बीमा योजना लागू की। इसी तरह सरकार ने समाज के निचले स्तर पर आय बढ़ाने के लिए पूर्व सैनिक पेंशन, विधवा पेंशन, दिव्यांग पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन तथा बेरोजगारी भत्ते में भी वृद्धि की है। 
24Sep-2023

सोमवार, 18 सितंबर 2023

चौपाल: बॉलीवुड तक हरियाणवी संस्कृति के रंग बिखेरती नीवा मलिक


फिल्म अभिनेत्री के रुप में हिंदी व हरियाणवी फिल्मों ने दी पहचान 
                     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: नीवा मलिक 
जन्म तिथि: 15 जनवरी 1999 
जन्म स्थान: हिसार (हरियाणा) 
शिक्षा:एलएलबी (गोल्ड मैडेलिस्ट),
एमिटी विश्वविद्यालय गुरुग्राम। 
संप्रत्ति: अभिनेत्री, अभिनय संपर्क: हिसार । 
मोबा. 8826092803 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाणा के लोक कलाकारों ने हरियाणवी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन में अहम योगदान दिया है। इसके लिए आज की युवा पीढ़ी भी अपनी कला का प्रदर्शन करके हरियाणा से लेकर बॉलीवुड तक अपनी संस्कृति के रंग बिखेर रहे हैं। ऐसी ही एक युवा अभिनेत्री नीवा मलिक ने तो हरियाणवी फिल्मों में अभिनय के बाद अब बॉलीवुड तक अपने किरदार से फिल्म निर्देशकों को आकर्षित किया है। बॉलीवुड फिल्म जगत में अभिनय को अपना करियर बना रही नीवा ने मुंबई जैसी फिल्म नगरी में भी हिंदी फिल्मों में अपने अभिनय में हरियाणवी संस्कृति व कला को ज्यादा तरजीह दी है। हालांकि हिंदी, हरियाणवी, पंजाबी व भाषाओं की ज्ञाता नीवा का सपना एक कानूनविद् बनने का था, लेकिन अभिनय की कला के क्षेत्र में गहन रुचि ने उसे एक फिल्म अभिनेत्री के रुप में पहचान देना शुरु कर दिया है। एक कलाकार के रुप में अभी तक के सफर को लेकर युवा अभिनेत्री ने अपनी फिल्मों में अभिनय को लेकर हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान अपने अनुभवों का साझा किया है, जिसमें उसने अपनी मातृभूमि और संस्कृति के साथ सामाजिक सरोकार को सर्वोपरि रखने का प्रयास किया है। 
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रियाणा की संस्कृति के जलवे बॉलीवुड तक बिखेरने में जुटी नीवा मलिक का जन्म 15 जनवरी 1999 को हिसार में राजेश मलिक व मीना मलिक के घर में हुआ। उनके पिता व्यवसायी हैं, तो माता प्रध्यापक एवं लोक कलाकार हैं। नीवा ने अपनी स्कूली स्कूली शिक्षा विद्या देवी जिंदल स्कूल हिसार से हासिल की है। जबकि एमिटी यूनिवर्सिटी गुरुग्राम से एलएलबी(गोल्ड मैडेलिस्ट) यानी वकालत की शिक्षा ली है। हरियाणा की संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए एक लोक कलाकार के रुप में हमेशा सक्रिय रही उनकी माता सरकारी शिक्षक होने के साथ रेडियो स्टेशन और दूरदर्शन पर भी कार्यक्रम देती आ रही हैं। इसलिए मां के लोक कला संस्कृति के माहौल में नीवा भी बचपन से ही डांस और एक्टिंग में अभिरुचि नजर आने लगी थी। इसी कारण वह कला क्षेत्र में अभिरुचि को बनाए रखने के लिए स्कूल और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी हिस्सा लेती रही हैं। हालांकि उसका सपना कानूनविद् बनना रहा होगा, जिसे पूरा करने के मकसद से उसने लॉ की पढ़ाई भी की। बकौल नीवा मलिक अपनी माता की प्रेरणा और मार्गदर्शन में वह कला क्षेत्र से भी जुड़ी रही। 
