मंगलवार, 31 जनवरी 2017

जेटली की पोटली पर होगी उम्मीदों की नजरें!

 संसद में आज पेश होगा आम बजट
आम लोगों पर मेहरबान हो सकती है सरकार
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
संसद के शुरू हुए बजट सत्र के तहत कल बुधवार को आम बजट पेश किया जाना है, जिस पर पूरे देश की उम्मीदभरी नजरें लगी हुई हैं। मोदी सरकार के इस बार बदलते केंद्रीय बजट के स्वरूप में आम आदमी को राहत मिलने की संभावनाएं हैं, जिसके सरकार की ओर से लगातार संकेत भी मिल रहे हैं।
देश के इतिहास में संसद में पेश होने वाला आम बजट एक बदले स्वरूप का दस्तावेज होगा, जिसमें बजट पेश करने का समय में हो रहे बदलाव के साथ ही 93 साल बाद आम बजट में ही रेल बजट का समायोजन किया गया है। ऐसे बदलावों के साथ केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली कल एक फरवरी को लोकसभा में जैसे-जैसे अपना बजट भाषण पढ़ेंगे, वैसे ही देश और आम लोगों की नजरें बजट से जुड़े सभी विषयों के बिंदुओं पर होगी। देश में नोटबंदी के बाद इस बजट से वैसे भी आम जनता को राहत की उम्मीदें हैं,जिसके लिए सरकार के सामने चुनौतियां भी कम नहीं होंगी। मलसन इस बार का आम बजट न सिर्फ कई मायनों में नया होगा, बल्कि आम लागों के अलावा इस बजट से तमाम क्षेत्रों को फाकी उम्मीदें भी हैं। सूत्रों की माने तो केंद्र सरकार आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में सुधार के साथ देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने, कृषि में सुधार, गांवों और किसानों की हालत में सुधार पर फोकस कर रही है। देश के युवाओं को शिक्षा, रोजगार एवं नौकरी से जुड़ी हर घोषणा में कुछ खास उम्मीद है। अब सवाल है कि आम बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली देश व जनता की लगी उम्मीदों पर कितना खरा उतरते हैं, इसके पत्ते तो बुधवार का बजट पेश किये जाने के दौरान ही खुल पाएंगे।
रेलवे को बड़ी उम्मीद
आम बजट में ही रेलवे का बजटीय प्रावधान और योजनाओं का ऐलान होगा। लिहाजा रेलवे को सरकार से रेलवे के बुनियादी ढांचे को दुरस्त करने और रेल यात्रियों को अत्याधुनिक राहत की योजनाओं को गति देने के लिए भारी भरकम बजट की उम्मीद लगी हुई है। हालांकि सरकार देश में बढ़ते रेल हादसों की चुनौती से निपटने की दिशा में इस बजट में रेल सुरक्षा व संरक्षा पर ज्यादा फोकस रख सकती है। फिर भी रेलवे को इस बजट में वित्त वर्ष 2017-18 के लिए 1.3 से 1.4 लाख करोड़ का बजटीय आवंटित होने की उम्मीद है।
कृषि क्षेत्र में सौगात
केंद्र सरकार के आम बजट 2017-18 में नोटबंदी के बाद कृषि क्षेत्र में दो-चार होने के मजबूर हुए किसानों की भी वित्तमंत्री अरुण जेटली की पोटली पर नजरें लगी हुई हैं। उममीद है कि सरकार किसानों की समस्याओं को देखते हुए कृषि क्षेत्र और उनसे जुड़े किसानों के हित में ज्यादा से ज्यादा योजनाओं की सौगात दे सकती है। दूसरी तरफ एक रिपोर्ट पर भरोसा करें तो बीते वर्ष की तुलना में साल 2016 के दौरान बुआई अच्छी रही है। जबकि सरकार पहले ही किसानों के मौजूदा लोन पर (खरीफ और रबी की फसल के लिए) 60 दिन का ब्याज माफ कर चुकी है।

गरीबों व वंचितों का विकास सरकार का लक्ष्य: प्रणब

राष्ट्रपति के अभिभाषण के साथ शुरू हुआ बजट सत्र
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संयुक्त सदन में अभिभाषण के साथ संसद का बजट सत्र शुरू हो गया है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ‘सबका साथ-सबका विकास’ में सरकार का मुख्य लक्ष्य गरीबों, पीड़ितों, दलितों और वंचितों का मुख्य विकास करना है। वहीं उन्होंने मोदी सरकार के विमुद्रीकरण(नोटबंदी) के फैसले को कालाधन, भ्रष्टाचार, जाली मुद्रा और आतंकवादियों के फंडिंग के खिलाफ साहसिक कदम करार दिया।
संसद के मंगलवार को शुरू हुए बजट सत्र की शुरूआत केंद्रीय कक्ष में संयुक्त सदन की बैठक में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण से हुई। अभिभाषण के दौरान मुखर्जी ने कहा कि सरकार के सबका साथ-सबका विकास के लक्ष्य में देश के गरीबों और दबे कुचलों का विकास करना है, जिसके लिए केंद्र सरकार ने अनेक ऐतिहासिक और साहसिक निर्णय लिये हैं। उन्होेंने कहा कि सरकार के आव्हान पर 2.2 करोड़ लोगों के गैस सब्सिडी छोड़ने से भी गरीबों का विकास होगा। उन्होंने कहा कि मुद्रा योजना के जरिए लोगों को लोन मिले और 26 करोड़ जनधन अकाउंट खोले गए। एक लाख बैंक मित्रों की नियुक्ति की गई। गरीबों के लिए पीएम आवास योजना चलाई। 13 करोड़ गरीब सामाजिक सुरक्षा योजना से जुड़े। उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने का काम देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है और सरकार जल्द ही देशभर में आधार पेमेंट सिस्टम शुरू करेगी।
नोटबंदी साहसिक निर्णय
उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा कालेधन, भ्रष्टाचार, जाली मुद्रा और आतंकवादियों के लिए धन मुहैया कराने की बुराईयों पर अंकुश लगाने के लिए नोटबंदी के फैसलें को भी खासकर गरीबों के हित में साहसिक निर्णय का जिक्र किया। कालेधन के खिलाफ सरकार द्वारा एसआईटी का गठन करने, कालाधन(अज्ञात विदेश आय तथा परिसंपत्ति) तथा कर अधिनियम-2015 का अधिरोपण तथा बेनामी संव्यवहार प्रतिषेध संशोधन अधिनियम-2016 पारित कराने के लिए सिंगापुर, साइप्रस और मॉरिशस के साथ संधियों में संशोधन करने का मकसद भी यही बताया और कहा कि ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ के लिए कराधान संशोधन अधिनियम पारित करने से कालेधन के खिलाफ एक नितिगत बड़ी पहल की गई है।
देश बदलने वाले निर्णय
राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण के दौरान सांसदों को संबोधित करते हुए केंद्र सरकार द्वारा उठाए गये कदमों का जिक्र करते हुए कहा कि स्वच्छ भारत मिशन जनआंदोलन बनाना, हर बेघर को घर देने का संकल्प, 2022 तक सभी को पक्के आवास देने का लक्ष्य,उज्ज्वला योजना में 37 प्रतिशत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग को लाभ देना, सरकारी योजनाओं से किसानों को फायदा देना, पीएम फसल बीमा से किसानों को लाभ देना, सातवें वेतन आयोग से 50 लाख कर्मचारियों को फायदा देना, पहली बार 3 लड़ाकू महिला पायलट बनने का मौका देना, रोजगार बढ़ाने के लिए 6000 करोड़ का बजट उपलब्ध कराना, पूर्वोत्तर की सभी छोटी रेल लाइनों को बड़ी लाइनों में बदलने की योजना के अलावा सभी गांवों को सड़कों से जोड़ने के लक्ष्य में गांवों में अब तक 73 हजार किलोमीटर सड़कें बनाने का स्वागत किया। उन्होंने सरकार द्वारा कई देशों के साथ रिश्ते सुधारने की नीति को भी देशहित में बताया।

बजट सत्र में आसान नहीं सरकार की डगर!

संसद सत्र की हंगामेदार शुरूआत के असार
बजट सत्र में 21 नए विधेयक होंगे पेश
लंबित विधेयकों पर भी होगा विचार
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
संसद के मंगलवार से शुरू हो रहे बजट सत्र में जहां पूरे देश की नजरें आम बजट पर लगी हुई है, वहीं संसद में कई मुद्दों पर विपक्ष के साथ जारी गतिरोध के कारण मोदी सरकार के सामने बजट सत्र के एजेंडे को पार लगाने की भी चुनौती होगी, जिसमें सरकार के लिए संसद में 21 नए विधेयक पेश करने के अलावा तीन अध्यादेशों को भी विधेयकों में बदलवाना कोई आसार डगर नहीं होगी।
देश की अर्थव्यवस्था में सुधार और कालेधन के खिलाफ नोटबंदी के फैसले के बाद विपक्ष की घेराबंदी के कारण निशाने पर आई मोदी सरकार के लिए कल मंगलवार से शुरू हो रहे बजट सत्र के दौरान काम करना आसान काम नहीं होगा। जबकि सरकार के पास बजट में संतुलन बनाने की चुनौती होगी, वहीं व्यवस्था परिवर्तन के लिए संसद में पेश किये जाने वाले विधेयकों और अन्य सरकारी कामकाज के बोझ से बाहर आना आसान नहीं लगता। नोटबंदी समेत कई मुद्दों पर विपक्षी दलों के निशाने पर सरकार ने बजट सत्र के दौरान 21 नए विधेयक पेश करने के अलावा तीन अध्यादेशों को नए विधेयकों में बदलने की भी चुनौती होगी।
बजट सत्र का कार्यक्रम
बजट सत्र के पहले दिन 31 जनवरी को संयुक्त सदन में राष्टÑपति प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण होगा। इसी दिन वित्तमंत्री आर्थिक समीक्षा पेश करेंगे, जिसका कारण है कि वित्तमंत्री अरुण जेटली को अगले ही दिन यानि एक फरवरी को आम बजट पेश करना है। गौरतलब है कि पांच राज्यों में चुनावों से पहले केंद्रीय बजट को लेकर भी विपक्षी दलों का विरोध चल रहा है। 31 फरवरी से 12 अप्रैल तक चलने वाले बजट सत्र में 31 बैठकें निर्धारित हैं, जिसका पहला चरण 9 फरवरी को खत्म हो जाएगा। दूसरे चरण शुरू करने की तिथि अभी घोषित नहीं की जा सकी है। बजट सत्र के पहले चरण में नोटबंदी से संबंधित अध्यादेश के स्थान पर विधेयक लाया जाएगा और वेतनमान भुगतान से संबंधित अध्यादेश की जगह वेतनमान भुगतान (संशोधन) विधेयक भी पेश किया जाएगा। जो लोकसभा में पारित हो चुका है और राज्यसभा में पारित कराना है। संसद में पेश होने वाले बजट से संबंधित वित्त विधेयक पारित कराने के अलावा वस्तु एवं सेवा कर यानि जीएसटी से संबंधित दो विधेयक भी इसी सत्र में पेश किए जाएंगे।
सरकार पर काम का बोझ
संसद के बजट सत्र में आम बजट के अलावा सरकार के एजेंडे में भारी कामकाज शामिल है। इसमें नोटबंदी से संबन्धित आयकर कानून पर लाए गये अध्यादेश के साथ ही संसद में लंबित शत्रु संपत्ति विधेयक पर चौथी बार लाए गये अध्यादेश को भी विधेयक में बदलने की बड़ी चुनौती होगी। जबकि वेतनमान भुगतान से संबंधित अध्यादेश को विधेयक में बदलने के अलावा सरकार संसद में 21 नए विधेयक लेकर आ रही है। इसके अलावा अन्य मामलों पर चर्चा और अन्य सरकारी कामकाज भी शामिल है। लोकसभा में सात और राज्य सभा में छह विधेयक लंबित हैं, जिन्हें इस सत्र के दौरान पारित कराने का प्रयास होगा। इसके अलावा 2017-18 की अनुदान मांगे और 2016-17 के लिए तीसरी पूरक अनुदान मांगे भी पारित कराई जाएंगी।
पेश होंगे ये नए विधेयक
बजट सत्र में सरकार द्वारा पेश किये जाने वाले 21 नए विधेयकों में मुμत और अनिवार्य शिक्षा (संशोधन) विधेयक, भारतीय प्रबंधन संस्थान विधेयक, एंव फुटवियर डिजाइन एंड डेवलेपमेंट विधेयक, तलाक संशोधन विधेयक, भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय विधेयक,उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनमान एंव सेवा सुविधाओं से संबंधित विधेयक,विमान संशोधन विधेयक, जन प्रतिनिधित्व कानून संशोधन विधेयक,अंतरराज्यीय जल विवाद (संशोधन) विधेयक और गर्भपात संशोधन कानून प्रमुख हैं। इनके अलावा राज्यसभा में पारित मानसिक स्वास्थ्य देखरेख विधेयक, मातृत्व लाभ (संशोधन विधेयक) लोकसभा से पारित कराया जाएगा। लोकसभा से पारित व्हिसल ब्लोवर संशोधन विधेयक, फैक्ट्री (संशोधन) विधेयक, कर्मचारी मुआवजा(संशोधन) विधेयक राज्य सभा से पारित कराया जाएगा।

