सोमवार, 31 मार्च 2014

हॉट सीट-मथुरा :ड्रीमगर्ल के ग्लैमर ने तोड़े सियासत के नाते-रिश्ते!

जयंत चौधरी की राह नहीं रह गई आसान
ओ.पी.पाल

लोकसभा चुनाव की सियासी जंग में कान्हा की मथुरा लोकसभा सीट भी बनारस से कमतर नहीं है। भाजपा प्रत्याशी के रूप में ड्रीम गर्ल हेमामालिनी के ग्लैमर के सामने जातीय समीकरण, सियासी नाते-रिश्तेदार अपने ही भ्रमजाल में उलझते नजर आ रहे हैं। यही कारण है कि इस बार मथुरा लोकसभा सीट से निवर्तमान सांसद रालोद प्रत्याशी जयंत चौधरी की राह आसान नहीं।
उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी के रूप में मथुरा का अपना एक अलग सियासी महत्व है। जाट बाहुल्य मथुरा लोकसभा सीट पर भाजपा के टिकट पर जाट परिवार की बहू हेमामालिनी को चुनाव मैदान में उतारने से रालोद प्रत्याशी जयंत चौधरी के लिए मुश्किलें पैदा होती नजर आ रही हैं। 15वीं लोकसभा का चुनाव जयंत चौधरी जाट-ब्राह्मण गठजोड़ में राजपूत व अन्य जातियों के सहयोग से आसानी से निकाल ले गए थे। इस बार हेमा मालिनी के सियासी जंग में कूदने से यह जातियों का तानाबाना टूटता नजर आ रहा है। ड्रीम गर्ल के सियासी जादू ने अन्य दलों के प्रत्याशियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। वैसे भी मथुरा में धार्मिक आयोजनों से हेमा मालिनी का नाता पहले से जुड़ा रहा है। उनका दावा है कि इस बार वह ब्रज भूमि की सेवा के लिए सियासत के मैदान में है। हालांकि मथुरा-वृंदावन, मांट, छाता, गोवर्धन व बलदेव विधानसभाओं को मिलाकर बनी मथुरा लोकसभा सीट पर प्रमुख जंग भाजपा की हेमा मालिनी और रालोद के जयंत चौधरी के बीच ही होनी है। लेकिन बसपा के योगेश द्विवेदी, सपा के चंदन सिंह जातिगत समीकरण के भरोसे पर अपनी जीत के समीकरण फिट करने में जुटे हैं।
वोटरों का चक्रव्यूह
16 लाख 25 हजार मतदाताओं के चक्रव्यूह से घिरी इस लोकसभा सीट पर सवा सात लाख महिला वोटरों की अच्छी खासी धमक हैं। जातिगत समीकरण की दृष्टि से देखा जाए तो सर्वाधिक करीब 3.50 लाख जाट, तीन लाख ब्राह्मण, 2.75 लाख राजपूत, 2.50 लाख ओबीसी, 1.75 लाख वैश्य और करीब सवा-सवा लाख से कुछ ज्यादा मुस्लिम व दलित मतदाता इस सीट की इबारत लिखते आए हैं। रालोद प्रत्याशी जयंत चौधरी जाट बाहुल इलाके को अपना गढ़ बनाना चाहते हैं, लेकिन जिस तरह से हेमा मालिनी के चुनाव प्रचार में फिल्म कलाकार धर्मेन्द और सनी व बॉबी दओल को बुलाने की मांग चौतरफा उठ रही है तो जातीय समीकरण का भ्रम तो टूटना ही है। भाजपा प्रत्रूाशी हेमा मालिनी के चुनाव प्रचार में धर्मेन्द का शामिल होना तय है। इस सीट पर 24 अप्रैल को चुनाव होना है।
यमुना की सबसे बड़ी पीड़ा
मथुरा से भाजपा प्रत्याशी घोषित होने के बाद जैसे ही हेमा मालिनी ने मथुरा की धरती पर कदम रखा तो इस इलाके के लोगों की यमुना की पीड़ा उनके सामने फूटकर सामने आई। तो उन्होंने यमुना प्रदूषण मुद्दे पर ब्रज की प्राचीन धरोहर, कुंड, सरोवर एवं वनों का सौंदर्यकरण व संरक्षण को तरजीह देने का संकल्प किया। इसके लिए उन्होंने राज्यसभा सांसद निधि से जूहू बीच को प्रदूषण मुक्त कराने का उदाहरण भी दिया। दरअसल उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीट मथुरा से कान्हा का जो रिश्ता है, उसी तरह का रिश्ता यमुना से भी रहा है जो इस लोकसभा सीट के चार विधानसभा क्षेत्रों बलदेव, मथुरा, छाता और मांट से सटकर बहती है, केवल गोवर्धन ही यमुना नदी से अलग है। यमुना का मुद्दा चुनाव में इसलिए उभरा है कि आध्यात्म के इतिहास में कान्हा ने तो कालिया नाग को नाथ कर यमुना को जहरीला होने से बचा लिया, लेकिन सियासत की जंग जीत चुके रहनुमाओं ने यमुना के प्रदूषण की समस्या का छुआ तक नहीं है।
ब्रज के मुख्य मुद्दे
लोकसभा चुनाव में ब्रजभूमि मथुरा के लोगों की सबसे बड़ी पीड़ा यमुना प्रदूषण की है, जिसके कारण 80 प्रतिशत इलाके में शुद्धपेय जल की समस्या बनी हुई है। बुनियादी सुविधाओं के अलावा सड़कों का निर्माण जैसे विकास के मुद्दे भी शामिल है। भाजपा की प्रत्याशी हेमामालिनी ने इन मुद्दों को जहन में रखते हुए चुनाव प्रचार को हवा दे दी है और वहीं उन्होंने लोगों को भरोसा दिलाया है कि भाजपा के सत्ता में आने पर मथुरा को राष्टÑीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में शामिल कराया जाएगा।
मुकाम तक नहीं पहुंच पाए जयंत
यमुना नदी के प्रदूषण की पीड़ा झेल रहे मथुरा के आम लोगों की ओर से यमुना को 1983 से ही जीवन देने की लड़ाई लड़ रहे बृज लाइफ लाइन वेलफेयर के महेन्द्र नाथ चतुवेर्दी की माने तो यूपी, दिल्ली और हरियाणा राज्य में यमुना के किनारे वाले क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों और उनकी पार्टी केअध्यक्षों समेत अब तक कुल 242 लोगों को 30 से 35 पृष्ठों वाले प्रार्थना पत्र देकर उसमें नदी की दुर्दशा का ब्योरा दिया जाता रहा है, लेकिन किसी ने जवाब देने तक की जहमत नहीं उठाई। हालांकि यमुना के मुद्दे पर रालोद सांसद जयंत चौधरी ने लोकसभा में एक निजी बिल जरूर पेश किया, लेकिन केंद्र की यूपीए सरकार ने इस निजी बिल को रद्दी की टोकरी ही दिखाई जिसके कारण जयंत भी इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाए।
31March-2014