मां से मिली प्रेरणा
नीवा ने बताया कि गुरुग्राम में लॉ करते समय जब वह छुट्टियों के दिनों में अपने घर हिसार आई तो उनकी शिक्षक माता और लोक कलाकार ने छुट्टी के दिनों में बेटी नीवा को कला संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय रुप से काम करने की सलाह दी। यानी लॉ की पढ़ाई करने के दौरान ही फिल्म एसपी चौहान में अभिनय के लिए उसने पहली बार करनाल में ऑडिशन दिया और उसका अभिनय के लिए चयन भी हो गया। इस फिल्म में जिमी शेरगिल, यशपाल शर्मा और युविका चौधरी जैसे कलाकारों ने अहम भूमिका निभाने वाले कलाकारों के बीच अपने अभिनय का प्रदर्शन किया। आठ फरवरी 2019 को रिलीज हुई यह फिल्म नशे व अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ उनकी सामाजिक चेतना व संघर्ष की गहराई को दर्शाने वाली रही। इसी कारण शिक्षाविद व नवचेतना मंच के संयोजक एसपी चौहान के जीवन पर बनी फिल्म एसपी चौहान द स्ट्रगलिग मैन ने कोविड काल में रिकार्ड कायम कर करनाल व हरियाणा के लिए नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। नीवा ने बताया कि हरियाणवी फिल्मों में उनके अभिनय को देखकर उन्हें हरियाणा फिल्म के ऑडिशन के लिए मुंबई से आमंत्रण मिला, उसे मुंबई के मंझे हुए कलाकार मिले, जिन्हें देख कर उसे लगा कि वह भी ऐसा किरदार कर सकती है। हरियाणवी फिल्म में उनका प्रदर्शन देख कर हरियाणवी फिल्म अभिनेता और निर्देशक हरिओम कौशिक ने उन्हें अपनी फिल्म 1600 मीटर में प्रमुख अभिनय का किरदार निभाने के लिए चुना, जो उनकी पहली लीड हरियाणवी फिल्म थी। इस फिल्म में मुंबई में कई अनुभवी टीवी और फिल्म अभिनेता भी शामिल थे, इस कारण इस क्षेत्र में संघर्ष करना भी स्वाभाविक ही था, लेकिन उसने 1600 मीटर फिल्म की शूटिंग ख़त्म होते ही मुंबई शिफ्ट होने का फैसला लिया और अब इसी फील्ड को करियर बनाकर कामयाबी हासिल करने का लक्ष्य तय किया। मुंबई पहुंचते ही उन्होंने अनुपम खेर के एक्टर प्रिपेयर्स (एक्टिंग स्कूल) में दाखिला लिया, जहां उन्होंने 3 महीने का एक्टिंग डिप्लोमा किया। डिप्लोमा करने के बाद उन्हें दूसरी फिल्म फौजा में काम करने का मौका मिला। फौजा फिल्म के बाद से ही उसने मुंबई में ही फिल्मों में काम शुरू कर दिया। एक और फिल्म ‘द लॉस्ट गर्ल’ में उन्होंने एक बड़ा ही चुलबुला और नटखट के किरदार ने उसका अभिनय के लिए आत्मविश्वास बढ़ाया और एसपी चौहान, हरियाणा और करमक्षेत्र जैसी फिल्मों के साथ ही उसने टीवी सीरियल, वेबसीरिज के लिए भी ऑडिशन देकर अपने अभिनय की कला को विस्तार देना शुरु किया। 
अभिनय को यहां से मिली मंजिल 
हरियाणवी फीचर फिल्म ‘1600 मीटर’ में प्रमुख अभिनेत्री की भूमिका निभाने वाली युवा फिल्म कलाकर नीवा ने फिल्म इंडस्ट्री में अपने करियर की शुरुआत पवन राज मल्होत्रा के अभिनीत राही प्रोडक्शन की हिंदी फीचर फिल्म ‘फौजा’ (2022) से की, जो सेना की सच्ची घटनाओं से प्रेरित थी। इसमें उसने पवन मल्होत्रा की बेटी का प्राथमिक किरदार निभाया। एक अन्य फीचर फिल्म ‘द लॉस्ट गर्ल’ में भी नीवा का किरदार प्राथमिक चरित्र के रुप में सामने आया। नीवा मलिक ने विशाल फुरिया द्वारा निर्देशित और बीबीसी स्टूडियो और अप्लॉज़ एंटरटेनमेंट द्वारा निर्मित वेबसीरीज ‘36 डेज़’ तथा जीटीवी पर लोकप्रिय सरीरियल ‘लग जा गले’ से अपनी टीवी के लिए काम की शुरुआत की। ज़ीटीवी के इस लोकप्रिय सीरियल के शो में उनका किरदार प्राथमिक पात्रों में से एक रहा। इसके अलावा उन्होंने स्किनक्राफ्ट, केयर4यू सेनेटरी पैड, लिंक्डइन, एडलवाइस टोकियो लाइफ इंश्योरेंस और डब्ल्यूओडब्ल्यू के लिए विज्ञापन के लिए भी अभिनय किये। 