संसद का बजट सत्र: सर्वदलीय बैठक में खत्म नहीं हुआ गतिरोध

संसद चलाने में सरकार ने विपक्ष से मांगा सहयोग
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
संसद के बजट सत्र की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार और लोकसभा अध्यक्ष द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में सरकार और विपक्ष के बीच चल रहा गतिरोध खत्म होता नजर नहीं आया। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने विपक्ष से संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाने के लिए सहयोग की अपील की।
संसद के कल मंगलवार से शुरू हो रहे बजट सत्र से पहले सोमवार को संसदीय पुस्तकालय के सभागार में सरकार की की ओर से बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में विपक्ष से सहयोग की अपील करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि संसद ‘महापंचायत’ है और चुनाव के समय में मतभेद उभरने के बावजूद भी कामकाज का संचालन सुचारू रूप से होना चाहिए। इस बैठक में तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर सभी दलों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सरकार के अलावा शाम को लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भी विपक्ष ने सरकार पर हमले किये। इन सर्वदलीय बैठक में हालांकि सरकार और विपक्षी दलों के बीच कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई, लेकिन विपक्ष के रूख से सरकार के साथ मतभेद उजागर होते ही नजर आए। दरअसल विपक्ष के विरोध के बावजूद केंद्रीय बजट निर्धारित एक फरवरी को ही पेश किया जाएगा, जिस पर कांग्रेस समेत विपक्ष ने सरकार को आगाह किया कि वह ऐसी कोई भी घोषणा न करे, जिसमें पांच राज्यों में हो रहे चुनावों में सरकार का नेतृत्व कर रहे दलों को फायदा पहुंचता हो। बैठक में हालांकि सरकार ने विपक्ष के ऐसे आरोपों को खारिज कर दिया।
सरकार का तर्क
संसदीय कार्य मंत्री अनंत कुमार ने सर्वदलीय बैठक के बाद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा विपक्ष से सहयोग मांगे जाने की का जिक्र करते हुए कहा कि बजट को लेकर विपक्ष ने सरकार पर चुनावों में फायदा लेने के जो आरोप लगाए हैं उन्हें सरकार खारिज कर चुकी है,कयोंकि केंद्रीय बजट समय से पूर्व नहीं बुलाने के मामले पर कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रभावित होने की बात को उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग भी अपना फैसला सुना चुका है, जिसमें विपक्ष के आरोपों को खारिज किया गया है। अनंत कुमार ने कहा कि सरकार का प्रयास होगा कि बजट का सभी को लाभ मिले और देश विकास की दिशा में आगे बढ़ सके।
चुनावी फायदा न ले सरकार: कांग्रेस
राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने संसद के बजट सत्र की पूर्व संध्या पर यहां सरकार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों के बाद कहा कि सरकार को बजट में ऐसी घोषणाएं नहीं करनी चाहिए, जिसका लाभ चुनाव में भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों को मिले और विपक्ष को इससे नुकसान हो। यदि सरकार इस तरह का कोई कदम उठाती है तो इसका परिणाम ठीक नहीं होगा और विपक्ष इसका पुरजोर विरोध करने से पीछे नहीं रहेगा। आजाद का तर्क था कि विपक्षी दलों ने सरकार को यह भी कहा है कि बजट सत्र का पहला चरण कम समय के लिए है, इसलिए सत्र का दूसरा चरण शुरू होने से पहले भी बैठक बुलाई जानी चाहिए, ताकि विभिन्न मुद्दों परविचार विमर्श किया जा सके।

सोमवार, 30 जनवरी 2017

रेलवे की कायाकल्प के भी होंगे बड़े ऐलान!

आम बजट: सुरक्षा और संरक्षा होगी बड़ी चुनौती
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
संसद में एक फरवरी को पेश होने वाले बजट में रेलवे की कायाकल्प की दिशा में भी बड़े ऐलान होने की संभावना है, जिसमें रेलवे को घाटे से उबारने के उपाय भी शामिल हो सकते हैं। वहीं देश में लगातार हो रहे रेल हादसों से चिंतित मोदी सरकार के लिए इस बजट में रेलवे सुरक्षा और संरक्षा का मुद्दा भी बड़ी चुनौती हो सकता है।
देश के इतिहास में पहली बार रेल बजट को आम बजट में समायोजित किया गया है, लिहाजा एक फरवरी को पेश किये जाने वाले बजट में ही रेलवे संबन्धी योजनाओं और उसके बजटीय प्रावधानों की घोषणा की जानी है। हालांकि मोदी सरकार ने रेल यात्रियों की सुविधाओं की दिशा में पिछले रेल बजटों के दौरान बड़े ऐलान किये हैं, लेकिन जहां रेल यात्रियों की अपेक्षाएं पूरी नहीं हो सकी हैं। रेलवे की देश में बुलेट ट्रेन, टेल्गो ट्रेन और सेमी हाई स्पीड जैसी कई तेज गति की टेÑनें चलाने की कवायद में जुटी सरकार के सामने लगातार हो रहे रेल हादसें बेहद चिंता का कारण बने हुए हैं। इसलिए इस चुनौती को देखते हुए सुरक्षा-संरक्षा को मजबूत करने की दिशा में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पिटारे से रेलवे के लिए कुछ खास योजनाओं का ऐलान भी बाहर आ सकता है। सूत्रों के अनुसार आम बजट में रेल गति, सुरक्षा और संरक्षा की चुनौती से पार पाने के लिए विशेष सुरक्षा कोष में भारी-भरकम रकम का बजटीय प्रावधान किया जा सकता है। इस बजट में मोदी सरकार अर्थशास्त्री विवेक देबराय वाली समिति की सिफारिशों पर भी गौर कर सकती है, जिसके तहत रेलवे के पुर्नगठन को लेकर रेलवे बोर्ड और रेल मंत्रालय को पृथक करने की घोषणा हो सकती है।
बन सकता है रेलवे खुफिया तंत्र
रेलवे के सूत्रों की की माने तो रेल हादसों के पिछे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के उजागर होने के बाद सरकार के पास सुरक्षा व संरक्षा को ज्यादा मजबूत करने की चुनौती है। इसलिए इस आम बजट में रेलवे का अलग से खुफिया तंत्र बनाने का प्रस्ताव भी सरकार के सामने है। इस रेलवे के इस तंत्र के साथ स्थानीय खुफिया विभाग, पुलिस, सर्तकता विभाग, जीआरपी आदि सुरक्षा एजेंसियों के साथ डीआरएम-जीएम स्तर पर सूचनाएं आदान प्रदान करने की व्यवस्था का प्रावधान करने की घोषणा की जा सकती है। देश के प्रमुख रेल मार्गो पर रेल पटरियों पर घुसपैठ और पटरियों पर पशुओं के प्रवेश रोकने की दिशा में सुरक्षा की दृष्टि से रेल लाइनों की दोनों ओर बाड़बंदी, रेल मार्गों तथा पुलों की मजबूती के लिए विशेष पर्याप्त कोष आवंटन घोषणा कर सकती है। रेलवे ने संकेत दिये है कि आम बजट 2017-18 में रेलवे होल्डिंग कंपनी बनाने का भी प्रस्ताव का ऐलान किया जा सकता है।
रेल गति बढ़ाने का प्रस्ताव

केंद्र सरकार रेल यात्रा को अधिक तीव्र और सुरक्षित बनाने की कवायद में जुटी है। ऐसे में भारतीय रेल की गतिविधियों, प्रस्तावित बड़ी परियोजनाओं और रेलवे के आय व्यय का मोटा ब्योरा शामिल हो सकता है। भारतीय रेल प्रमुख मार्गों पर गाड़ियों की गति 160 किलोमीटर तक बढ़ाने के उपाय करने में लगी है। इसके अलावा सुरक्षित बुनियादी ढांचें को मजबूत करने की दिशा में भारतीय रेलवे को देशभर में पुराने ट्रैक को बदलने, सिग्लन प्रणाली का आधुनिकीकरण करने, ज्यादा शक्तिशाली विद्युत लाइनें बिछाने, नई तकनीक के टक्कर रोधी उपकरण लगाने, स्लीपर बदलने, प्वांइट मजबूत बनाने, मानवरहित रेलवे क्रासिंग पर आरओबी-आरयूबी बनाने का काम पूरा करने की दरकार है।
रेल यात्रियों की सुविधाएं
आम बजट के इतिहास में पहली बार जब रेल बजट भी शामिल है तो रेल यात्रियों की नजरे भी एक फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट पर होगी। रेल यात्रियों को बेहतर रेल सफर और सुविधाओं की दरकार है। हालांकि रेलवे स्टेशनों ओर टेÑनों में बेहतर सुविधाएं भी देने का प्रयास जारी है, लेकिन यात्रियों की इसके साथ सुरक्षा और संरक्षा को मजबूत करने की भी अपेक्षाएं हैं। वहीं इस बजट में यात्रियों की जेबों पर भारी पड़ रहे डायनामिक फेयर सिस्टम को ज्यादा सुविधाएं करने की भी उममीद है। रेलवे का वाटर वेंडिंग मशीनों को अधिक से अधिक स्टेशनों पर लगाने काम को तेज करने के अलावा साफ-सफाई, शौचालय निर्माण, खानपान की गुणवत्ता, चलती टेÑन में सुरक्षा खासकर महिला यात्रियों के साथ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगाने के उपाय करने की दरकार यात्रियों को है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों को भी बेहतर सुविधाओं की अपेक्षा है।

संसद सत्र: सरकार को घेरने की तैयारी में विपक्ष

लोकसभा अध्यक्ष ने आज बुलाई सर्वदलीय बैठक
हरिभूमि ब्यूरो.
नई दिल्ली।
संसद के बजट सत्र में नोटबंदी और पांच राज्यों में चुनाव के कारण बजट पेश करने के विरोध में मोदी सरकार को घेरने के लिए लामबंदी तेज कर दी है। संसद के बजट सत्र को सुचारू रूप से चलाने की दिशा में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने कल सोमवार को सर्वदलीय बैठक भी बुलाई है।
संसद के बजट सत्र के दौरान एक फरवरी को बजट पेश करने के विरोध में कांग्रेस की अगुवाई में दर्जनभर विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर और चुनाव आयोग से मुलाकात करके मांग पत्र सौंपा था। बजट सत्र को राष्टÑपति की मंजूरी और चुनाव आयोग की हरी झंडी के अलावा सुप्रीम कोर्ट में भी बजट पेश करने के विरोध में दी गई याचिका नामंजूर होने के कारण एक फरवरी को बजट पेश होना तय है। बजट को लेकर सभी मोर्चा पर मात खा चुके विपक्षी दल अब लामबंदी कर संसद में सरकार को घेरने की तैयारी कर चुके हैं। विपक्षी दल सरकार को नोटबंदी के अलावा बजट की घोषणाओं और अन्य कई मुद्दों पर घेराबंदी करने की फिराक में हैं। जबकि सरकार भी विपक्ष के विरोध से निपटने की पूरी तैयारी के साथ संसद में आने की रणनीति बना चुकी है। सरकार और विपक्ष के इस गतिरोध को देखते हुए संभावना है कि बजट सत्र की शुरूआत हंगामेदार होगी।
31 जनवरी से बजट सत्र
सरकार की ओर से जारी अधिसूचना के तहत बजट सत्र की शुरूआत 31 जनवरी को संयुक्त सदन की बैठक में राष्ट्रपति के अभिभाषण से होगी और इसी दिन लोकसभा में आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया जायेगा। जबकि एक फरवरी को केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली आम बजट पेश करेंगे। इससे पहले बजट सत्र फरवरी के अंतिम सप्ताह में शुरू होता था। यही नहीं पहले बजट सत्र के पहले दिन केवल राष्ट्रपति अभिभाषण के बाद दोनों सदनों की कार्यवाही स्थगित होती रही है, लेकिन इस बार राष्ट्रपति अभिभाषण के बाद आर्थिक समीक्षा भी पेश की जाएगी। बजट सत्र 31 जनवरी से शुरू होकर इसका पहला चरण 9 फरवरी तक चलेगा। बजट सत्र का दूसरा चरण कब शुरू होगा यह अभी तय नहीं किया गया है। इसे तय करते वक्त ये भी ध्यान में रखना होगा, कि मार्च के दूसरे हμते में होली का त्यौहार है, हालांकि बजट सत्र 12 अप्रैल तक चलना है।
विशेषाधिकार का नोटिस
उधर सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने नोटबंदी के मुद्दे पर मोदी सरकार पर संसद को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया है। जनवरी के दूसरे हμते में राज्यसभा सचिवालय में दिए गए विशेषाधिकार हनन नोटिस में सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कई सवाल उठाए हैं।
सर्वदलीय बैठक आज
बजट सत्र को सुचारू ढंग से चलाने के लिए लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सोमवार 30 जनवरी को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है। लोकसभा अध्यक्ष बैठक में सभी दलों से सत्र को सुचारू ढंग से चलाने के बारे में चर्चा करेंगी। इसके अलावा कुछ विवादित मुद्दो पर भी चर्चा हो सकती है।
30Jan-2017

रविवार, 29 जनवरी 2017

राग दरबार: यूं मुलायम से रूठे अमर..