रविवार, 30 मार्च 2014

टॉप-5:-सर्वाधिक वोटरों वाली आंध्र की मल्काजगिरी सीट

यूपी की सबसे ज्यादा मतदाताओं वाली सीटों में शामिल गाजियाबाद 
दावं पर लगी दिग्गजों की प्रतिष्ठा!
ओ.पी. पाल 
लोकसभा चुनाव में देशभर में टॉप-5 संसदीय सीटों में गाजियाबाद संसदीय सीट दूसरे पायदान है, जहां सर्वाधिक मतदाताओं का चक्रव्यूह बना हुआ है। उत्तर प्रदेश की हॉट सीट के रूप मानी जा रही गाजियाबाद सीट पर दिग्गजों की प्रतिष्ठा दावं पर लगी हुई है। नॉर्थ वेस्ट दिल्ली सीट भी इसी फेहरिस्त में शामिल है। हालांकि देश में सबसे टॉप पर आंध्र प्रदेश की मल्काजगिरी लोकसभा सीट हैं जहां देश का सर्वाधिक 29.54 लाख मतदाताओं को वोट का अधिकार है।
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक लोकसभा की 543 सीटों के लिए देशभर में करीब 81.46 करोड़ मतदाता है, जिसमें 2.32 करोड़ से ज्यादा नये युवा मतदाता इस बार पहली बार मतदान करने बूथों पर जाएंगे। वैसे तो सर्वाधिक 13.43 करोड़ से भी ज्यादा वोटर उत्तर प्रदेश की 80 सीटों का फैसला करने के लिए हैं। नए मतताओं की संख्या 38.14 लाख से ज्यादा है, जबकि पौने 61 लाख महिलाओं के मत भी निर्णायक हैं। यूपी की सबसे ज्यादा मतदाताओं वाली सीट गाजियाबाद हैं, जहां राज्य में सबसे ज्यादा 22,63,961 मतदाता हैं, तो बागपत लोकसभा सीट ऐसी हैं जहां यूपी में सबसे कम 14,63,902 वोटर हैं। बनारस के बाद गाजियाबाद हॉट सीट के रूप देखी जा रही हैं, जहां बड़े दलों के दिग्गजों की प्रतिष्ठाएं दावं पर लगी हैं। कांग्रेस ने यहां से ग्लैमर का तड़का देते हुए सांसद राज बब्बर को चुनाव मैदान में उतारा है, तो भाजपा ने पूर्व थल सेनाध्यक्ष रहे वीके सिंह पर दावं खेला है। सत्तारूढ़ दल सपा के के सूदन रावत तो बसपा के मुकुल उपाध्याय अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने इस सीट पर अपना दावा करते हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में बाजी हारने वाली शाजिया इल्मी को चुनाव मैदान में उतारा है। वैसे इस सीट पर 16 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। अब देखना है कि इस विशाल मतदाताओं के चक्रव्यूह को कौन सा दल कितने दम से भेदता है, जहां दस अप्रैल को मतदान होना है। यूपी के दूसरे पायदान पर उन्नाव लोकसभा सीट है जहां इसके बाद सर्वाधिक 21,10, 388 मतदाओं का जाल बिछा हुआ है। इस सीट पर बसपा प्रमुख मायावती की प्रतिष्ठा दांव पर है, जहां बसपा प्रत्याशी के रूप में राज्यसभा सांसद ब्रजेश पाठक चुनाव मैदान में है, जिन्हें भाजपा के हरिकिशन महाराज, कांग्रेस की अन्नू टंडन, सपा की अरूणा शंकर तथा आप के अरविंद कुमार चुनौती दे रहे हैं।
नॉर्थ वेस्ट दिल्ली
दिल्ली की सात लोकसभा सीटों के करीब 1.20 करोड़ मतदाओं में देश की टॉप-5 मतदाताओं वाली सीटों में नॉर्थ वेस्ट दिल्ली लोकसभा सीट भी शामिल हैं, जहां 20,93,922 वोटर के चक्रव्यूह को भेदने के लिए प्रमुख दलों ने अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा रखा है। इस सुरक्षित सीट पर भाजपा ने हाल ही में पार्टी में दाखिल हुए उदित राज को अपना प्रत्याशी बनाया है, तो वहीं कांग्रेस की केंद्रीय मंत्री कृष्णा तीरथ को फिर से आजमाया है। वहीं राजनधानी में सक्रीय आम आदमी पार्टी ने इस सीट पर विवादों से घिरी रही दिल्ली की पूर्व मंत्री राखी बिडलान को चुनाव मैदान में उतारा है। हालांकि इस सीट पर बसपा ने भी बसंत पवार के रूप में चुनावी दावं खेला है।
इस सीट पर सर्वाधिक मतदाता
जहां तक लोकसभा सीटों पर सर्वाधिक मतदाताओं का सवाल है उसमें टॉप-5 सीटों में आंध्र प्रदेश की मल्काजगिरी संसदीय सीट हैं , जहां 29,53,९१५ मतदाताओं के नाम सूचीबद्ध हैं। इनमें 18-19 साल के नए मतदाताओं का प्रतिशत भी 3 फिसदी से ज्यादा है। मतदाताओं की संख्या के आधार वाली सबसे बड़ी इस सीट पर अभी किसी भी दल ने अपने प्रत्याशी नहीं उतारे हैं। इसके अलावा 28 सीट वाले कर्नाटक की बंगलूरू नॉर्थ सीट इस आधार पर तीसरे पायदान पर है, जहां 22,29,063 मतदाता हैं। इस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री सदानंद गौडा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है।
सबसे कम मतदाता
देश में वैसे तो न्यूनतम मतदाताओं वाली टॉप-5 लोकसभा सीटों में लक्ष्यद्वीप है, जहां केवल 47,972 ही मतदाता हैं, जिनमें 20.53 युवा और 49.73 महिलाएं मतदाता शामिल हैं। इसके बाद दमन एंड द्वीव सीटा पर 1.02 लाख, जम्मू-कश्मीर की लद्धाख सीट पर 1.60 लाख, दादर एवं नागर हवेली सीट पर 1.58 लाख तथा अंडमान निकोबार द्वीप समूह सीट पर 2.58 लाख मतदाओं का चक्रव्यूह हैं। इनके अलावा देश की अन्य सभी सीटों पर इनसे ज्यादा वोटर हैं। मतदाताओं की संख्या के आधार पर 5 सबसे बड़े संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं की कुल संख्या पांच सबसे छोटे संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं की कुल संख्या का 15.4 गुणा अधिक पाई गई है।
30March-2014

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

पश्चिमी यूपी: गफलत में हैं सियासी जंग के योद्धा !

मतदाताओं से अभी नहीं हटी खामोशी की चादर
ग्लैमर के तड़के से भी बढ़ी पार्टियों की मुश्किलें
ओ.पी. पाल