परिवारिक फिल्में प्राथमिकता 
युवा कलाकार नीवी मलिक का कहना है कि उनका फिल्मों में सामाजिक व परिवारिक फिल्मों में अभिनय करना उनकी प्राथमिकता है। अभी तक उनकी हिंदी व हरियाणवी फिल्मों की पृष्ठभूमि परिवारिक कहानी और सामाजिक सरोकार और संस्कृति से जुड़े मुद्दों से जुड़े रहे हैं। हालांकि फिल्म जगत में उसका लक्ष्य किसी थ्रिलर या संस्पेस किरदार निभाना भी है। फिलहाल उनका सोनी टीवी पर एक नया शो ‘काव्या’ शुरू होगा, जिसमें मुंबई की कई बड़े पुरुष व महिला कलाकार भी शामिल हैं। इसी प्रकार स्टार प्लस पर जल्द आने वाले शो ‘इमली’की इमली सुम्बुल खान एक अहम भूमिका निभा रही हैं, जिसमें उन्हें भी किरदार सौंपा गया है। 
18Sep-2023

सोमवार, 11 सितंबर 2023

साक्षात्कार: साहित्य में समाज को नई दिशा देने में जुटे शायर विश्वेश्वर

देशभर के नामचीन शायरों के संयुक्त गजल संग्रहों का हिस्सा बने श्योकंद 
                व्यक्तिगत परिचय 
नाम: विश्वेश्वर श्योकंद 
जन्मतिथि: 04 नवंबर 1982 
जन्म स्थान: गाँव सुदकैन कलाँ जींद(हरियाणा)। 
शिक्षा: एमएमसी(माँस कम्युनिकेशन), एमए (हिन्दी), बीएड., डीएड.। 
संप्रत्ति: हिन्दी प्राध्यापक, आर्य वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय नरवाना(जींद)। 
संपर्क: सुदकैन कलाँ, तहसील, उचाना, जींद। मो.-9812967159 
BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में संस्कृति और परंपराओं का समावेश करने की दिशा में लेखक एवं साहित्यकार अपने अंदाज में विभिन्न विधाओं के माध्यम से सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे को उजागर करता है। ऐसे ही साहित्यकारों में हरियाणा के युवा गजलकार विश्वेश्वर श्योकंद अपने शायरानी अंदाज में समाज की जर्जर व्यवस्थाओं के प्रति आक्रोश, सामंती मानसिकता के खिलाफ़ बगावती तेवर, गरीबों व मजलूमों के प्रति हमदर्दी की भावना को बयां करके समाज में सकारात्मक विचारधारा का संचार करके नई दिशा देने में जुटे हुए हैं। खासतौर से हर किस्म की शायरी के फन में माहिर इस युवा गजलकार की गजलें हरियाणा में ही नहीं, बल्कि देशभर के नामचीन शायरों के संयुक्त गजल संग्रहों का हिस्सा बन चुकी है। देशभर में आयोजित मुशायरों और कवि सम्मेलनों के मंच पर उनकी शान उनकी लोकप्रियता को भी बयां करती है। एक गजलकार के रुप में साहित्य साधना कर रहे युवा शायद विश्वेश्वर श्योकंद ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने साहित्यिक सफर के अनुभव को साझा करते हुए जिन अनछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिससे जाहिर होता है कि उनकी गजलों का मूल भाव दार्शनिक और एक परिपक्व रचनाकार के रुप में समाज को नई ऊर्जा दे रहा है। 