जयाप्रदा की दाल नहीं गली
ठाकुर अमर सिंह सपा के घमासान में आखिर तक मुलायम और शिवपाल के साथ डटे रहे पर अब वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैंं। पिछले दिनों उन्होंने मुलायम सिंह पर सीधे तंज कसे तो लोगों को आश्चर्य हुआ। दरअसल अमर की पीड़ा कुछ और थी। नेताजी के परिवार में रार थमी तो उनको लगा कि सब एडजस्ट हो गये पर उनके हिस्से कुछ नहीं आया। ठाकुर साहब अपनी परम मित्र जयाप्रदा को सपा टिकट नहीं मिलने से परेशान थे। जयाप्रदा पिछले कुछ सालों से संसद पहुंचने के लिये बेचैन हैं। अमर सिंह ने भी तमाम प्रयास किये पर कहीं दाल नहीं गली। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले जया को भाजपा से टिकट दिलवाने की कोशिश भी सिरे नहीं चढ़ पायी थी। फिर अमर सिंह की सपा में वापसी हुई तो उन्होंने जयाप्रदा को उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत राज्य फिल्म बोर्ड की चैयरपर्सन बनवा दिया। फिर अखिलेश और शिवपाल का झगड़ा शुरू हुआ तो जयाप्रदा को मुख्यमंत्री अखिलेश ने पद से हटा दिया। आखिरकार जब कुछ दिन पहले अखिलेश को चुनाव आयोग से साईकिल मिली और वे सपा के राष्टÑीय अध्यक्ष स्वीकार हुए तो अमर सिंह ना तीन में रहे और ना तेरह में। मुलायम सिंह ने अखिलेश का वर्चस्व स्वीकार कर लिया, शिवपाल को सपा से टिकट मिल गया, अपर्णा यादव को भी उम्मीदवार बना दिया गया। ठाकुर अमर सिंह को उम्मीद थी कि नेताजी जयाप्रदा को भी सपा के दबदबे वाली किसी सीट से टिकट दिला देंगे पर ऐसा नहीं हो पाया। तब उन्होंने मुलायम पर आरोप लगाया कि वे ‘अखिलेशवादी’ हो गये हैं। अमर सिंह को इस सारे झगडे में सिर्फ घाटा ही हाथ आया। आखिर में नेताजी ने भी उनसे मुंह मोड़ लिया। अब ठाकुर साहब भिन्नाये हुए हैं पर कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
लोकतंत्र बनाम सांप्रदायिकता..
देश की सियासत में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल मुस्लिम को सब्जबाग दिखाने में लगे है और मुस्लिमों को एकजुट करना ही ही लोकतंत्र का हिस्सा मान कर चल रहे हैं, जिसमें हिंदू का नाम आ जाए तो सांप्रदायिकता कहलाएगी? मसलन कांग्रेस, बसपा और आम आदमी पार्टी का कथन का यह कथन कि दलित-मुस्लिम साथ दें तो भाजपा का हराया जा सकता है। ऐसे ही सपा व राजद मुस्लिम-यादव लोकतंत्र की ताकत मानकर चल रहा है। अब मुस्लिम लीग के आवैसी और आजम खां तो भी यह कहते घूम रहे हैं कि मुसलमान मेरे दिल मे है, तो राहुल गांधी मुसलमानों व दलितों को इस देश की आत्मा में बसने की दलील देकर सियासी जमीन तलाश रहे हैं। केजरीवाल की तो अलग-अलग राज्यों में भाषा बदल रही है, जिसमें गोवा में ईसाइयों और पंजाब में सिखों के साथ सभी दलों द्वारा धोखा देने की बात करने में पीछे नहीं रहे हैं। खासबात यह है कि मुस्लिमों को लोकतंत्र का अहम हिस्सा बताकर भाजपा के खिलाफ जहर उगलने में किसी भी दल को सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों की परवाह नहीं है। राजनीति गलियारों में ऐसे जातिवाद व धर्म के नाम की सियासत को लेकर चर्चा है कि यदि देश में कोई हिंदुत्व की बात करें तो वह सांप्रदायिक है और अशांति फैलाने का प्रयास है। और कोई मुस्लिमों की बात करे तो वह लोकतंत्र? ऐसी सियासत गंगा-जमुनी संस्कृति मे दरार पैदा करना नहीं है तो क्या यह लोकतंत्र है? ....
वाहे गुरु और नीतीश
सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी 350वीं शहादत दिवस पर पटना साहेब में सफलतापूर्व ऐतिहासिक अंतर्राष्टÑीय सिख समागम का आयोजन कराने के बाद बिहार से बाहर निकलकर पहली बार ब्रांड नीतीश कुमार पंजाब पहुंचा तो माना जा रहा था कि वे केजरीवाल को अपना समर्थन देने पंजाब जाएंगे। देश-दुनिया में रहने वाली पंजाबी बिरादरी बिहार सरकार के अभूतपूर्व स्वागत से इतनी सराबोर है कि वे अब अपने गुरु जन्मस्थली के लिए कुछ ठोस करना चाहते हैं। इंग्लैंड और अमेरिका के सिख सभाओं ने मुख्यमंत्री से पत्र लिखकर पूछा है कि सिखों की धर्मस्थली को जोड़कर क्या बिहार सरकार एक सिख सर्किट बनाने की कोई योजना बना सकती है, अगर हां तो उन्हें इस योजना में सिख संगत की ओर से आर्थिक सहयोग दिया जाएगा। नीतीश कुमार को यह योजना भा गई। उन्होंने पर्यटन मंत्री को साथ लिया। आला अधिकारियों की बैठक ली और तय कर दिया कि जल्द ही बिहार में बुद्ध सर्किट के बाद सिख सर्किट की व्यापक ब्लूप्रिंट तैयार की जाए।

शनिवार, 28 जनवरी 2017

कड़े सुरक्षा चक्र में बजट की तैयारी!

खुफिया तंत्र की निगरानी में वार रूम बना वित्त मंत्रालय
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
संसद में एक फरवरी को पेश किये जाने वाले बजट की उलटी गिनती शुरू हो गई है। मसलन केंद्रीय बजट को अंतिम रूप देने केबाद उसकी छपाई के जारी काम के कारण वार रूम में तब्दील हुए नॉर्थ ब्लाक स्थित वित्त मंत्रालय इस समय कड़ी सुरक्षा और खुफिया तंत्र की निगरानी में है।
केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय में पिछले सप्ताह ही हलवा रस्म के साथ बजट की छपाई का काम शुरू हो गया था, हालांकि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट की एक फरवरी को बजट पेश होने से रोकने की मांग वाली याचिकाएं खारिज होने से बजट दस्तावेज तैयार करने की कार्यवाही में ज्यादा तेजी आई। केंद्रीय बजट के दस्तावेज की गोपनीयता की परंपरागत नियमों के कारण वित्त मंत्रालय कड़ी सुरक्षा के घेरे में है, जिस पर खुफिया विभाग की भी नजरें है। दरअसल हलवा खाने के बाद बजट दस्तावेज की छपाई प्रक्रिया में जुटे मंत्रालय और संबन्धित विभाग के करीब एक सौ अधिकारी व कर्मचारी ही छपाई खाने में ही रहते हैं, जिन्हे परिजनों या अन्य किसी से मिलना तो दूर फोन तक पर बात करने की इजाजत नहीं होती। वरिष्ठ अधिकारियों व प्रक्रिया में शामिल कर्मचारियों के कार्यालयों में नियमों के तहत अपने जानकारों से ईमेल, फोन या अन्य किसी दूसरे माध्यम से संपर्क करने की भी सख्त मनाही होती है। केवल वित्त मंत्रालय के बेहद विश्वसनीय और वरिष्ठ अधिकारी को ही घर जाने की इजाजत दी जाती है। मसलन नार्थ ब्लाक की बजट शाखा एक वार-रूम की तरह काम करने लगती है। लोकसभा में बजट पेश होने तक नार्थ ब्लाक में सुरक्षा के उच्चतम स्तर के उपाय लागू रहते हैं। ऐसे नियमों को मकसद बजट की गोपनीयता कायम रखना है।
ऐसे बना है सुरक्षा चक्र
संसद में बजट पेश होने तक वित्त मंत्रालय के सुरक्षा चक्र में खुफिया विभाग (आईबी), दिल्ली पुलिस और सीआईएसएफ आदि सुरक्षा बल लगे हुए हैं, जहां मीडिया और आम जनता का प्रवेश भी बंद हो जाता है। सुरक्षा चक्र इतना मजबूत होता है कि नॉर्थ ब्लाक के अन्य मंत्रालयों में आने वाली और यहां से बाहर जाने वाली हर चीज को विशेष एक्स-रे स्कैन से गुजार कर कड़ी जांच के बाद आगे बढ़ाया जाता है। इस इलाके में शक्तिशाली मोबाइल फोन जैमर यंत्र लगने के कारण हर किसी के लिए कॉल करना भी दूर की कोड़ी हो जता है। वरिष्ठ अधिकारियों व प्रक्रिया में शामिल कर्मचारियों के कार्यालयों में इंटरनेट कनेक्शन और मोबाइल फोन प्रतिबंधित कर दिए जाते हैं। मसलन नार्थ ब्लाक की बजट शाखा एक वार-रूम की तरह काम करने लगती है। लोकसभा में बजट पेश होने तक नार्थ ब्लाक में सुरक्षा के उच्चतम स्तर के उपाय लागू रहते हैं।
‘नीला जैकेट’ सुरक्षा
बजट संबन्धी सभी दस्तावेजों की सुरक्षा एक ‘नीला जैकेट’ की निगरानी में होती है। इस सुरक्षा को बजट के लिए चुनिंदा महत्वपूर्ण संख्या में विश्ववसनीय लोग होते हैं, जिसका नेतृत्व मंत्रालय का संयुक्त सचिव (बजट) प्रभारी के रूप में करता है। यह सुरक्षा चक्र ऐसा है जो किसी भी व्यक्ति यहां तक कि वित्त मंत्री को किसी भी दस्तावेज को मंत्रालय से बाहर नहीं ले जाने देता है। यानि बजट बनाने की संपूर्ण प्रक्रिया के दौरान मंत्रालय के कुछ ही अधिकारी इस दस्तावेज को देख पाते हैं। वित्त मंत्री का भाषण, बजट पेश होने से कुछ घंटे पहले ही तैयार किया जाता है। हालांकि बजट के प्रावधानों को वित्तमंत्री के तहत ही दस्तावेजों में शामिल किया जाता है।

सरकार ऐसे करेगी बांधो की सुरक्षा!

सीडब्ल्यूसी को मिला दो प्रमुख संस्थानों का साथ
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
केंद्र सरकार नदियों से जुड़े मुद्दों के साथ देशभर के बांधों परियोजनाओं के खतरों की आशंकाओं से निपटने की दिशा में केंद्रीय जल आयोग ने देश के प्रमुख दो संस्थानों के साथ ऐसा करार किया है, जिससे बांधों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की योजना तैयार करने में मदद मिलेगी।
देश सभी राज्यों में बदहाल स्थिति में मौजूद कई विशाल बांधों के पुनर्वास की समय से आवश्यकता पूरी करने की दिशा में विविध मंचों पर चिंता जाहिर की जाती रही है, ताकि उनकी सुरक्षा और प्रचालन संबंधी दक्षता सुनिश्चित की जा सके। इसलिए देश में बांधों की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए मोदी सरकार ने बांध पुनर्वास एवं सुधार परियोजना (डीआरआईपी) की शुरूआत की है। यह परियोजना विश्व बैंक से प्राप्त ऋण सहायता के साथ सात राज्यों में लगभग 250 बांधों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रारंभ की गई है। हालांकि छह वर्षीय डीआरआईपी परियोजना अप्रैल 2012 में प्रारम्भ हो चुकी थी। इसे आगे बढ़ाते हुए केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने बांध पुनर्वास और सुधार परियोजना (डीआरआईपी) योजना के तहत इस तरह के बांधों को पुनर्वास के लिए तकनीकी सहायता लेने के लिए देश के चुनिंदा संस्थानों का बांध सुरक्षा के क्षेत्र में क्षमता संवर्धन किया था, ताकि वे बांध सुरक्षा से संबंधित प्रशिक्षण एवं सलाहकार सेवाएं उपलबध करा सकें। इसी योजना के तहत शुक्रवार को केंद्रीय जल आयोग ने राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान मद्रास एवं भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलूरू के साथ करार किया है।
मददगार साबित होंगे संस्थान
केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अधीन केंद्रीय जल आयोग द्वारा करार के तहत इन दोनों संस्थानों के साथ मिलकर देश के बांधों की सुरक्षा और अधिक उन्नत बनाने की योजना को आगे बढ़ाएगा। इस करार के तहत आयोग को उन्नत एवं विशेष उपकरण एवं सॉμटवेयर की खरीद में मदद मिलेगी, जो बांध पुनर्वास एवं सुधार परियोजनाओं के लिए मददगार साबित होगा। मंत्रालय का मानना है कि विश्व बैंक द्वारा सहायता प्राप्त बांध पुनर्वास और सुधार परियोजना में इन चुनिंदा शैक्षिणक एवं शोध संस्थानों का चयन करने से देश के बांधों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयोगशालाओं के सुदृढ़िकरण और उनकी विश्लेषणात्मक क्षमता में वृद्धि को मदद मिलेगी। इससे बांध सुरक्षा की चिंताओं से इन संस्थाओं के विशेषज्ञों को मौके पर परिचित कराने का अवसर भी प्राप्त होगा।
खस्ताहाल 80 फीसदी बांध
सूत्रों के अनुसार देश में करीब 4900 विशाल बांधों में 80 फीसदी बांध 25 साल से भी ज्यादा पुराने होने के कारण उनसे बाढ़ और भूकंप जैसी आपदा के खतरे की आशंकाएं बनी रहती है। दरअसल पुराने बांधों का निर्माण बाढ़ और भूकम्प के कुछ तय मानकों पर खरा नहीं उतर पा रहा है। इसलिए सरकार ने इन बांधों को सुरक्षा के लिहाज से मजबूत करने का फैसला किया है। वहीं सरकार ने पाया कि पुराने समय में प्रचलित डिजाइन की कार्यप्रणालियां और सुरक्षा की स्थितियां भी डिजाइन के वर्तमान मानकों और सुरक्षा मानदंडों से मेल नहीं खा रही हैं। बांधों के आकलन और सर्वे के तहत नींव की अभियांत्रिकी संबंधी सामग्री अथवा बांधों का निर्माण करने के लिए उपयोग में लायी गयी सामग्री भी समय के साथ नष्ट होने की संभावना बनी हुई है।

