शुक्रवार, 11 जून 2010

एंडरसन को भगाने के लिए जिम्मेदार कौन?

ओ.पी. पाल
भोपाल गैस त्रासदी के अदालती फैसले के बाद मुख्य आरोपी यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को किसके आदेश पर गिरफ्तारी के बाद रिहा किया गया और उसे सम्मान पूर्वक देश छोड़ने का मौका दिया गया। इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए देशभर में राजनीतिक बहस तेज हो गई है। एंडरसन के मुद्दे पर तत्कालीन केंद्र और मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार माना जा रहा है? लेकिन कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से इस बात से इंकार कर दिया कि भोपाल गैस कांड या मुख्य आरोपी एंडरसन को भगाने में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कोई भूमिका थी।देश की ही नहीं बल्कि दुनिया की सासे बड़ी औद्योगिक घटना के रूप में हुए भोपाल गैस कांड की पीड़ा को तीन दिन पहले अदालत के फैसलें ने और बढ़ा दिया है और अदालत के करीब साढ़े 25 साल बाद आए फैसले में मुख्य आरोपी और यूनियन कार्बाइड के चेयमैन वॉरेन एंडरसन का साफ बचकर निकलना तत्कालीन केंद्र और राज्य की सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहा है। इस कांड में पुलिस ने एंडरसन को गिरफ्तार भी किया गया और उसे ससम्मान तरीके से जमानत देकर देश से भगा दिया गया। कांग्रेस सरकारें इस लिए भी संदेह के घेरे में है कि उसने कभी अमेरिका से एंडरसन को भारत लाने के लिए कभी प्रत्यर्पण का प्रयास ही नहीं किया। यही मुद्दा भोपाल के लाखों पीड़ितों के जख्मों को और बढ़ा गया है। जिस गैस त्रासदी में दस हजार से लोगों की जाने गई हों तो उसमें मामूली धाराओं में मुकदमा दर्ज करना भी तत्कालीन राज्य सरकार को संदेह में ला रही है। एंडरसन को छोड़ने और उसे भारत से भगाने पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तत्कालीन मध्य प्रदेश को एक पत्र लिखकर उनसे इसके लिए पूरे देश से माफी मांगने को कहा है। चौहान ने अर्जुन सिंह से उस व्यक्ति के नाम का खुलासा करने की मांग भी की है जिसके आदेश पर एंडरसन को गिरफ्तारी के कुछ देर बाद ही छोड़ दिया गया था। इस प्रकार से मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जहां भाजपा के निशाने पर हैं वहीं उनकी कांग्रेस पार्टी का तीर भी उन्हीं पर सधा हुआ है। जहां तक केंद्र सरकार में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का इस मामले से सांन्ध होने का मामला है उसके लिए शुक्रवार को कांग्रेस पार्टी की प्रवक्ता एवं राज्यसभा सदस्य श्रीमती जयंती नटराजन ने स्पष्ट किया है कि एंडरसन को छोड़ने या उसे देश से भगाने में स्व. राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन अर्जुन सिंह अभी तक इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं। इस कांड के अदालती फैसले पर तो हर कोई स्तध है यहां तक की पूर्व राष्ट्रपति ऐपीजे अदुल कलाम ने भी कहा कि इतनी बड़ी त्रासदी के फैसले से वे स्वयं को दुखी महसूस कर रहे हैं, तो पीडितों के दिलों का हाल तो न जाने कितना दुखी होगा। जहां तक इस मामले में केंद्र सरकार द्वारा जीओएम यानि ग्रुप आफ मिनिस्टर्स बनाने का ऐलान किया गया है यह कोई नई घोषणा नहीं है। भोपाल गैस कांड पर इससे पहले भी दो बार जीओएम बनाया जा चुका है, लेकिन पीड़ितों को झांसे के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हो सका। हादसे की जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की कोशिश का जिम्मा भी जीओएम का था। 17 साल में जीओएम की कम से कम 17 बेनतीजा बैठकें हुईं। फिर से वर्ष 2008 में इस जीओएम का पुनर्गठन किया गया और आ फिर केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदांरम की अध्यक्षता में नया जीओएम बनाया गया, लेकिन इन दोनों नेताओं को लेकर पीड़ितों का गुस्सा सातवें आसमान पर है जिसका कारण है कि दोनों नेताओं पर यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली कंपनी के हितैषी होने का आरोप है। राजीव गांधी की केंद्र सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे बसंत साठे का मानना है कि तत्कालीन केंद्र सरकार के दबाव में ही एंडरसन की रिहाई हुई थी और उसे भारत से बाहर जाने में भी पूरी मदद दी गई। साठे का कहना है कि एंडरसन की रिहाई पूरी तरह से गैरकानूनी थी, शायद यही कारण था कि इस कांड की जांच कर रही एजेंसी भी 18 साल तक एंडरसन तक नहीं पहुंच सकी। यदि साठे की बात को सच माना जाये तो अर्जुन सिंह के साथ केंद्र सरकार भी एंडरसन को बचाने के लिए जिम्मेदार है। इस मामले पर कांग्रेस अपनी प्रतिद्वंद्वी भाजपा के निशाने पर है। दिग्विजय सिंह और सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे कांग्रेस नेताओं के एंडरसन के देश से भागने के मामले में दिए गए कथित विरोधाभासी बयानों को भी भाजपा ने जनता को भ्रमित करने वाला करार दिया है, बल्कि भाजपा तो अर्जुन से से इस मामले की सच्चाई को सामने लाने की मांग कर रही है। यही कारण है कि भाजपा ने हादसे के मुख्य आरोपी एंडरसन के बहाने बोफोर्स दलाली के आरोपी क्वात्रोची से लेकर परमाणु दायित्व विधेयक तक के मुद्दों को उठाकर सरकार पर अमेरिका परस्त होने का आरोप तक जड़ दिया है।
गैस कांड मुद्दे पर अपनो से भी घिरे अर्जुन सिंह
भोपाल गैस कांड के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड के पूर्व प्रमुख वारेन एंडरसन के भारत से भागने के मुद्दे पर मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हमलों से घिरते जा रहे हैं और दो प्रमुख कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह तथा आरके धवन ने कहा है कि उन्हें बताना चाहिए कि ऐसा कैसे हुआ। मध्य प्रदेश के भोपाल की यूनियन कार्बाइड से गत 2/3 दिसंबर 84 को रिसी गैस से दस हजार से अधिक लोग मारे गये थे और 25 हजार से अधिक विकलांग हुए, वहीं उनकी आने वाली पीढ़ियां भी इस गैस के प्रभाव से जूझ रही हैं। ऐसे में मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन के देश से भागने के पीछे अमेरिकी दबाव की आशंका जता कर विवाद खड़ा हो रहा है। घटना के समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी जिसमें मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह थे। इस विवाद के तूल पकड़ने पर जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह भाजपा के निशाने पर हैं, वहीं अपनी ही कांग्रेस पार्टी के नेताओं से भी वह पूरी तरह से घिरते नजर आ रहे हैं, लेकिन उनकी खामोशी एक पहेली बनी हुई, जिसमें एक बड़ी ताकत भी हो सकती है। इस विवाद में भाजपा के साथ अर्जुन सिंह पर निशाना साधते हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव एवं मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय ने भी कहा कि इस भयावह घटना के समय उन्होंने मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था और वह लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रहे थे। इसलिए उन्हें उन घटनाओं के बारे में कुछ नहीं पता है जिसके तहत दिसमर 1984 में वारेन एंडरसन को जमानत मिली थी और उन्हें रिहा कर दिया गया था। अपनी पत्नी का इलाज कराने अमेरिका गए कांग्रेस महासचिव ने आज एक ई-मेल संदेश में कहा कि‘ बयान में ही उन्होंने साफ कर दिया था कि वह प्रचार कर रहा था और वह एंडरसन की जमानत और रिहाई से जुड़े घटनाक्रम के बारे में नहीं जानते। इस लिहाज से दिग्विजय ने कहा कि इस बारे में सारे सवालों का जवाब उस वक्त के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और तीन अन्य लोग दे सकते हैं। उन्होंने कहा कि ये तीन लोग हैं मध्य प्रदेश के तत्कालीन प्रमुख सचिव ब्रह्म स्वरूप, भोपाल के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराजपुरी और तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह हैं, जिनमें से ब्रह्म स्वरूप का निधन हो चुका है। वहीं दिग्विजय के सुर में सुर मिलाते हुए राजीव गांधी के निजी सचिव रह चुके आर.के. धवन ने कहा कि अर्जुन सिंह ही ऐसे अकेले आदमी हैं जो इन सभी सवालों का जवाब दे सकते हैं कि एंडरसन कैसे देश के बाहर गया। इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बचाव में धवन ने कहा कि वह नहीं मानते कि पूर्व प्रधानमंत्री को घटनाक्रम की जानकारी होगी या उन्होंने एंडरसन को हवाई अड्डे पर विमान उपलध कराने को कहा होगा जिससे वह भोपाल से गए। उधर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अर्जुन सिंह पर हमला बोला और अर्जुन सिंह से उन हालात के बारे में जवाब मांगा है, जिनके तहत वारेन एंडरसन भागने में सफल रहा था। वहीं मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृह सचिव केएस शर्मा का दावा है कि यूनियन कार्बाइड के पूर्व प्रमुख वारेन एंडरसन की रिहाई का आदेश संभवत: तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की तरफ से आया था। शर्मा ने कहा कि शुरुआत से ही पूरे मामले को लेकर कुछ नरमी बरती जा रही थी अन्यथा एंडरसन को हिरासत के दौरान ‘रेस्ट हाउस’ में नहीं रखा जाता। ऐसे जघन्य अपराध के आरोपी को उसी दिन रिहा करने का मतलब है कि अत्यंत अधिक दबाव रहा होगा। शर्मा ने कहा कि गृह सचिव होने के बावजूद उन्हें अंधेरे में रखा गया और एंडरसन की रिहाई के बारे में सूचित नहीं किया गया। उन्होंने एंडरसन को रेस्ट हाउस में रखने के सरकार के फैसले और उन्हें जमानत देने के फैसले को अवैध करार दिया है। ऐसे में विपक्षी दलों के साथ ही अर्जुन सिंह अपनी पार्टी के नेताओं से भी एंडरसन के मुद्दे पर चौतरफा घिरते नजर आ रहे हैं जो अभी तक अपने प्रति हो रही टिप्पणियों और लग रहे आरोपों पर पूरी तरह से चुप्पी साधे हुए हैं।