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रियाणा के प्रसिद्ध गजलकार विश्वेश्वर श्योकंद का जन्म 04 नवंबर 1982 को हरियाणा के जींद जिले की तहसील उचाना के गांव सुदकैन कलाँ में महावीर सिंह के घर में हुआ। विश्वेश्वर को शायरी और गजल लेखन विरासत में मिली है। उनके पिता महावीर सिंह उर्दू के प्रख्यात गज़लकार और शायरी लेखक रहें हैं, जिन्होंने 'दुखी' उपनाम से गज़लों का एक अनोखा संसार रचा है। बचपन में परिवार में साहित्यिक माहौल मिलने के कारण भी उनकी इस क्षेत्र में रुचि बढ़ना स्वाभाविक था। पिता से ही शायरी लिखने और सुनाने की बारीकियों की सीख लेकर उन्होंने कविताएं और गजलें लिखना शुरु किया। उन्होंने बताया कि विद्यालय के दिनों में तुकबंदी कविताओं से लिखने की शुरुआत हुई। साहित्य के प्रति अभिरुचि उस दौरान ज्यादा गहरा गई, जब वह नौवीं कक्षा में पढ़ते थे और उन्होंने पहली रचना वतन की राह लिखी, जो अखबार में भी प्रकाशित हुई। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और उन्हें अपने अनुभवों को एक सांचे में ढ़ालने की प्रेरणा मिली। हालांकि उनके इस साहित्यिक सफर में कुछ परेशानियां भी सामने आई। क्योंकि नए लोगों को मंच पर आयोजक मौका नहीं देते थे और साहित्य के क्षेत्र में चुनिंदा लोगों को मंच पर बुलाया जा रहा था। लेकिन उन्होंने हौंसला डिगाए बिना गजले लिखना जारी रखा, जिसकी वजह से उनके लेखन में सुधार आया तो अच्छे साहित्य को समझने वाले लोग भी उनके संपर्क में और और उन्हें धीरे धीरे मंच भी मिलने लगा। इसके इस सफर को रफ्तार देने में प्रसिद्ध कवि कृष्ण गोपाल विद्यार्थी के अलावा उनकी पत्नी सुदेश देवी एक महत्वपूर्ण प्रेरक की भूमिका निभाई, जो आज भी उन्हें हमेशा अच्छा और सार्थक लिखने के लिए प्रेरित करती आ रही है। गजल विधा को लेकर उनका मानना है कि शायरी का हुनर हर किसी को बख्शा नहीं जाता, इसलिए शायर स्वभाव से खुद्दार और स्वाभिमानी होता है, जो कभी ज़मीर का सौदा नहीं करते, बल्कि आने वाली पीढ़ी के भविष्य की बेहतरी उनका भाव होता है। उनकी साहित्यिक रचनाओं का ज्यादातर फोकस सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे रहे, जिनकों उन्होंने गजल के रुप में शायरी के माध्यम से उजागर करने में कोई संकोच नहीं किया। इसका मकसद समाज को सकारात्मक विचारधारा के प्रति दिशा देना रहा। उन्होंने अपनी कविताओं में सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए पीड़ित और दुखी व्यक्ति की भावनाओं को व्यक्त किया है। वहीं अपनी गजलों में शोषक वर्ग के प्रति आक्रोश की भावना को भी प्रकट किया, तो उनकी कुछ गजलों और कविताओं में प्रेम और विरह का समावेश भी शामिल है। मसलन वह वह रूमानी गज़लों के साथ इंकलाबी गजले भी लिखते आ रहे हैं। उनकी रचनाओं को सुख़नवर, अर्बाबे कलम, अभिनव प्रयास और हरिगंधा जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी स्थान मिल चुका है, वहीं राष्ट्रीय स्तर के अखबारों में साक्षात्कार प्रकाशित हुए हैं। उनकी गजलों के कई कार्यक्रम आकाशवाणी और टीवी चैनलों पर भी प्रसारित हो चुके हैं। यही नहीं विद्यालय व कॉलेज स्तर पर विभिन्न साहित्यिक प्रतियोगिताओं में उनकी निर्णायक की भूमिका भी रही है। वह जींद जिले के नरवाना में आर्य वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। 