मंगलवार, 24 जनवरी 2017

ऐसे मिलेगी कुलियों को सामाजिक सुरक्षा

यात्रियों के रेल टिकट उपकर लगाने की तैयारी
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
केंद्र सरकार ने दो साल पहले पेश किये रेल बजट में कुलियों को सम्मान देने के लिए उन्हें ’सहायक’ के रूप में परिभाषित करने की पहल की थी, लेकिन इस बार रेल बजट के सभी प्रावधानों का ऐलान आम बजट में होना है तो इस बार सरकार कुलियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए यात्रियों पर बोझ ड़ालने की तैयारी कर रही है, भले वह मामूली ही क्यों न हो।
सूत्रों के अनुसार एक फरवरी को पेश किये जाने वाले केंद्रीय बजट में रेलवे स्टेशनों पर काम करने वाले देशभर में करीब 20 हजार कुलियो(सहायकों) की सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करके उन्हें ईपीएफओ के दायरे में लाने की योजना बना रही है, जिसका ऐलान बजट में किया जा सकता है। मसलन कुलियों की सामाजिक सुरक्षा तय करने के लिए सरकार रेल यात्रियों के टिकट पर उपकर लगा सकती है। सरकार इस मुहिम में कुलियों सामाजिक सुरक्षा योजना को कर्मचारी भविष्य निधि कोष (ईपीएफओ) के जरिए देने का फैसला सुना सकती है। संसद में पेश होने वाले बजट के लिए ऐसा एक प्रस्ताव केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय से वित्त मंत्रालय को भेजा गया है। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने ऐसा प्रस्ताव ईपीएफओ की केन्द्रीय न्यासी समिति के चेयरमैन और सदस्यों के सुझाव के बाद किया है।
सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे
केंद्र सरकार की यह योजना ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ जैसी कहावत को चरितार्थ करती नजर आ रही है। मसलन सरकार के इस प्रस्ताव में कुलियों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने के लिए प्रत्येक रेलवे टिकट पर मात्र 10 पैसे का उपकर लगाने का प्रस्ताव किया है। इस प्रस्ताव की पुष्टि कर रहे श्रम मंत्रालय के सूत्रों का मानना है कि इससे कुलियों को सामाजिक दायरे में लाया जा सकेगा और यात्रियों पर भी कोई आर्थिक बोझ पड़ता भी नजर नहीं आएगा। सरकार का मानना है कि इस योजना का से एकत्र धन को कुलियों की सामाजिक सुरक्षा में खर्च किया जाएगा। दरअसल केंद्र सरकार का यह प्रस्ताव ठीक उसी उसी निर्णय का हिस्सा है जिसमें सरकार ने असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे देश मेें करीब 40 करोड़ कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने की योजना को अंजाम दिया है। प्रस्ताव के जरिए इन कामगारों को ई.पी.एफ.ओ. और ईएसआईसी के दायरे में लाया जा सकेगा।
उपकर से बनेगा सुरक्षाचक्र
सूत्रों की माने तो यदि सरकार की कुलियों के लिए बनाई गई यह योजना सिरे चढ़ी तो प्रत्येक रेलवे टिकट पर 10 पैसे का उपकर लगाने से हर साल करीब करीब साढ़े चार करोड़ रुपए एकत्र होने का अनुमान है। सरकार यह मानकार चल रही है कि चार से साढ़े चार करोड़ रुपये के जरिए कुलियों को भविष्य निधि, पेंशन और समूह बीमा जैसी मूलभूत सुविधायें मुहैया कराना आसान होगा। एक अनुमान के तहत भारतीय रेल रोजाना 10 से 12 लाख रेल टिकटों की बिक्री करती है, इसमें 58 प्रतिशत आरक्षित टिकटें भी शामिल हैं। इस लिहाज से रेलवे दैनिक 1.2 लाख रुपए तक जुटा सकता है।
24Jan-2017

सोमवार, 23 जनवरी 2017

यूपी: सपा-कांग्रेस गठबंधन से सियासत में नया मोड़!

भाजपा व बसपा बदल सकती है चुनावी रणनीति
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के चुनावी गठबंधन की गांठ बंधने से सूबे के चुनावी समीकरण बदलने से इंकार नहीं किया जा सकता। राजनीतिकारों का मानना है कि इस गठजोड़ से अकेले दम पर चुनाव मैदान में आई भाजपा व बसपा को अपने कुछ प्रत्याशियों में बदलाव करने के साथ चुनावी रणनीतियों में करना पड़ सकता है। इस चुनावी तालमेल से यह तो तय हो गया है कि कांग्रेस को यूपी में कुछ ऊर्जा जरूरी मिल जाएगी।
उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों पर सात चरणों में होने वाले चुनावों में भाजपा की व्यापक स्तर पर बनाई गई चुनावी रणनीति के कारण सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की अकेले दम पर चुनाव जीतने पर शायद भरोसा नहीं था, जिसके लिए आरंभ से ही सपा महागठबंधन का अलाप करती रही है। हालांकि सपा कुनबे के आपसी दंगल ने सपा को ज्यादा प्रभावित किया है। इस दंगल के बाद सपा की बागडौर संभालने वाले सूबे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पार्टी में हुए सियासी नुकसान की भरपाई करने के प्रयास में रहे, लेकिन चुनाव एकदम सिर पर हैं और पहले चरण के नामांकन दाखिल करने की समय सीमा भी केवल दो दिन ही रह गई है। ऐसे में पिछले कई दिनों से कांग्रेस व रालोद के साथ महागठबंधन तैयार करने के लिए बनाए गये फार्मूले से रालोद तो पहले ही अलग हो चुकी थी, लेकिन कांग्रेस के साथ लगातार सीटों के बंटवारे को लेकर उठापठक चलती रही, जो रविवार को पटरी पर आ सकी है। अब सपा 298 तथा कांग्रेस 105 सीटों पर जोर आजमाइश करेगी।
पश्चिमी यूपी राम भरोसे
राजनीतिकारों की माने तो सपा यदि कांग्रेस के साथ रालोद से भी इसी प्रकार चुनावी गठबंधन करती तो भाजपा और बसपा को परेशान करने के लिए ताकत मिलती। पश्चिमी उत्तर प्रदेश जाट-मुस्लिम-दलित-ओबीसी बाहुल क्षेत्र के रूप में जाना जाता है और इस क्षेत्र को राष्टÑीय लोकदल का गढ़ भी माना जाता है। जबकि बसपा की तरह ही सपा भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिम वोटबैंक के सहारे चुनावी जंग में हैं। जबकि जाट समुदाय भाजपा के खिलाफ हुंकार भर रहा है तो ऐसे में रालोद को ज्यादा फायदा होने की संभावना जताई जा रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का अस्तित्व कमजोर है और सपा के लिए यादव भी बदायूं,आगरा, फिरोजाबाद, कासगंज के अलावा थोड़े बहुत मुरादाबाद व रामपुर में हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि सपा-कांग्रेस का यह चुनावी गठजोड़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राम-भरोसे ही चुनाव लड़ेगा।
गठबंधन से बदलेगी रणनीति
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अभी तक भाजपा, बसपा व रालोद ही ऐसे दल हैं जो अकेले दम पर चुनावी दावं खेल रहे हैं। इन सभी दलों ने विकास के अलावा राज्य की कानून व्यवस्था जैसे बुनियादी मुद्दों को अलग-अलग तरह से वर्गीकरण करके अपनी चुनावी रणनीतियां बनाई है। भाजपा ने केंद्र की मोदी सरकार की अब तक उलब्धियों और उत्तर प्रदेश के लिए बुनियादी ढांचों को मजबूत करने जैसी योजनाओं को चुनावी पटल पर मतदाताओं तक पहुंचाने की मजबूत रणनीति बनाई है। भाजपा की रणनीति से अपने आपको कमजोर मानकर चल रही सत्तारूढ़ सपा ने महागठबंधन की मजबूरी को समझा, जिसमें कांग्रेस की भी पिछले 27 साल के सूखे करने के इरादे से सपा के साथ गठबंधन करने की मजबूरी माना जा रहा है। फिर भी भाजपा, बसपा व रालोद को इस गठबंधन के बाद अपनी रणनीतियों में बदलाव करना पड़ सकता है, जिसमें कुछ प्रत्याशियों के चेहरे भी बदलना भी शामिल हो सकता है।

केंद्रीय बजट में सड़क क्षेत्र को बड़ी उम्मीदें

सड़क संपर्क के विस्तार पर गडकरी का फोकस
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
आगामी एक फरवरी को प्रस्तावित केंद्रीय बजट में देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की दिशा में बढ़ रही मोदी सरकार के विकास एजेंडे के तहत सड़क क्षेत्र में बजटीय आवंटन में बढ़ोतरी की उम्मीद है। केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय देश में सड़क संपर्क के विस्तार पर ज्यादा फोकस करके बुनियादी ढांचे को और ज्यादा मजबूत करने की योजना बना रहा है।
मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद देश में सड़क परियोजनाओं खासकर राष्ट्रीय राजमार्गो के विस्तार के लक्ष्य को तेजी से हासिल किया है। मसलन देश में 96 हजार किमी लंबे राष्टÑीय राजमार्ग के विस्तार की योजना में इसे दो लाख किमी तक का निर्माण पूरा किया जा चुका है, जिसके कारण संपर्क मार्ग आसान होने लगा है। केंद्र सरकार और भी बेहतर तरीके से सडक संपर्क के विस्तार करने पर बल दे रही हैं। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दावा किया है कि इस दिशा में उनका मंत्रालय देश में साढ़े चार लाख करोड़ की परियोजनाएं पूरी कर चुका है और बहुत सी प्रगति पर हैं तो अनेक योजनाएं पाइप लाइन में हैं। सड़क क्षेत्र में बजटीय प्रावधान के आलवा निजी निवेश भी बुनियादी ढांचे को दुरस्त करने में अहम भूमिका निभा रहा है।
पीपीपी मॉडल का फायदा
मंत्रालय के अनुसार देश में ज्यादातर सड़क परियोजनाएं पीपीपी मॉडल पर पूरी की जा रही है, जिसका विभाग को ज्यादा फायदा मिल रहा है। इस प्रक्रिया में जहां परियोजना तेजी से कार्यान्वयन हो रही है, वहीं इस साल विभाग का मुनाफा भी सात हजार करोड़ पहुंच गया है। सड़क परियोजनाओं में तेजी लाने के इरादे से इस साल देश में 40 किमी लंबी सड़के प्रतिदिन बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। इस दिशा में मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय को बजटीय आवंटन बढ़ाने के साथ अतिरिक्त धनराशि की मांग का प्रस्ताव दिया है। हालांकि मंत्रालय के पास अतिरिक्त धनराशि जुटाने के कई विकल्प मौजूद हैं, जिससे परियोजनाओं को तेजी से पूरा किया जाएगा। मंत्रालय के अनुसार नेशनल हाइवे फंडिंग पर ज्यादा काम के लिए वित्त मंत्रालय से लंबित मंजूरी का इंतजार है, ताकि काम थी, जो अभी तक लंबित है और अभी तक मंत्रालय को इस बात के लिए नहीं मनवा पाए है।
परिवहन में क्रांतिकारी बदलाव
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार तेजी से विकसित होते देश में एक्सपोर्ट वृद्धि के लिए सस्ता लॉजिस्टिक जरूरी है। सरकार देश के साथ पडोसी देशों के बीच आवागमन को आसान बनाने के लिए सड़क परियोजना पर काम कर रहा है, ताकि परिवहन क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाया जा सके। इसलिए बुनियादी ढांचों को प्राथमिकता देते हुए देश में सड़को का जाल बिछाया जा रहा है। सरकार की योजना में पड़ोसी देशों के बीच आवाजाही को आसान बनाने की है जिसके लिए अब भूटान, बांग्लादेश और भारत में सड़क का जाल बिछाने की योजना पाइप लाइन में है। इस योजना में सड़क संपर्क से देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती आएगी। बांग्लादेश से एक मालवाहक ट्रक सड़क मार्ग से दिल्ली लाया भी जा चुका है।

रविवार, 22 जनवरी 2017

बजट की तैयारी में जुटी केंद्र सरकार!

रेलवे ने मांगा भारी-भरकम बजटीय आवंटन
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
संसद में एक फरवरी को पेश किये जाने वाले केंद्रीय बजट की तैयारियों में जुटी केंद्र सरकार देश की आर्थिक व्यवस्था के साथ बुनियादी ढांचा मजबूत करने के प्रावधानों को लागू करने पर जोर देगी। वहीं पहली बार रेल बजट का आम बजट में समयोजन होने से रेलवे क्षेत्र को भी भारी भरकम बजट आवंटन की उम्मीद है।
देश की नजरे संसद में एक फरवरी को पेश किये जाने वाले आम बजट पर लगी हुई है, जिसका हर साल की तरह इस बार भी देशवासियों को बेसब्री से इंतजार है। केंद्र सरकार ने बजट तैयार करने की युद्धस्तर पर तैयारियां तेज कर दी हैं। मसलन बजट संबन्धी दस्तावेजों की छपाई परंपरागत तरीके शुरू हो चुकी है। नये वित्तीय वर्ष की शुरूआत में देश की दिशा तय करने के लिए पेश होने वाले इस बजट में आम नागरिकों को बड़ी राहत की उम्मीद नजर आ रही है, जैसा केंद्र सरकार संकेत भी दे चुकी है। ऐसे संकेतों के आधार पर माना जा रहा है कि केंद्र सरकार देश की जनता के लिए किन नीतियों और योजनाओं की घोषणा करके राहत की सौगात देगी उसकी योजना बनाने के बाद ही सरकार ने बजट में प्रावधान किये हैं। इस बजट में आम आदमी के लिए क्या सस्ता-महंगा होगा और आयकर की छूट को लेकर लगाई जा रही अटकलों के बीच कैसा फैसला होगा जैसे मुद्दों पर भी सभी की नजरें है। सरकार ढांचागत क्षेत्र खास कर रेलवे, सड़क और शहरी विकास की योजनाओं के लिए आवंटन में बढ़ोतरी कर सकती है। इसके अलावा इन क्षेत्रों के विकास में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए कई कदमों की घोषणा भी हो सकती है।
पहली बार रेल बजट नहीं
केंद्र सरकार के रेल बजट को आम बजट में विलय करने को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी मंजूरी देकर 92 साल से चली आ रही अलग रेल बजट की परंपरा को इतिहास के पन्नों में समेट दिया है। ऐसे में रेलवे के बजटीय आवंटन का प्रावधान आम बजट में ही पेश किया जाएगा। इस नई व्यवस्था में रेलवे को अपने बजटीय आवंटन में ज्यादा बढ़ोतरी की उम्मीद है। रेलवे मंत्रालय ने 2017-18 के लिए 50 हजार करोड़ रुपए का सकल बजट समर्थन मांगा है। हालांकि वित्त मंत्रालय द्वारा 40 से 45 हजार करोड़ रुपए पर ही सहमति जताए जाने की उम्मीद है। रेलवे सूत्रों के अनुसार वास्तव में रेलवे की 30 हजार करोड़ रुपए से अधिक खपाने की क्षमता ही नहीं है। पिछले साल के आम बजट में रेलवे को 28 हजार करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया गया था। रेलवे के सूत्रों का कहना है कि देश में प्रमुख रेलवे स्टेशनों को आधुनिक बनाने सहित बुलेट ट्रेन चलाने की योजना पर भी काम चल रहा है। इसके अलावा केन्द्र सरकार ने अपने पहले ही बजट में रेलवे में वर्ष 2019 तक आठ लाख करोड़ रुपए से ज्यादा के निवेश की योजना तैयार की थी। इसके तहत वर्ष 2016 और वर्ष 2017 में जितना निवेश करना था उससे भी ज्यादा किया गया है। रेलवे के ईस्टर्न और वेस्टर्न फ्रैट कॉरीडोर में ही 81 हजार करोड़ रुपए का निवेश किया जा रहा है।
सरकार मदद में बढ़ोतरी की आस
रेलवे से संबन्धित इकरा में वरिष्ठ उपाध्यक्ष और ग्रुप हेड (कॉरपोरेट रेटिंग) रवीचन्द्रन का कहना है इस बार के बजट में रेलवे को सरकारी मदद बढ़ सकती है। रेलवे के बजट को आम बजट में मिलाने से भी रेलवे को ज्यादा मदद मिल सकती है, जिससे कई नई योजनाओं को शुरू किया जा सकेगा। इसके अलावा सरकार ने इस बार बजट में योजना और गैर-योजना वर्गीकरण को भी समाप्त करने का भी फैसला किया और इसके स्थान पर 2017-18 के बजट में पूंजी और राजस्व में वर्गीकरण किया जाएगा।
अलग बनेगा आर्थिक विभाग
दरअसल केंद्र सरकार देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की दिशा में जो कवायद कर रही है, उसी का कारण है कि मोदी सरकार ने भारत सरकार (कामकाज का आबंटन) नियम-1961 में संशोधन किया है, जिसे राष्टÑपति प्रणब मुखर्जी ने भी अपनी मंजूरी दे दी है। राष्टÑपति की इस मंजूरी के बाद आम बजट के साथ रेलवे के बजट को तैयार करने के लिए अलग से आर्थिक मामलों का विभाग बनाने का रास्ता साफ हो गया है। गौरतलब है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले साल सितंबर में वित्त वर्ष 2017-18 से रेल बजट को आम बजट में मिलाने के लिए कुछ ऐतिहासिक बजटीय सुधारों को मंजूरी दी थी और उस पर राष्ट्रपति की मुहर लग गई है।