गुरुवार, 10 जून 2010

...तो यही है मुंबई आतंकी हमलों सच

.पी. पाल

भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी की पूछताछ में मुंबई के 26/11 आतंकी डेविड कोलमेन हेडली द्वारा इन हमलों में पाक सेना अधिकारियों और खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ होने का खुलासा कोई नई बात नहीं है, इस बात को भारत डेढ़ दशक से कहता आ रहा है। मुंबई हमले के बाद तो अमेरिका और अन्य देशों ने भी पाकिस्तान में आतंकवाद के केंद्रों की पैठ बनाने में आईएसआई को असली जड़ माना है। अब जब अमेरिका में लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी डेविड कोलमेन हेडली ने भी भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी से पूछताछ में भारत के खिलाफ सीमापार आतंकवाद के एक बड़े सच का खुलासा कर दिया है तो पाकिस्तान को भी सकारात्मक नीति से आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करके विश्व समुदाय का विश्वास हासिल करने की जरूरत है। विशेषज्ञों की माने तो जेहाद के नाम पर आतंकी संगठनों की असली जड़ पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई ही है। आईएसआई के आतंकी संगठनों से गहरी पैठ के कारण पाकिस्तान सरकार भी अपने ही देश में आतंकवादी घटनाओं के बावजूद आतंकी संगठनों पर कोई भी कार्रवाई करने में असमर्थ साबित हो रही है। भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने मुंबई आतंकी हमले के मास्टर माइंड माने जाने वाले डेविड कोलमेन हेडली से पूछताछ करके जो जानकारी हासिल की है उनमें भी मुंबई हमलों के उसी सच का खुलासा हुआ है जिसके लिए भारत ने पाकिस्तान को आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दस्तावेज सौंप रखे हैं, लेकिन पाकिस्तान की नीयत में इतना खोट है कि वह भारत द्वारा सौंपे गये उन दस्तावेजों को किसी प्रकार का सबूत मानने को तैयार नहीं है। मुंबई हमले के सच को जिस प्रकार से भारत ने पाकिस्तान के समक्ष अपने डॉजियरों में बताया है वह हेडली से पूछताछ के बाद हुए खुलासे से भी मेल खा रहा है जिसमें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाक सेना के अधिकारियों मेजर समीर अली, मेजर हारून और मेजर इकाबाल की करतूत हमले की साजिश में करतूत भी शामिल है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान भारत के खिलाफ आतंकवाद के माध्यम से अपरोक्ष युद्घ लड़ रहा है। पाकिस्तान की नीति में ही आतंकवाद को प्रश्रय हासिल है और वहां आतंकवादियों को प्रशिक्षित करने के लिए चल रहे सैकड़ों प्रशिक्षण शिविरों में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अपना पूरा योगदान देती है। हां, अब जबकि हेडली ने अमेरिका में पूछताछ के दौरान यह खुलासा किया है, इसलिए इस खुलासे का महत्व काफी बढ़ जाता है। पिछले अनुभव यह बात साफ कर देते हैं कि भारत सरकार इस मसले पर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को घेरने में पूरी तरह सफल नहीं रही है और दुनिया भर में आतंकवादी घटनाओं की जड़ पाकिस्तान में होने के कई खुलासों के बावजूद अमेरिका सहित पश्चिमी देश पाकिस्तान पर कड़ा दबाव नहीं डालते। अमेरिका की हालत तो यह है कि वह आतंकवाद के खात्मे के लिए दुनिया भर से मिली रकम का पाकिस्तान पर दुरुपयोग का भी आरोप लगाता है, लेकिन अमेरिका अगले ही पल इस मद में मिलने वाली आर्थिक मदद भी पहले की तुलना में बढ़ा देता है। जाहिर है कि अमेरिका और पश्चिमी देश आतंकवाद के नाम पर दोहरा खेल खेल रहे हैं। पाकिस्तान के जाने माने विद्वान एवं साउथ एशिया सेंटर द अटलांटिक काउंसिल आॅफ यूनाईटेड स्टेट के निदेशक शुजा नवाज भी बहुत पहले इस बात को कह चुके हैं कि आईएसआई और लश्कर तैयबा जैसे आतंकवादियों के बीच इतने गहरे सम्बन्ध हैं कि आतंकी संगठनों को धन और संसाधनों की कोई कमी नहीं आने देते। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत पहले से ही कहता आ रहा है कि भारत के खिलाफ आतंकी हमलों के लिए आईएसआई और सेना के अधिकारियों द्वारा आतंकवादियों को आर्थिक और हथियारों तथा खुफिया सूचनाओं यानि हर तरह की मदद करता आ रहा है जो आतंकवादियों को प्रशिक्षण दिलाने में भी पूरा सहयोग करते आ रहे है। हेडली ने जैसा कि खुलासा किया है कि आईएसआई ने ही आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयाबा के साथ मिलकर मुंबई हमले की पाकिस्तान में साजिश रची थी और आतंकवादियों को दिशा निर्देश भी दिये थे। विधि विशेषज्ञ कमलेश जैन का कहना है कि इतने सनसनीखेज खुलासे के बाद भी भारत सरकार 26/11 के आतंकियों को कटघरे में लाकर खड़ा कर सके ऐसा नहीं लगता। उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के गुनाहगार वॉरेन एंडसरसन का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिकी नागरिक होने के नाते आरोपी एंडसरसन को राष्ट्रीय अतिथि की तरह देश से रवाना किया गया। ऐसा लगता है कि अमेरिका और पाकिस्तान के बिच भारत पीस रहा है कभी दबाव में तो कभी मजबूरी में चाहते हुए भी भारत कदम आगे नहीं बढ़ा पाता। कमलेश जैन यहभी मानती हैं कि भारत के खिलाफ नीयत में खोट को देखते हुए यह भी जरूरी नहीं कि हेडली के आरोपों को पाकिस्तान स्वीकार ही कर ले। भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देश भी जानते हैं कि पाकिस्तान ही आतंकवाक का मुख्य केंद्र है जिसे अमेरिका भी मानता है, लेकिन अमेरिका की नीतियों के कारण भारत की सरकारभी दबाव में पाकिस्तान के खिलाफ वह कार्रवाई नहीं करती जिसकी आतंकवाद के नासूर को खत्म करने के लिए करने की जरूरत है। भारत व पाक सांन्धों के जानकार विशेषज्ञों का मानना है कि यह तो अमेरिका और पाकिस्तान भी जानता है कि आतंकवादी संगठनों को आईएसआई और सेना के मेजर स्तर के अधिकारियों की खुलकर मदद मिल रही है, लेकिन सवाल है कि पाकिस्तान सरकार का आईएसआई पर सीधा नियंत्रण नहीं है जो पाक सेना के अधीन है। ऐसे में राजनीतिक व रणनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान चाहकर भी आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को चाहिए कि अगले महीने होने वाली वार्ता में आतंकवाद के अलावा कोई बातचीत न की जाए। यदि पाकिस्तान आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने का सबूत दे तो तभी अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर पाक से वार्ता हो। एक विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि भारत को पाक की इस कूटनीति को समझते हुए उसे साक सिखाने का माकूल समय है।


आतंकवादियों ने बादला प्रशिक्षण का स्वरूप!