साहित्य लेखन में कमी चिंतनीय 
आज के आधुनिक और तकनीकी युग में साहित्य के सामने आ रही चुनौतियों को लेकर शायर विश्वेश्वर का कहना है कि साहित्य लेखन का कार्य आज धीमा पड़ गया है। साहित्य का प्रचार प्रसार इतना कम हो रहा है, कि पहले की तरह अब दुकानों पर साहित्यिक पुस्तकें या पत्रिकाएं नजर नहीं आती। यही कारण पाठकों की कमी का कारण भी बन रहा है, जिसमें सबसे बड़ा कारक इंटरनेट, सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव भी है। जहां तक युवा पीढ़ी से दूर होते साहित्य का सवाल है, उसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ रहा है। इंटरनेट व टीवी चैनलों पर पाश्चत्य संस्कृति ने युवा पीढ़ी को साहित्य से कहीं ज्यादा विमुख किया है, जो सामाजिक गतिविधियों के बजाए असामाजिक गतिविधियों की राह पर है। इसलिए युवाओं को साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए सरकार स्तर के अलावा महाविद्यालय व स्कूल स्तर पर साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े कार्यक्रम व कार्याशालाएं आयोजित कराना आवश्यक है। वहीं साहित्यकारों और लेखकों को भी अच्छे साहित्य की रचना करके लगातार लेखन में आ रही गिरावट को रोकना होगा। 
प्रकाशित पुस्तकें 
हरियाणा के प्रसिद्ध गजलकार विश्वेश्वर श्योकंद की लिखित पुस्तकों में प्रमुख रुप से गजल दुष्यंत के बाद, हरियाणा के लोक प्रिय ग़ज़लकार, सांझी सोच, ग़ज़ल का व्याकरण- आओ ग़ज़ल कहें' में ग़ज़ल शामिल, गजल संग्रह हरियाणा के युवा गजलकार, हमसफर, काव्य संग्रह कोई तो हो प्रकाशाधीन शामिल हैं। इसके अलावा उनका एक गजल संग्रह प्रकाशाधीन है। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणा साहित्य अकादमी के विभिन्न कार्यक्रमों में सम्मानित गजलों के फनकार विश्वेश्वर श्योकंद श्रेष्ठ शिक्षक का सम्मान भी हासिल कर चुके हैं। वहीं हरियाणा गौररव सम्मान से अलंकृत शायर को हिन्दी भवन दिल्ली में नूर-ए-गजल सम्मान, संस्कार भारती सम्मान, 'परवाज़-ए-गजल, हिमालयन अपडेट के अलावा उन्हें हरियाणा राज्य स्तरीय शैक्षणिक संस्थानों और साहित्यिक संस्थाओं द्वारा भी अनेक पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा रहा है। इसके अलावा जनता टीवी के आयोजित 'जनता कवि दरबार' में भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। 
11Sep-2023

सोमवार, 4 सितंबर 2023

चौपाल: हरियाणवी अंदाज में ‘आल्हा’ गायन शैली अलख जगाते इन्द्र सिंह

संस्कृति से लुप्त होती आल्हा की परंपरा को लेकर चिंतित हैं लोक कलाकार 
नाम: इन्द्र सिंह 
जन्म तिथि: 01 जनवरी 1974 
जन्म स्थान: गांव किठाना, ब्लॉक राजौंद, जिला कैथल शिक्षा: प्राइमरी 
संप्रत्ति: किस्सों पर आधारित गायक, सारंगी वादक संपर्क:गांव किठाना, जिला कैथल (हरियाणा) मोबा.9813640854
BY---ओ.पी. पाल 