यूपी चुनाव: अपने दम पर ताल ठोकेंगे सपा और कांग्रेस

अखिर टूट गई सपा-कांग्रेस गठबंधन डोर!
प्रियंका की कवायद भी नहीं आई काम
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ सपा और कांग्रेस के गठबंधन को लेकर फंसे पेंच को निकालने के लिए बीच में आई प्रियंका की कवायद भी किसी काम नहीं आ सकी। दोनों दलों के गठबंधन को निर्णायक बनाने के लिए हुई बातचीत बेनतीजा रही यानि अब यूपी चुनाव में सपा और कांग्रेस अपने-अपने दम पर चुनाव मैदान में ताल ठोकेंगे।
सपा और कांग्रेस के बीच चुनावी गठबंधन की आखिरी आस भी शनिवार शाम को उस समय खत्म हो गई, जब दोनों दलों के बीच सीटों के बंटवारे को फंसा पेंच नहीं निकल सका। मसलन सपा अपने फार्मूले पर 85 सीट ही कांग्रेस को देने के निर्णय पर अड़ी रही और कांग्रेस कम से कम 120 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने के फैसले पर अडा रहा। शनिवार शाम को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बीच सीट बंटवारे को लेकर एक अंतिम प्रयास में बातचीत हुई, जो बेनतीजा रही। सूत्रों के अनुसार इस गठबंधन को लेकर यह अंतिम प्रयास प्रियंका वाड्रा के कहने पर किया गया था। गौरतलब है कि प्रदेश में भाजपा के खिलाफ सपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया था और प्रियंका वाड्रा व अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव इस गठबंधन के पक्ष में एकसाथ नजर भी आई थी।
कांग्रेस ने बदला पैंतरा
सूत्रों के अनुसार प्रियंका के मोर्चा संभालने के बाद सपा अखिलेश यादव ने फार्मूले में बदलाव करके कांग्रेस को 85 के बजाए 100 सीटें देने की भी तैयारी कर ली थी, लेकिन इस बातचीत में कांग्रेस ने 120 सीटे मांगी और उससे कम सीटों पर कांग्रेस समझौता करने को तैयार नहीं हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि अब सपा और कांग्रेस के बीच कोई चुनावी गठबंधन होने के आसार नहीं हैं। अखिलेश के साथ बैठक में कोई नतीजा नहीं निकलने के बाद कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सीट की संख्या और गठबंधन के मसले को लेकर पूरी जानकारी फोन पर कांग्रेस आलाकमान को भी दे दी है।
कांग्रेस ने बुलाई चुनाव समिति की बैठक
यूपी में सपा के साथ गठबंधन क्षीण होने के बाद नई दिल्ली में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर कांग्रेस चुनाव समिति की बैठक बुला ली और अपने प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारने के लिए माथापच्ची शुरू कर दी है। इस बैठक में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद भी शामिल हैं। दरअसल यूपी चुनाव में भाजपा के खिलाफ महागठबंधन की जरूरत महसूस करने के बावजूद सपा और कांग्रेस के बीच चली उठापठक से इस कवायद को झटका लगा है।

राग दरबार: आखिर कहां गए वो चुनावी मेले...

रकम लुटाते उम्मीदवार...
भारत जैसे लोकतंत्र देश के सबसे बडे पर्व चुनाव की उत्सवधर्मिता शायद वैधव्य को प्राप्त हो चुकी है? यह बात चुनाव आयोग भी अच्छी तरह जानता है कि चुनाव सुधार की दिशा में तय की गई 28 लाख की खर्च सीमा में तो अब ग्राम प्रधान का भी चुनाव नहीं लडा जा सकता, विधानसभा के चुनाव तो दूर की बात। मसलन सब कुछ भीतरखाने होता है यानि उम्मीदवार रकम लुटाते हैं और वोट के ठेकेदारों की पौबारा होती ही है। सही मायने में तो नियमों के बहाने चुनाव आयोग की मार सिर्फ उन पर होती है, जिन्हें चुनाव प्रचार के दौरान दिहाड़ी मजदूरी के साथ सुबह-शाम खाने की पर्ची मिल जाती थी। आदर्श चुनाव आचार संहिता की जकड़ में अब हर तरफ मरघट-सा सन्नाटा ही नजर आता है और लगता ही नहीं कि चुनाव का सीजन है। चुनाव आयोग के इस तरह कसते जा रहे शिकंजे और नई चुनावी व्यवस्था में झंडे, बैनर, होर्डिंग्स व पोस्टर कहीं दिखाई ही नहीं पड़ रहे हैं। इससे अच्छा तो आचार संहिता लागू होने से पहले ही जगह-जगह होर्डिंग्स दिखने से चुनावी माहौल सा बना हुआ था, लेकिन पांच राज्यों के चुनावों का ऐलान होते ही उन्हें भी प्रशासन ने उतारवा दिया। यदि दो या जीन दशक या यूं कहे कि बचपन में गांव और शहर झंडे-बैनरो से पटे रहने से लगता था कि चुनावी मेला चल रहा है और रिक्शाओं तथा अन्य वाहनों पर लाउडस्पीकर से सभी दल धुआंधार तरीके से चुनाव प्रचार कराते थे। यही नहीं प्रत्याशियों और पार्टी के लिए लोकगीत व रागणियों के अलावा गांव दर गांव बाजारों में आमने-सामने भाषणबाजी भी कव्वाली के मुकाबले की तर्ज पर होती थी। ज्यों ही किसी प्रत्याशी की जीप-कार दिखाई पडती थी तो बच्चे दौड़ पडते, जिन्हें कागज, प्लास्टिक, टीन और पीतल के चमचमाते हुए चुनाव चिन्ह वाले ब्बिल्ले खूब बंटते थे। झंडे और टोपियों को पाने की मारामारी मचती थी। शहर की बाजारों में राजनीतिक दलों के झंडे और पोस्टरों की वंदनवार सजी रहती थी। पार्टियों के दμतर शादी विवाह के घर जैसे लगते थे। लेटने-बैठने से लेकर खाने-पीने के सारे इंतजाम। झंडा-बैनर लगाने, पोस्टर चिपकाने और जुलूसों में गला फांडने की सीजनल दिहाड़ी खूब होती थी। दिलचस्प बात तो यह है कि अब यह तामझाम खत्म होने के बावजूद धन और बल पहले से कर्द हजार गुना अधिक खर्च होता है। बहरहाल चुनाव प्रचार को लेकर तमाम पाबंदियों के कारण अब कहीे दूर तक भी चुनाव की उत्सवधर्मिता नजर नहीं आती और यही कहने की मजबूरी है कि आखिर कहां गये वो चुनावी मेलों के वे पुराने दिन..?
मीडिया से पीएम की हंसी-ठिठोली
आमतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में मीडिया से बातचीत नहीं करते हैं। लेकिन बीते 15 जनवरी को सेवा दिवस के समारोह के बाद शाम को सेनाप्रमुख जनरल बिपिन रावत के घर पर आयोजित रिसेप्शन कार्यक्रम में पीएम बिलकुल अलग हंसी-मजाक के अंदाज में नजर आए। उनका यह बदला हुआ रूप रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के स्टेज से नीचे उतरकर मीडियाकर्मियों से सहजता से बात करने के दौरान नजर आया। यह देखकर रक्षा मंत्री के आगे चल रहे पीएम मोदी ने पीछे मुड़कर उसमें हस्तक्षेप करते हुए एक मीडियाकर्मी से पूछा कि ‘भैया कुछ निकला क्या’। मतलब रक्षा मंत्री के साथ आपकी बातचीत में कुछ खबर निकली क्या? पीएम के इस सवाल के साथ ही उनके सम्मुख खड़े मीडियाकमियों, रक्षा मंत्री समेत अन्य वीवीआईपी मेहमानों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। इससे कुछ देर के लिए ही सही माहौल से गंभीरता की जगह पीएम की हंसी-ठिठोली छा गई।
टिकट के लिए घर पर पहरा

जब से उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड के चुनावों की घोषणा हुई है तभी से इन राज्यों के सांसदों की दिन का चैन और रात की नींद भी परेशानी में पड गई है। विधानसभा चुनाव में टिकट पाने के लिए उम्मीदवार उनके घर से लेकर दिल्ली के निवास तक चक्कर लगा रहे है। कुछ उम्मीदवार तो ऐसे है जो टिकट पाने के लिए अपने सांसदों को लेकर दिल्ली आ पहुंचे। रोज पर टिकट दिलवाने के लिए दबाव बना रहे है। उन्हें लेकर पार्टी के कार्यालयों से लेकर प्रभारी तक के घरों के चक्कर कटवा रहे है। इतना ही नहीं रात को उनकी कोठी या फलैटस के बाहर रात काट लेते है। सुबह से फिर उनके पीछे टिकट की जुगाड के लिए लग जाते है। वहीं कुछ सांसदों ने अपने समर्थकों के लिए घरों के बाहर ठहरने और खाने पीने के लिए भी व्यवस्था करवा दी है।
-ओ.पी. पाल, कविता जोशी व राहुल संपाल
22Jan-2017

शनिवार, 21 जनवरी 2017

असम की तर्ज पर यूपी फतेह की तैयारी में भाजपा!

आरएसएस ने बनाई घर से बूथ तक की रणनीति
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
उत्तर प्रदेश में सत्ता पर काबिज होने के लिए जहां भाजपा ने विधानसभा चुनावों की ठोस और मजबूत रणनीति तैयार की है, वहीं भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने असम की तर्ज पर यूपी में मतदाताओं के घर से बूथ तक ऐसा तानाबाना बुना है कि सत्तारूढ़ सपा या बसपा, कांग्रेस या अन्य दल कहीं टिक नहीं पाएंगे। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि भाजपा के विजयी रथ को रोकने के लिए सपा की अन्य दलों के महागठबंधन की तैयारियों में चौतरफा झोल बढ़ने लगे हैं।
उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों पर सात चरणों में अगले महीने से शुरू हो रहे चुनाव में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ यानि आरएसएस ने भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने के लिए अपनी रणनीतियों का ऐसा तानाबाना बुन दिया है कि भाजपा के साथ-साथ आरएसएस के स्वयं सेवक भी घर-घर पहुंचकर भाजपा के चुनाव प्रचार का हिस्सा होंगे। हालांकि असम में भाजपा के लिए बनाई गई आरएसएस की रणनीति ने जो सियासी पटकथा लिखी है, उसकी तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी भाजपा के लिए आरएसएस ने अपनी ताकत पिछले साल से झोंकनी शुरू कर दी थी। यूपी में सत्तारूढ़ के अभी तक चले महासंग्राम पर भाजपा और आरएसएस की बारीकी से नजरे रहीं और जैसे-जैसे हालात बने उसी तरह भाजपा और आरएसएस की रणनीतियों ने भी मजबूती के लिए करवट बदलने में देर नहीं की। अब सपा की बागडौर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के हाथ में आई तो भाजपा को रोकने के इरादे से सपा ने कांग्रेस, रालोद और अन्य दलों के साथ जदयू व राजद जैसे कई दलों को मिलाकर महागठबंधन की सियासत का खेल शुरू किया, लेकिन हर बार की तरह वह पटरी पर नहीं आ पा रहा है।
यूपी भाजपा की जरूरत
उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जिसके लिए पार्टी ने यूपी की राजनीतिक फोकस करके प्रदेश संगठन की बागडौर मौर्य को सौंप दी है और सत्ता तक पहुंचने की रणनीति के तहत संगठन और बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत करने की मुहिम को तेज कर दिया है। असम की तरह भाजपा को आरएसएस का सहारा लेना भी जरूरी हो गया था। भाजपा और आरएसएस की रणनीति को लेकर राजनीतिकार मानते हैं कि असम में सत्ता हासिल करते ही भाजपा की नजरे यूपी चुनाव पर टिकना स्वाभाविक हैं। इसलिए आरएसएस के बिना भाजपा की चुनावी वैतरणी पार होना ऐसे समय में संभव भी नहीं है, जब केंद्र में भाजपानीत सरकार नोटबंदी जैसे मुद्दो पर विपक्षी दलों से चौतरफा घिरी हो। हालांकि नोटबंदी पर जनता विपक्ष के बजाए मोदी सरकार के समर्थन में है यह तथ्य साबित भी हो चुका है। मसलन यूपी में भाजपा-आरएसएस की इस सियासी रणनीति का असम की तरह ही सकारात्मक नतीजा मिलने की संभावनाओं से इंकार भी नहीं किया जा सकता, लेकिन यह चुनाव के आने वाले नतीजे ही तय कर पाएंगे। सूत्रों के अनुसार आरएसएस ने यूपी में एक लाख से भी ज्यादा स्वयंसेवकों की फौज उतार कर रणनतियों को अंजाम देना शुरू कर दिया है।
ये है आरएसएस का अभियान
आरएसएस ने अपने स्वयं सेवकों को चुनाव प्रक्रिया शुरू होते ही उत्तर प्रदेश की सभी 403 सीटों पर अपने कार्यकर्ताओं को भेजना शुरू कर दिया है, जो घर-घर जाकर तर्को के साथ भाजपा और केंद्र सरकार की उपलब्यिां बताकर भाजपा के वोट मांग रहे हैं। ऐसा भी नहीं है संघ कार्यकर्ता हर घर में राष्ट्रहित में काम करने वाले लोगों के पक्ष में मतदान करने की अपील वाले इश्तहार भी बांट रहे हैं। यूपी में आरएसएस ने ऐसा ही चुनाव अभियान वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भी चलाया था, जिसमें भाजपा को 80 में से 73 सीटें मिली थी। सूत्रों के अनुसार उत्तर प्रदेश में आरएसएस की 35 शाखाएं है, जिनके कार्यकर्ता इस चुनावी अभियान में पूरी ताकत के साथ जुटे हुए हैं। आरएसएस की व्यवस्था भी संतुलित है, जिसने हर विधानसभा में एक संयोजक और दो सह संयोजक बनाए हैं जिनके नेतृत्व में कार्यकर्ता रणनीति को अंजाम दे रहे हैं। सूत्रों के अनुसार आरएसएस के इस अभियान में विधानसभा स्तर पर बैठकें करने की मुहिम भी चलाई जा रही है। सबसे दिलचस्प बात है कि इस प्रचार अभियान में आरएसएस भाजपा के नाम का उपयोग नहीं कर रहा है।