भारतीय सुरक्षा ालों की सीमापार आतंकवादियों के खिलाफ नाकोंदी और कड़े बन्दोंबस्त को चुनौती देने के लिए पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन प्रशिक्षण के तौर-तरीकों को बदलकर अपने नापाक मंसूबो को अंजाम देने के लिए कमर कस रहे हैं। मुंबई आतंकी हमले के बाद सीमापार आतंकवादियों की घुसपैठ को रोकने के लिए सरकार द्वारा बरती जा रही चौकसी में भारतीय सुरक्षा बल भी सीमाओं पर कड़ी चौकसी बनाकर पूरी तरह से चौकस हैं। भारतीय सुरक्षा बलों को चुनौती देने के लिए पाकिस्तानी लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों ने प्रशिक्षण के तौरतरीकों में बदलाव करके ट्रेनिंग के नए पाठ्यक्रम तैयार करने शुरू कर दिये हैं इस बात का खुलसा भारत के खुफिया तंत्र कर चुके हैं। उच्च खुफिया सूत्रों के मुताबिक आतंक के आका आतंकियों की ट्रेनिंग को नए सिरे से सख्त बनाने में लगे हैं। आतंकवादियों को प्रशिक्षण के लिए भर्ती के दौरान हर आतंकी को उसकी क्षमता के अनुसार खास मिशन तैयार किया जा रहा है और हर आतंकी सदस्य के लिए अनिवार्य बुनियादी प्रशिक्षण के अलावा भी विशेष प्रशिक्षण दिया जाएगा जिसके लिए विशेष प्रशिक्षण केंद्र बनाया गया है। यह भी जानकारी मिल रही है कि आईएसआई और सेना के कुछ अधिकारी आतंकी संगठनों को हर तरह की मदद करने में पीछे नहीं हैं खासकर भारत के खिलाफ जेहाद के नाम पर आतंकी संगठनों को पाक खुफिया एजेंसी पूरी तरह से संलिप्त है। खुफिया विभाग के अनुसार आतंकियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम को कुछ इसी तरह का नाम दिया है जिस प्रकार से शिक्षा संस्थानों में खास कोर्स का अध्ययन और प्रशिक्षण कराया जाता है। आतंकी संगठनों द्वारा यह प्रशिक्षण खास उद्देश्य को ध्यान में रखकर तैयार किए जा रहे हैं। जिनमें युवाओं को भर्ती करके उनके प्रशिक्षण को बैच और सेमेस्टर में बांटा गया है। यह प्रशिक्षण कार्यक्रम ज्यादा उद्देश्योन्मुख और चयनात्मक बन गया है। सूत्रों के अनुसार इसका संपूर्ण ध्यान कमांडर तैयार करने पर केंद्रित है, ताकि सुरक्षा बलों को हराया जा सके। पुरानी ट्रेनिंग से अलग पूर्व में आतंकियों को हथियारों और विस्फोटों, घुसपैठ और सामूहिक नरसंहार के लिए के लिए दो स्तरीय प्रशिक्षण दिया जाता था, लेकिन नये प्रशिक्षण कार्यक्रम में उन युवाओं को एडवांस प्रशिक्षण दिया जाएगा, जो अपनी बोद्धिक और शारीरिक फिटनेस का परिचय देंगे। यह ट्रेनिंग बुनियादी रूप से तासीस कोर्स से शुरू होगी। यह धार्मिक होने के साथ आगे के प्रशिक्षण की जानकारी देगी। इस कोर्स की अवधि एक महीना होगी। हांलांकि लश्कर-ए-तैयबा की कोशिश इस प्रशिक्षण को 21 दिन में पूरा करने की है, इसके बाद तीन महीने का (अल राद) कोर्स की ट्रेनिंग शुरू होगी। इस चरण का एक महत्वपूर्ण पहलू प्रचार के माध्यम से आतंकी की विचारधारा को बदलना है। सात सेमेस्टर सभी आतंकियों को उपर्युक्त दो चरणों का प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन इससे अलावा खास मिशन को ध्यान में रखते हुए आतंकियों को सैन्य ट्रेनिंग के रूप में विशेष प्रशिक्षण के लिए समूहों में विभाजित कर दिया जाता है। जिस प्रकार से मुंबई हमले के लिए कसाब जैसे आतंकी समूह को खास तौर पर मैरिन (समुद्री) आपरेशन के लिए तैयार किया गया था, जो सासे कठिन सैन्य प्रशिक्षण है। तीसरा चरण गुरिल्ला उन लोगों के लिए तैयार किया गया है जिन्हें समुद्र, जंगल, जमीन या शहरी परिदृश्य में अपना जौहर दिखाना होगा। यही इस खास प्रशिक्षण का उद्देश्य होगा। यह भी बताया गया है कि इसके बाद आतंकियों को अन्य एडवांस कोर्स करना होगा। इसमें आधुनिक हथियारों को चलाना सिखाया जाता है। खुफिया सूत्रो की माने तो यह प्रशिक्षण गुप्त रखा जाता है। यह समूह बहुत छोटे होते हैं जहां प्रत्येक आतंकी को उसके बेहतरीन कौशल के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस चरण में हर आतंकी बम लगाने और सुरक्षा बलों से निपटने के अलावा प्रशिक्षित शूटर बन जाता है। ट्रेनिंग का छठा और सांतवा चरण सासे कठिन है, जिसे भारतीय सुरक्षा एंजेंसियां भी सबसे खतरनाक मानती हैं। इस चरण में हवाई लक्ष्य के साथ बातचीत का कौशल सिखाया जाता है। बहरहाल भारतीय सुरक्षा बल भी आतंकवादियों की हर चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए तैयार हैं।

बुधवार, 9 जून 2010

कश्मीरियों का विश्वास खोते अलगाववादी संगठन!

ओ.पी. पाल

जम्मू-कश्मीर में हिंसा के हिमायती हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन बार-बार सरकार के वार्ता प्रस्ताव को ठुकराते आ रहे हैं जिनके सरकार से वार्ता की टेबल पर न आने का कारण शायद इन संगठनों का जनता के प्रति अपना विश्वास खोना माना जा रहा है। अलगाववादी संगठनों को नो के दशक के बाद कश्मीर लगातार प्रभाव घटता नजर आ रहा है जिसका गवाह बीस के दशक में हुए दो विधानसभा व दो लोकसभा चुनाव भी बने हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में अमन-चैन के घोर विरोधी और नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले अलगाववादी संगठनों की वार्ता में कोई दिलचस्पी नहीं है,जो कश्मीर में पटरी पर लौट रहे जन-जीवन से शायद इतना बौखलाए हुए हैं कि वे सरकार से ऐसी मांगे पूरी करने का बहाना बना रहे हैं जिनके पूरा होते ही कश्मीरी जनता फिर से अलगाववाद के चक्रव्यूह में फंस जाएगी।प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की हाल में संपन्न हुई जम्मू-कश्मीर की दो दिवसीय यात्रा के एजेंडे में राज्य में कश्मीरी अलगाववादियों के दोनों संगठनों हुर्रियत कांफ्रेंस और मुजफ्फराबाद स्थित यूनाइटेड जिहाद काउंसिल से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वार्ता का प्रस्ताव भी शामिल था, लेकिन इस प्रस्ताव को अलगाववादी संगठनों ने ठुकरा दिया है। यही रवैया इन संगठनों ने पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदांरम के कश्मीर दौरे के समय अपनाया था। विशेषज्ञों की माने तो कश्मीर में सरकार द्वारा विकास को दी जा रही तरजीह के कारण राज्य की जनता का विश्वास सरकार के पक्ष में है और अलगाववादी संगठन जनता का विश्वास लगातार खोते जा रहे हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठनों के पास कभी विकास का मुद्दा तो रहा नहीं और जनता भी उनकी नीतियों को जान रही है तो ऐसे में सरकार से वार्ता करने के लिए हुर्रियत कान्फ्रेंस और यूनाइटेड जिहाद काउंसिल हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। अलगाववादी संगठनों के कश्मीर में घटते प्रभाव के बारे में विशेषज्ञों का तर्क है कि वर्ष 2000 तक राज्य में अलगाववादी संगठनों का बोलबाला था जिनकी एक आवाज पर कश्मीर की जनता उनका साथ देती थी और चुनाव के दौरान बहिष्कार जैसे मुद्दे पर ये संगठन सरकार के खिलाफ सफल रहे, लेकिन गत 2003 के विधानसभा और 2004 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला कि कश्मीर की जनता अलगाववादी संगठनों के चुनाव बहिष्कार की घोषणा को नजरअंदाज करती नजर आई। वर्ष 2008 के विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनाव में तो हुर्रियत कान्फ्रेंस और यूनाइटेड जिहाद काउंसिल बैकपुट पर नजर आई जिसमें इन संगठनों ने चुनाव का बहिष्कार करने का ऐलान किया, लेकिन कश्मीर की जनता ने मतदान के दौरान पिछले सभी रिकार्ड तोड़कर शायद यह संदेश दिया कि सरकार द्वारा कराए जा रहे विकास के सामने अलगाववाद कोई मायने नहीं रखता। इन चुनावों में अलगाववादी संगठनों के नेताओं ने भी अपनी किस्मत आजमाई और सभी ने अपनी जमानते जत कराई। विशेषज्ञ डा. श्याम सिंह शशि मानते हैं कि पंजाब की तरह जम्मू-कश्मीर की स्थिति भी तेजी के साथ सुधर रही है और पर्यटक भी भरपूर संख्या में कश्मीर जैसे पर्यटक स्थलों पर बेखौफ जा रहे हैं। सरकार ने यदि इसी प्रकार से विकास कार्यो को जारी रखा तो अलगाववादी संगठन स्वत: ही घुटने टेकने को मजाूर हो जाएंगे। हुर्रियत कान्फ्रेस का नेतृत्व कर रहे मीर वाइज उमर फारूख ने सरकार से वार्ता का प्रस्ताव को पहले अपनी मांगों को पूरा करने का बहाना करके ठुकराया है। भारत-पाकिस्तान के मामलों के जानकार विशेषज्ञ कमर आगा का मानना है कि कश्मीर के अलगाववादी संगठन जो कई गुटों में बंट चुके हैं की दिलचस्पी राज्य में अमन-चैन बनाने की नहीं है। यही कारण है कि हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन सरकार से वार्ता भी नहीं करना चाहते। श्री आगा मानते हैं कि इन संगठनों को पाकिस्तानी आतंकी संगठनों का भी समर्थन मिला हुआ है इसलिए इन संगठनों ने कश्मीर मे जेहाद को अंजाम देना शुरू किया जो हमेशा विकास में बाधक बने हुए हैं, हालांकि कश्मीर में विकास हो रहा है और सरकार पैकेज भी दे रही है। राज्य में नकारात्मक गतिविधियों के कारण अलगाववादी संगठनों ने धीरे-धीरे जनता का विश्वास भी खो दिया है। जाहिर सी बात है कि सरकार इन संगठनों से वार्ता में कश्मीर के अमन-चैन और विकास की बात करेगी इसलिए भी ये संगठन वार्ता से दूर भाग रहे हैं। आगा मानते हैं कि कश्मीर के अलगाववादी संगठनों ने किसी भी सकारात्मक दृष्टि से कोई काम नहीं किया और केवल उसी नजरिए पर अपनी गतिविधियों से राजनीति कर रहे हैं जो पाकिस्तान का नजरिया है। ऐसे में जरूरत है कि भारत को कश्मीर में रचनात्मक और विकास कार्यो से जनता में अपनी पैठ बनाये रखनी है ताकि कश्मीर में पूर्ण रूप से शांति और आपसी सद्भाव कायम किया जा सके। यही संदेश प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान दिया है।

मंगलवार, 8 जून 2010

कब तक होता रहेगा दलितों पर अत्याचार!

ओ.पी. पाल
हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर कांड की आग अभी ठंडी भी नहीं हो पाई कि राज्य के पलवल जिले के भिदुकी गांव में पंचायती चुनाव के दौरान दबंगों की राजनीति का मुकाबला करने वाले दलितों के घरों में तोड़फोड और आगजनी के साथ मारपीट की भयावह घटना ने एक बार फिर दलित अत्याचार के मामलों सच सामने ला दिया है। कहीं न कहीं देश में दलितों के अत्याचार को रोकने में अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून भि बेअसर साबित होता नजर आ रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि आजादी के बाद भी सरकार दलितों को अत्याचारों से निजात नहीं दिला सकी है, जिसका सासे बड़ा कारण प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप के रूप में सामने आया है। देश की सामाजिक व्यवस्था को दुरस्त करने के लिए आजादी के बाद से सत्ता में आए राजनीतिक दलों की सरकारों ने बड़े-बड़े वादे तो किये लेकिन उन्हें देश व समाज के सामाने प्रस्तुत करने का कभी प्रयास नहीं किया। अगर किया होता तो इस तरह की घटनाओं की पुनरावृति नहीं होती। मिर्चपुर और पलवल की घटनाओं ने कई वर्ष पहले हरियाणा के गोहाना कांड की यादों को ताजा कर दिया। विशेषज्ञ मानते हैं कि ग्रामीण इलाकों में आज भी दलितों को दबाने की राजनीति दांग करते आ रहे हैँ जिन्हें प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में बढ़ते हस्तक्षेप का भी खुलेआम सहारा मिल रहा है। इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रमुख एवं दलित नेता डा. उदित राज का कहना है कि हरियाणा में तो दलितों पर अत्याचार की घटनाएं कुछ ज्यादा ही बढ़ने लगी है, जिसका कारण खाप पंचायतों का वर्चस्व बढ़ना है। डा. उदित राज यह भी मान रहे हैं कि इन दलित अत्याचार की घटनाओं के बढ़ने का सासे बड़ा कारण यह भी है कि सत्तारूढ़ दल अधिकारियों की तैनाती में समरसता कायम करने का कोई प्रयास नहीं करते। डा. उदित राज का कहना है कि जिस क्षेत्र में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं तो देखने में आया है कि वहां दलित विरोधी अधिकारी तैनात पाए गये हैं, वहीं ऐसे अधिकारी अपने उच्चाधिकारियों और सरकार को भी गलत सूचनाएं देकर दबंगों के हौंसले को बढ़ाने में मदद करने में भी पीछे नहीं हटते और आरोपियों को केवल बचाने का धर्म निभाने का प्रयास करते हैं। चाहे गोहाना कांड रहा हो या पिछले अप्रैल में मिर्चपुर अग्निकांड अथवा ताजा पलवल के भिदुकी गांव की घटना ही क्यों न हो, पुलिस अधिकारी मामलें को दबाने का प्रयास ही करते नजर आए हैं। उन्होंने दलितों के वोट राजनीति करने वाले राजनीति दलों को भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार करार दिया। वरिष्ठ अधिवक्ता एवं विधि विशेषज्ञ कमलेश जैन का कहना है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून 1989 तथा नियमावली 1955 की प्रस्तावना यह भी कहती है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति को उच्च वर्गो के अत्याचारों से बचाने के लिए इस कानून का निर्माण किया गया है। ऐसे मामलों में ट्रायल और पीड़ित को राहत तथा पुनर्वास के लिए विशेष अदालतों का गठन करना भी शामिल है। विधि विशेषज्ञ कमलेश जैन की माने तो यह कानून ऐसा बनाया गया है कि दलितों की मुश्किलें इससे आसान होने के बजाए कई गुना बढ़ती नजर आती हैं। दलित कानून के अंतर्गत दलितों की एक मुश्किल यह भी है कि उन्हें अपनी जाति में कुशल वकील नहीं मिल पाते, ऐसे में तकनीक कानूनी पेंच उलझे होने के कारण दलितों को न्याय नहीं मिल पाता। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष बूटा सिंह का कहना है कि दलित अत्याचार के मामले आयोग में आने पर आयोग ऐसे मामलों की जांच परख करने के बाद सरकार से उसमें उचित कार्रवाई करने को कहना है। दलित अत्याचार के हरियाणा में हुए हाल ही में हुए मिर्चपुर और भिदुकी गांव की ही घटना नहीं हैं ऐसे मामलों की लम्बी फेहरिस्त है, जिनमें प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के स्तर पर ठोस कार्रवाई नहीं की जाती। बूटा सिंह के अनुसार दलित अत्याचार में यूपी सबसे पहले और बिहार दूसरे तथा मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है, लेकिन दलित अत्याचार में हरियाणा, पंजाब, गुजरात व तमिलनाडु जैसे राज्य पीछे नहीं है। विशेषज्ञो का सवाल है कि देश में दलितों के अत्याचार की घटनाएं का तक होती रहेंगी, इसके लिए केंद्र सरकार को कानून और व्यवस्था को सख्त करने की जरूरत है.

मिर्चपुर कांड पर हुड्डा दामन बचाने में कामयाब

हरियाणा के मिर्चपुर कांड में राज्य के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा अपनी सरकार और कांग्रेस की प्रतिष्ठा को कायम रखने में सफल होते नजर आ रहे हैं। इसका कारण है कि मिर्चपुर कांड के पीड़ित दलित परिवार मंगलवार को सरकार के आश्वासन पर नई दिल्ली से वापस मिर्चपुर रवाना हो गये हैं, वहीं जिस हुड्डा सरकार और कांग्रेस पार्टी के विरोध में ये परिवार नई दिल्ली में डेरा ड़ाले हुए थे वहीं वापस मिर्चपुर जाने से पहले कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी और मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के कसीदे पढ़ते नजर आए।हरियाणा के हिसार जिले में मिर्चपुर में गत 24 अप्रैल को मामूली विवाद पर दांगों द्वारा दलितों के घरों को आग लगाए जाने से पिता-पुत्री की मौत के कारण घटना ने इतना तूल पकड़ा कि प्रशासन और पुलिस महकमा भी दबंगों के सामने बेबस नजर आने लगा था। ऐसे में पीड़ित परिवारों का पलायन होना कोई नई बात नहीं थी, जो भय के कारण नई दिल्ली स्थित मंदिर मार्ग पर आकर डेरा डाल चुके थे। मिर्चपुर कांड में जहां हरियाणा उच्च न्यायालय ने हरियाणा सरकार को नोटिस जारी किया था तो वहीं सुप्रीम कोर्ट ने भी फटकार लगाई थी। अदालत के आदेश पर जा पिछले सप्ताह हिसार के डीसी दलित परिवारों को मनाने के लिए मंदिर मार्ग आए तो उन्हें दलितों ने धकिया ही नहीं, बल्कि उनके साथ हाथापाई तक की नौबत सामने आई। इस मामले पर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को बुलाकर उन्हें दलितों को सुरक्षा और उनके नष्ट हुए मकानो के बदले पुनर्वास की उसी गांव में व्यवस्था करने की हिदायत दी थी। हरियाणा सरकार ने गांव में दलितों के घर बनाने का काम भी शुरू कर दिया और गांव में अमन-चैन भाई चारे के लिए भी माहौल बनाने की कवायद की गई। इससे पहले घटना के बाद कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और केंद्रीय शहरी आवास एवं गरीबी उपशमन मंत्री कुमारी सैलजा भी मिर्चपुर पहुंची थी। जाकि राज्य सरकार को कोई प्रतिनिधि उस दौरान घटना का जाएजा लेने तक नहीं पहुंच सका था तो मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और उनकी सरकार पर स्वयं कांग्रेस पार्टी के जिम्मेदार लोग भी उंगली उठाते नजर आए। इन साके बावजूद मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने मिर्चपुर कांड के मामले में जिस प्रकार की कार्रवाई शुरू की उससे विरोधियों की राजनीतिक अरमान भी आंसुओं में बहते नजर आए। शायद यही कारण था कि आठ जून को पीड़ितों ने मिर्चपुर गांव वापस लौटने से पहले यहां पत्रकारों से वार्ता की और मृतक ताराचंद की पत्नी कमला और पुत्र रविन्द्र ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, महासचिव राहुल गांधी तथा मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की तारीफों में कसीदे पढ़े और कहा कि इनके कारण ही उन्हें फिर से गांव में भाईचारे के लिए वापस जाने का मौका मिल रहा है, जहां वायदे के अनुसार सरकार ने मकान बनाने का काम भी शुरू कर दिया है। उन्होंने एक केंद्रीय मंत्री पर दलितों को गुमराह करने का भी आरोप लगाया, जिन्होंने गांव से दिल्ली में डेरा डालने के लिए उकसाया था और फिर उनकी सुध भी नहीं ली। बहरहाल मिर्चपुर की घटना पर मुख्यमंत्री अपना और राज्य सरकार का दामन बचाने में सफल होते नजर आए हैं।

सोमवार, 7 जून 2010

भोपाल गैस त्रासदी: क्यों नहीं हो पाता आरोपियों का प्रत्यर्पण!

ओ.पी. पाल

भोपाल गैस कांड दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक त्रासदी के दर्द को अदालत द्वारा सुनाई गई आठ आरोपियों की सजा के बाद भी नहीं भुलाया जा सकेगा। इसका कारण भोपाल की यूनियन कार्बाइड इंडिया नामक कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वॉरेन एंडरसन का सजा मिलने के बावजूद फरार हो जाना जिसके प्रत्यर्पण में भारत सरकार पूरी तरह से विफल रही है। ऐसे में भारतीय सरकार सवालों के घेरे में है कि वह भारत में जितनी भी बड़ी घटनाओं में विदेश मूल के आरोपी रहे हैं उनमें से सरकार एक भी आरोपी का प्रत्यर्पण नहीं करा सकी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत की विदेश नीति की एक बार फिर से समीक्षा करके उसे सख्त बनाये जाने की जरूरत है ताकि भारत में अपराध करके अपने वतन भागने वाले आरोपी को वही सजा मिल सके जो अन्य अपराधियों को मिल सकती है। भोपाल गैस कांड के आरोपियों को सजा सुनाने में 25 साल से ज्यादा समय लग गया जिसमें आईपीसी के तहत दर्ज मुकदमें में केवल दो साल की मामूली सजा दस हजार से ज्यादा लोगों की मौतों और लाखों लोगों को शारीरिक रूप से विक्षिप्त करने के दोषियों को इस सजा से उनके दर्द को कभी कम नहीं किया जा सकता। विशेषज्ञों का मानना है कि सजा दो साल की और उसे सुनाने में लगे 25 साल, फिर •भी यूनियन कार्बाइड इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वॉरेन एंडरसन का बचकर चले जाना, यही है भारत का कानून और देश की व्यवस्था? ऐसा एक मामला नहीं है जिसमें भारत को दर्द देने वाले विदेशी आरोपी साफ तौर से बच निकलने में कामयाब हुए हैं। बोफोर्स कांड में ओ. क्वात्रोच्चि भी ऐसे अपराधियों का एक हिस्सा रहा है जिसे भारत से ब़ाहर जाने की अनुमति तो दे दी गई लेकिन फिर वह कभी मुकदमे का सामने करने भारत नहीं आया। यही स्थिति मुंबई के 26/11 आतंकी हमले में नजर आ रही है जिसमें पाकिस्तानी मूल के 20 आरोपियों को दोषी ठहराया जा चुका है, लेकिन अमेरिका में डेविड कोलमेन हेडली और पाकिस्तान में ौठे आतंकवादी संगठन के हाफिज सईद, जकीउर्ररहमान लखवी व अबू हमजा जैसो के भारत में प्रत्यर्पण कराने की चुनौती भारत के सामने ताजा रूप में खड़ी हुई है, भले ही डेविड हेडली से भारतीय जांच दल अमेरिका में पूछताछ कर ले। भारत में अपराध करके विदेश चले जाने वाले विदेशी आरोपियों के प्रत्यर्पण में भारत हमेशा कमजोर नजर आया है। भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन का सवाल है उसके ब़ारे में केंद्रीय जांच यूरो के निदेशक अश्विनी कुमार कां कहना है कि उसके प्रत्यर्पण के प्रयास किये गये हैं लेकिन उसमें सफलता नहीं मिल सकी है। उनका कहना है कि सजा पाने के ब़ावजूद जमानत मिलते ही वह भारत से चला गया था और आज तक मुकदमे का सामना करने के लिए वह कभी अदालत के सामने पेश नहीं हुआ। उसके प्रत्यर्पण के लिए 23 सितमर 1993 को विदेश मंत्रालय को एक अनुरोध भेजा गया, जो मामले पर पुनर्विचार के आग्रह के साथ अमेरिका से यह नौ मई 2002 को वापस आ गया। सीबीआई के मुताबिक एंडरसन के खिलाफ नौ जुलाई 2009 को एक नया गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। उसके मुकदमे को अन्य आरोपियों से अलग किया गया है। एंडरसन के प्रत्यर्पण का मामला अमेरिकी अधिकारियों के सामने उठाया गया है। यह भी गौरतलब है कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने से दो दिसम्बर 1984 की रात जहरीली मिथाइल आइसोनेट गैस के रिसाव की दुर्घटना के समय एंडरसन यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन (यूसीसी) का मुख्य कार्यकारी अधिकारी था। इस दुर्घटना में तत्काल 3,500 लोगों की मौत हुई थी और इस त्रासदी के प्रभाव से हजारों लोग बीमार और विकलांग हुए। विधि विशेषज्ञ सुभाष चंद माहेश्वरी का कहना है कि विदेशों में भारत के आरोपियों को लोने के लिए प्रत्यर्पण संधि को मजाबूत ब़नाने की जरूरत है। विशेषज्ञ प्रो. एस.के. शर्मा का कहना है कि भारत की व्यवस्था में विदेश नीति व कानून दोनों में ही इतनी खामियां हैं कि मुख्य आरोपी बच निकलने में कामयब हो जाते हैं और भारत केवल लकीर को पीटता नजर आता है। ऐसा एक नहीं अनेक उदाहरण है जिनमें मुख्य आरोपी बचने में कामयब हो गये हैं जिनमें भोपाल गैस त्रासदी का वारेन एंडरसन भी शामिल है। इसलिए भारत की व्यवस्था और कानून में आमूलचूल परिवर्तन करने की नितांत आवश्यकता है। हाल ही में विदेश मंत्री एसएम कृष्णा एक शिष्टमंडल के साथ अमेरिका गये, जहां हेडली को लेकर तो उन्होंने अमेरिका से भारत की, लेकिन शायद भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन के लंबित प्रत्यर्पण मामले को अमेरिका के समक्ष उठाने में वे चूक कर गये।
शायद ही भर पाएं शारीरिक और मानसिक जख्म!


दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे यानि भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल बाद आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुना दी गई, लेकिन इस त्रासदी के पीड़ितों के शारीरिक और मानसिक जख्मों को भरने में शायद सदी ही बीत जाए। यही इस देश की व्यवस्था, जहां पुनर्वास और पीड़ितों को सहारा देने के लिए तरह-तरह की परियोजनाएं बनती हैं लेकिन उन्हें लागू की गारंटी कोई लेने को तैयार नहीं है।भोपाल के यूनियन कार्बाइड इंडिया में 2/3 दिसांर 1984 की वह भयावह रात जिसने एक भयावह और मानस जाति को झक झोरकर रख दिया था के पीड़ित 25 साल बाद भी चीख पुकार करते आ रहे हैं। घटना से आ तक कितने दलों की केंद्र व राज्य में सरकार बदलती देखी गई और कितने ही प्रधानमंत्री और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री आए, जिन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के पीडितों के जख्मों पर मरहम लगाने की ब़ात तो की, लेकिन उनके शारीरिक और मानसिक घावों को भरा नहीं जा सका। जैसी भारत की व्यवस्था है उससे ऐसा लगता है कि न लाने पीड़ितों के शारीरिक और मानसिक आघातों से उारने में उन्हें न जाने अभी कितना और वक्त लगेगा। इस घटना में जो लोग मौत का ग्रास बने उन्हें तो छोड़ दें, जो शारीरिक विकलांगों के रूप में लाखों की संख्या में जीवित हैं उनके जख्म आज भी हरे के हरे हैं। उनकी आने वाली संतानों को भी इस त्रासदी के प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है, जो अपने ब़च्चों को अस्पतालों में इलाज कराते नहीं थक पा रहे हैं। एक उदाहरण ले लिजिए उसी से अहसास हो जाएगा कि इस त्रासदी के पीड़ितों के शारीरिक व मानसिक जख्म कितने गहरे हैं। भावना अपने छह साल के ब़च्चे को साथ लेकर रोज अस्पताल जाती है। उसे उम्मीद है कि बछा जरूर ठीक हो जाएगा। हादसे के समय भावना ब़च्ची थी, लेकिन शादी के ब़ाद जा ब़च्चा हुआ तो नीला पड़ गया था। कुछ ऐसा ही हाल गैस त्रासदी की विभिषिका झेल चुके कई अन्य परिवारों का भी है। कुछ जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं तो अनेक बच्चे लम्बे इलाज के ब़ाद भी पूरी तरह ठीक नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारों ने गैस पीड़ितों के लिए कुछ नहीं किया। भोपाल में गैस कल्याण संचालनालय ब़नाया गया, गैस राहत के नाम पर दावा अदालते, अस्पताल और अन्य केंद्र स्थापित किये गये, लेकिन सभी राजनीति के शिकार। सासे बड़ी विडम्बना तो यह है कि सरकार आ स्मारक पर करोड़ों खर्च कर रही है जिसका तर्क दिया जा रहा है कि स्मारक प्रेरणा देगा, लेकिन पीड़ितों के दर्द को सुनने की जहमत नहीं उठाई जा रही है। गैसकांड की विभीषिका झेल चुकने के ब़ाद जन्म लेने वाले कई ब़च्चे विकलांगता का दंश झेल रहे हैं। इन्हें ‘स्पेशल चाइल्ड’ कहा जाने लगा, परन्तु जरा सोचिए कि क्या इन्हें आत्मनिभर ब़नाने के लिए कहीं भी किसी भी प्रकार के कोई स्पेशल इंतजाम किये गए? ये ब़च्चे आ सम्मान, स्वाभिमान और सुरक्षापूर्ण जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। एक बार फिर चिंतन की आवश्यकता है कि क्या यूनियन कार्बाइड को स्मारक ब़नाने के लिए 110 करोड़ रूपये खर्च किये जाना जरूरी है या फिर देश और समाज की पहचान माने जाने वाले नि:शक्त बच्चों को आत्मनिरभर ब़नाने के उपाय किये जाना।


क्या भगोड़े एंडरसन को सजा मिलेगी?


भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी यानि यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन को सजा मिल पाएगी। अदालत द्वारा सात दोषियों को सजा सुनाए जाने के बाद यही सवाल खड़ा हो रहा है? अदालत पहले ही एंडरसन को भगोड़ा घोषित कर चुकी है जो गिरफ्तारी के ब़ाद जमानत के ब़ाद अपने निजी विमान से भारत छोड़कर चला गया था और आज तक अदालत के सामने कभी नहीं आया।भोपाल गैस कांड के बाद सात दिसांर 1984 को मध्य प्रदेश पुलिस ने उसे गिरफ्तार भी किया, परंतु जमानत पर रिहा कर दिया। इसके बाद एंडरसन भारत छोड़ कर जो •भगा , तो कभी वापस नहीं लौटा। अंतत: एक फरवरी, 1992 को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने उसे भगोड़ा घोषित कर दिया। गैस त्रासदी के दिन यानी तीन दिसांर 1984 को यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर सी में हुए रिसाव से 40 हजार टन प्राणघातक गैस निकली। गैस रिसाव को रोकने के लिए जो छह सुरक्षा उपाय थे, वे हादसे के दौरान ोकार या फिर ांद थे। यहां तक कि किसी दुर्घटना के होने पर बजने वाला सुरक्षा अलार्म भी बंद था। यूनियन कार्बाइड अध्यक्ष एंडरसन 1982 के भोपाल संयंत्र के सुरक्षा आडिट के बारे में जानता था, जिसमें 30 खतरे बताए गए थे। उसने अमेरिका में अपनी कंपनी में इन सुरक्षा उपायों का तो सख्ती से पालन किया, लेकिन भोपाल में नजरअंदाज किया। हादसे के बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया, लेकिन ऊपरी पहुंच के कारण वह जमानत पर रिहा हो गया। इसके बाद वह प्राइवेट जेट से अमेरिका भाग गया और फिर कभी भारत नहीं लौटा। भारत और इंटरपोल द्वारा वांटेट होने के बावजूद भारतीय और अमेरिकी अधिकारियों ने उसे पकड़ने में कोई मुस्तैदी नहीं दिखाई, लेकिन अमेरिका का कहना है उसे एंडरसन का कोई अता-पता नहीं है। अमेरिकी निवेश पर असर पड़ने के डर से भारत भी उसके प्रत्यर्पण की ऐसी मांग नहीं की जैसी करनी चाहिए थी। दुनिया सूत्र यह भी बताते हैं कि कुछ साल पहले ही विश्व के एक नामचीन पर्यावरण संगठन ग्रीनपीस ने एंडरसन को अमेरिका के न्यूयार्क स्थित लांग आइलैंड्स में खोज निकाला था। जहां उसकी भव्य कोठी है और वह अपनी पत्नी के साथ रहता है। इसके अलावा अमेरिका में उसकी और दो कोठियां फ्लोरिडा और कनेक्टिकट में हैं। लेकिन शायद ही आ एंडरसन कभी भारत लौटे और उसे सजा मिलना तो दूर की बात है।

रविवार, 6 जून 2010

सोनिया की जिंदगी पर ‘द रेड साड़ी’ का बवंडर

ओ.पी. पाल

यूपीए एवं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी की जिंदगी पर स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द रेड सारी’ (लाल साड़ी) अभी तक भारत में नहीं आई है, लेकिन इस पुस्तक को लेकर ावाल मचना शुरू हो गया है। इसका कारण भी साफ है कि पुस्तक में श्रीमती सोनिया गांधी की जिंदगी से जुड़े अनछुए पहलुओं का जिक्र करना कांग्रेस को कतई बर्दाश्त नहीं है? लिहाजा किताब के लेखक को एक कानूनी नोटिस भेजक कांग्रेस ने इस पुस्तक को भारत में प्रतिबंधित करने की कवायद शुरू कर दी है। लेखक, चिंतक और आलोचकों का मानना है कि इस पुस्तक के पीछे कुछ ऐसी ताकते हो सकती है जो राजनीति के शिखर पर पहुंची सोनिया गांधी की छवि को भारतवासियों की नजर में ख़राब करना चाहती हैँ। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति का यह मतलब भी नहीं है कि कोई लेखक किसी व्यक्ति की जिंदगी के बारे में उसकी बिना सहमति के उसकी आजादी का हनन करे।स्पेनिश लेखक जेवियर की यह किताा फ्रेंच, इटालियन और डच भाषा में अनुवाद के बाद 2008 से ही बिक रही है, जिसे भारत में बेचने के लिए उसका इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा रहा है। अखिल भारतीय कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के बचपन से आज तक की जिंदगी के ऐसे अनछुए पहलुओं का भी इस पुस्तक में जिक्र किया गया है जो सोनिया या कांग्रेस ही नहीं बल्कि कोई भी व्यक्ति भला कैसे बर्दाश्त कर सकेगा? इसी लिहाज से कांग्रेस के प्रवक्ता एवं सुप्रद्धि अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस विवादित पुस्तक के लेखक जेवियर मोरो को छह माह पूर्व एक कानूनी नोटिस भरजा था। बकौल अभिषेक मनु सिंघवी इस नोटिस से बोखलाकर जेवियर मोरो इसे लेखकों को धमकाने और उनकी लेखन की स्वतंत्रता पर अंकुश करार दिया है। दूसरी ओर सिंघवी के इस नोटिस मिलने के बाद लेखक मोरो ने कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के खिलाफ कोर्ट में जाने की तैयारी कर ली है। जेवियर मोरो का आरोप है कि सिंघवी किताब के प्रकाशकों को धमका रहे हैं वहीं लेखक का तर्क है कि जा अभी अंग्रेजी भाषा में अनुवादित किताब बाजार में आई ही नहीं है तो सिंघवी ने पुस्तक को गैरकानूनी ढंग से कैसे हासिल किया? हालांकि लेखक का यह भी दावा है कि कांग्रेस अध्यक्ष की जिंदगी पर आधारित इस किताा की कहानी काल्पनिक है, लेकिन कांग्रेस लेखक की इस दलील को मानने को तैयार नहीं है। भला कांग्रेस सोनिया गांधी जैसी शख्सियत की जिंदगी से जुड़े अनछुए और आपत्तिजनक पहलुओं को कैसे बर्दाश्त कर सकती है। मोरो को भेजे गये कानूनी नोटिस के बारे में कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि नोटिस में उन्होंने मोरो को करीब दो दर्जन ऐसे उदाहरण दिये हैं जिसमें उनके द्वारा सोनिया की जिंदगी से जुड़े कई ऐसे पहलू हैं जिसमें सोनिया का ही नहीं, बल्कि भारत और हमारी मातृभाषा हिंदी का भी अपमान किया गया है। किताब में सोनिया को इमरजेंसी से जोड़कर कांग्रेस की दुखती रग पर भी लेखक ने हाथ रखने का प्रयास किया, जिसकी यानि इमरजेंसी की छींटे कांग्रेस सोनिया के दामन पर लगना कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। लेखक, चिंतक और आलोचक सुधीश पचौरी का कहना है कि जहां तक सोनिया की जिंदगी पर लिखी पुस्तक का विवाद है उसमें उन आपत्तिजनक अंश पर कांग्रेस को लीगल नोटिस देने का पूरा हक है, जिसमें किसी व्यक्ति के जीवन जीने की आजादी का हनन हो रहा हो। पचौरी ने प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ का जिक्र करते हुए कहा कि वह भी सोनिया गांधी पर आधारित है लेकिन कांग्रेस की जिन अंश पर आपत्ति थी उन्हें फिल्म से हटा दिया गया है तो इस पुस्तक के लेखक जेवियर मोरो को ऐसा करने में क्या परेशानी है। एक चिंतक के रूप में सुधीश पचौरी मानते हैं कि इस पुस्तक के लिखे जाने के पीछे कुछ ऐसी ताकते छिपी हो सकती हैं जो सोनिया गांधी को शिखर पर नहीं देखना चाहती उसमें इटली में भी कुछ लोग हो सकते हैं। उनका कहना है कि ऐसे कई किताबों या फिल्म के उदाहरण हैं जिनमें से आपत्तिजनक अंशों को हटाया गया है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं लेखक डा. श्याम सिंह शशि का कहना है कि कुछ लेखक और प्रकाशक जानबूझकर इस तरह के स्टंट करते हैं ताकि उनकी पुस्तक चर्चा में आए और उन्हें आर्थिक लाभ हासिल हो सके। जेवियर मोरो को कानूनी नोटिस भेजकर कांग्रेस ने सोनिया गांधी की प्रतिष्ठा को बचाए रखने की एक कार्यवाही की है। लेखकों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का यह अर्थ नहीं है कि वे किसी के जीवन से खिलवाड़ करें। डा. शशि मानते हैं कि पिछले दिनों आडवाणी या जसवंत की पुस्तक हो या तस्लीमा नसरीन अथवा सलमान रश्दी की पुस्तक विवादों के घेरे में रही है, लेकिन इस प्रकार की प्रलोभन के लिए अपनाई जा रही परंपरा इस क्षेत्र के लिए उचित नहीं है।

सोनिया गांधी की जिंदगी पर किताब में कई राज


एक ऐसी किताब की जिसके आने से पहले ही बवाल मच गया है। क्योंकि इस किताब के साथ सोनिया गांधी का नाम जुड़ा है। स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की एक किताब ‘द रेड साड़ी’ सोनिया गांधी की जिंदगी पर लिखी गई है। कांग्रेस पार्टी को किताब की कुछ लाइनों पर ऐतराज है और पार्टी चाहती है कि देश में किताब पर बैन लगा दिया जाए। पार्टी की तरफ से इस किताब के लेखक को कानूनी नोटिस भी भेजा गया है। सोनिया गांधी पर लिखी गई इस किताब के कुछ खास अंश हैं। 24 मई 1991 को राजीव का पार्थिव शरीर तीन मूर्ति हाउस के बड़े हॉल में रखा था। ये वक्त अलविदा कहने का था। सोनिया ने राजीव के पार्थिव शरीर पर श्रद्धांजलि अर्पित की। टेलीविजन कैमरों की नज़र से पूरी दुनिया ने सोनिया को देखा सोनिया ने लोगों को जैक्वेलीन केनेडी की याद दिला दी। राजीव की मौत से टूट चुकी सोनिया वापिस इटली जाने की सोचने लगीं। तो क्या राजीव गांधी की हत्या सोनिया गांधी को भारत छोड़ने और अपने देश इटली लौटने पर मजबूर कर रही थी। मोरो के कलम से सोनिया गांधी की ये जिंदगी स्पेन में 2008 से ही बिक रही है। अब इसके अंग्रेजी अनुवाद को भारत में बेचने की तैयारी है। मोरो ने राजीव गांधी की बर्बर हत्या के बाद के पलों को सोनिया गांधी की नजरों से देखने की कोशिश की है। वो लिखते हैं कि राजीव की मौत से सोनिया को झकझोर कर रख दिया और उसके बाद ही वो सब कुछ समेट कर वापस अपने मुल्क जाने की सोचने लगीं। जाहिर है कांग्रेस के नेता ये नहीं चाहेंगे कि सोनिया गांधी की एक ऐसी छवि जनता के बीच जाए जो पति की हत्या के बाद बहादुरी से हालात का सामना करने के बजाय, पति के ही देश को अपना देश बनाकर उनकी यादों को यहीं संजोने, अपने बच्चों को यहीं बड़ा करने के बजाय वापस अपने सुरक्षित मुल्क लौट जाने की सोचने लगी थीं। जाहिर है सोनिया गांधी की ये छवि उनकी मौजूदा छवि से मेल नहीं खाएगी। हालांकि किताब के लेखक मोरो दावा करते हैं कि उनकी किताब सोनिया की जिंदगी पर आधारित जरूर है लेकिन कहानी है पक्की काल्पनिक। लेकिन सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस का एक धड़ा सोनिया पर लिखी गई किताब ‘द रेड साड़ी’ से खासा खफा है। उसका कहना है कि एक जीवित शख्सियत की जिंदगी को काल्पनिक बनाने की कोशिश ठीक नहीं है। वो भी तब जब ये किताब सोनिया गांधी की जिंदगी से प्रेरित है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पेशे से वकील और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने मोरो को लीगल नोटिस थमा दिया है। ‘द रेड साड़ी’ का इटालवी, फ्रेंच और डच भाषा में अनुवाद हो चुका है। मोरो का दावा है कि अब तक उनकी किताब एल साड़ी रोज़ा की करीब ढाई लाख कॉपियां बिक भी चुकी हैं। ज़ाहिर है सोनिया की जिंदगी अतर्राष्ट्रीय बेस्टसेलर के दर्जे में पहुंच रही हैं। लेकिन किताब पर तूफान सिर्फ राजीव गांधी की हत्या के बाद के पलों पर ही नहीं उठ रहा है बल्कि कहा ये भी जा रहा है कि कांग्रेस की नाराजगी किताब में दर्ज सोनिया की शुरुआती जिंदगी के कई पन्नों पर भी है। यानि सोनिया का बचपन और इटली में बिताए गए कई अहम पल। साफ है कांग्रेस सोनिया के नाम के साथ कोई खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं करने वाली। जी हां, राजीव गांधी की मौत के बाद इटली जाने की सोचने की बात के जिक्र के अलावा कांग्रेस पार्टी को किताब की कुछ और लाइनों पर भी ऐतराज है। जिसके जरिए लेखक ने सोनिया के बचपन की कुछ अनकही, अनसुनी बातों को दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है। ये किताब नहीं एक तूफान है। इसमें लिखी कुछ बातें अगर दुनिया के सामने आ गईं तो विरोधियों को बोलने का मौका मिल जाएगा। देश की सबसे बड़ी पार्टी का स्वयंभू सेंसर बोर्ड ऐसा नहीं चाहता। वैसे ऐसा नहीं है कि मोरो ने अपनी किताब में सिर्फ भारत आने के बाद ही सोनिया की जिंदगी के अहम पहलुओं को समेटा है। इस किताब में उस वक्त का भी जिक्र है जब इटली के एक छोटे से गांव लुजियाना में सोनिया का जन्ह हुआ, मोरों की नजर में कैसे बीता सोनिया का बचपन किताब में वर्णन है। सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए। चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनिया अलबिना मैनो। लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हे सोनिया के नाम से पुकारा। रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई। सोनिया के पिता स्टीफैनो, मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से हार गई थी। सोनिया जियावेनो के कॉन्वेन्ट स्कूल में गई लेकिन पढ़ाई उतनी ही की, जितनी जरुरत थी। यानी वो अच्छी स्टूडेन्ट नहीं थी लेकिन हंसमुख और दूसरों की मदद करने वाली थीं। कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थीं। आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान उनके मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जागा लेकिन वो सपना जल्द ही बदल गया। इसके बाद वो विदेशी भाषा की टीचर या संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक भी बनना चाहती थीं। जाहिर है कांग्रेस पार्टी ये नहीं चाहेगी कि सोनिया की जिंदगी का ये अनछुआ पहलू भी दुनिया के सामने आए। सवाल उठाए जा रहे हैं वास्तविकता से छेड़छाड़ के लेकिन मोरो का दावा है कि उनकी किताब रिसर्च पर आधारित है और इसके लिए उन्होनें खुद सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया। किताब की पांडुलिपि सोनिया की बहन नाडिया को भी दिखाई गई। लेकिन उन्होंने किताब पढ़ने से इंकार कर दिया। खुद मोरो का मानना है उन्हें कांग्रेस पार्टी की तरफ से धमकी भरे ईमेल्स भेजे गए हैं जिसमें किताब की कई लाइनों पर नाराजगी जताई गई है। हाल ही में प्रकाश झा की फिल्म राजनीति पर भी कांग्रेस ने आपत्ति जताते हुए फिल्म के कुछ दृश्य हटवा दिए थे। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक फिल्म की नायिका का किरदार भी सोनिया गांधी से प्रेरित है। ऐसे में फिल्म के आपत्तिजनक दृश्य कांग्रेस अध्यक्ष की छवि के अनुकूल नहीं थे। इससे पहले भारतीय मूल के ब्रिटिश फिल्म निर्माता जगमोहन मुंदड़ा को भी सोनिया गांधी की जिंदगी पर फिल्म बनाने का इरादा छोड़ना पड़ा था, क्योंकि कांग्रेस सेंसर बोर्ड ने इसकी इजाज़त नहीं दी। भले ही इसे सृजनात्मक आज़ादी के हनन का नाम दिया जाए या लोकतंत्र के खिलाफ करार दिया जाए, कांग्रेस सोनिया गांधी के नाम पर कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। आखिरकार सोनिया ने ही कांग्रेस को नया जीवनदान दिया है। कांग्रेस नहीं चाहती कि सोनिया को लेकर कोई विवाद खड़ा हो या विरोधियों को विदेशी मूल का मुद्दा दोबारा उठाने का मौका मिले।

(सौजन्य-आईबीएन-7)

शनिवार, 5 जून 2010

मुंबई के गुनाहगार कैसे आयेंगे भारत!

ओ.पी. पाल
अमेरिका-भारत की सामरिक वार्ता में भारत ने अमेरिका को लश्कर-ए-तैयबा व जैश-ए-मोहम्मद जैसे पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई न होने की चिंता से अवगत कराया है, जिसकी कड़ी में मुंबई धमाकों के मास्टर माइंड पाकिस्तानी मूल के आतंकी डेविड कोलमेन हेडली भी है जिससे पूछताछ के लिए अमेरिका ने भारतीय जांच एजेंसी को इजाजत तो दे दी है, लेकिन भारत-अमेरिका के बेहतर संबंधों के मायने तभी होंगे जब वह हेडली को उस पर लगे आरोपों के ट्रायल के लिए भारत को सौँप दे। विशेषज्ञों की माने तो हेडली तक पहुंच बनाने पर भारत को यह नहीं सोचना चाहिए कि उसने कोई बड़ा तीर मारा है। हेडली भारत में मुंबई आतंकी हमले का आरोपी है इसलिए भारत की बड़ी उपलब्धि तभी मानी जाएगी जा वह हेडली के भारत में पत्यर्पण पर अमेरिका की सहमति हासिल कर लें। सामरिक वार्ता के लिए अमेरिका गये भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व करने वाले विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने मुंबई हमले में शामिल रहे पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और उसके आतंकियों के खिलाफ पाकिस्तान द्वारा कार्रवाई न करने की चिंता से अमेरिका को अवगत कराया और कहा कि अमेरिका को सिर्फ कुछ खास आतंकी गुटो से ही नहीं निपटने की रणनीति बनानी चाहिए, बल्कि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे पाकिस्तानी आतंकी गुटों के खिलाफ भी कार्रवाई के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाने की जरूरत है। हालांकि अगले महीने इस्लामाबाद में भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाली उच्चस्तरीय वार्ता में भी भारत आतंकवाद के मुद्दे को प्रमुख रूप से एजेंडे में रखने की बात कर रहा है। लश्कर-ए-तैयबा से जुडे आतंकी डेविड कोलमेन हेडली जो मुंबई की 26/11 आतंकी घटना का मास्टर माइंड माना जा रहा है से पूछताछ के लिए अमेरिका ने जिस प्रकार भारतीय जांच एजेंसी को इजाजत दी है इसी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करते हुए भारत ने अमेरिका से दुनियाभर के लिए खतरा बनते जा आतंकवाद से निपटने के लिए की है। जहां तक हेडली का मुंबई हमलों में शामिल होने का अपराध अमेरिकी अदालत में स्वीकार करने का सवाल है तो इसके लिए यदि हेडली के भारत में प्रत्यर्पण की जरूरत पड़ी तो भारत को उसके लिए भी अमेरिका से सहमति बनाने की जरूरत है। ऐसा विदेश मामलों एवं रक्षा विशेषज्ञ भी मानते हैं और भारत की जनता भी यही चाहती है कि हेडली के खिलाफ मुंबई आतंकी हमले के आरोपों का मुकदमा भारत में ही चलाया जाए। उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और हरियाणा के अतिरिक्त महाअधिवक्ता विपुल माहेश्वरी का कहना है कि मुंबई आतंकी हमले के आरोपी डेविड हेडली से पूछताछ के लिए अमेरिका ने इजाजत तो दे दी है, लेकिन इस पूछताछ के मायने तभी होंगे जा हेडली को भारत के हवाले करने की मांग को अमेरिका मान ले। यदि अमेरिका हेडली को भारत में प्रत्यर्पण कर देता है तो उसके बाद अदालत द्वारा दोषी करार दिये गये पाकिस्तानी आतंकवादियों को भारत में लाने की राह को भी आसान बनाया जा सकता है। उनका मानना है कि भारत सरकार को ऐसे प्रयास को लगातार जारी रखना चाहिए, तभी आतंकवाद की चुनौती से निपटा जा सकेगा। विदेश मामलों के विशेषज्ञ प्रो. कलीम बहादुर का कहना है कि अमेरिका और भारत में हालांकि प्रत्यर्पण संधि नहीं है यही स्थिति पाकिस्तान के साथ है। यदि अमेरिका और पाकिस्तान से बेहतर रिश्ते बनाने की ओर अग्रसर हैं तो भारत में अपराध करने वाले आरोपियों को इन दोनों देशों को भारत को सौँपने की रणनीति पर विचार करना चाहिए। उनका मानना है कि चूंकि मुंबई की फास्ट ट्रेक अदालत ने मुंबई के आतंकी हमले में आमिर अजमल कसाब के साथ 20 आतंकियों को दोषी ठहराया है तो उन्हें भारत लाने के लिए हमारी सरकार को प्रयास में कमी नहीं रखनी चाहिए, जिनमें हेडली तथा पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद, जकीउर्रहमान लखवी और अबू हमजा जैसे आतंकवादी शामिल हैं। विदेश मामलों के विशेषज्ञ प्रशांत दीक्षित का कहना है कि मुंबई आतंकी हमले दोषी डेविड हेडली को भी भारत लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए दोनों देशों की सरकार में इस प्रकार की सहमति बनना जरूरी है, वहीं इसके लिए अदालत की स्वीकृति भी जरूरी होगी। इसी रणनीति और कानून के जरिए पाकिस्तानी आतंकवादियों को भी भारत लाया जा सकता है। उनका यह भी मानना है कि जा भारत की अमेरिका और पाकिस्तान के बीच कोई प्रत्यर्पण संधि नहीं है इसलिए अमेरिका से हेडली और पाकिस्तानी में बैठे आतंकियों को भारत का गुनाहगार होने के बावजूद यह प्रक्रिया एक कठिन राह से कम नहीं है।