रियाणवी लोकगायन में उत्तर भारत में प्रचलित लोकगीत और संगीत के एक रूप में ‘आल्हा’ गायन शैली को भी अपने अंदाज में गाया जाता है। वैसे तो अब हरियाणा में इस विद्या के माध्यम से दो वीर भाइयों आल्हा-ऊदल की गाथाओं को सुर-ताल से सजाकर गांव-गांव तक पहुंचाने वाले चुनिंदा ही लोक कलाकर रह गये हैं, लेकिन सारंगी वाद्य यंत्र के संगीत से जुड़े कलाकारों ने इसमें हरियाणवी वीरों और महापुरुषों की गाथाओं के साथ सामाजिक और आध्यात्मिक किस्सों का समावेश करके इसे नया आयाम देने का प्रयास किया है। ऐसे ही लोक कलाकारों में हरियाणवी संस्कृति व संगीत कला में आल्हा गायन के पहलू को पिरोने वाले कलाकार इन्द्र सिंह शामिल है, जिन्होंने हरियाणवी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु आल्हा गायन शैली को अपनी सारंगी संगीत कला के माध्यम से सामाज को सकारात्मक ऊर्जा देने का प्रयास किया है। लेकिन उन्हें इस बात का मलाल है कि एक परंपरागत संस्कृति, कला और गायन शैली को इस आधुनिकता की चकाचौंध में सरकार और समाज का प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। आल्हा के गायक और संगीत कलाकार इन्द्र सिंह ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपनी कला के सफर और अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि यदि लोक कला की विधाओं को इसी प्रकार से नजरअंदाज किया जाता रहा, तो एक दिन सारंगी के संगीत और आल्हा जैसी प्राचीन कला पूरी तरह से लुप्त हो जाएगी।
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रियाणा के कैथल जिले के गांव किठाना में जातीराम के परिवार में 01 जनवरी 1974 को जन्में आल्हा विधा के गायक एवं सारंगी वादक इन्द्र सिंह को सांरगी जैसे वाद्य यंत्र के संगीत के साथ किस्सों पर आधारित आल्हा गायन विरासत में मिली। उन्होंने बताया कि सारंगी जैसे वाद यंत्र के सांगीत में कई विधाओं की लोक गायकी के संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी से मिलते आ रहे हैं। उनके दादा व परदादा भी इसी संस्कृति में जाने माने लोक कलाकार रहे हैं। उन्हें प्राचीन कहानी किस्से सुनाने की आल्हा विधा में संगीत की शिक्षा उनके पिता और चाचा से ही मिली। इसलिए वे संस्कृति की विरासत में मिली इस विधा को सरंक्षित और इसे नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। चूंकि उनका पूरा परिवार का माहौल इसी कला व संस्कृति से परिपूर्ण रहा तो उन्हें भी बचपन से ही संगीत, सारंगी, लेखन, गायकी मंचन में रुचि होने लगी थी। इसी वजह से वह शिक्षा में केवल चौथी कक्षा यानी प्राइमरी शिक्षा ही ग्रहण कर पाये, लेकिन गायकी और संगीत में दिन रात मेहनत करके उन्होंने इस कला में निपुणता हासिल की। उन्होंने बताया कि यह कला सीखने में ज्यादा रुचि की वजह ये भी रही, ताकि समाज को हमारे पूर्वजों की गाथाओं और उनके बेहतर कामों का किस्सा संगीत के जरिए अवगत कराया जा सके। लोग ऐसे सामाजिक किस्सों को पसंद भी करते थे और उन जैसे लोक कलाकारों को गांवों में इस लोक कला को प्रस्तुत करने के लिए बुलाया भी जाता हैं। यह कला संस्कृति की एक बेहतरीन कला है, लेकिन सारंगी के संगीत किसी भी किस्से या गाथा के गायन में सुर-ताल मिलाने की धुन निकालना आसान भी नहीं है। इसीलिए उन्हें खुद भी इस परंपरागत कला को सीखते हुए परेशानियों का भी सामना करना पड़ा, जिसमें आर्थिक तंगी से जूझते परिवार के बीच विषम परिस्तियों में भी उन्होंने इस कला को प्रिय मानकर इसे आगे बढ़ाने का लक्ष्य तय किया। जोगी गायन शैली में भी आल्हा जैसी विधा इसलिए भी लुप्त होने के कगार पर है, क्योंकि आल्हा की परंपरा की विधा को अपनाने वाले प्रदेश में अब सांरंगी के संगीत वाले गिने चुने ही गायक बचे हुए हैं। विरासत में मिली इस प्राचीन लोक कला को जीवंत करने के मकसद से इस विधा को व्यवसाय के रुप में अपनाकर उन जैसे कलाकार समाज को दिशा देने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन आज के इस भौतिकवाद में नजरअंदाज होती जा रही इस कला से परिवार का पालन पोषण करना बेहद टेढ़ी खीर साबित हो रही है। 
महापुरुषों की गाथाओं पर फोकस 
आल्हा गायन शैली के कलाकार इन्द्र सिंह की विधा में हरफूल जाट के जन्म, गरीबों के दुख करने, फौज में जाने और गरीबों की मदद करने जैसे किस्सों के अलावा जोगी परंपरा में हीर-रांझा, शिवजी का ब्याह, गोपीचंद, उदल, अमर सिंह राठौर, पृथ्वीराज चौहान, पूरन मल और आल्हा-उदल जैसे महापुरुषों के किस्से व उनकी गाथाओं को संगीत के साथ गायन का रहा है। उन्होंने आल्हा गायन को नई दिशा देने के प्रयास में समाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे भी शामिल करना शुरू किया है। इनमें बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या और सरकार के विभिन्न सामाजिक अभियान शामिल हैं। इन्द्र सिंह के ऐसे वीरों की गाथाओं और किस्सों को जिस हरियाणवीं अंदाज में पेश किया जाता रहा है, उसे आल्हा के रूप में आज भी बड़ी शिद्दत से सुनते हैं। 
परंपरागत विधाओं में शामिल रही आल्हा 
उनका कहना है कि हालांकि ग्रामीण परिवेश में आज भी आंशिक रुप से आल्हा, जोगी गायन अैर संस्कृति की प्राचीन कलाएं उस जमाने में समाजिक दृष्टि से भी पसंद की जाती हैं, लेकिन पुराने जमाने में इसकी विधा की अलग ही पहचान रही है, जहां ब्याह शादी या अन्य सांस्कृतिक आयोजनों के मौके पर आल्हा, रागनी गायकों के साथ सारंगी के संगीतकारों को बुलाया जाता था। बकौल इन्द्र सिंह हरियाणवी संस्कृति में इस लोककला में राग, गायन शैली, लोकगीत, साकी, दोहे, छंद, सवैया, सौरठा जैसी प्राचीन विद्याओं का समावेश भी है। इसलिए समाज में इसकी सुख और दुख या आपदा के समय गांव व परिवार की सुख शांति के लिए सांरगी के संगीत और आल्हा गायन को लोग एक विश्वास के साथ देखते थे। उस समय यह भी मान्यता रही है कि सारंगी के संगीत के साथ गायन से हारी बीमारी में परिवार के सदस्यों की ही नहीं, बल्कि पशुओं की बीमारियां भी ठीक होती हैं। 
मंच मुहैया कराने की दरकार 
आल्हा विधा के लोक कलाकार इन्द्र सिंह का कहना है कि आज के इस युग में दो चार महीने में इस विधा के कलाकारों को किसी कार्यक्रम में बुलाया भी जाता है, तो केवल अतिथियों के स्वागत के लिए मुख्य द्वार पर उन्हें अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौका मिलता है। जबकि पाश्चत्य संस्कृति के गायकों और कलाकार मंच पर होते हैं। उनका आल्हा गायन शैली और सारंगी वादक जैसे कलाकारों को सरकार से मानदेय और पेंशन जैसी योजनाओं ने प्रोत्साहन देने पर भी बल दिया, ताकि उनकी आर्थिक व्यवस्था में सुधार हो सके। जहां तक लोककलाओं में इन विधाओं को प्रोत्साहन और युवा पीढ़ी को प्रेरित करने का सवाल है उसके लिए स्कूल कालेजों कार्यशालाएं और प्रशिक्षण देने की योजना पर बल देना जरुरी है। 
04Sep-2023