यूपी: ‘साइकिल’ तक नहीं पहुंच पा रहा ’हाथ’


भाजपा के खिलाफ फिर टूटे महागठबंधन के सपने
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तमाम भाजपा के खिलाफ सपा और कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन की डोर ढीली होती नजर आ रही है, जिसमें सपा आक्रमक रूप में है और कांग्रेस के कब्जे वाली सीटों पर सपा ने अपने उम्मीदवार घोषित कर दिये हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि सपा की साइकिल के हैंडल को कांग्रेस का हाथ शायद ही पकड़ सके।
दरअसल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन के तमाम कयासों के बीच सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को कड़ा संदेश देते हुए कह दिया कि यदि महा गठबंधन के लिए कांग्रेस चुनावी तालमेल को लेकर अब तक कोई सकारात्मक बात नहीं कर रही है और गठबंधन होने की स्थिति में कांग्रेस के लिए सपा केवल 85 सीटें ही छोड़ सकती है। जबकि कांग्रेस 100 से कम सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाना चाहती है। ऐसे में हमेशा की तरह ही सपा की महागठबंधन की मुहिम के तार पहले ही टूटते दिख रहे हैं। शायद यही कारण है कि सपा ने शुक्रवार को बारी-बारी से सपा के उम्मीदवारों की दो सूची जारी की है। सपा की पहली सूची में 191 और दूसरी सूची में 18 प्रत्याशी शामिल हैं। हालांकि सपा अब भी कांग्रेस से तालमेल करना चाहती है, लेकिन कांग्रेस को सपा की शर्तो को मानना होगा, लिहाजा चुनाव बिल्कुल सिर पर है और ऐसे में सपा और ज्यादा इंतजार नहीं कर सकती।
फार्मूले से सहमत नहीं कांग्रेस
यूपी चुनाव में गठबंधन के लिए सपा ने जो फार्मूला तैयार किया था वह कांग्रेस को नहीं भा रहा है। दरअसल सपा के इस फार्मूले में कांग्रेस को 85 और रालोद को 20 सीटे देने का था, लेकिन कांग्रेस 403 में से 100 सीटों पर अपना दावा ठोक रही है। जबकि रालोद पहले ही 40 से ज्यादा सीटों पर दावा ठोकते हुए इस महागठबंधन से अलग हो गया है। रालोद के बाद कांग्रेस की भी दाल गलने को तैयार नहीं है। सपा ने साफ कर दिया है कि महागठबंधन में शामिल होना है तो उसके केवल 85 सीटें ही दी जा सकती हैं। सूत्रों के अनुसार सपा राज्य में कुछ और छोटे दलों के साथ चुनावी तालमेल करने की योजना बना रहा है।
भाजपा को हराना मकसद
सपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नन्दा ने पहली सूची जारी करने के बाद कहा कि सपा का असली मकसद विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराना है, इसलिए कांग्रेस और रालोद जैसे दलों से गठबंधन की कोशिश की गयी, लेकिन दूसरे दलो की ओर से अभी तक कोई सकारात्मक पहल नहीं की जा रही है, जबकि सपा ने उन्हें गठबंधन के फार्मूले से अवगत करा दिया है। यदि कांग्रेस भी भाजपा को हराना चाहती है तो उसे सपा के इस फार्मूले को स्वीकार करना होगा अन्यथा सपा अपने दम पर चुनाव में उतरने को तैयार है। सपा की जारी 191 सीटों के प्रत्याशियों को लेकर दिये गये तर्क में कहा गया है कि इनमें कई वे सीटें हैं, जिन पर वर्ष 2012 के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी जीते थे, उन्होंने कहा कि अगर गठबंधन होगा, तो कांग्रेस जहां जीती है, वह सीट उसे दे दी जाएगी। सपा प्रदेश में करीब 300 सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय ले चुकी है। तो ऐसे में माना जा रहा था कि वह कांग्रेस के लिये 100 या 103 सीटें छोड़ सकती है।

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

लोस व विस चुनाव एकसाथ कराने की तैयारी!

पांच राज्यों में चुनावों के बाद शुरू होगा मैराथन मंथन
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
देश में चुनाव सुधार की दिशा में चुनाव आयोग ने धनबल और समय की बचत के लिए देश में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की दिशा में विधि आयोग के साथ मिलकर आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। इस चुनाव व्यवस्था की कई बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी जोरदार तरीके से वकालत की है। चुनाव आयोग और विधि आयोग देश के पांच राज्यों में चुनाव प्रक्रिया समाप्त होने के बाद इस प्रस्ताव पर सरकार के अलावा सभी राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श कर मंथन करने की तैयारी में है।
चुनाव आयोग के सूत्रों ने संकेत दिये हैं कि आगामी मार्च माह में यूपी समेत पांच राज्यों में चुनाव प्रक्रिया समाप्त होने के बाद देश में अगले वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ ही सभी नहीं तो कम से कम आधे राज्यों के चुनाव कराने के लिए विधि आयोग के साथ मिलकर एक बड़ी पहल करने की तैयारी है। ऐसा सुझाव संसद की स्थायी समिति भी सरकार को दे चुकी है। ऐसे ही सुझाव पर चुनाव और विधि आयोग केंद्र सरकार के अलावा सभी राजनीतिक दलों के साथ विस्तृत मंथन करने की योजना बना रहे हैं। इस दिशा में कदम उठाने की कवायद में चुनाव आयोग और विधि आयोग का प्रयास है कि अगले लोकसभा चुनाव और कम से कम आधे राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराने पर औपचारिक सहमति बनाई जाएगी, जिसे वर्ष 2024 तक एक साथ चुनाव कराने का रास्ता प्रशस्त हो सकेगा।
संसदीय समिति की सिफारिश
देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के बारे में संसद की स्थाई समिति भी चर्चा कर चुकी है, जिसके लिए समिति ने दिसंबर 2015 में संसद में अपनी सिफारिशों और सुझावों के साथ अपनी रिपोर्ट पेश की थी। समिति की सिफारिशों में एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे, जिनमें पहले चरण में आधे राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा के साथ कराने की सिफारिश भी शामिल है। समिति की सिफारिशों में बाकी आधे राज्यों के चुनाव उनका कार्यकाल पूरा होने के समय कराने की सिफारिश की है। हालांकि सरकार ने विधि आयोग से भी इसके लिए अध्ययन कराया, जो इस चुनाव व्यवस्था के पक्ष में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे चुका है। वहीं नीति आयोग की अध्ययन रिपोर्ट भी संसदीय समिति की सिफारिशों से मेल खा रही है।
नीति आयोग रिपोर्ट
केंद्र सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग की ओर से कराए गये एक अध्ययन के मुताबिक दो चरणों में चुनाव कराने का सुझाव दिया गया है। आयोग के इस सुझाव के तहत दो चुनावों के बीच 30 महीने या ढाई साल का अंतर होना चाहिए। पहले चरण में अप्रैल-मई 2019 में लोकसभा के साथ ही 14 राज्यों के चुनाव कराए जा सकते हैं, तो वहीं दूसरे चरण में अक्टूबर-नवंबर 2021 में बाकी के राज्यों में मतदान कराना संभव है। नीति आयोग का मानना है कि हर छह महीने पर दो से पांच विधानसभाओं के लिए चुनाव हो रहे हैं। इस प्रकार से लगातार होने वाले चुनाव सरकार के कामकाज में बाधा डालते हैं। इससे विकास कार्य भी बाधित होते हैं, क्योंकि आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद सरकार के भी हाथ बंध जाते हैं। वहीं चुनाव आयोजित कराने में होने वाला भारी भरकम खर्च भी सभी चुनाव साथ कराए जाने की दिशा में सोचे जाने की एक बड़ी वजह है।
विधि आयोग भी सक्रिय
विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस बीएस चौहान ने भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की व्यवस्था को संभव करार दिया है और कहा कि इसके लिए सभी राजनीतिक दलों के बीच सहमति के अलावा संबन्धित तंत्रों की रजामंदी होती है तो वर्ष 2019 में ही लोकसभा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। चुनाव आयोग के साथ किये गये विचार विमर्श के आधार पर चौहान ने कहा कि इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद इस मुद्दे पर कोई न कोई कदम निर्णायक मोड़ पर लाने का प्रयास है।

संसद भवन की सुरक्षा प्रणाली गड़बड़ाई

गणतंत्र दिवस से पहले सतर्कता में आई चूक
हरिभूमि ब्यूरो.
नई दिल्ली।
देश जहां गणतंत्र दिवस की तैयारियों में जुटा है और इस राष्टÑीय पर्व पर मंडराते आंतकी खतरों के अलर्ट के बावजूद गुरुवार को संसद की सुरक्षा प्रणाली ऐसी गड़बड़ाई कि संसद का सुरक्षा महकमा देर रात तक उसे दुरस्त करने में जुटा रहा। हालांकि संसद में आने जाने वालो पर सुरक्षाकर्मी सतर्कता के साथ नजरे जमाए रहे।
संसद पर वर्ष 2001 दिसंबर के आतंकी हमले के बाद इसकी सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए केंद्र सरकार ने 250 करोड़ रुपये खर्च किये थे, जिसे धीरे-धीरे सख्त करने की सतत प्रक्रिया भी चली आ रही है। दरअसल सांसदों, संसद के अधिकारियों व कर्मचारियों के साथ मीडियाकर्मियों को परिचय पत्र के अलावा फ्रिक्वेंसी टैग भी दिये जाते हैं, जिनके प्रवेश करने पर इस सुरक्षा प्रणाली में संबन्धित व्यक्ति का फोटो और परिचय सुरक्षाकर्मियों के सामने लगी स्क्रीन पर आ जाता है। इस टैग को संबन्धित व्यक्ति के अलावा कोई अन्य उपयोग नहीं कर सकता। सूत्रों के अनुसार गुरुवार को इस तरह की सुरक्षा प्रणाली में अचानक तकनीकी खराबी आने से संसदीय सुरक्षा विभाग में हड़कंप मच गया, जिसके लिए संसद परिसर में आने वाले हर व्यक्ति की पहचान को पुख्ता करने के बाद ही प्रवेश देने की दृष्टि से सुरक्षा विभाग पूरी तरह से सतर्क नजर आया। सांसद, अधिकारी, कर्मचारी या मीडियाकर्मी जिन्हें फ्रिंक्वेंसी टैग की सुविधा दी गई है, के प्रवेश के समय इलेक्ट्रॉनिक्स सिस्टम के जरिए द्वार तो खुल रहे थे, लेकिन स्क्रीन पर उनकी न तो तस्वीर और न ही विवरण नजर आ रहा था।
प्रणाली दुरस्त करने का प्रयास
संसद भवन के एक सुरक्षा अधिकारी ने अपना नाम उजागर न करते हुए इस संबन्ध में पूछे जाने पर बताया कि इस प्रणाली का सर्वर में तकनीकी खराबी होने के कारण यह व्यवस्था बाधित हुई, लेकिन संसद की सुरक्षा के प्रति सुरक्षाकर्मियों द्वारा चाकचौबंद व्यवस्था बरकरार है। उन्होंने बताया कि इस प्रणाली में तकनीकी खराबी के कारण सुरक्षा व्यवस्था की चूक कहना गलत होगा, लेकिन प्रणाली के दुरस्त रहने से सुरक्षाकर्मियों को जांच प्रक्रिया में आसानी होती है, जिसके लिए इस तकनीकी खराबी के कारण ज्यादा सख्त जांच पड़ताल करना जरूरी समझा जा रहा है।
20Jan-2017

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

चंदा लेने में ‘शिवसेना’ सब पर भारी!