लोकसभा चुनाव के महासंग्राम का बिगुल बजते ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश की दस लोकसभा सीटों पर भाजपा, कांग्रेस-रालोद, सपा, बसपा के उम्मीदवारों की प्रतिष्ठा दांव पर है। दंगों के कारण बिगड़े सियासी समीकरणों को समेटने के मामले में शायद इन सीटों पर चुनावी जंग में उतरे सभी दलों के प्रत्याशी गफलत में हैं। इसी गफलत का कारण माना जा रहा है कि कांग्रेस-रालोद ने भाजपा के रथ को रोकने के लिए फिल्मी सितारों पर भी दावं खेला है, जिन्हें अपने दलों के नेताओं से भी दो-चार होना पड़ रहा है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश को रालोद अपना राजनीति गढ़ मानता रहा है, लेकिन पिछले दिनों मुजफ्फरनगर व आसपास के दंगों ने उसके सियासी समीकरण को बिगाड़ दिया था, जिन्हें संभालने के लिए रालोद प्रमुख को यूपीए सरकार से जाट आरक्षण की मंजूरी दिलाने का सहारा लेना पड़ा, लेकिन रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह जाट आरक्षण के मोहरे से भी अभी तक जाट-मुस्लिम गठजोड़ को पुनर्जिवित नहीं कर पाए हैं। यही कारण है कि उन्हें स्वयं अपनी बागपत लोकसभा सीट पर अग्नि परीक्षा देना पड़ रहा है, जहां उनका मुकाबला भाजपा के सत्यपाल सिंह से होना है। जबकि अजित को बसपा ने प्रशांत चौधरी व सपा ने विधायक गुलाम मोहम्मद से भी दो-चार होना पड़ सकता है। जहां तक मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट का सवाल हैं, वहां भाजपा ने जाट प्रत्याशी के रूप में संजीव बालियान को उतारा है, जहां कांग्रेस को अपना प्रत्याशी बदलकर वैश्य समाज से ताल्लुक रखने वाले नगरपालिका चेयरमैन पंकज अग्रवाल को उम्मीदवार बनाना पड़ा है। जबकि बसपा ने मौजूदा सांसद कादिर राणा को मुस्लिम-दलित गठजोड़ के सहारे फिर मौका दिया है, जबकि सपा ने यूपी में पूर्व मंत्री रहे वीरेन्द्र सिंह गर्जुर पर दांव खेला है, लेकिन दंगों की आंच ठंडी न होने के कारण इस सीट का चुनाव निश्चित रूप से धु्रवीकरण पर होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मेरठ में भाजपा ने अपने मौजूदा सांसद राजेन्द्र अग्रवाल को प्रत्याशी बनाया है, जो कांग्रेस ने पैराशूट से फिल्मी अदाकारा नगमा को सियासी जंग में उतार दिया है, जिससे टिकट की लाइन में लगे अपनों से ही दो-चार होना पड़ रहा है। जबकि सपा प्रत्याशी शाहिद मंजूर व बसपा प्रत्याशी हाजी शाहिद अखलाक इस मुकाबले में आने की जुगत में है। गाजियाबाद में भाजपा के वीके सिंह को चुनौती देने क लिए कांग्रेस ने सांसद एवं फिल्म कलाकर रहे राज बब्बर को सियासी जंग में उतारा है, जहां बसपा के मुकुंद उपाध्याय और सपा के सूदन रावत से कहीं ज्यादा आम आदमी पार्टी की शाजिया इल्मी मुकाबले में बने रहने की जुगत में हैं। जबकि बिजनौर लोकसभा सीट पर रालोद ने रामपुर से सांसद रही जयाप्रदा को प्रत्याशी बनाकर ग्लैमर का तड़का लगाने का प्रयास किया है, लेकिन मौजूदा रालोद सांसद संजय सिंह चौहान का टिकट कटने से रालोद को उसके समर्थकों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जबकि भाजपा ने कमजोर माने गये राजेन्द्र सिंह के स्थान पर बिजनौर के विधायक और दंगों में चर्चित रहे भारतेंदु सिंह को प्रत्याशी बनाकर कांग्रेस-रालोद के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है। जबकि बसपा प्रत्याशी मलूक नागर भी मजबूती के साथ चुनाव लड़ रहे हैं तो सपा के टिकट पर शाहनवाज राणा सियासत की जंग में चुनावी गणित की कसौटी पर हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हॉट सीटों में गिनी जाने वाली शामली जिले की कैराना लोकसभा सीट पर भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेता और यूपी में मंत्री रह चुके बाबू हुकुम सिंह को चुनाव मैदान में उतारकर दंगों से बिगड़े समीकरण पर दांव खेला है। जहां भाजपा के मुकाबले में रालोद प्रत्याशी करतार सिंह भड़ाना गुर्जर जाति के वोटबैंक में सेंध लगाकर कांग्रेस गठजोड़ के साथ जीतने की फिराक में है। इनके अलावा दस अप्रैल को बुलंदशहर, गौतमबुद्धनगर, सहारनपुर व अलीगढ़ संसदीय सीटों पर चुनाव होना है, जहां सभी दल ताल ठोक रहे हैं। ऐसी स्थिति में वैसे तो सभी दल अपनी-अपनी जीत के दावे ठोकते हुए हर हथकंडे अपना रहे हैं, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अभी तस्वीर धुंधली ही है।
फिर हरे हुए दंगों के घाव
सुप्रीम कोर्ट के बुधवार को एक निर्णय में मुजफ्फनगर दंगों के लिए सपा की यूपी सरकार को जिम्मेदार बताया है। कोर्ट की इस टिप्पणी से लोकसभा के शुरू हुए महासंग्राम के बाद ठंडी होती जा रही आंच को फिर हवा मिली है और सपा के खिलाफ प्रमुख दल इसे चुनावों में जनता के बीच मुद्दा बनाने में कोई चूक नहीं करेंगे। इससे पहले दंगा पीड़ितों ने यहां तक ऐलान कर दिया है कि वे चुनाव का बहिष्कार करेंगे, लेकिन ज्यादातर दल उनकी मान-मन्नौवल में जुटे हुए हैं।
27March-2014

बुधवार, 26 मार्च 2014

लोकसभा चुनाव : इस बार चुनावों पर भारी हो सकता है वोटर !

फ्लैशबैक:  पिछले 15 आम चुनाव में कभी नहीं पड़ा 64 फिसदी से ज्यादा वोट
ओ.पी. पाल 
 
सोलहवीं लोकसभा के लिए जिस प्रकार से सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए राजनीतिक दलों पर शिकंजा कसता रहा है। वहीं चुनाव आयोग मतदाताओं को जागरूक करने के लिए लगतार अभियान चला रहा है, तो सियासत के इस महासंग्राम रूपी हवन कुंड में खासकर नए और युवा वोटर आहुति डालने में पीछे रहने वाला नहीं है। चुनाव आयोग के अभियान और इस बदलते राजनीतिक परिदृश्य के बीच ऐसी संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस बार वोटर पिछली पन्द्रह लोकसभा के चुनाव में हुए मतदान के सभी रिकार्ड ध्वस्त करेगा।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सियासी महासंग्राम में सोलहवीं लोकसभा के गठन के उत्सव जारी है और पिछले कुछ सालों में चुनावी प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण बदालव के साथ सुप्रीम कोर्ट का भी दखल सामने आया है। अभी तक के चुनावों में हमेशा सवाल उठते रहे हैं कि आखिर देश का अधिकांश हिस्सा अपने मूल अधिकार का इस्तेमाल करके लोकतंत्र के उत्सवों में हिस्सा क्यों नहीं लेता,जिसके कारण अभी तक एक भी बार आम चुनाव में वोट का प्रतिशत 64 प्रतिशत के आंकड़े को भी पार नहीं कर पाया है। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस प्रकार वोटरों ने जिस गुस्से का इजहार करके वोट करके मतदान प्रतिशत को 63.56 तक पहुंचाया था वह अभी तक रिकार्ड मतदान है। हालांकि राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि देश में लोकसभा के गठन के बाद अभी तक बनती आई सरकारों को देश की 15 प्रतिशत से कुछ ज्यादा लोगों का ही समर्थन मिलता नजर आया है। चुनाव प्रक्रिया में आए बदलाव के तहत बैलट पेपरों के स्थान पर आई इलेक्ट्रॉनिक्स वोटिंग मशीनों ने मतदाताओं के रूझान में जान फूंकी है और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद पिछले साल ही इस वोटिंग मशीन में नोटा यानि कोई पसंद नहीं है का बटन भी विद्यमान हो गया है। ऐसे में नेताओं से मोहभंग रखने वाले मतदाता भी नोटा बटन का उपयोग करने के लिए मतदान केंद्रों पर जाने लगे हैं। ऐसे में संभावना बढ़ गई है कि इस बार लोकसभा चुनाव में मतदान करने वालों की तादाद बढ़कर सामने आएगी। वैसे भी 2.32 करोड़ से ज्यादा मतदाता इस बार पहली बार वोट की चोट करने के लिए सामने आ गया है।
आठवीं लोस में था सर्वाधिक मतदान
देश की आजादी के बाद अभी तक हुए 15 लोकसभा चुनाव के मतदान के रूझान पर नजर डालें तो वर्ष 1984-85 में आठवीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के दौरान सर्वाधिक 63.56 प्रतिशत मतदान किया गया था, जिसमें में महिलाओं का मतदान प्रशत भी सर्वाधिक 58.60 रहा। इसके बाद वर्ष १९८९ में नौवीं लोकसभा की 529 सीटों के लिए हुए मतदान में 61.95 प्रतिशत और 1998 में 12वी लोकसभा के 61.97 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला। जबकि इससे पहले वर्ष 1967 में चौथी लोकसभा की 520 सीटों के लिए हुए चुनाव में 61.33 फीसदी मत पड़े थे। वहीं आपातकाल के कारण 1977 के चुनाव में भी वोटरों ने ६० प्रतिशत से ज्यादा वोट करके सत्ता परिवर्तन किया था। इनके अलावा अन्य किसी भी आम चुनाव में वोटिंग 60 प्रतिशत के आंकड़े को नहीं छू पाई। प्रथम चुनाव के दौरान 1952 में 364 सीटों के लिए 44.84 प्रतिशत मतदान किया गया था, तो पिछले चुनाव में 15वीं लोकसभा के चुनाव में 58.73 प्रतिशत वोट डाले गये थे। देश की दूसरी लोकसभा के गठन के लिए 1957 में 490 सीटों के लिए चुनाव हुआ था। 1962 में 494 सीटों पर 55.42 प्रतिशत के अलावा 1971 में 55.29 प्रतिशत, 1980 में 56.92 प्रतिशत, 1991-92 में 56.93 प्रतिशत, 1996 में 57.94 और चौदवीं लोकसभा के लिए वर्ष 2004 में 57.65 प्रतिशत वोट ही डाले जा सके थे।
26March-2014

मंगलवार, 25 मार्च 2014

चौबीस साल से 10 निर्दलीय भी नहीं पहुंच पाए लोकसभा !

 फ्लैशबैक:आठवीं लोकसभा में सर्वाधिक 71 प्रतिशत आजाद उम्मीदवारों ने लड़ी सियासी जंग
ओ.पी. पाल

लोकसभा में बिना किसी राजनीतिक दल के सहारे आजाद उम्मीदवार के रूप में लोकसभा में पहुंचने वाले सांसदों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है।पिछले छह लोकसभा यानि चौबीस साल से लोकसभा में निर्दलीय सांसदों की संख्या एक भी बार दहाई का अंक पार नहीं कर सकी है। भाजपा छोड़कर निर्दलीय चुनावी समर में उतरने का फैसला करने वाले जसवंत सिंह और लालमुनि चौबे सहित अन्य नेताओं को ये खबर भले ही अच्छी न लगे, मगर सच्चाई यही है।
भारतीय लोकतंत्र के महासंग्राम में सियासत करने की कोई मनाही नहीं हैं, लेकिन बीते जमाने में जब राजनीतिक दल भी गिनती के थे तो निर्दलीय प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमाते थे ओर अपने रसूख और छवि के आधार पर जीतकर लोकसभा भी पहुंचते रहे हैं, लेकिन जैसे-जैसे राजनीतिक दलों के नाम फिल्मों के नामों की तरह बढ़ते गये ऐसे ही लोकसभा में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या घटती गई। नौबत यहां तक पहुंची की पिछले 15वीं लोकसभा के चुनाव में महज सात सांसद ही निर्दलीय रूप से निर्वाचित होकर लोकसभा में पहुंचे। 15वीं लोकसभा में निर्वाचित सात निर्दलीय सांसदों की बात करें तो बिहार से बांका से श्रीमती पुतुल कुमारी व बांका से ओमप्रकाश यादव आजाद उम्मीदवार के रूप में जीतकर संसद के द्वार तक आए। झारखंड से सिंहभूमि सीट से मधुकोडा और चतरा से इन्दर सिंह नामधारी के अलावा जम्मू-कश्मीर के लद्दाख से हसन खान, पश्चिम बंगाल की जयनगर सीट से डा. तरूण मंडल और महाराष्ट्र  की कोल्हापुर सीट से सदाशिव मांडलिक निर्दलीय रूप से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ने के बाद निर्दलीय प्रत्याशियों में कमी आई है।
99 फीसदी निर्दलयों की जमानतजब्त
पन्द्रहवीं लोकसभा के लिए सियासी जंग में राजनीतिक दलों समेत कुल कुल 8070 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे, जिनमें से 3831 यानि 47 प्रतिशत प्रत्याशियों ने निर्दलीय रूप से अपनी किस्मत आजमाई, लेकिन सात प्रत्याशियों का भाग्य ही लोकसभा तक पहुंचने में साथ दे सका। इस चुनाव में ९९ प्रतिशत निर्दलीय प्रत्याशियों को अपनी जमानत राशि जब्त कराने के लिए मजबूर होना पड़ा। हालांकि इनके समेत कुल 6829 उम्म्ीदवार जमानत गंवाने वालो की फेहरिस्त में शामिल रहे। जमानत जब्त कराने वाले उम्मीदवारों की सर्वाधिक तादाद उत्तर प्रदेश से थी, जहां 80 सीटों के लिए चुनाव मैदान में आए 1368 में से 1155 उम्मीदवारों की जमानते जब्त हुई थी।
दूसरी लोकसभा में रहा बेहतर प्रदर्शन
देश के पहले लोकसभा के लिए वर्ष 1952 के चुनाव में 533 में से 37 निर्दलीय सांसद लोकसभा में थे, जिससे उत्साहित दूसरी लोकसभा के लिए वर्ष १९५७ के चुनाव में ज्यादा आजाद उम्मीदवारों ने अपनी किस्मत आजमाई और 42 निर्वाचित होकर लोकसभा में दाखिल हुए। हालांकि 1962 में हुए तीसरे लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रदर्शन फ्लाप रहा, जहां लोकसभा में इन सांसदों की संख्या आधे से भी कम 20 ही रह गई। जबकि चौथी लोकसभा में निर्दलीय सांसदों की संख्या ने एक बार फिर उभार लिया और 35 आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। यही कारण था कि वर्ष 1971 के 5वें लोकसभा चुनावों में और निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या तो बढ़ी, लेकिन लोकसभा में महज 14 ही सांसद पहुंचे और 94 प्रतिशत ने अपनी जमानत राशि तक गंवा दी। छठी लोकसभा का चुनाव में तो निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या राजनीतिक दलों से भी ज्यादा थी और सातवीं लोकसभा के वर्ष 1980 में तो 61 प्रतिशत प्रत्याशियों ने निर्दलीय रूप से ही चुनाव लड़ा। आठवीं लोकसभा के चुनाव में निर्दलीयों का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का आंकड़ा 71 प्रतिशत तक जहां पहुंचा। लेकिन नौवीं लोकसभा में 12 निर्दलीय सांसद थे उसके बाद नौबत यहां तक पहुंची कि उसके बाद लगातार छह लोकसभा चुनाव में अभी तक निर्दलीय सांसदों की संख्या दहाई का अंक हासिल नहीं कर पाई है।
25March-2014

सोमवार, 24 मार्च 2014

हारते-हारते लोकसभा पहुंचे 114 सांसद!

फ्लैशबैक: 120 निर्वाचित सांसदों को मिले थे 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट
ओ.पी. पाल
पिछले आम चुनाव की राजनीति में जहां 29 सांसद तीस फिसदी वोट लेकर भी लोकसभा में दाखिल हुए थे, वहीं 114 सांसद अपने प्रतिद्वंद्वी से हारते-हारते निर्वाचित होकर लोकसभा तक पहुंचे थे। जबकि 120 सांसदों ने 50 प्रतिशत से ज्यादा मत लेकर जीत हासिल की थी।
पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव की नतीजे भी कई तरह के राजनीतिक इतिहास रचने के लिए चर्चा में रहे, जिसमें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल रहे बेनी प्रसाद वर्मा, सलमान खुर्शीद और प्रदीप जैन समेत 29 सांसदों को महज तीस प्रतिशत से कम वोट मिलने पर ही जीत मिल गई थी। ऐसा ही रोचक तथ्य उन ११४ सांसदों के लिए सटीक होता है जो तीन प्रतिशत के अंतर से जीत हासिल कर निर्वाचित हुए। मसलन इन सांसदों के लिए यह कहा जा सकता है कि ये हारते-हारते निर्वाचित होकर लोकसभा में दाखिल हुए, इनमें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल रहे पी. चिदंबरम, जयपाल रेड्डी, सुबोधकांत सहाय,दीनशा पटेल, कुमारी सैलजा, मलिकार्जुन खरगे, वीरभद्र सिंह, प्रो. केवी थॉमस जैसे सरीखे नेता भी शामिल रहे। चिदंबरम को निर्वाचित करने का मामला तो अभी तक अदालत में विचाराधीन है। तीन प्रतिशत से कम के अंतर से जीत हासिल करने वाले सांसदों में सर्वाधिक 19 सांसद उत्तर प्रदेश के हैं। जबकि छत्तीसगढ़ के चार, मध्य प्रदेश के आठ और हरियाणा के दो सांसदों के नाम इस फेहरिस्त में शामिल हैं। इनके अलावा आंध्र प्रदेश से 11, गुजरात, महाराष्ट्र  व कर्नाटक के नौ-नौ, बिहार, झारखंड व पंजाब के चार-चार सांसद ऐसी स्थिति में निर्वाचित हुए थे। तमिलनाडु से पी. चिदंबरम समेत सात, राजस्थान व पश्चिम बंगाल से तीन-तीन, केरला से छह, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड के अलावा गोवा, अरूणाचल व अंडमान निकोबार द्वीप समूह से एक-एक सांसदलोकसभा में पहुंचे।
छत्तीसगढ़ राज्य की बिलासपुर लोकसभा सीट से भाजपा के दिलीप सिंह जूदेव को रेणु जोगी से केवल 2.62 प्रतिशत वोटों से ही जीत मिली थी। इसी प्रकार दुर्ग से भाजपा की सरोज पांडे ने कांग्रेस के प्रदीप चौबे के मुकाबले 1.10 प्रतिशत वोट ज्यादा लेकर लोकसभा में दस्तक दी, तो कांकेर सीट से कांग्रेस की फूलोदेवी नेताम को भाजपा ने 2.60 प्रतिशत से मात दी थी। इसके अलावा कोरबा सीट से भाजपा की करूणा शुक्ला कांग्रेस के डा. चरणदास महंत से मात्र 2.78 प्रतिशत वोट के अंतर से पराजित हो गई थी। दिलीप सिंह जूदेव का पिछले साल निधन हो गया है।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सज्जन कुमार वर्मा ने देवास सीट से भाजपा के थांवरचंद गहलोत को 1.97 फिसदी मतों से हराया था, जबकि धार सीट से कांग्रेस के गजेन्द्र सिंह राजूखेडी मात्र 0.41 वोटों से भाजपा प्रत्याशी मुकम सिंह किरदे को हराने में कामयाब रहे थे। हौसंगाबाद में कांग्रेस के उदयप्रताप सिंह 2.71 प्रतिशत, इंदौर से भाजपा की सुमित्रा महाजन 1.44 प्रतिशत, रीवा से बसपा के देवराज सिंह पटेल 0.67 प्रतिशत, सतना से भाजपा के गणेश सिंह 0.67 प्रतिशत, शहडोल से कांग्रेस की राजेश नंदिनी सिंह 2.13 प्रतिशत तथा उज्जैन से कांग्रेस के गुड्डु प्रेमचंद 2.37 प्रतिशत के अंतर से जीतकर लोकसभापहुंचे थे। हरियाणा की अंबाला सुरक्षित सीट से कांग्रेस की कुमारी सैलजा ने भाजपा के रतनलाल कटारियों को महज 1.68 फिसदी वोटों के अंतर से हराया था। जबकि हिसार लोकसभा सीट से हजकां के भजनलाल ने इनेलो के संपत सिंह को महज 0.84 प्रतिशत वोटों के अंतर से मात देकर जीत हासिल की थी।
इन्हें मिले थे 50 फिसदी से ज्यादा मत
15वीं लोकसभा के चुनाव में 543 सीटों 120 सांसद यानि 22.09 प्रतिशत ऐसे भी थे, जिन्हें कुल मतदान का 50 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा मिला था। ऐसे सांसदों में छत्तीसगढ़ के दो, मध्य प्रदेश के सात, हरियाणा का एक सांसद शामिल है। इसके अलावा पश्चिमी बंगाल के 21, महाराष्ट्र के 10, उत्तर प्रदेश के नौ, गुजरात व केरल के आठ-आठ, दिल्ली के छह, कर्नाटक व ओडिसा के पांच-पांच, बिहार, के चार, पंजाब व तमिलनाडु के तीन-तीन, हिमाचल प्रदेश व त्रिपुरा के दो-दो तथा अन्य राज्यों के एक-एक सांसद शामिल रहे हैं।
24mARCH-2014

रविवार, 23 मार्च 2014

बनारस सीट को लेकर असमंजस में कांग्रेस!

कर्ण सिंह हो सकते हैं मोदी के खिलाफ प्रत्याशी
ओ.पी. पाल

लोकसभा चुनाव में धार्मिकनगरी बनारस से चुनाव मैदान में भाजपा की ओर से पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के आने से यह संसदीय सीट देश में सबसे हॉट सीट के रूप में देखी जा रही है, जहां मोदी को चुनौती देने के लिए उम्मीदवार तय करने के लिए कांग्रेस अभी तक असमंजस की स्थिति में है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार कांग्रेस डा. कर्ण सिंह को मोदी को चुनौती देने के लिए बनारस से प्रत्याशी बना सकती है? कांग्रेस के सूत्रों की माने तो कांग्रेस बनारस लोकसभा सीट को बेहद गंभीरता से ले रही है और वहां ऐसे नेता को उम्मीदवार के रूप में लाना चाहती है,जिसकी छवि बेहद सम्मानजनक रूप में देखी जाती हो। ऐसे में कांग्रेस की नजरे राज्यसभा सांसद डा. कर्णसिंह पर है जिनकी नरम हिंदूवादी और बुद्धिजीवी की छवि भाजपा के वोट बैंक पर सेंधमारी कर सकती है। हालांकि ईमानदारी को स्वंभू प्रमाणपत्र लेकर राजनीति के मैदान में उछल-कूद कर रहे आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल पहले ही नरेन्द्र मोदी को बनारस में चुनौती देने का दम भरने का दावा करते आ रहे हैं, जिन्हें 25 मार्च को बनारस में रायशुमारी करने जाना है। डा. कर्ण सिंह पर दावं खेलकर कांग्रेस भाजपा उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को चित्त करने की फिराक में है, हालांकि कांग्रेस की मोदी को टक्कर देने उम्मीद कर्णसिंह की छवि पर टिकी हुई है, लेकिन लोकसभा चुनाव में मोदी के इस सीट पर आ जाने से बनारस सीट उस सियासी रण का मैदान बन गया है, जहां दिलचस्प मुकाबला होने की उम्मीद है। हालांकि सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस ने अभी तक यूपी के इलाहाबाद और बनारस सीट के प्रत्याशी घोषित करने से पहले आप के अरविंद केजरीवाल के रूख को देखने का मन बनाया है, जिसके बाद पार्टी इन सीटों पर अंतिम निर्णय करेगी। इसके बावजूद कांग्रेस यह मानकर चल रही है कि साफ छवि और ख्याति प्राप्त शिक्षण संस्थानों से बेहद जुड़ाव रखने वाले डा. कर्ण सिंह ही ऐसे बेहतर प्रत्याशी हो सकते हैं जिन्हें बनारस में मध्यवर्ग और बुद्घिजीवियों का समर्थन मिल सकता है।
चार सीटें अभी खालीउत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से कांग्रेस ने 8 सीटें रालोद और तीन सीटें महान दल के लिए छोड़ी हैँ, शेष 69 सीटों पर कांग्रेस अपने बलबूते पर चुनाव मैदान में है। कांग्रेस अभी तक यूपी में 65 प्रत्याशियों का ऐलान कर चुकी है, लेकिन चार सीटें अभी खाली हैं, जिनमें बनारस व इलाहाबाद भी शामिल हैं। इसके अलावा कांग्रेस ने अभी तक बदायूं व एटा के प्रत्याशी का भी ऐलान नहीं किया है, जहां समाजवादी पार्टी का वर्चस्व है। सूत्रों की माने तो कांग्रेस यूपी में सत्तारूढ समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव व उनकी बहू डिंपल यादव के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने के मूड़ में नहीं है। कांग्रेस की उलझन लोकसभा चुनाव में कम नहीं है, जिसमें लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस के कई दिग्गज मोदी का मुकाबला करने का दावा कर रहे हैं, लेकिनकांग्रेस में ही ऐसे नेताओं की भी भरमार है जिन्हें इन चुनावों में कांग्रेस की उम्मीदें तार-तार होती दिख रही है और वे चुनाव लड़ने से कतरा रहे है। कांग्रेस के ऐसे कई दिग्गज तो पार्टी हाईकमान की फटकार के बाद चुनाव मैदान में वापस लौटने के लिए मजबूर हुए हैं।
23March-2014

पन्द्रहवीं लोकसभा में सांसद बनी सर्वाधिक महिलाएं

पन्द्रहवीं लोकसभा में सांसद बनी सर्वाधिक महिलाएं
हरिभूमि ब्यूरो. नई दिल्ली।

देश में आजादी के बाद अभी तक चौदहवीं लोकसभा के चुनाव ऐसे रहे जिनमें ज्यादातर दलों ने महिलाओं को उम्मीदवार बनाया और इसी चुनाव में सबसेज्यादा 59 महिलाएं सांसद निर्वाचित होकर लोकसभा में दाखिल हुई।
वर्ष 2009 के आम चुनाव में पन्द्रहवीं लोकसभा के लिए 543 सीटों के लिए कुल 8070 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा, जिनमें 556 महिलाएं शामिल थी। राष्ट्रीय दलों समेत 134 दलों ने महिलाओं की उम्मीदवारी को तरजीह दी और महिलाओं को भी चुनाव मैदान में लाकर सियासी जंग लड़ी, लेकिन 556 में से लोकसभा में केवल 59 महिलाएं पहुंची, जो आजाद भारत में सर्वाधिक संख्या रही। जहां तक पिछले लोकसभा चुनाव में महिलाओं को टिकट देने का सवाल है उसमें 27 महिलाओं ने राज्य स्तरीय दलों से अपनी किस्मत आजमाई, जबकि 207 महिलाएं निर्दलीय रूप से चुनाव मैदान में थी। शेष महिलाएं अन्य दलों से थी। भाजपा ने 44 तो कांग्रेस ने 43 महिलाओं को टिकट दिया था। हालांकि कांग्रेस के टिकट पर 23 और भाजपा के टिकट पर 13 महिलाएं महिलाएं ही निर्वाचित हो सकी। इसके अलावा राष्ट्रीय दलों में बहुजन समाज पार्टी ने 28 महिलाओं को चुनाव लड़ाया जिसमें केवल 4 महिलाएं लोकसभा में दाखिल हो सकी। माकपा ने 6 और भाकपा ने 4 महिलाओं को टिकट दिए थे जिसमें माकपा के टिकट पर एक ही महिला निर्वाचित हो पाई। जबकि भाकपा को महिलाओं पर राजनीतिक दांव रास नहीं आ सका। वहीं शरद पवार की राकांपा ने 7 महिला उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाया और दो ने जीत
हासिल की, जिसमें पवार की बेटी सुप्रिया सुले भी शामिल थी। जहां तक राज्यवार महिलाओं के चुनाव लड़ने और निर्वाचित होने का सवाल है उसमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 100 महिलाओं ने चुनाव लड़ा और उनमें से केवल 13 विजयी रहीं। महाराष्ट्र दूसरे पायदान पर रहा, जहां से 55 महिलाओं में से केवल तीन ही जीत सकी। इसके अलावा बिहार में 46 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था जिनमें चार निर्वाचित होकर लोकसभा पहुंची।
ग्यारहवीं लोकसभा में रही भरमार
लोकसभा चुनाव के पिछले इतिहास को देखें तो वर्ष 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा चुनाव में 543 सीटों के लिए सर्वाधिक 599 महिलाओं ने किस्मत आजमाई थी। लेकिन 40 महिलाओं को ही विजयश्री मिल सकी थी। यही चुनाव ऐसा था, जहां सर्वाधिक 13952 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। लेकिन 40 महिलाओं को ही विजयश्री मिल सकी थी। इसके अलावा वर्ष 2004 में 355 में से 45, 1999 में 284 में 49, 1998 में 274 में 43, 1996 में 599 में से ४०, 1991-92 में 330 में से 38, 1989 में 198 में से 29, 1984-85 में 171 में से 43, 1980 में 143 में से 28, 1977 में 70 में से 19, 1971 में 86 में से 21, 1967 में 67 में 29, 1962 में 66 में से 31 महिलाएं निर्वाचित हुई थी। वर्ष 1957 के चुनाव में केवल 4.45 प्रतिशत महिलाएं ही चुनाव जीत पाई।
23March-2014

Ragdarbar: खाली गुजरात क्यों । टक्कर पे टक्कर

खाली गुजरात क्यों
लोकसभा चुनाव में लीक से हट कर स्थापित होती राजनीति का विकल्प देने का दम भरने वाले वहीं सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, इसमें चुनावी हवा के रूख को बदला न देख केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी ने तो देश की सुरक्षा को ही दांव पर लगाने में भी कोई परहेज नहीं किया। गुजरात के एक कांग्रेसी नेता ने गुजरात राज्य में मोदी की खामियों को तलाशा, जिसमें तटीय सुरक्षा का मामला उठाया, लेकिन जब नेताजी को बताया गया कि पाक सीमा से लगने वाले तटीय इलाके आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों से भी लगते हैं फिर गुजरात का ही मामला क्यों, तो नेताजी बगले झांकते नजर आए। इन नेताजी पर सवाल उठाए गये कि सुरक्षा के मुद्दों को उजागर करके क्या कांग्रेस दुश्मनों को बताना चाहती है कि हमारी तटीय सुरक्षा कमजोर है? नेताजी पर तंज भी कसा गया कि माना गुजरात में तटीय सुरक्षा के लिए राज्य सरकार ने कोई कदम नहीं उठाए, पर इसकी जिम्मेदारी तो ज्यादा केंद्र सरकार की ही बनती है। सवाल आया कि नेताजी इस बात की तो कम से कम गुजरात सरकार को दाद दे दिजिए कि माना तटीय सीमा पर सुरक्षा प्रबंध कमजोर है, लेकिन दुश्मन तो वहां तक गुजरात सरकार ने फटकने नहीं दिया। 
टक्कर पे टक्कर
लोकसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस के विकल्प का दम भरने वाली आम आदमी पार्टी ही तो है जिसने अदानी और अंबानी के विरोध में गले फाड़कर खुद को बहुत क्रांतिकारी समझा। क्रांतिकारी ही नहीं दावा भी किया कि पहली बार कोई दल इन पूंजीपतियों से टक्कर ले रहा है। हालांकि इन हथकंडों को जनता पहले से ही खारिज करती आ रही है। इससे पहले की भी राजनीति जहन में आती है जब गुजरे जमाने में केंद्र से लेकर राज्यों तक कांग्रेस की तूती बोलती थी, तब जनसंघी और सोशलिस्ट गले फाड़ते थे कि टाटा-बिड़ला की सरकार, नहीं चलेगी-नहीं चलेगी। यह बात अलग कि तब यह पता नहीं था कि टाटा-बिड़ला क्या बला हैं? अब राजनीति के कथित नवक्रांतिकारी वही नारा लगा रहे हैं। टाटा-बिड़ला की जगह अदानी-अंबानी ने ले ली है यानि राजनीति का विकल्प नई बोतल में पुरानी शराब की तरह ही है। अदानी-अंबानी के विरोध के बाद ये क्रांतिकारी नेता लोकसभा चुनाव में यह भी कहने से पीछे नहीं चूके कि इनसे चंदा लेने में भी उनसे कोई परहेज नहीं है यानि इसीलिए विरोध के स्वर में क्रांति के सुर बाहर आए थे। 
23March-2014

गुरुवार, 20 मार्च 2014

तीस प्रतिशत से कम वोट लेकर भी बने सांसद!

सलमान खुर्शीद, बेनी प्रसाद व प्रदीप जैन को मंत्रिमंडल में मिली जगह
ओ.पी. पाल

तीस फीसदी से कम वोट मिले तो भी प्रत्याशी समीकरणों के लिहाज से कैसे जीतते रहे हैं इसका जीता जागता उदाहरण बना गत लोकसभा। 15वीं लोकसभा में ऐसे 29 सांसद निर्वाचित होकर लोकसभा में पहुंचे थे, जिन्हें 30 प्रतिशत से भी कम वोट मिला था। इतने कम वोटकर सांसद बने सलमान खुर्शीद, बेनी प्रसाद वर्मा, प्रदीप जैन तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह पाने में कामयाब रहे।
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव का महासंग्राम चल रहा है और चौतरफा अपनी किस्मत आजमाने वालों में चुनावी समीकरण के आंकड़ों को लेकर चुनावमैदान में किस्मत आजमाने की भी होड़ लगी हुई है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि एक सीट पर ज्यादा प्रत्याशियों के आने से हार-जीत का अंतर तो कम हो ही जाता है, वहीं जीत का ऊंट कभी-कभी ऐसे प्रत्याशी के लिए भी बैठ जाता है जिसकी कहीं तक भी निर्वाचित होने की उम्मीद नहीं होती। उधर चुनाव आयोग के आंकड़े इस बात की पुष्टि भी करते हैं कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में ऐसे 29 प्रत्याशी निर्वाचित होकर संसद भवन पहुंचे थे जिनके हिस्से में आने वाला वोट कुल हुए मतदान का तीस प्रतिशत से भी कम था। यही नहीं कई निर्वाचित सांसदों को तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह दे दी गई। उत्तर प्रदेश के ऐसे 14 सांसद निर्वाचित हुए जिन्हें इतने कम प्रतिशत वोट लाने के बावजूद जीत मिली, जबकि झारखंड से ऐसे छह, बिहार से पांच,मध्य प्रदेश से दो तथा हरियाणा व जम्मू-कश्मीर से ऐसे निर्वाचित सांसदों की सूची में एक-एक उम्मीदवार शामिल रहा। इन 29 विजयी सांसदों में सबसे कम 21.27 प्रतिशत वोट हासिल करने वालों में बिहार की बक्सर सीट से निर्वाचित जगदानंद सिंह शामिल थे।
15वीं लोकसभा में बुलंद हुआ इनका सितारा
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से फरूखाबाद से निर्वाचित कांग्रेस के सलमान खुर्शीद को 27.72 प्रतिशत, गौंडा से बेनी प्रसाद वर्मा को 25.72 प्रतिशत तथा झांसी से प्रदीप कुमार जैन को 29.32 प्रतिशत वोट लेकर विजय रहे थे, जिन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी शामिल होने का सौभाग्य मिला। बेनी प्रसाद को मिला विजयी उम्मीदवारों में यह मत प्रतिशत सबसे न्यूनतम था। इसके अलावा यूपी से अलीगढ़ से राजकुमारी चौहान 27.95, खेरी से जफरअली नकवी 26.13, प्रतापगढ़ से राजकुमारी रत्ना 26.39, हमीरपुर से विजय बहादुर सिंह 27.45, फैजाबाद से निर्मल खत्री 28.24, संतकबीर नगर से भीष्मशंकर तिवारी 26.35, घोसी से बसपा के दारा सिंह 28.82, सलेमपुर से रमाशंकर राजभर 27.54, चंदौली से राम किशन 26.85, भदोई से गोरखनाथ पांडे 29.73 व मिर्जापुर से बालकुमार पटेल 29.87 प्रतिशत वोट पर जीत हासिल कर लोकसभा में दाखिल हुए थे। झारखंड की राजमहल सीट से देवीधन बेसरा 26.12, गोड्डा से निशीकांतदूबे 23.76, चतरा से इंद्रसिंह नामधारी 22.86, कोडरमा से बाबूलाल मरांडी25.55, लोहारदग्गा से सुदर्शन भगत 27.60 तथा पलामू लोकसभा सीट से कामेश्वर बैंठा 25.80 प्रतिशत वोट लेकर सांसद बने थे। बिहार राज्य की मधुबनी सीट से हुकुमदेव नारायण29.48, बेगुसराय से डा. मोनाजिर हसन 28.64, बांका से श्रीमती पुतुल कुमारी 28.48, बक्सर से जगदानंद सिंह 21.27 तथा नवादा से डा. भोला सिंह 22.46 प्रतिशत वोट पर जीत हासिल करने में सफल रहे थे।
मध्य प्रदेश की सतना लोकसभा सीट से देवराज पटेल 29.51 तथा रीवा सीट से गणेश सिंह 28.49 प्रतिशत वोट लेकर लोकसभा सदस्यनिर्वाचित हो गये थे। जबकि हरियाणा की हिसार लोकसभा सीट से विजयी रहे अशोक तंवर को 29.99 तथा जम्मू-कश्मीर की लद्धाख लोकसभा सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे हसन खान को 29.84 प्रतिशत ही वोट मिले थे।
20March-2014

रविवार, 16 मार्च 2014

ग्लैमर के तड़के ने गाढ़ा किया चुनावी रंग!

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में होगी दिलचस्प सियासी जंग
ओ.पी. पाल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में राजनीतिक समीकरणों को हर कोई राजनीतिक दल अपने पक्ष में बदलने की जुगत में है। पिछले दिनों दंगों के कारण बिगड़े सियासी समीकरण में कांग्रेस ने जहां जाट आरक्षण का छोंक लगाकर अपने ओर अपने सहयोगी दल रालोद को संभालने का मौका दिया है, तो वहीं दूसरी ओर कांग्रेस-रालोद ने इस सियासी समीकरण में ग्लैमर का रंगभर कर भाजपा के रथ को रोकने की मुहिम चलाई है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की दस लोकसभा सीटों पर दस अप्रैल को चुनाव होना है, जिसमें इस बार दिलचस्प मुकाबले की संभावना बनी हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगों के बाद हिंदु-मुस्लिम वोट बैंक समीकरण गड़बड़ाया था तो उसका सीधा फायदा भाजपा को जाता नजर आया, जिससे कांग्रेस और रालोद के साथ यूपी की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी और उसकी प्रतिद्वंद्वी बसपा भी चौकस नजर आई। भाजपा के प्रत्याशियों से पहले कांग्रेस-रालोद गठबंधन ने अपने प्रत्याशियों का ऐलान कर दिया है, जिसमें दस सीटों में तीन सीटों पर इस गठबंधन ने मायानगरी के सितारों के सहारे लोकसभा चुनाव की लालिमा को आसमां तक ले जाने का प्रयास किया है। कांग्रेस ने मेरठ से अभिनेत्री नगमा और गाजियाबाद से राजबब्बर को तो उसके सहयोगी दल रालोद ने मेरठ से सटी बिजनौर लोकसभा सीट से जयाप्रदा को सियासी जंग में उतारकर ग्लैमर का तड़का लगाया है। दंगों के बाद जिस प्रकार के राजनीतिक समीकरणों के कयास लगाए जा रहे थे वे लोकसभा की तारीख नजदीक आते-आते सियासत के सुरों को बदलकर सुर्ख करने लगे हैं। गैर कांग्रेसी-रालोद दल इस ग्लैमर को बाहरी प्रत्याशी का प्रचार करके अपनी राजनीति साधने में जुट गये हैं तो भाजपा अपने मजबूत इरादों पर कायम है और उसे उम्मीद है कि उनका वोट बैंक छिटकने वाला नहीं है यानि भाजपा के सितारे बुलंदी पर रहेंगे। हालांकि यह तो भविष्य के गर्भ में है कि लोकसभा के नतीजे किसका सितारा बुलंद करते हैं।
मुस्लिम प्रत्याशियों पर भारी भाजपा
मेरठ लोकसभा सीट पर कांग्रेस की प्रत्याशी नगमा भी मुस्लिम प्रत्याशी के रूप में पैराशूट से उतारी गई है, जहां पहले ही बसपा प्रत्याशी हाजी शाहिद अखलाक और सपा प्रत्याशी शाहिद मंजूर अपनी सीधी टक्कर भाजपा से मानकर चल रहे हैं। कांग्रेस भी भाजपा को ही प्रमुख मुकाबले के तौर पर देख रही है। इन मुस्लिम प्रत्याशियों की बंदरबांट में भाजपा को फायदा होने से इंकार नहीं किया जा सकता। गाजियाबाद और बिजनौर सीट पर भी मायानगरी से जुड़े प्रत्याशी कांग्रेस-रालोद ने भाजपा से मुकाबला करने के इरादे से उतारे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जाटलैंड माना जाता है इसलिए कांग्रेस-रालोद जाट आरक्षण को भुनाने का प्रयास करने में लगी है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश पिछले साल हुए दंगों के दर्द का भी इस सियासी महासंग्राम में अहसास कराने के लिए मतदाता जागरूक नजर आ रहे हैं।
16March-2014

शनिवार, 15 मार्च 2014

प्रत्याशियों की जमानत जब्ती का भी बना रिकार्ड!

लोकसभा चुनाव फ्लैशबैक:
राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशी जमानत बचाने में रहे बेहतर
ओ.पी. पाल 
भारतीय चुनावी इतिहास में लोकतंत्र के महासंग्राम में हिस्सेदारी करने वाले राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों की संख्या भले ही निरंतर बढ़ रही हो, लेकिन इस चुनावी दौर में नतीजों के बाद सरकारी खजाने में इजाफा होने का सिलसिला जारी है। मसलन लोकसभा की निर्धारित सीटों के लिए प्रत्याशियों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती है तो जमानत जब्त कराने वाले प्रत्याशियों की संख्या में बढ़ोतरी होना स्वाभाविक है। ग्यारहवीं लोकसभा में जमानत जब्त कराने वाले सर्वाधिक प्रत्याशियों का अभी तक रिकार्ड कायम है।
लोकसभा चुनावों की बात करें तो पिछले 15 चुनावी समर में ग्यारहवीं लोकसभा के नतीजे आने के बाद जो रिकार्ड सामने आया था उसमें 12688 प्रत्याशियों यानि 91 प्रतिशत लोगों को अपनी जमानत राशि जब्त कराने के लिए मजबूर होना पड़ा था। जबकि इस लोकसभा चुनाव में सियासी जंग लड़ने वाले प्रत्याशियों की संख्या 13952 अभी तक चुनावी रिकार्ड में दर्ज है। जमानत जब्त कराने वालों में 1817 में 897 प्रत्याशी तो राष्ट्रीय दलों के ही शामिल हैं, जबकि क्षेत्रीय एवं गैर पंजीकृत दलों के जमानत जब्त कराने वाले प्रत्याशियों की संख्या 11791 रहे। आजाद भारत के चुनावी इतिहास में यह ऐसा पहला चुनाव था, जिसमें चुनावी महासंग्राम में हिस्सा लेने वालों की संख्या दस हजार पार पहुंची थी और प्रत्येक सीट पर प्रत्याशियों की औसतन संख्या भी 25.69 के रिकार्ड आंकड़े को छू गई थी। इसके अलावा इससे पहले 1991-92 के चुनाव में भी जमानत जब्त कराने वाले प्रत्याशियों का प्रतिशत तो 86प्रतिशत ही था, लेकिन चुनाव लड़ने वाले केवल 8749 प्रत्याशी ही मैदान में थे। चुनाव नतीजों के बाद 7539 प्रत्याशियों ने अपनी जमानत राशि जब्त कराई थी। जमानत जब्त कराने वाले इन प्रत्याशियों में 840 राष्ट्रीय दलों के उम्मीदवार भी शामिल थे। भारत के निर्वाचन आयोग के नियमों के अनुसार यदि कोई प्रत्याशी मतदान के कुल वैध मतों के कम से कम छठे भाग के बराबर मत प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाता तो उसकी जमानत राशि सरकारी खजाने में जमा हो जाती है। ऐसे में सरकारी खजाने में भी इजाफा होता रहा है।
जमानत बचाने की चाह
लोकसभा चुनाव में एक सीट से एक ही प्रत्याशी का निर्वाचन होना है। चुनाव में कौन जीतता है और कौन दूसरे या तीसरे नंबर पर रहता है के अलावा नजरें इसी पर रहती हैं कि किस-किस उम्मीदवार की जमानत बची है। चुनाव हारने वाले प्रत्याशी भी यही दुआएं मनाते हैं कि नहीं जीते तो कम से कम किसी तरह उसकी जमानत बच जाए, यही उनके लिए गर्व की बात होगी। जमानत राशि जब्त होने पर कोई भी प्रत्याशी जनता के बीच जाने से कतराने लगता है और वैसे भी ऐसी स्थिति को अपमानजनक समझा जाता है।
कब कितने प्रत्याशियों ने गंवाई जमानत
वर्ष 1952- 40 प्रतिशत
वर्ष 1957- 33 प्रतिशत
वर्ष 1962- 43 प्रतिशत
वर्ष 1967- 51 प्रतिशत
वर्ष 1971- 61 प्रतिशत
वर्ष 1977- 56 प्रतिशत
वर्ष 1980- 74 प्रतिशत
वर्ष 1984- 80 प्रतिशत
वर्ष 1989- 81 प्रतिशत
वर्ष 1991- 86 प्रतिशत
वर्ष 1996- 91 प्रतिशत
वर्ष 1998- 73 प्रतिशत
वर्ष 1999- 73 प्रतिशत
वर्ष 2004- 78 प्रतिशत
वर्ष 2009- 85 प्रतिशत
पिछले 15 आम चुनावों के कुल प्रत्‍याशियों और जमानत जब्‍ती के प्रत्‍याशियों का ब्‍योरा
_____________________________________________________________________________________________

वर्ष
प्रत्‍याशी 
जमानत जब्‍त
प्रतिशत
राष्‍ट्रीय दल
प्रतिशत
अन्‍य
प्रतिशत
प्रत्‍याशी
जमानत जब्‍त
प्रत्‍याशी
जमानत जब्‍त
1952
1874
745
40
1217
344
28
657
401
61
1957
1519
494
33
919
130
14
600
364
61
1962
1985
856
43
1269
362
29
716
494
69
1967
2369
1203
51
1342
390
29
1027
813
79
1971
2784
1707
61
1223
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29
1561
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86
1977
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56
1060
100
9
1379
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91
1980
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74
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29
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96
1984-85
5492
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80
1307
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30
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95
1989
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81
1378
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31
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1991-92
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1855
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45
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1996
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1998
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1999
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1299
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2004
5435
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78
1351
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40
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90
2009
8070
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85
1623
779
48
6447
6050
94


15March-2014