क्षेत्रीय दलों में द्रमुक सबसे फिसड्डी
केजरीवाल की आप विदेशी चंदा लेने में आगे
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
देश में चुनाव सुधार की दिशा में बढ़ रहे चुनाव आयोग लगातार राजनीतिक दलों पर शिकंजा कसता जा रहा है। सियासी दलों के 20 हजार रुपये से ज्यादा चंदे के स्रोतों के साथ पारदर्शिता और जवाबदेही तय करने के नियम के तहत मौजूदा वित्तीय वर्ष 215-16 में देश के क्षेत्रीय दलों में शिवसेना ने 86.84 करोड़ का चंदा सार्वजनिक करके अन्य दलों को बौना साबित कर दिया है, जबकि 9.8 लाख रुपये के चंदे के साथ द्रमुक सबसे पीछे रही है।
चुनाव आयोग के साथ चुनाव सुधार की दिशा में कार्य करती आ रहे गैर सरकारी संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा देश के क्षेत्रीय दलों द्वारा 20 हजार से अधिक का चंदा लेने की एक विश्लेषणात्मक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें देश के क्षेत्रीय दलों ने कुल 2249 दानदाताओं के स्रोतों के जरिए मिले चंदे के रूप में कुल 107.62 करोड़ रुपये के दान को सार्वजरिक किया है।। इस रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2015-16 के चुनाव आयोग को सौंपे गये आय-व्यय ब्यौरों में जो तथ्य सामने आए हैं उसमें शिवसेना एक ऐसी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी है, जिसने 86.84 करोड़ रुपये के चंदे का खुलासा किया है, जो उसे 143 दानदाताओं से मिला है। शिवसेना का यह चंदा अन्य 20 क्षेत्रीय दलों को मिले चंदे से चार गुना है। अरविंद केजरीवाल की ‘आम आदमी पार्टी’ चंदा लेने में दूसरे पायदान पर है, जिसने 1187 स्रोतों के जरिए 6.605 करोड़ रुपये के चंदे का खुलासा किया है। इसके बाद इस वित्तीय वर्ष के दौरान 75 स्रोतों से तेदपा को 3.10 करोड़, पीएमके को 571 दानदाताओं से 2.646 करोड़, जनतादल-यू को 18 स्रोतों से 1.94 करोड़,वाईएसआर कांग्रेस को 33 स्रोतों से 1.65 करोड़, लोजपा को 23 दानदाताओं से 89 लाख रुपये, एर्आयूडीएफ को 79 लाख,टीआरएस को 76 लाख, जनतादल-एस को 60.5 लाख रुपये, राजद को 55.5 लाख रुपये, आईयू मुस्लिम लीग को 34.6 लाख रुपये, एमएनएस को 28 लाख, शिरोमणी अकाली दल को 26 लाख, एसडीएफ को 25 लाख और द्रमुक को 9.80 लाख रुपये चंदे के रूप में मिले हैं।

बुधवार, 18 जनवरी 2017

इसलिए गठबंधन करना सपा की मजबूरी!

यूपी में भारी पड़ती भाजपा को रोकने की लामबंदी
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ सपा के प्रमुख साबित हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को शायद अपने पांच साल के कार्यकाल की उपलब्धियों पर इतना ऐतबार नहीं है, जितना भरोसा यूपी चुनाव फतेह करने के लिए भारतीय जनता पार्टी की तैयार की गई भारी-भरकम चुनावी रणनीतियों पर है। यूपी में नजर आ रही भाजपा की लहर को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस और रालोद जैसे दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव मैदान में आने की तैयारी को तेज कर दिया है।
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण की अधिसूचना मंगलवार को जारी हो चुकी है। एक दिन पहले ही सोमवार को चुनाव आयोग ने राज्य की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और उसके चुनाव चिन्ह ‘साइकिल’ का मालिकाना हक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को दे दिया है, जो अकेले दम पर चुनाव मैदान में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। इसलिए सपा के दंगल के दौरान गठबंधन की शुरू हुई सुगबुगाहट को पार्टी की बागडौर अपने हाथों में आते ही अखिलेश यादव ने सार्वजनिक करते हुए ऐलान कर दिया है कि सपा चुनाव मैदान में कांग्रेस और रालोद के साथ गठबंधन करके फिर से सत्ता पर काबिज होगी। हालांकि सपा के इस दंगल के बीच ही कांग्रेस के रणनीकार प्रशांत किशोर ने सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को गठबंधन का फार्मूला दिया था, लेकिन महागठबंधन की दुहाई देने वाले मुलायम ने अकेले दम पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया, लेकिन यह फार्मूला मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को जरूर भा गया होगा। तभी से वे खासकर कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर जोर देते आ रहे थे। अब तो सपा में सर्वेसर्वा अखिलेश ही हैं तो सपा के साथ कांग्रेस और रालोद जैसे दलों का खेवनहार बनने का फैसला कर ही दिया है। राजनीतिकारों का मानना है कि अखिलेश यादव को शायद अपनी सपा के दम पर चुनावी वैतरणी पार लगाने का भरोसा नहीं है और न ही उन्हें अपने पांच साल के कार्यकाल की उलब्धियों से फायदा मिलने की उम्मीद है? दूसरी और असम की तर्ज पर यूपी चुनाव जीतकर सत्ता कब्जाने के लिए भाजपा की मजबूत होती चुनावी रणनीति से भी सत्तारूढ़ सपा को डर सता रहा है, यह भय स्वाभाविक भी है क्योंकि सपा कुनबे के विवाद ने उसकी पार्टी को सियासी तौर पर कहीं न कहीं कमजोर तो किया ही है।
कांग्रेस व रालोद की अपनी गरज
उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपना जनाधार बनाने में कामयाबी की राह न पकड़ने की वजह से कांग्रेस की अपनी भी मजबूरी है कि वह सपा जैसे दल के साथ चुनावी जनाधार हासिल कर सके। पिछले 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गांव ओर खेत खलियानों के रास्ते चलने के बावजूद कांग्रेस को ऊर्जा नहीं दे पाए थे। इसी अनुभव ने उसके गठबंधन के लिए मजबूर किया हुआ है। जहां तक सपा के साथ राष्टÑीय लोकदल के चुनावी गठजोड़ करने का सवाल है उसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान पूरा सियासी किला ध्वस्त कराने के बाद उसके पुनर्निर्माण में उम्मीदों की किरण नजर आ रही है। माना जा रहा है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव, कांग्रेस युवराज राहुल गांधी और रालोद के जयंत चौधरी जैसे नौजवान और इन दलों के अन्य दिग्गज चुनावी रैलियों में एक मंच पर होंगे तो तीनों दलों को सियासी फायदा मिलने की उम्मीद है। खासतौर से यह गठबंधन यूपी में भाजपा के चुनावी रथ को रोकने के इरादे से करने की सबसे बड़ी मजबूरी मानी जा रही है।
गठबंधन का फार्मूला तैयार
सूत्रों के अनुसार सपा प्रमुख के तौर पर अखिलेश यादव ने चुनावी मैदान में जाने के लिए अपने पिता मुलायम सिंह यादव का आर्शीवाद लेने के साथ ही चुनावी रणनीति पर भी चर्चा की जिसमें कांग्रेस व रालोद गठबंधन के फार्मूले की भी जानकरी दी। ऐसे में मुलायम सिंह यादव ने भी अपने तीन दर्जन से ज्यादा प्रत्याशियों की सूची अखिलेश को सौंपी है। सपा के सूत्रों की माने तो अखिलेश यादव ने प्रो. रामगोपाल यादव के साथ मिलकर कांग्रेस व रालोद के साथ गठबंधन का फार्मूला भी तैयार कर लिया है, जिसमें सपा 89 सीटें कांग्रेस तथा 20 सीटें रालोद के लिए छोड़ रही है। जबकि सपा 280 सीटों पर अपने उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारेगी। सूत्रों के अनुसार बाकी 14 सीटों पर अन्य दलों को देने का विचार है अन्यथा इन पर सपा अपने उम्मीदवारों को उतारेगी, लेकिन वह कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ेंगे।
यह भी बड़ा कारण
सपा परिवार की कलह चरम पर पहुंचने से पहले ही अखिलेश यादव ने रालोद-कांग्रेस संग गठबंधन के संकेत दे दिए थे। लेकिन बाद के हालातों को देखते हुए ये भी गठबंधन उनकी मजबूरी बन गया। इस मजबूरी के पीछे कई कारण बताए जा रहे हैं। बड़ा कारण बसपा की रणनीति है तो दूसरी ओर वोटों का जातीय समीकरण भी परेशान कर रहा है। रही-सही कसर पार्टी की रार ने भी पूरी कर दी। इसी के चलते अखिलेश यादव ने मुलायम की न के बाद भी आखिरी वक्त तक गठबंधन के लिए रास्ते खुले रखे। राजनीतिकारों के अनुसार जिस तरह से बसपा ने बहुत पहले ही मुस्लिम कार्ड खेलते हुए करीब 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, तभी से सपा के लिए ये कार्ड परेशानी बन गया था। उसके बाद से कई और ऐसी घटनाएं हुईं कि सपा इसकी काट खोजने में लग गई। गठबंधन के अलावा सपा के पास कोई रास्ता भी नहीं बचा था। क्योंकि सपा की आपसी रार से सबसे ज्यादा प्रभावित मुस्लिम वोटर ही हो रहा था। इसीलिए आखिरी वक्त तक मुस्लिम वोटर स्थिर बना रहा। लेकिन किसी भी वक्त उसके करवट लेने की आशंका सपा को डरा रही थी।
18Jan-2017

मंगलवार, 17 जनवरी 2017

सपा के दंगल में न कोई जीता और न हारा !

आयोग के फैसले ने बदले सियासी समीकरण
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
यूपी के सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के महासंग्राम का पटाक्षेप चुनाव आयोग को करना पड़ा और पार्टी व चुनाव चिन्ह का मालिकाना हक अखिलेश यादव को मिल गया, तो इसके मायने साफ नजर आ रहे हैं कि समाजवादी पार्टी टूटने से बच गई और मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकारी के रूप में पार्टी की बागडौर अखिलेश के हाथ आ गई। ऐसे में चुनाव आयोग के फैसले से यूपी के चुनावी संग्राम में कूदे दलों के सियासी समीकरण बदलने से इंकार नहीं किया जा सकता।
ऐसा भी नहीं है कि सपा की इस जंग में सुलह−समझौते की कोशिशें न हुई हों, कई बार मुलायम व अखिलेश गुटों के बीच कई दौर की बात चली, लेकिन एक-दूसरे की शर्ते मंजूर न होने से सुलह अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। आखिर इस दंगल का विवाद केंद्रीय चुनाव आयोग जा पहुंचा, जहां से जैसी उम्मीद थी वैसा ही फैसला सामने आया। राजनीतिकारों का तो मानना है कि समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव पार्टी में बेटे के विरोध में साजिशे करने वालों से किनारा करना चाहते थे, जिसके लिए दोनों गुटों में आरोप-प्रत्योरोप का दौर भी चला। भले ही समाजवादी पार्टी के पुरोधा मुलायम सिंह यादव, बेटे अखिलेश खेमे में अग्रणी भूमिका निभाते आ रहे प्रो. रामगोपाल यादव द्वारा बुलाए गये उस अधिवेशन जिसमें अखिलेश यादव को पार्टी का राष्टÑीय अध्यक्ष और मुलामय को संरक्षण घोषित किया गया को असंवैधानिक करार देते रहे हो। लेकिन सपा के महासंग्राम में सड़क से चुनाव आयोग तक मुलायम चाहते हुए भी बेटे अखिलेश पर कहीं भारी पड़ते नजर नहीं आए। माना जा रहा है कि पार्टी को टूटने न देने की कसम खा चुके मुलायम द्वारा खड़ी की गई पार्टी को सही समय पर उत्तराधिकारी ने संभाल लिया है।
यूपी चुनाव में नया मोड़
चुनाव आयोग के फैसले के बाद सपा जहां थी, वहीं है केवल उसका राष्टÑीय अध्यक्ष बदला है और मुलायम को समय से पहले उत्तराधिकारी मिल गया, जो सपा को लंबे समय तक खेवन कर सकेगा। सपा के बदले नेतृत्व से सूबे में चल रही चुनावी प्रक्रिया में सपा के दंगल से अपना फायदा देख रहे विरोधी दलों के कदम जरूर थम गये हैं, चूंकि अब सबकुछ सपा के नवनियुक्त मुखिया अखिलेश के अनुसार होगा, जो देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री भी है और सरकार चलाते हुए उसके कामों का भी जनता आकलन करेगी। माना जा रहा है कि मुलायम को भी पता था कि फैसला बेटे के हक में ही आने वाला है, शायद कुछ घंटो पहले सोमवार को लखनऊ स्थित सपा के राज्य कार्यालय में उन्होंने बेटे अखिलेश को मुस्लिमों का विरोधी करार देकर संकेत दिये थे कि वह(मुलायम) मरते दम तक मुस्लिमों के लिए जीएंगे और उनके लिए ही मरेंगे। अखिलेश के हाथ आई पार्टी की कमान के बावजूद मुलायम पार्टी के सर्वासर्वे यानि संरक्षक है और बसपा जैसे दलों को मुस्लिम वोटबैंक में सेंध लगाने का मौका कभी नहीं दे सकते।
फैसले से बदलेगी सियासी रणनीतियां
उत्तर प्रदेश के पहले चरण के चुनाव के लिए कल मंगलवार 17 जनवरी से नामांकन प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। तो ऐनमौके पर संभलकर सामने आई सपा के कारण प्रदेश में भाजपा, बसपा, कांग्रेस व अन्य दलों को अपनी रणनीतियां बदलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। अभी तक सभी दल इस भ्रम में थे, कि सपा टूट के कगार पर है और दोनों गुट अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे, तो उनका वोट बैंक बिखरने पर सबकी इस नजरिए से नजरे थी, कि उसे अपनी पार्टी के पक्ष में आकर्षित किया जाए और ऐसी रणनीतियों पर सियासी दल चुनाव प्रचार में जुटे हुए भी थे।

सपा व साइकिल अखिलेश के नाम

सपा के दंगल में चुनाव आयोग का फैसला
अखिलेश करेंगे सपा की साइकिल की सवारी
हरिभूमि ब्यूरो.
नई दिल्ली।
आखिर उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी की अंतर्कलह में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह के साथ चली आ रही जंग में भारी साबित हुए। यूपी में पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन प्रक्रिया की पूर्व संध्या पर ही चुनाव आयोग ने अपना फैसला सुना दिया और सपा व साइकिल अखिलेश के नाम कर दी गई।
समाजवादी पार्टी के कुनबे में पिछले कई माह से वर्चस्व की खातिर चल रहे महासंग्रमाम का आखिर चुनाव में नामांकन प्रक्रिया से एक दिन पहले पटाक्षेप हो ही गया। सपा के इस दंगल की इंताह यहां तक पहुंची, कि सपा और उसके चुनाव चिन्ह ‘साइकिल’ के हक के लिए मुलायम और अखिलेश गुट दोनों ही केंद्रीय चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाने के लिए मजबूर हुए। दोनों गुटों ने अपने अपने दावों के साथ आयोग में दस्तावेज सौंपे थे, जिसमें मुलायम गुट से ज्यादा समर्थन में अखिलेश गुट के समर्थन वालों के हलफनामे दाखिल हुए। चुनाव आयोग ने पिछले सप्ताह शुक्रवार को दोनों गुटों की मौजूदगी में तर्को के साथ सुनवाई की और फैसला सुरक्षित रख लिया था।सोमवार शाम को चुनाव आयोग के अवर सचिव एनटी भूटिया की ओर से जारी 42 पृष्ठीय आदेश में कहा गया है कि सुनवाई के बाद बहुमत अखिलेश गुट के पक्ष में पुख्ता हुआ, जिसके तहत आयोग का फैसला अखिलेश के पक्ष में आया, जिसके अनुसार अब अखिलेश को पार्टी का नाम ‘समाजवादी पार्टी’ व चुनाव चिन्ह ‘साइकिल’ दोनों मिल गये हैं। अब समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ही होंगे। गौरतलब है कि प्रो. रामगोपाल यादव द्वारा बुलाया गया अधिवेशन में अखिलेश को पार्टी का राष्टÑीय अध्यक्ष और मुलायम को संरक्षण घोषित किया गया था, जिस पर चुनाव आयोग ने भी मुहर लगा दी है। चुनाव आयोग का यह फैसला मुलायम सिंह यादव को भी मान्य होगा, ऐसा उन्होंने सुनवाई के बाद ही यह कहना शुरू कर दिया था कि जो भी फैसला आएगा वह उन्हें स्वीकार होगा।

सोमवार, 16 जनवरी 2017

ऐसे रडार पर रहेंगे नेशनल हाइवे!

कई राज्यों में जल्द आएगी एचएएस योजना
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
केंद्र सरकार की देशभर में राष्ट्रीय राजमार्गो पर यात्रियों की सहूलियत के लिए उन्हें रडार पर रखने की दिल्ली-जयपुर मार्ग पर जिस योजना को शुरू किया था, उसे अब उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड समेत कई राज्यों में पटरी पर उतारने का फैसला किया है। मसलन सरकार अब हाइवे के सफर को आसान बनाने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड समेत कई राज्यों में हाईवे एडवायजरी सर्विस (एचएएस) शुरू करने जा रही है।
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सूत्रों के लिए अनुसार देशभर में राष्ट्रीय राजमार्गो पर यातायात जाम, दुर्घटना या अन्य किसी प्रकार की ताजा जानकारी यात्रियों को रेडियो के जरिए मिलना शुरू हो जाएगी। केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय ने पिछले साल अक्टूबर माह में एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में हाईवे एडवायजरी सर्विस को दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर शुरू किया था।मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि पायलट प्रोजेक्ट के रूप मे दिल्ली-जयपुर हाइवे पर चलाई गई इस सेवा के तहत यात्रियों को दिल्ली, अलवर व जयपुर के आल इंडिया रेडियो स्टेशनों से प्रतिदिन 18 बार राष्ट्रीय राजमार्ग का लाइव ट्रैफिक का हाल सुनाया गया है। इस योजना के तहत राष्ट्रीय राजमार्गो पर सफर करते समय या उनके परिवारों को घर बैठेÞ नेशनल हाइवे का सुरतेहाल मिलता रहेगा। इस तकनीकी योजना के तहत 2400 किमी लंबे राजमार्ग भी इसके दायरे में रहेंगे। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय की हाईवे एडवायजरी सर्विस (एचएएस) शुरू करने वाली इस योजना के तहत रेडियो के माध्यम से सड़क पर चलते यात्रियों को राष्ट्रीय राजमार्गों के लाइव ट्रैफिक का हाल के साथ ही खराब मौसम, यातायात जाम तथा सड़क हादसे की जानकारी मिलेगी, ताकि सलाह भी के आधार पर वह मार्ग से परिवर्तित कर अपने गणतंव्य की ओर जा सकें। वहीं इस सर्विस के तहत रेडियों के जरिए सीट बेल्ट, ओवर स्पीड, ओवरटेक, शराब पीकर गाड़ी चलाने, लेन ड्राइविंग की चेतावनी भी दी जाएगी।
एसएएस के दायरे में होंगे ये राज्य
केंद्र सरकार द्वारा इस योजना को लागू करने का मकसद राष्टÑीय राजमार्गो पर सफर करने वाले यात्रियों को सफर का ताजा सुरतेहाल मिलने की वजह से कई परेशानियों से बचने में मदद मिलेगी। केंद्र सरकार ने राष्टÑीय राजमार्गो के सुरक्षित, तेज व बाधा राहित सफर को आसान बनाने की दिशा में जिन राज्यों में हाईवे एडवायजरी सर्विस का विस्तार करने का निर्णय लिया है, उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार,झारखंड, उत्तराखंड, ओडिसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश भी शामिल हैं। मंत्रालय ने इन एक दर्जन राज्यों में इस सेवा के विस्तार के लिए पिछले महीने ही कंसल्टेंटों को 12 जनवरी तक आमंत्रित कर आवेदन मांग लिये हैं। इन आवदेनों पर अंतिम फैसला लेते ही सरकार उक्त राज्यों में इस सेवा को शुरू कर देगी। मंत्रालय के अनुसार कंसल्टेंट राष्ट्रीय राजमार्गो पर रेडियो प्रसारण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने, सेंसर आदि लगाने का काम करेंगे। इसके अलावा सड़क सुरक्षा के लिए आॅडियो सामग्री तैयार करेंगे। इसके बाद सरकार एचएएस फेज-3 में देश के अन्य राज्यों व राष्ट्रीय राजमार्गो पर इस सेवा को मुहैया कराएगी।

देश को केंद्रीय बजट से राहत की उम्मीद!

हरेक क्षेत्र सुधारों के प्रावधान करेगी सरकार
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
संसद के एक फरवरी को पेश किये जाने वाले केंद्रीय बजट पर विपक्ष के विरोध के कारण भले ही संशय की स्थिति बनी हुई हो, लेकिन सरकार बजट के खाके को लगभग अंतिम रूप दे चुका है। ऐसे में नोटबंदी के दौर से गुजर रहे देश व जनता को मोदी सरकार के केंद्रीय बजट से राहत की उम्मीदें लगी हुई है। वहीं सरकार भी संकेत दे रही है कि हरेक क्षेत्र में सुधार की दिशा में सरकार बजट में प्रावधान लेकर आएगी।
केंद्र की मोदी सरकार के लिए आम बजट में देश में मध्यम वर्ग, नौकरी पेशा और गरीब तबके की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती है। वहीं देश का हर वर्ग भी इस बार के केंद्रीय बजट को लेकर उम्मीदों पर कायम है। माना जा रहा है कि केंद्र सरकार आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में सुधार के साथ देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने, कृषि में सुधार, गांवों और किसानों की हालत में सुधार पर फोकस करते हुए आम आदमी को राहतभरी सौगात देगी। इसका कारण नोटबंदी के बाद सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाकर संसाधन जुटाने का रास्ता चुना है। इस बार रेल बजट का समायोजन भी आम बजट में है, तो सरकार को इस क्षेत्र में भी आम जनता के ख्याल को रखना होगा, जिसकी उम्मीद भी है। आर्थिक विशेषज्ञों का अनुमान है कि वित्तमंत्री अरुण जेटली ऐसा बजट लाने की तैयारी में है, जिससे सरकार और जनता दोनों को फायदा मिल सके, जिसमें जीएसटी की राह को आसान करना भी सरकार के लिए चुनौती है। केंद्रीय वित्त मंत्री ने पिछले दिनों संकेत दिये थे कि सरकार को निचले दर के कराधान की जरूरत है, ताकि वह सेवाओं को अधिक प्रतिस्पर्धी बन सकें। इसके लिए कर चोरी को लेकर भी उन्होंने लोगों को आयकर छूट देने के संकेत देते हुए जिम्मेदार बनने की दलील दी थी।
आयकर छूट का ऐलान
केंद्र सरकार ने बजट-2017 में मौजूदा 2.50 लाख रुपये की आयकर छूट की सीमा को बढ़ाकर 4 लाख रुपए करने के संकेत दिये है,जिसके कारण हर व्यक्ति को राहत मिल सकती है। पिछले दो साल से आयकर स्लैब में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है, लेकिन नोटबंदी के बाद सरकार इस बार आयकर स्लैब में परिवर्तन करके इसे सालाना चार लाख रुपये की आय को छूट के दायरे में ला सकती है। यह छूट आईटी की धारा 87ए के तहत बढ़ाई जा सकती है।
योजनागत आवंटन की चुनौती
भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश का माहौल बनाने व घरेलू मांग बढ़ाने के साथ ही आगामी बजट का फोकस गरीब और नौजवानों पर रहने की उम्मीद है, जिसके डिजीटल पेमेंट की ई-प्रणाली, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत और ग्रामीण आवास जैसे कार्यक्रमों के बजट में खासी वृद्धि हो सकती है। मोदी सरकार की स्टार्टअप्स विशेषकर ई-कामर्स कंपनियों को प्रोत्साहित करने के लिए वित्त मंत्रालय आगामी बजट में उनके ब्रांड प्रमोशन के लिए कर लाभ देने पर ज्यादा जोर हो सकता है।
कैसे होंगे घर के सपने दूर
सरकार नोटबंदी के बाद संकेत दे चुकी है कि लोगों के घर बनाने के सपने पूरे हो सकेंगे। यानि होम लोन सस्ते होने की उम्मीदभरी नजर से भी लोग आने वाले केंद्रीय बजट को देख रहे हैं। उम्मीद है कि सरकार होम लोन पर मिलने वाली टैक्स छूट को और बढ़ा सकती है। नोटबंदी के बाद रियल एस्टेट बाजार में आई गिरावट को थामने और नई गति देने के लिए सरकार यह कदम उठा सकती है जिसका फायदा आम आदमी का भी मिलेगा। माना जा रहा है कि बजट में कुछ ऐसी सहमति बन सकती है जिसके चलते सालाना दो लाख रुपये से ज्यादा के ब्याज पर भुगतान में छूट दी जा सकती है।

रविवार, 15 जनवरी 2017

राग दरबार: हवा होती चुनाव आचार संहिता..

जाति और धर्म का चुनाव 
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के कारण चुनाव आचार संहिता लगी है, जिसका चुनाव आयोग सख्ती से पालन कराने में जुटा है। ऐसे चुनाव वाले कई सूबों में भयंकर ठंड पड़ रही है। तमाम जिलों में तापमान शून्य के नीचे चला गया है, लेकिन अब तक किसी भी पार्टी का नेता यह बयान देने का साहस नही कर पाया है कि मोदी की नीतियों के कारण इस बार ठंड अपने सभी रिकॉर्ड तोड़ रही है या फिर केजब्रीवाल की बयानबाजी का ग्लोबल वार्मिंग पर बुरा असर पड़ा है। दरअसल देश में हर किसी भी हलचल के लिए खासकर केजरीवाल या राहुल व अन्य जुबानबाजी के जरिये सुर्खिंयों में आने को आतुर सियासी नेता सीधे मोदी को कोसते नजर आते हैं। जहां तक चुनाव आचार संहिता के पालन करने का सवाल है, चुनाव आयोग तो दूर की बात,किसी भी नेता को सुप्रीम कोर्ट तक के आदेश की ारवाह नहीं है। चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता को तो नमता शायद चूं -चूं का मुरब्बे की तरह समझते हैं, तभी तो देश की सबसे बडी अदालत सुप्रीम कोर्ट के सियासी दलो को जाति और धर्म का चुनाव में इस्तेमाल नहीं करने के आदेश को ताक पर रखकर ज्यादातर दल जातियों व धर्म के आधार पर ही अपने उम्मीदवार तय कर रहें हैंऔर उत्तर प्रदेश में तो इस आदेश की धज्जियाँ उड़ चुकी हैं। यानि राजनीति दल टीवी पर लाइव बता रहे कि उसने किस जाति और किस मजहब के कितने उम्मीदवार तय किये। मीडिया भी जाति और मजहब के आंकडे प्रचारित कर रही है। इस लसेकतांत्रिक मेले की कहानी ऐसी कि हमेशा की तरह ही हवा हाती नजर आ रही है चुनाव आचार संहिता..!
मुलायम को समझा रहे हैं तिवारी
सपा के भीतर चल रहे दंगल में तमाम नेता मुलायम सिंह यादव को नरम रूख अपनाने की सलाह दे रहे हैं। कभी लोकदल का हिस्सा रहे लालू यादव से लेकर शरद यादव तक। अब लगे हाथ नारायण दत्त तिवारी भी बड़े-बुजर्ग की तरह मुलायम को सीख देने में जुट गये हैं। इस पुराने कांग्रेसी नेता ने अपने मित्र सपा सुप्रीमो को बकायदा पत्र लिखकर कहा है कि अपने पुत्र अखिलेश यादव को विरासत सौंप दें। मजेदार पहलू तो ये है कि तिवारी जी खुद अपने बेटे रोहित शेखर को अपना बेटा मानने की बजाय कई साल तक अदालतों के चक्कर काटते रहे। मुलायम को लिखे अपने पत्र में तिवारी ने कहा है कि वे खुद अपने बेटे रोहित को अपनी राजनैतिक विरासत सौंपने के चलते उनको उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में उतारने की तैयारी में जुटे हैं। समय का फेर देखिये कि अब तिवारी भी बेटे की अहमियत मुलायम को समझा रहे हैं, उधर नेताजी हैं कि सपा पर कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं।