गुरुवार, 28 अगस्त 2014

टूटने के कगार पर रालोद-कांग्रेस की दोस्ती!

उपचुनाव में रालोद ने ठुकराया कांग्रेस का प्रस्ताव
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
लोकसभा के चुनाव में करारी पराजय के बाद पहले ही राष्ट्रीय राजनीति में अपना वजूद गंवा चुकी राष्ट्रीय लोकदल की समाजवादी पार्टी के साथ बढ़ती नजदीकियों के चलते कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं भा रहा है, जिसका नतीजा है कि बिजनौर विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव में इस गठजोड़ के तहत कांग्रेस अपना प्रत्याशी खड़ा करना चाहती थी, जिसे रालोद ने ठुकरा दिया है। दोनों दलों के बीच बढ़ती इस सियासी तल्खी से संकेत मिलने लगे हैं कि अब रालोद-कांग्रेस गठबंधन टूटना तय है। यही कारण है कि उपचुनाव में बिजनौर सीट पर रालोद व कांग्रेस के प्रत्याशी आमने सामने होंगे। राजनीति के जानकारों का मानना है कि रालोद की उत्तर प्रदेश की सियासत में अब सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के साथ नजदीकियां बढ़ने की चर्चाएं हैं और संभावना है कि रालोद का गठबंधन अब सपा से होने जा रहा है?
उत्तर प्रदेश की दस विधानसभा सीटों पर 13 सितंबर को चुनाव होने हैं, जिसमें भाजपा विधायक भारतेंदु के लोकसभा सदस्य निर्वाचित होने के बाद रिक्त हुई बिजनौर विधानसभा सीट पर उप चुनाव में कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने के लिए रालोद को प्रस्ताव दिया था, लेकिन रालोद ने कांग्रेस के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, जिसके कारण कांग्रेस ने अपने बलबूते पर इस सीट पर अपना दावा ठोककर चुनाव मैदान मे होगी। रालोद व कांग्रेस की इस सियासी लड़ाई में ऐसी संभावनाएं भी बताई जा रही है कि इस सीट पर रालोद प्रत्याशी के मुकाबले समाजवादी पार्टी चुनाव मैदान में नहीं होगी, बल्कि रालोद का समर्थन करेगी। ऐसी स्थिति में रालोद-कांग्रेस गठबंधन को लेकर कांग्रेस पार्टी किसी भी वक्त इस गठबंधन को तोड़ने का ऐलान कर सकती है। कांग्रेस के सूत्रों की माने तो रालोद अब प्रदेश में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी से बातचीत करके गठजोड़ की फिराक में है, ताकि रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह स्वयं राज्यसभा में जा सकें और उनके पुत्र जयंत चौधरी को यूपी की अखिलेश सरकार में जगह मिल सके। इस सियासी लाभ को हासिल करने के लिए रालोद ने कांग्रेस के प्रस्ताव को ठुकराया है। गौरतलब है कि वर्ष 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में रालोद व कांग्रेस ने मिलकर हिस्सा लिया था, जिसमें रालोद को दस सीटें मिली थी। उधर रालोद के सूत्रों का कहना है कि बिजनौर विधानसभा सीट पर उसका दावा इसलिए भी पुख्ता है कि बिजनौर संसदीय सीट 15वीं व चौदहवीं लोकसभा में रालोद के पास ही रही है, इसलिए कांग्रेस के प्रत्याशी को यह सीट देने का कोई औचित्य नहीं बनता। सियासत की इस जंग के बीच रालोद-कांग्रेस गठबंधन टूटना तय है और रालोद-सपा गठबंधन के नए अवतार में आने की ज्यादा संभावनाएं बनी हुई हैं।
एक तीर से दो निशाने
रालोद-सपा के गठबंधन की संभावनाओं में रालोद एक तीर से दो निशाने साधने की तैयारी में है। एक तो यह कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करके यूपीए का हिस्सा बनने के बाद अजित सिंह को भले ही कैबिनेट में रहने का लाभ मिल गया हो, लेकिन राजनीतिक रूप से रालोद को नुकसान ही झेलना पड़ा है। लोकसभा चुनाव में रालोद-कांग्रेस का गठबंधन में रालोद का राष्ट्रीय वजूद खत्म होना इसकी पुष्टि भी कर चुका है। अब सियासी जमीन वापिस लाने के लिए रालोद के सामने सपा जैसे दल का साथ जरूरी है। सपा के साथ रहने से रालोद में शामिल हो चुके अमर सिंह की मुलायम के साथ वापसी भी तय हो सकती है, जिसकी भूमिका अमर सिंह स्वयं पिछले दिनो मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव से मुलाकात करके कर चुके हैं। वहीं से रालोद-सपा की दोस्ती की पटकथा भी लिखी मानी जा रही है, जिसको अंतिम रूप मिलना शेष है।
बिहार की तर्ज पर सपा

बिहार के उप चुनाव के नतीजों के बाद उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ सपा यूपी के उपचुनाव में भी उसी तरह के गठजोड़ का फार्मूला अपनाकर भाजपा को रोकने की जुगत में है, जिस प्रकार बिहार में जदयू व राजद ने मिलकर सियासी लाभ लिया है। इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद की सियासी जमीन कुछ मजबूत है, जिसके लिए सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव भी रालोद के साथ उपचुनाव में बिहार जैसे नतीजों की उम्मीद लगाए बैठे हैं। यह भी तय माना जा रहा है कि बिजनौर सीट पर सपा अपना प्रत्याशी न उतारकर रालोद का समर्थन करेगी।
28Aug-2014

बुधवार, 27 अगस्त 2014

योजना आयोग के बदले शक्तिशाली होगी नई संस्था!



मैराथन बैठक में विशेषज्ञों ने किया गहन मंथन
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
मोदी सरकार योजना आयोग को खत्म करके उसके स्थान पर एक ऐसी नई संस्था बनाने की कवायद में है, जो अधिकारों के साथ शक्तिशाली हो। ऐसे दृष्टिकोण के साथ विशेषज्ञों ने भी सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए योजना आयोग को खत्म करने के फैसले और नई संस्था के गठन पर सहमति जताई है।
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लालकिले के प्राचीर से योजना आयोग को खत्म करने का ऐलान कर चुके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसके स्थान पर नए तंत्र को जल्द से जल्द स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए सरकार ने विशेषज्ञों के अलावा आम लोगों से भी राय मांगी थी। इस संबन्ध में विशेषज्ञों की मंगलवार को मैराथन बैठकों के दौर में मंथन हुआ। इसके लिए हुए दो समूह की अलग-अलग बैठकें हुई, जिसमें एक बैठक की अध्यक्षता पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा और दूसरी बैठक की अध्यक्षता र्थशास्त्री प्रणब सेन ने की। इन बैठकों में योजना आयोग के पूर्व सदस्यों, पूर्व मंत्रियों और विशेषज्ञों ने नई संस्था के गठन के लिए खाका तैयार करने पर गहन चर्चा की। सूत्रों की माने तो बैठक में विशेषज्ञों के सुझावों को एकत्र किया गया, जिसमें नई संस्था को स्वायत्तता कैसे मिले और राज्यों को योजना राशि के आबंटन जैसी परंपराएं भी बनी रहे जैसे मुद्दों पर महत्वपूर्ण सुझाव बैठक के दौरान आए। वहीं सूत्रों के अनुसार बैठक में अर्थशास्त्रियों ने योजना आयोग के स्थान पर बनने वाली नई संस्था के पास कुछ संवैधानिक शक्ति होने की वकालत की, तो कुछ ने पंचवर्षीय योजना को भी खत्म करने का सुझाव दिया, बल्कि राज्यों को सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए वित्त मंत्रालय और अन्य संबन्धित मंत्रालयों की क्षमता बढ़ाने पर भी सुझाव आए। सूत्रों के अनुसार योजना आयोग के स्थान पर नई संस्था के प्रति विशेषज्ञों ने अपनी सहमति प्रकट करते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण सुझाव रखें हैं। विशेषज्ञों की बैठक में अर्थशास्त्री राजीव कुमार, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर विमल जालान, पूर्व वित्त सचिव विजय केलकर, योजना आयोग के पूर्व सदस्य सौमित्र चौधरी के अलावा शंकर अचार्या, प्रताप भानु मेहता, डा. शेखर शाह, डा. सुरजीत भल्ला, टीसीए श्रीनिवासा राघवन, सुमित बोस,रजत कथुरिया, एमजे अकबर, एनके सिंह, टीएन नैनन, विजय केलकर, वाईके अलघ और नितिन देसाई जैसी विशेषज्ञ हस्तियां शामिल हुई। बैठक में विशेषज्ञों ने उम्मीद जताई कि नई संस्था के पास ज्ञान अपने कार्य को स्वतंत्रता से करने की शक्ति होगी, ऐसे पहलुओं का प्रावधान करने पर जोर दिया जा रहा है। मसलन बौद्धिक क्षमताओं का संयोजन करने के साथ किर्यान्वयन के कुछ आधिकार भी योजना आयोग के नए अवतार में होंगे। एक समूह की बैठक में अध्यक्षता करने वाले पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने बताया कि बैठक में सर्वसम्मति से फैसला लिया गया कि योजना आयोग को खत्म कर देना चाहिए। दोनों समूहों की बैठक में इस सर्वसम्मिति के बाद योजना आयोग के नए पारूप के खाका पर विचार विमर्श हुआ। उन्होंने कहा कि सभी विशेषज्ञों के सुझावओं के नोट को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास भेजा जाएगा, जो नई संस्था के गठन पर अंतिम फैसला लेंगे।
27Aug-2014


धार्मिक स्थलों पर कब थमेगी मौत की भगदड़!

प्रशासनिक इंतजामों को लेकर हमेशा उठते रहे सवाल
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
चित्रकूट में सोमवती अमावस्या पर कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा के दौरान बिजली का तार टूटने की अफवाह से मची भगदड़ की मौत में फिर दस श्रद्धालुओं को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। देश में धार्मिक स्थलों पर मौत की भगदड़ वाली यह कोई पहली घटना नहीं है, इससे पहले भी दर्जनों घटनाओं में हजारों लोग एक छोटी अफवाह की सुगबुगहाट होने के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं। ऐसे में सवाल उठते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारें ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम के दावों के साथ एक-दूसरे पर ठींकरा फोडते ही नजर आए हैं, लेकिन धार्मिक स्थलों पर ऐसी दर्दनाक घटनाओं को रोकने के ठोस उपाय तलाशने के नतीजे तक नहीं पहुंचा जा सका है।
देश में धार्मिक पर्वो के दौरान श्रद्धालुओं की उमड़ती भीड़ को नियंत्रित करने के लिए शासन और प्रशासन की व्यवस्थाओं पर भी ऐसी घटनाएं सवालियां निशान खड़ी करती रही हैं। उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश की सीमा पर चित्रकूट में कामदगिरी पर्वत की परिक्रमा करने के लिए सोमवती अमावस्या पर देश के विभिन्न राज्यों से से लाखों श्रद्धालु आते हैं। सूत्रों के अनुसार यहां भी एक छोटी सी अफवाह ही भगड़द का कारण बनी। दरअसल मान्यता है यहां पर्वत की लेटकर परिक्रमा करने वाले का पैर किसी को नहीं छूना चाहिये, इस कारण लेटकर परिक्रमा करने वालों को कई लोग घेरे में लिये हुए होते हैं, लेकिन कामतानाथ द्वितीय मुखारबिंद मंदिर के सामने हवनकुंड में लेटकर परिक्रमा कर रहे एक श्रद्धालु का पैर छू गया और उसने शोर मचाया तो किसी ने बिजली का तार टूटने की बात कही, तो वह हादसे का कारण बना। ऐसी ही स्थिति अभी तक भगदड़ की घटनाओं में हादसे का कारण रही है, जिसे अनेक प्रयासों से भी अभी तक नहीं रोका जा सका है। सवाल इस बात का है कि धार्मिक आस्था के सबसे बड़े देश में केंद्र या राज्य सरकारों ने ऐसे धार्मिक आयोजन के मौके पर हुई पिछली भगदड़ के हादसों से अभी तक सबक क्यों नहीं लिया है। जानकार सूत्रों की माने तो वर्ष 1954 के प्रयाग कुंभ के दौरान मची भगदड़ देश का सबसे बड़ा हादसा था जिसमें 800 से ज्यादा श्रद्धालुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। सबसे बड़ा सवाल है कि धार्मिक आयोजनो के दौरान होने वाले इन हादसों से देश कब सबक लेगा।
तीन दशक में भगदड़ से हुए प्रमुख हादसे:-
18 जनवरी 2014 को मुंबई में सैयदना के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ में भगदड़ में 18 लोग मरे।
13 अक्टूबर 2013 को मध्य प्रदेश के दतिया के रतनगढ़ मंदिर में पुल टूटने की अफवाह से मची भगदड़ 115 मरे।
10 फरवरी 2013 को विश्व प्रसिद्ध कुम्भ मेले के दौरान इलाहाबाद में रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में 36 लोग मारे गए।
19 नवंबर 2012 को पटना में छठ पूजा के दौरान अदालतगंज घाट पर धक्का-मुक्की के कारण कम से कम 18 लोग मारे गए।
14 जनवरी 2011 को केरल में सबरीमाला मंदिर से लौटते हुए मची भगदड़ में 102 तीर्थयात्री मारे गए।
16 मई 2010 को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अफवाह के कारण भगदड़ के कारण एक दर्जन की मौत।
30 सितंबर 2008 को राजस्थान के जोधपुर के प्रसिद्ध महेन्द्रगढ़ किले के अंदर स्थित चामुंडा देवी मंदिर में भगदड़ में 220 लोग मरे।
03 अगस्त 2008 को हिमाचल प्रदेश में पहाड़ी पर बने नंदादेवी मंदिर में भगदड़ में 145 लोग मारे गए।
14 अक्टूबर 2007 को गुजरात के पंचमहल में 12 लोग मरे।
03 अक्टूबर 2007 को उडीसा के पुरी के जगन्नाथ मंदिर में चार लोग मरे।
03 अक्टूबर 2007 को वाराणसी में जतिया पर्व के दौरान मुगलसराय रेलवे स्टेशन भगदड़ मचने से 14 महिला मरी।
25 जनवरी 2005 को महाराष्ट्र के मंधर देवी के मंदिर में मची भगदड़ में 300 से ज्यादा तीर्थयात्री मारे गए।
13 नवंबर 2004 को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में कई लोग मरे।
12 अप्रैल 2004 को लखनऊ में लालजी टंडन के जन्मदिन पर साड़ी वितरण समारोह में 21 महिलाएं मरी।
27 अगस्त 2003 को महाराष्ट्र में नासिक कुंभ मेले के दौरान 39 लोगों की मौत हो गई थी।
2001 में मध्य प्रदेश में एक मंदिर में भगदड़ मची जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई।
1999 में केरल में एक हिंदू धार्मिक स्थल पर मची भगदड़ में 51 लोग मारे गए।
1989 में हरिद्वार में कुंभ मेले मची भगदड़ से करीब 350 लोग इसमें मारे गए।
1986 में हरिद्वार में मची भगदड़ में 50 लोग मारे गए।
1984 में हरिद्वार में भगदड़ की एक बड़ी घटना में लगभग 200 लोग मरे।
26Aug-2014

भारत में धार्मिक आयोजनों पर भगदड का लंबा इतिहास

विजयादशमी के दिन पटना के गांधी मैदान में मची भगदड़ में तीन दर्जन से ज्यादा लोगों की मौत ने एक बार फिर महत्वपूर्ण व बड़े धार्मिक आयोजनों को लेकर बदइंतजामी व आधी-अधूरी तैयारी का सच उजागर कर दिया.
धार्मिक आयोजनों को लेकर अपार श्रद्धा वाले देश भारत में शायद ही कोई ऐसा साल बितता हो, जब ऐसे  एक-दो बड़े हादसे नहीं होते हों. अफसोस कि पूर्व में देश के अलग-अलग राज्यों में हुए कई हादसों की जांच के लिए गठित जांच रिपोर्टों को भी सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया और उस पर विधानसभा के पटल पर या सार्वजनिक बहस होने की स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी.
कई बार कुछ राज्यों में पूर्व की ऐसी जांच रिपोर्टें तब दबाव में सार्वजनिक हुईं जब राज्य में एक और हादसा हो गया. ऐसी दुर्घटनाओं का इतिहास यह भी बताता है कि राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किये गये जांच आयोग या समिति ने कई बार तो इस मामले में अफसरों व सरकार की कोई जिम्मेवारी भी तय नहीं की. तब, ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेवार कौन है? बहरहाल, हम यहां कुछ ऐसे ही बड़े हादसों के बारे में जानते हैं -
1996 में हरिद्वार में सोमवती अमावस्या के मौके पर दुर्घटना में 30 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी. 15 अगस्त 1996 को हर की पौड़ी पर हुई यह दुर्घटना उस समय हुई जब अहले सुबह 20 हजार श्रद्धालु वहां जुट गये थे.
1996 में ही 15 जुलाई को मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर के दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ में 35 लोग उस समय मर गये थे, जब कुछ वीआइपी की पूजा के लिए सारे दरवाजे बंद कर दिये गये थे.  
दुख की बात यह कि वे वीआइपी ऐसे थे, जिन पर उस मंदिर में भीड नियंत्रण की ही जिम्मेवारी थी. मसलन उज्जैन के कमिश्नर पीएस तोमर व मंदिर प्रशासक जेएन महाधिक के पूजा करने के समय ही यह दुर्घटना हुई थी. वे लोग जब मंदिर में पूजा कर रहे थे, तभी कुछ लोग श्रद्धालु फिसल गये, जिस कारण भगदड़ मच गयी और बड़ा हादसा हो गया.
25 जनवरी 2005 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के मंधार देवी मंदिर में हुए हादसे 291 लोग मर गये. यह हादसा वहां सीढि़यों पर नारियल फोड़ने से हुई. फिसलन के कारण मची भगदड़ के कारण हुआ था. पौष पूर्णिमा के अवसर पर वहां एक दिन का बड़ा आयोजन होता है, जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं.
तीन अगस्त 2008 में हिमाचल प्रदेश में जमीन धंसने की अफवाह के बाद मची भगदड़ में 146 लोग मारे गये थे. जबकि 150 लोग बुरी तरह घायल हो गये थे. उस दुर्घटना में गौरव कुमार सैनी नामक एक 13 साल के लड़के ने 50-60 लोगों की
जान बचाकर अद्भुत वीरता दिखायी है. उसे वीरता के लिए 2009 में भारत सरकार का सर्वश्रेष्ठ सम्मान भारत अवार्ड मिला था. यहां 1982 में भी ऐसा हादसा हुआ था और उसमें 140 श्रद्धालु मरे थे. इस घटना के बाद वहां की व्यवस्था कड़ी की गयी.
मंदिर में लोगों को सीमित संख्या में प्रवेश देने की व्यवस्था की गयी है. मध्यप्रदेश के दतिया जिले के रतनगढ़ मंदिर में पिछले साल यानी 2013 में नवरात्रि के अवसर पर मची भगदड़ में 115 लोगों की मौत हो गयी थी, जबकि 110 लोग बुरी तरह घायल हो गये थे. यह दुर्घटना भी अफवाह के कारण हुई थी.
दरअसल मंदिर जाने के लिए जिस पुल से गुजरना होता है, उसकी रेलिंग कुछ जगह से टूट गयी थी, जो किसी बड़े हादसे का तत्काल कारण नहीं बन सकती थी. लेकिन लोगों में अफवाह फैल गयी कि पुल ही पूरी तरह से टूट गया है. इसके बाद भगदड़ मच गयी और 115 लोगों को जान गंवानी पड़ी.
2006 में भी इस मंदिर में दर्शन करने आये 47 श्रद्धालु नदी के पानी में बह गये थे. श्रद्धालु दर्शन के लिए मंदिर जा रहे थे, तभी अचानक बिना पूर्व सूचना के मंदिर से लगे सिंध नदी में पानी छोड़ दिया गया था, जिसमें 47 श्रद्धालु बह गये थे. इसकी जांच के लिए बने जांच आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक तभी की गयी, जब फिर पिछले साल दुर्घटना हो गयी.
नवरात्रि के समय ही 30 सितंबर 2008 को जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में स्थित चामुंडा देवी के मंदिर में दर्शन करने गये 224 श्रद्धालु भी दुर्घटना में  मारे गये थे और 425 बुरी तरह घायल हो गये थे. नवरात्र के पहले ही दिन देवी के दर्शन के लिए 25 हजार की संख्या में मंदिर परिसर में जमा हो गये थे. आठ हजार श्रद्धालु तो यहां रात से ही जुटे हुए थे.
वहां गेट खुलने के बाद दर्शन आरंभ होने के बाद अचानक बिजली चली गयी और उसके बाद टेंट गिर गया, जिस कारण भगदड़ मच गयी. हालांकि उस समय एक अंगरेजी न्यूज चैनल को कुछ श्रद्धालुओं ने बातचीत में बताया था कि मंदिर परिसर में बम होने की अफवाह के कारण भयभीत लोगों में भगदड मची.
इस मामले में जांच रिपोर्ट 2011 को आ गयी थी. पर, यह पिछले साल जारी हुई. 18 फरवरी 1992 में तमिलनाडु के कुभकोणम में महामहम उत्सव में अन्नाद्रमुक नेता व तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता के आने पर उन्हें देखने के लिए भगदड़ मच गयी, जिसमें 50 श्रद्धालुओं को जान गंवानी पडी, जबकि 74 बुरी तरह घायल हो गये.
10 फरवरी 20013 को इलाहाबाद कुंभ मेले के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर हुए हादसे में 36 लोगों की मौत हो गयी थी, जबकि 39 लोग बुरी तरह घायल हो गये थे. मरने वालों में अधिकतर महिलाएं व बच्चे थे. यह दुर्घटना भी रेलवे पुल की रेलिंग क्षतिग्रस्त होने के बाद उत्पन्न भय से मची भगदड़ के कारण हुई.
इसी तरह हाल के सालों में बिहार आ रहे छठपर्व के श्रद्धालु भी नयी दिल्ली स्टेशन पर अत्यधिक भीड़ व भगदड़ के कारण मारे गये हैं. ऐसे और भी वाकये हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि कैसे इन हादसों को रोका जाये और सरकार व प्रशासन कैसे उनको लेकर अधिक संवेदनशील हों.

शनिवार, 23 अगस्त 2014

लोकसभा में विपक्ष के नेता पर फंसे पेंच!

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से खिली कांग्रेस की बांछे
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
लोकसभा में प्रतिपक्ष नेता के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की दलील के बाद और पेंच फंसते नजर आने लगे हैं, जिसमें लोकसभा अध्यक्ष नियमों को तोड़ना नहीं चाहती और कांग्रेस इस पद को हासिल करने में ऐडी से चोटी तक के जोर लगा रहा है तो सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति से जुड़े एक मामले के बहाने विपक्ष के नेता को लेकर अपनी दलील दी। इसके बाद कांग्रेस की दरअसल कांग्रेस की लोकसभा में विपक्ष के नेता के पद को लेकर अदालत में पहुंची याचिका पर सुनवाई से इंकार कर दिया था, लेकिन शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई के दौरान लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता को लेकर टिप्पणी करके इस मामले में पेंच फंसा दिया है। इसका कारण है कि लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन संसदीय नियमों में बंधे होने का हवाला देकर पहले ही नेता विपख बनाने से साफ इंकार करते हुए कहा था कि वह नियमों के दायरे से बाहर नहीं जा सकती। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष ने विपक्ष के नेता के लिए किसी दल द्वारा दस प्रतिशत सीटे हासिल करने वाले नियम में संशोधन करने के विकल्प की बात भी कही थी, जिसके लिए संसद में प्रस्ताव पारित होना जरूरी है और इसके लिए उन्होंने एक समिति का गठन करने जैसे प्रस्ताव के भी संकेत दिये थे। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कि लोकसभा में नेता विपक्ष का पद लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा है, इस बात से लोकसभा अध्यक्ष और केंद्र सरकार भी इत्तेफाक रखती आ रही है, लेकिन संसदीय नियमों के बाहर जाकर किसी दल को यह पद देने पर भी सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कोई व्यवस्था नहीं दी लेकिन यह टिप्पणी करते हुए यहां तक कहा कि सिर्फ कुछ एक नियम के आधार पर इस पद को दरकिनार भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति में नेता विपक्ष को भी शामिल करने का प्रावधान संसद में ही पारित किया जा चुका है। यह भी गौरतलब है कि मोदी सरकार के सामने लोकपाल की नियुक्ति करने की जिम्मेदारी भी है और उसके लिए चयन समिति के नियमों को भी संविधान से अलग नहीं किया जा सकता। हालांकि इससे पहले लोकसभा में विपक्ष के नेता को लेकर अटॉर्नी जनरल की राय ली गई जिसने मावलंकर नियम के मुताबिक नेता विपख के लिए उसके सदन में दस प्रतिशत सांसदों का संख्या बल होना जरूरी है। इस तरह मोदी सरकार के लिए लोकपाल की नियुक्ति के लिए चयन समिति और लोकसभा में प्रतिपक्ष नेता के पद को लेकर फंसे पेंच से बाहर आने के लिए विकल्पों की चुनौतियों से निपटने के लिए बीच का रास्ता तलाशना पड़ सकता है।
मुद्दे पर फिर गरमाई राजनीति
लोकपाल की नियुक्ति से जुड़े मामले के बहाने ही सही, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से विपक्ष के नेता का पद हासिल करने के लिए मशक् कत करती आ रही कांग्रेस की बांछे जरूर खिली नजर आई। कांग्रेस के नेता राजीव शुक्ला ने कहा कि सरकार को लोकसभा में नेता विपक्ष का दर्जा देने के लिए आगे आकर पहल करनी चाहिए। कांग्रेस प्रवक्ता आनंद शर्मा ने कहा कि उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी वास्तव में उस बात की पुष्टि करती है जो कांग्रेस और यूपीए कहती आ रही है। लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय कानून की पूरी उपेक्षा है और यह भाजपा नेतृत्व वाली सरकार के पक्षपातपूर्ण एजेंडे से पूरी तरह प्रेरित और रंगा हुआ लगता है। वहीं जदयू प्रमुख शरद यादव ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को जायज ठहराते हुए कहा कि देश भी यही सोच रहा है,लेकिन भाजपा अपने पुराने फैसले पर ही अड़िग है। जबकि भाजपा के प्रवक्ता प्रवक्ता नलिन कोहली ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट जब सरकार से जवाब मांगेगी तो उसका तर्क और नियमों के साथ जवाब दिया जाएगा। भाजपा का कहना है कि विपक्षी दल के पास जरूरी दस फीसदी सीटें नहीं हैं जिसका मतलब है कि एलओपी पद पर दावे के लिए उसके पास 55 सीटें होनी चाहिए। हालांकि लोकसभा की इस परंपरा व नियमों के आधार पर फैसला लेने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष को है।
23Aug-2014

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

सियासत की नाव में एक साथ सवार सपा-रालोद?

अजित-मुलायम के बीच दोस्ती की संभावनाएं बढ़ी
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य में अस्तित्व गंवा चुकी राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजित सिंह ने किसी तरह से संसद तक पहुंचने की जुगत में पाला बदलने और गठबंधन की अपनी नीयती को फिर से हवा दी है, जो समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर एक ही सियासी नाव पर सवारी करने की फिराक में हैं। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि मुलायम सिंह यादव व अजित सिंह की दोस्ती से दोनों दलों को खासकर उत्तर प्रदेश में गंवा चुके सियासी जमीन पर राजनीतिक बिसात बिछाने में मदद मिल सकती है।
सूत्रों के अनुसार सपा और रालोद को एक नाव पर सवारी करने की पटकथा लोकसभा चुनाव में लोकदल में शामिल होकर अपनी किस्मत आजमाने वाले अमर सिंह ने लिखी है, जिन्होंने एक दिन पहले ही लखनऊ में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और राज्य में कबिना मंत्री शिवपाल यादव से मुलाकात की थी। हालांकि अमर सिंह की सपा के दिग्गजों से मुलाकात के मायने उनके सपा में वापसी आने की अटकलों के रूप में समझे जा रहे थे, लेकिन इस मुलाकात के पीछे सपा-रालोद को नजदीक लाने की परिणीति उजागर होती नजर आई। राजनीतिक गलियारे में इन चर्चाओं ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में अपने अस्तित्व के लिए जोर आजमाइश कर रही रालोद और सपा अपनी सियासी जमीन बचाने के प्रयास में एक दूसरे से हाथ मिलाने की फिराक में हैं। इस दोस्ती के जरिए राजनीति में पाला बदलने में माहिर माने जाने वाले रालोद प्रमुख अजित सिंह को राज्यसभा तक पहुंचने का रास्ता मिलने की संभावनाएं ज्यादा बढ़ जाएंगी, वहीं रालोद का साथ मिलने से यूपी में सत्तारूढ़ सपा को भी आम चुनाव में गंवाएं जनसमर्थन पाने की उम्मीदे निश्चित रूप से महसूस होंगी। विशेषज्ञों की माने तो यदि सपा-रालोद की यह दोस्ती परवान चढ़ती है तो चौधरी अजित सिंह के साथ-साथ अमर सिंह की राज्यसभा में सीट पुख्ता होने की संभावनाएं भी बनी रहेंगी। ऐसी भी चर्चाएं राजनीतिक गलियारों में तैर रही हैं कि सपा-रालोद की इस सियासी दोस्ती में रालोद का सपा के साथ विलय भी हो सकता है, हालांकि रालोद के नजदीकी सूत्रों की माने तो रालोद किसी दल के साथ विलय करने की शर्त नहीं मानेगा। राजनीति में वैसे तो कुछ भी घटनाएं संभव हैं, लेकिन रालोद का विलय करने के लिए कांग्रेस के प्रयास भी विफल रहे थे और यूपी में राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए कांग्रेस को रालोद को यूपीए का हिस्सा बनाना पड़ा था, जिसका हालांकि कांग्रेस को न तो यूपी के वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव और न ही सोलहवीं लोकसभा में सियासी लाभ हासिल हो सका। हां इतना जरूर था कि चौधरी अजित सिंह को यूपीए का हिस्सा बनकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल गई थी।
रालोद को फायदा!

हालांकि सपा के साथ गठबंधन या विलय की इन खबरों को रालोद के प्रवक्ता अनिल दूबे ने महज अफवाह करार दिया है, लेकिन राजनीतिक मामलों के जानकारों की माने तो सपा भी अमर सिंह की पार्टी में वापसी चाहते हैं, भले ही वह स्वयं सपा में आए या समूचे रालोद को लेकर सपा के साथ इस दोस्ती को परवान चढ़ाएं। बहरहाल यदि सपा व रालोद की दोस्ती राजनीति की इस कसौटी पर खरी उतरती है तो इसमें रालोद प्रमुख अजित सिंह का राज्यसभा में जाना तय हो जाएगा और उनके साहबजादे जयंत चौधरी यूपी की सपा सरकार में शामिल हो सकते हैं। इस सियासी अटकलों में दोनों दलों को लेकर चल रही चर्चाएं हकीकत में बदलेंगी या नहीं यह तो अभी भविष्य के गर्भ में हैं।
21Aug-2014

बुधवार, 20 अगस्त 2014

अदालतों में लंबित एक लाख से ज्यादा रेप के मामले

उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक बलात्कार के मामले दर्ज
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
देशभर में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों में बलात्कार जैसी जघन्य घटनाओं को लेकर बवाल मचा हुआ है, जिसे लेकर पूरा देश महिलाओं की सुरक्षा को लेकर चिंतित है। वहीं न्यायालयों में भी ऐसे मामलों के निपटरों की गति बेहद धीमी है। यही कारण है कि देशभर की अदालतों में बलात्कार जैसे यौन अपराधों के करीब 1.07 लाख मामले हैं जिन पर निर्णय आने का इंतजार है। इनमें से 32 हजार से ज्यादा तो राज्यों की हाईकोर्ट में न्याय की बाट जोह रहे हैं। बलात्कार के मामलों में पहले पायदान पर उत्तर प्रदेश है।
देश में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं और आय-दिन हो रही ऐसी घटनाओं पर देशभर खासकर उत्त्तर प्रदेश आज भी सुर्खियों में हैं, जहां महिलाओं की सुरक्षा और कानून व्यवस्था को लेकर सियासत भी थमने का नाम नहीं ले रही है। संसद के हाल ही में संपन्न हुए बजट सत्र में भी गैंगरेप की घटनाओं और महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामलों की गूंज रही है, जिसमें उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाओं की जमकर आलोचना तक हुई। बलात्कार समेत महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामलों पर विधि एवं न्याय मंत्रालय से मिले आंकड़ों पर नजर डाले तो 23 राज्यों के उच्च न्यायालयों में लंबित 32080 मामलों में सबसे ज्यादा 8215 रेप के मामले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित हैं, इसके बाद मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में 4099 बलात्कार के मामलों पर अदालत का कोई फैसला नहीं आ सका है। असम स्थित गुवाहाटी हाई कोर्ट तीसरे पायदान पर है जहां 3602 मामले लंबित पड़े हुए हैं। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायाल में 3518, राजस्थान 2951 के बाद छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायाल में लंबित मामलों की संख्या 1781 है। महानगरों मुंबई में 1145, मद्रास में 219, कर्नाटक में 109 और कोलकाता में 18 मामलों के अलावा दिल्ली उच्च न्यायालय में रेप के मामलों के निपटान की गति जारी होने के कारण फिलहाल 991 मामले ही अनिर्णित हैं। इसके गुजरात में 1035, हिमाचल प्रदेश में 208, उत्तराखंड में हाईकोर्ट में 192 मामले लंबित हैं। मंत्रालय के अनुसार सबसे कम सिक्किम में तीन और मणिपुर में चार मामलों पर फैसला आना बाकी है।
निचली अदालतों में भी यूपी अव्वल
विधि मंत्रालय के अनुसार देशभर में 34 राज्यों के जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में बलात्कार के मामलों पर निर्णय आने की स्थिति अत्यंत दयनीय हैं,जहां देशभर में 74,734 लंबित मामले एक-दो साल से नहीं बल्कि कई अरसों से निर्णय आने का इंतजार कर रहे हैं। इन मामलों में भी सर्वाधिक 15,926 मामले उत्तर प्रदेश की अदालतों में अटके पड़े हैं। पश्चिम बंगाल में 7986 लंबित मामलों के साथ दूसरे पायदान पर है, जिसके बाद बिहार में 6558, महाराष्ट्र में 5663, राजस्थान में 4519, मध्य प्रदेश में 3596, जम्मू-कश्मीर में 2472, दिल्ली में 1633, छत्तीसगढ़ में 1542, हरियाणा में 822, पंजाब में 581, चंडीगढ़ में 38, हिमाचल प्रदेश में 293, उत्तराखंड की अदालतों में 241 बलात्कार के मामले लंबित हैं।
निपटान में तेजी लाने पर जोर
देशभर में अदालतों में लंबित खासकर महिलाओं के प्रति अपराधों के मामलों के निपटान में तेजी लाने के लिए केंद्र सरकार ने संसद में भी भरोसा दिया है कि ऐसे मामलों के शीघ्र निपटान के लिए फास्ट टेÑक न्यायालों की स्थापना को तेज किया जाएगा। वहीं मोदी सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 309 खासकर महिलाओं के खिलाफ अपराधों के शीघ्र निवारण के लिए दंड विधि(संशोधन) अधिनियम-2013 के तहत प्रावधान भी देती है। निर्भया प्रकरण के बाद यूपीए सरकार द्वारा संशोधित कानून में किये गये प्रावधानों के मुताबिक बलात्कार या सामूहिक बलात्कार अथवा साथ में हत्या के मामलों में आरोप पत्र दाखिल होने की तिथि से दो माह के भीतर मामले का निर्णय होना चाहिए। सरकार इस दिशा में गंभीरता से विचार करके ठोस कदम उठाने पर भी विचार कर रही है।
20Aug-2014

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

हवाई अड्डो की आर्थिक सेहत सुधारना चुनौती!

कार्गो गतिविधियों को बढ़ाने की योजना
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
लगातार आर्थिक तंगी से जूझ रहे भारतीय विमानन क्षेत्र को घाटे से उबारने के लिए हालांकि मोदी सरकार ने ठोस रणनीतियों का खाका तैयार किया है,लेकिन फिलहाल देश के एक नहीं, बल्कि सात दर्जन से ज्यादा हवाई अड्डे घाटा सहने को मजबूर हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने विमानन क्षेत्र में एफडीआई लागू करके देश के हवाई अड्डों व विमानन कंपनियों को लाभ के दायरे में लाने की योजना को अंजाम दिया हुआ है।
केंद्र में आई राजग सरकार ने देश के विमानन क्षेत्र की आर्थिक सुधार करने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं, जिसमें मोदी सरकार के आने के बाद सरकार की नीतियों के आधार पर डीजीसीए ने विमानन कंपनियों को सुधार की दिशा में दिशा निर्देश भी जारी किये, इनमें सरकार ने हवाई यात्रियों की सुरक्षा और संरक्षा के साथ-साथ उनकी सुविधाओं को प्राथमिकता पर लिया है। नागर विमानन मंत्रालय के अनुसार राजग सरकार घाटे में चल रहे इन हवाई अड्डों की आर्थिक सेहत सुधारने की योजना पर काम कर रही है, जिसमें इन अड्डों पर कार्गो गतिविधियों को बढ़ाने की योजना तैयार की गई। हवाई यात्रा किराए की दरों में संशोधन के साथ ही ठेका प्रणाली में भी गैर विमानन राजस्व में बढ़ोतरी करने के प्रयासों को तेज कर दिया गया है। सूत्रों के अनुसार सरकार ने यातायात संचालित न होने से नुकसान झेल रहे ऐसे कई हवाई अड्डो के रख-रखाव को बेहतर बनाकर वहां फलाइंग विद्यालयों को प्रचालन की अनुमति देन पर विचार विमर्श शुरू कर दिया है। इस तरह की योजना से सभी अड्डों पर राजस्व अर्जित करके उन्हें आर्थिक तंगी से उबारा जा सकेगा।
अरबों की रकम में दबे एयरपोर्ट
विमानन मंत्रालय के अनुसार फिलहाल देश में राज्यों की राजधानी स्थिति हवाई अड्डो समेत करीब 93 हवाई अड्डे ऐसे हैं जिनका वित्तीय घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। नागर विमानन मंत्रालय के अनुसार पिछले तीन साल में दिल्ली के सफदरजंग हवाई अड्डा 96 करोड़ के घाटे समेत तेरह राज्यों की राजधानी के हवाई अड्डो की आर्थिक सेहत लगातार खराब चल रही है, जिसमें खासकर मध्य प्रदेश में भोपाल 130 करोड़, उत्तर प्रदेश में लखनऊ सौ करोड़, राजस्थान में जयपुर 74 करोड़, कर्नाटक में बेंगलूर में करीब 100 करोड़, बिहार में पटना 75 करोड़, आंध्र प्रदेश में हैदराबाद 80 करोड़, असम में गुवाहाटी सौ करोड़, झारखंड में रांची 75 करोड़, उत्तराखंड़ में देहरादून 85 करोड़, चंडीगढ़ में साढ़े 23.5 करोड़, जम्मू कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर और शीतकालीन राजधानी जम्मू सौ करोड़ रुपये का घाटा दर्ज किया गया है। इनके अलावा हिमाचल प्रदेश में शिमला, ओडिशा में भुवनेश्वर,छत्तीसगढ़ में रायपुर सहित कई राज्यों की राजधानियों में संचालित हवाई अड्डे पिछले तीन सालों से करोड़ों रुपये का आर्थिक घाटा झेलते आ रहे हैं। इसका कारण यह भी है कि इन हवाई अडडों पर प्रचालन की कमी केकारण भी नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसी प्रकार अन्य राज्यों की राजधानी के हवाई अड्डो के अलावा ज्यादातर हवाई अड्डों की आर्थिक हालत खराब है।
विमानन कंपनियां भी बीमार
नागर विमानन मंत्रालय के सूत्रों की माने तो सरकार के उपक्रम के रूप में एयर इंडिया ने घाटे को कम करने का दावा किया है, जिसका वर्ष 2012-13 में 5490.16 करोड़ का घाटा कम होकर वर्ष 2013-14 में 5388.82 करोड़ रुपये दर्ज किया गया है। इसके अलावा वर्ष 2012-13 के दौरान नैसिल 9866.5 करोड़, एलायंस एयर 1729.5 करोड़ के अलावा निजी विमानन कंपनियां जेट लाइट 2468 करोड़, स्पाईस जेट 2798.2 करोड़ रुपये की आर्थिक तंगी झेल रही हैं। इसके अलावा हालांकि पवन हंस लि. ने वित्तीय वर्ष 2011-12 में 10.35 करोड़ रुपये के आर्थिक नुकसान का सामने करने के बावजूद वर्ष 2012-13 में 11.70 करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ अर्जित किया है।
19Aug-2014

सोमवार, 18 अगस्त 2014

कहां गायब हो गये डेढ़ लाख से ज्यादा लोग!

इस साल महाराष्ट्र में सर्वाधिक 24 हजार लापता
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
देशभर में हर दिन बच्चों समेत आधा दर्जन से ज्यादा लोगों के लापता होने की घटनाएं बेहद चिंता का विषय बनती जा रही हैं, जिसमें मानव तस्करी का गोरखधंधे करने वाले सक्रिय गिरोह के शामिल होने की पुष्टि भी हो रही है, लेकिन ऐसी घटनाओं पर लगाम न लगने का ही नतीजा है कि मौजूदा वर्ष के पहले छह माह में ही डेढ़ लाख से भी ज्यादा लापता हुए लोगों का सुराग तक नहीं लग पाया है, जिसमें करीब आधी संख्या महिलाओं की भी शामिल हैं।
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के तकनीकी इंतजामों के बावजूद लोगों के लापता होने की घटनाओं में कमी आने का नाम नहीं है और हर साल चार लाख से भी ज्यादा लोग लापता हो जाते हैं, यह आंकड़ा नाबालिग बच्चों के अलावा है। देश में सक्रिय मानव तस्कर के चलते तो हर घंटे एक बच्चा लापता होने की रिपोर्ट स्वयं सरकार पुष्टि कर चुकी है। बच्चों के अलावा देशभर में इस साल के पहले छह माह में 156418 व्यस्क लोग लापता हुए हैं, जिनमें 78200 महिलाओं की संख्या है। मौजूदा साल के पहले छह माह में महाराष्ट्र ऐसा राज्य है जहां सबसे ज्यादा 23892 लोग लापता हुए, जिनमें 13512 महिलाएं शामिल हैं। गृहमंत्रालय के सूत्रों की माने तो वर्ष 2013 में करीब 4.41 लाख लोग लापता हुए थे, जिनमें करीब 2.21 लाख महिलाएं शामिल थी। मसलन इससे पिछले सालों के आंकड़े भी यही गवाही दे रहे हैं। गृहमंत्रालय के अनुसार मोदी सरकार मानव तस्करी को रोकने की दिशा में कानूनों में सुधार करने की कवायद कर रही है। हालांकि गृहराज्यमंत्री किरण रिजीजू की माने तो सरकार ने देश में बच्चों या बड़ों को लापता करने वाले गिरोह और अपराधियों को पकड़ने के लिए केंद्र व राज्य स्तर पर डीएनए प्रोफाइलिंग प्रौद्योगिकी तक स्थापित की हुई है, जिसमें सुधार करने के लिए सरकार योजना बना रही है। हालांकि केंद्र सरकार संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत पुलिस और लोक व्यवस्था को राज्यों का विषय मानती है, लेकिन इस दिशा में सुधार लाने के लिए केंद्र सरकार ठोस एवं सख्त कानून बनाकर मजबूत तंत्र स्थापित करने के लिए भी कटिबद्ध है। वहीं लापता बच्चों के संरक्षण के बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि मानव तस्करी के गोरखधंधा करने वाले गिरोह बच्चों को गायब करके उनसे खतरनाक औद्योगिक इकाइयों में काम लेने, वेश्यावृत्ति, भीख मांगवाना, नशीली वस्तुओं की बिक्री जैसे काम कराकर उनकी जिंदगियों के साथ खिलवाड़ करते हैं, इसके बावजूद सरकार इस गोरखधंधे पर शिंकजा नहीं कस पाई हैं, जो एक बेहद चिंता का विषय है। सत्यार्थी ने केंद्र की नई सरकार की गंभीरता से उम्मीद जताई है कि सख्त कानून के जरिए ऐसी चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
39 हजार शवों की पहचान नहीं
देशभर में बरामद किये जा रहे अज्ञात शवों की संख्या भी कम नहीं है, लेकिन वर्ष 2013 में महिलाओं समेत 38821 शव ऐसे रहे जिनकी शिनाख्त नहीं हो सकी है। वर्ष 2012 में यह संख्या 37838 और वर्ष 2011 में 37193 थी। वर्ष 2013 सबसे ज्यादा 7216 शव महाराष्ट्र में बरामद हुए जिनकी शिनाख्त नहीं हो पाई। दूसरे पायदान पर तमिलनाडु रहा जहां ऐसे शवों की सख्यां 5570 रही, जबकि तीसर स्थान पर उत्तर प्रदेश में 4010 शवों की शिनाख्त नहीं की जा सकी। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 2749, छत्तीसगढ़ में मात्र 44, मध्य प्रदेश में 983, हरियाणा में 1456, चंडीगढ़ में 131, पंजाब में 752, राजस्थान में 1193 तथा हिमाचल प्रदेश में 325, उत्तराखंड में यह संख्या 455 रही।
इस साल इन राज्यों में लापता लोगों की संख्या
दिल्ली:- वर्ष 2014 के पहले छह माह में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 2667 महिलाओं समेत 5167 लोग लापता हुए।
छत्तीसगढ़:-नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में मौजूदा वर्ष के पहले छह में में 3633 लोग लापता हुए, जिनमें 2344 महिलाएं शामिल हैं।
मध्य प्रदेश:- मौजूदा वर्ष के छह माह के दौरान राज्य में 5376 महिलाओं समेत 8387 लोगों के लापता होने की सरकार ने पुष्टि की है।
हरियाणा:-राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के सटे हरियाणा में भी इन छह माह के दौरान 907 लोग गायब हुए, जिनमें पुरुषों से ज्यादा 496 महिलाएं शामिल हैं।
पंजाब:-पंजाब में इस साल के पहले छह माह में लापता लोगों की संख्या 859 रही, जिनमें 333 महिलाएं शामिल हैं।
चंडीगढ़:-पंजाब व हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ में मौजूदा साल की इस अवधि में 113 महिलाएं और 74 पुरुष लापता हुए हैं।
18Aug-2014

रविवार, 17 अगस्त 2014

नए कानूनों से होगा बच्चों का संरक्षण

मोदी सरकार ने शुरू की नए कानून बनाने की कवायद
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
देश में सुरक्षा को लेकर चल रही बहस के बीच अब बच्चों को भी संरक्षण देने वाले कानून को गंभीरता से लागू करने की मोदी सरकार ने कवायद शुरू कर दी है। सरकार ने पुराने कानून में आमूलचूल संशोधन करने के लिए सरकार ने नये सख्त कानून का मसौदा भी तैयार कर लिया है, जिसे जल्द ही संसद में पेश किया जा सकता है। संसद में पास होते ही भारत विश्व के उन देशों में शामिल हो जाएगा जहां बच्चों को शारीरिक दंड देने पर प्रतिबंध है।
देश में बच्चों के साथ होने वाले अपराध या हिंसा के लिए पुराने कानून कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं, जिसमें परिजनों, अभिभावकों से ज्यादा स्कूलों में अध्यापकों की बच्चों की निर्मम पिटाई करने के मामले निरंतर बढ़ रहे हैं। सूत्रों के अनुसार सरकार ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट-2000 के स्थान पर नए कानून के रूप में जुवेनाइल जस्टिस (केयर ऐंड प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रन) बिल-2014 को संसद में पेश करने की तैयारी कर ली है। इस नए कानून में किये जा रहे प्रावधानों के अनुसार बच्चों के खिलाफ ऐसा व्यवहार करने वालों को भविष्य में पांच साल तक की सजा हो सकती है। इस मामले में हाल ही में केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने लोकसभा में भी उठाया और सरकार द्वारा तैयार किये जा रहे मसौदे की जानकारी सदन को दी। सरकार का कहना है कि नए कानूनों को लागू करने का मकसद बच्चों के अधिकारों और संरक्षण को बरकरार रखना है। यह भी बताया गया है कि नए कानूनों को इंटरनैशनल कानूनों के मद्देनजर तैयार किया गया है। गौरतलब है कि विदेशों में अपने अधिकारों के प्रति बच्चे जागरूक हैं और उन कानूनों के तहत वह अपनी सुरक्षा करते आ रहे हैं। सरकार नये कानून के प्रावधानों के तहत बच्चों की पिटाई और रैगिंग जैसी यातनाओं या शारीरिक दंड को अपराध माना गया है। इस मसौदे को पहले केंद्रीय कैबिनेट में भेजकर मंजूरी ली जाएगी और उसके बाद इस विधेयक को संसद में पेश किया जाएगा। कानूनी मसौदे के मुताबिक पहली बार पहली बार इस अपराध के दोषी होने पर जुर्माने के साथ छह महीने और दूसरी बार में तीन से किया जा सकता है। दूसरे बार में तीन से पांच साल की सजा का प्रावधान होगा। नए कानून के प्रावधान के अनुसार यदि शारीरिक दंड देने से बच्चों को कोई मानसिक अवसाद या गंभीर आघात पहुंचता है तो दोषी को सश्रम तीन साल के कारावास और पचास हजार का जुमार्ना भुगतना पड़ेगा। इस सजा को पांच साल के लिए बढ़ाया जा सकता है और जुर्माने की राशि को एक लाख रुपए किया जा सकता है। संसद में यदि यह नया कानून पास हो जाता है तो भारत भी दुनिया के उन चालीस देशों में शामिल हो जाएगा, जहां बच्चों को शारीरिक दंड देना मना है। इस कानून में सरकार शारीरिक दंड शब्द में किसी व्यक्ति की ओर से दी जाने वाले जुबानी प्रताड़ना को भी शामिल किया जा रहा है।
रैंगिंग पर भी लगेगी लगाम
सरकार के नए कानून के प्रावधानों के अनुसार कालेजो व विश्वविद्यालयों या अन्य उच्च शैक्षणिक संस्थानों ने रैंगिंग करने वालों पर भी शिकंजा कसना तय है, जिसके लिए मोदी सरकार ने सख्त कानून पर ही विचार नहीं किया, बल्कि कड़े सजा के प्रावधान के साथ एक नए कानून बनाने के लिए मसौदा तैयार कर लिया है। नए कानून में रैगिंग को भी अपराध मानते हुए कहा गया है कि अगर इससे किसी को मानसिक या शारीरिक चोट पहुंचती है तो दोषी को तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है। रैगिंग के लिए नए प्रावधान में ने केवल छात्रों को बल्कि कॉलेज मैनेजमेंट को भी जवाबदेह बनाया गया है। मसौदे में किये गये प्रावधान के अनुसार शैक्षणिक संस्थानों में रैगिंग करने के दोषियों को भी कम से कम तीन साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया है।
04Aug-2014

मोदी सरकार का अगला एजेंडा चुनाव सुधार!

चुनाव सुधार की कवायद में जुटी मोदी सरकार
न्यायिक सुधार के बाद जगी उम्मीदें 
 
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
केंद्र में सत्ता संभालने के बाद मोदी सरकार ने देश के विकास को प्राथमिकता देने का वादा करके आर्थिक सुधार की दिशा में भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियों का सामना करने के प्रति प्रतिबद्धता को अंजाम देना शुरू कर दिया है। न्यायिक सुधार की दिशा में जजों की नियुक्तियों के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग का गठन का रास्ता खोलने के बाद राजग सरकार अब चुनाव सुधार करने की कवायद में जुट गई हैं।
राजग सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 68वें स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले के प्राचीर से भी देश में भविष्य के एजेंडे का खाका खींचकर ऐतिहासिक काम करने का देश को संदेश दिया। हाल ही में संसद के बजट सत्र में न्यायपालिका पर उठने वाले सवालों को दूर करने की दिशा में मोदी सरकार ने दो दशक पुराने प्रयासों को लक्ष्य में तब्दील करके राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां आयोग विधेयक पारित किया है, जिसके तहत जजों की निुयक्तियों में कालेजियम प्रणाली खत्म हो जाएगी। उसी प्रकार की पहल राजग सरकार अब चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नियंत्रित करने की दिशा में कदम उठाती नजर आ रही है, जिसके लिए भारत निर्वाचन आयोग और कुछ गैर सरकारी संस्थाएं पिछले कई सालों से प्रयासरत हैं। वहीं सुप्रीम कोर्ट भी चुनाव सुधार की दिशा में गंभीर है और पिछले साल कुछ ऐसे निर्णय भी उच्चतम न्यायालय से आए हैं जिनके जरिए कम से कम जघन्य अपराध में लिप्त लोगों को चुनावी प्रक्रिया से दूर किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के चुनाव आयोग को भी चुनाव सुधार के लिए दिशा निर्देश जारी करने की हिदायतें दी जा चुकी हैं, जिनके आधार पर चुनाव आयोग पूर्ववर्ती सरकार से अनुरोध करके थक चुका था, लेकिन अब केंद्र में राजग सरकार से इस दिशा में चुनाव आयोग के प्रयासों को भी बली मिलने की उम्मीद जगी है।
नया विधेयक लाने की तैयारी
चुनाव सुधारों के लिए विधि आयोग भी अध्ययन कर रहा है जिसकी रिपोर्ट अभी तक सरकार को नहीं सौंपी गई है। मोदी सरकार का प्रयास है कि विधि आयोग की रिपोर्ट में होने वाली सिफारिशों के आधार पर जनप्रतिनिधित्व कानून में व्यापक संशोधन करके एक ऐसा ठोस कानून तैयार किया जाए जिससे राजनीति में अपराधिकरण को दूर किया जा सके और चुनाव सुधार के प्रयासों को भी पंख लगाए जा सकें। यह भी गौरतलब है कि अनेक ऐसे जनप्रतिधि फिलहाल भी सदनों में हैं जिनके खिलाफ जार्जशीत दायर हो चुकी हैं। इससे पहले पिछली सरकार के दौरान तीन सांसदों को अपनी सदस्यता गंवानी भी पड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को विचाराधीन रखते हुए एक अंतरिम फैसला सुनाया था कि विधायकों-सासंदों पर गंभीर मामलों की सुनवाई की प्रक्रिया एक साल की समयसीमा में पूरी होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी आदेशों पर भी विधि आयोग गौर करते हुए अपनी रिपोर्ट तैयार कर रहा है। मोदी सरकार को विधि आयोग की रिपोर्ट का इंतजार है जिसके बाद वह एक नए एवं ठोस कानून का मसौदा तैयार करके चुनाव सुधार की दिशा में कदम उठाने के लिए प्रतिबद्ध है। सूत्रों के अनुसार विधि आयोग चुनाव सुधार के लिए कई ऐसे पहलुओं का भी अध्ययन कर रहा है जिसमें बार-बार चुनाव कराने से होने वाले खर्च पर भी अंकुश लगाया जा सके।
17Aug-2014 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

लागत पूरी होते ही नहीं वसूला जाएगा टोल टैक्स

सड़क क्षेत्र में मोदी सरकार का ऐतिहासिक फैसला
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
केंद्र सरकार ने ऐलान किया है कि राष्टीय राजमार्गो के निर्माण की लागत पूरी होने के बाद टोल टैक्स नहीं वसूला जाएगा। मसलन राजमार्गो के निर्माण में आई लागत की वसूली होने तक ही टोल टैक्स वसूलने की व्यवस्था बनाई है। इस व्यवस्था को बनाने की सिफारिशें पूर्ववर्ती सरकार के दौरान संसदीय समिति भी करती रही है, लेकिन सरकार ने अभी तक संसदीय समिति की ऐसी सिफारिशों को दरकिनार किया हुआ था।
यूपीए शासनकाल में राज्यसभा की परिवहन विभाग संबन्धी संसदीय स्थायी समिति ने एक बार नहीं कई बार केंद्र सरकार से सिफारिशें की थी कि वह टोल रोड के निर्माण के बाद स्थापित टोल पर उस समय तक टोल टैक्स वसूले जब तक निर्माण में लगी लागत वसूल नहीं हो जाती। आखिर मोदी सरकार ने समिति की ऐसी सिफारिशों पर गौर किया और निर्णय किया कि राष्ट्रीय राजमार्गो पर बनने वाले टोल रोड के निर्माण पर आने वाली लागत वसूल होने के बाद इस मार्ग से गुजरने वाले किसी भी वाहन को टोल टैक्स नहीं देना पड़ेगा। सरकार के इस निर्णय पर गुरूवार को केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में उठाए गये सवालों के जवाब में यह ऐलान किया। मोदी सरकार में सड़क क्षेत्र को सबसे ज्यादा महत्व दिए जाने का आश्वासन देते हुए गडकरी ने कहा कि पिछली यूपीए सरकार तक यह व्यवस्था थी कि हाई-वे के निर्माण का 75 प्रतिशत काम पूरा होने पर गाड़ियों से टोल की वसूली शुरू की जाती थी और लागत वसूल होने के बावजूद टोल रोड की देखभाल के नाम पर 40 प्रतिशत टोल की वसूली जारी रखी जाती थी। उन्होंने कहा कि राजग सरकार ने यह फैसला किया है कि जिन टोल मार्गों की निर्माण लागत टोल के जरिए से वसूल की जा चुकी है उन पर वसूली पूरी तरह समाप्त कर दी जाएगी। वहीं टोल रोड के निर्माण का सौ फीसदी काम पूरा होने से पहले कोई टोल वसूली नहीं होगी। राज्यसभा की परिवहन संबन्धी संसदीय समिति के सभापति रहे सीताराम येचुरी ने भी यूपीए सरकार को इस क्षेत्र में जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि उनके नेतृत्व वाली समिति ने यूपीए सरकार को कई बार इस बात की सिफारिश की थी कि सड़क निर्माण की लागत पूरी होने के बाद टोल टैक्स खत्म कर दिया जाए, लेकिन सरकार का मतत रहा था कि सड़क की मरम्मत और अन्य पेंचवर्क के नाम पर टोल टैक्स जारी रहा, जिसके मौजूदा सरकार ने बदला है तो लोगों को राहत मिलेगी।
सड़कों के निर्माण सर्वोच्च प्राथमिकता
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार राजग सारकार ने सड़कों के निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए पूर्ववर्ती सरकार की उन नीतियों को एक सिरे से बदलने का निर्णय लिया है जिसमें सड़कों के निर्माण और उनके लक्ष्य में अड़चने आ रही थी। मंत्रालय के अनुसार यूपीए सरकार की गलत नीतियों का ही नतीजा था कि सड़क निर्माण में पर्यावरण मंजूरी, अधिग्रहण संबंधी समस्याओं, अतिक्रमणों आदि के कारण परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ पा रही थीं और बैंक इस क्षेत्र में पैसा लगाने से कतरा रहे थे। सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी का कहना है कि उनकी सरकार इन सब स्थितियों को बदलते हुए जनहित को सर्वोपरि रखते हुए सड़क क्षेत्र में नीतियां बना रही है, जिसके लिए स्वयं प्रधानमंत्री ने भी बैंकों के साथ बैठक करने का फैसला किया है, जिसके बेहतर परिणाम सामने आएंगे। इन्हीं नीतियों के चलते राजग सरकार ने एक दिन में 30 किमी सड़क निर्माण करने का लक्ष्य रखा है जिसे पूरा करने के लिए सरकार प्रतिबद्ध भी है।
नहीं टूटेगा रामसेतु
केंद्रीय सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने लोक सभा में इस बात की जानकारी देते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन राम सेतु के मुद्दे पर भी एलान किया कि किसी भी सूरत में राम सेतु (सेतु समुद्रम) को तोड़ा नहीं जाएगा। गडकरी ने लोस में प्रश्नकाल के दौरान कहा कि सड़क की कीमत वसूल हो जाने के बाद टोल टैक्स नहीं वसूला जाएगा। पिक आवर में लोगों को घंटों गाड़ियों की कतार में लग कर टोल टैक्स चुकाना पड़ता था। सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने पुरजोर शब्दों में राम सेतु के मुद्दे को भी उठाया। गडकरी ने कहा कि हम किसी भी हालत में राम सेतु को नहीं तोड़ेंगे। राम सेतु को बचाकर देशहित में प्रोजेक्ट हो सकता है तो हम करेंगे। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर जो भी सुझाव देगा वो सभी संबंधित पक्षों को मान्य होगा।
15-Aug-201

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

न्यायिक नियुक्ति विधेयक पर लगी मुहर

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का एक पड़ाव पार
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
मोदी सरकार द्वारा न्यायिक सुधार के लिए की गई कवायद के तहत लोकसभा में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक 2014 पारित हो गया है। अब सरकार इस लक्ष्य से दो कदम दूर है, जो राज्यसभा में पारित होने के बाद राष्टÑपति की अंतिम मुहर लगते ही हासिल कर लिया जाएगा और न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति और अन्य प्रक्रियाओं के लिए यह कानून लागू हो जाएगा।
लोकसभा में मंगलवार को पेश किये गये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक 2014 के साथ संविधान के 99वें संशोधन विधेयक पर बुधवार को चर्चा पूरी हुई। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक 2014 को एक सरकारी संशोधन के साथ ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। सदन ने इसके साथ ही 99वें संविधान संशोधन विधेयक को शून्य के मुकाबले 367 मतों से मंजूरी दी, जो प्रस्तावित आयोग को संवैधानिक दर्जा देगा। जजों की नियुक्ति से जुड़ा न्यायिक नियुक्ति बिल लोकसभा से पास हो गया है। दो तिहाई बहुमत से ये बिल लोकसभा में पास हुआ है। बिल के पक्ष में 367 वोट पड़े। खास बात रही कि कांग्रेस समेत दूसरे दलों ने भी न्यायिक नियुक्ति बिल का समर्थन किया है।
सरकार की बड़ी उपलब्धि
इससे पूर्व चर्चा का जवाब देते हुए केंद्रीय कानून मंत्री प्रसाद ने विधेयक पर चर्चा शुरू करते हुए कहा कि सरकार न्यायपालिका की स्वतंत्रता की पक्षधर है लेकिन संसद की गरिमा और सर्वोच्चता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यह जनता की आकांक्षाओं का प्रतिबिंब है। उन्होंने विधेयक लाने से पहले राजनीतिक दलों न्यायविदों आदि से व्यापक विचार-विमर्श किया। विधेयक न्यायपालिका की स्वायत्तता और गरिमा बरकरार रखते हुए उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की निष्पक्ष प्रक्रिया लागू करने के लिए है। चर्चा के दौरान खास बात यह रही कि जजों की नियुक्ति में कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर इस नए काननू को लाने के लिए पक्ष हो या विपक्ष सभी ने एक सुर में केंद्र सरकार की तरफदारी की। चर्चा के दौरान सांसद यह कहने से भी नहीं चूके कि न्यायपालिका जब चाहती है तभी राजनीतिज्ञों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां करती है। उनके पास भी न्यायपालिका की आलोचना के कई मुद्दे हैं, लेकिन वे न्यायपालिका का सम्मान करते हैं इसलिए टिप्पणी नहीं कर रहे। न्यायपालिका को भी यह बात समझनी चाहिए। हालांकि चर्चा के दौरान कुछ दलों के सदस्यों ने इस विधेयक में थोड़े बहुत बदलाव की सलाह दी, जिसमें कुछ ने हाईकोर्ट में नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए अलग से राज्य न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने का सुझाव दिया। ऐसा सुझाव देने में अन्नाद्रमुक के सदस्य प्रमुख रहे। इससे पूर्व लोकसभा में इस न्यायिक नियुक्ति विधेयक पर चर्चा की शुरूआत कांग्रेस सांसद एव पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने की थी। जिसमें तृणमूल कांग्रेस के कल्याणजी बनर्जी सपा के धर्मेन्द्र, अन्नाद्रमुक के थंबीदुरई, बीजद के भतृेहरि महताब, लोजपा के राम विलास पासवान के अलावा एनके प्रेमाचन्द्रन, असुद्दीन औवेसी, बी. विनोद कुमार, एसए संपथ, राजेश रंजन, डा. अरुण कुमार, अनुप्रिया पटेल, कौशलेन्द्र कुमार, सीएन जयदेवन, जोयस जार्ज, आर राधाकृष्ण आदि ने हिस्सा लिया और लगभग समूचे सदन ने न्यायिक सुधार की दिशा में सरकार के इस प्रयास का समर्थन किया।
कॉलेजियम के खिलाफ सदन एकजुट
कानून सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने जिस मजबूती से न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था की तरफदारी की थी, उससे भी ज्यादा जोरदार ढंग से इस व्यवस्था को खत्म करने के लिए लोकसभा में आवाज बुलंद की है। सांसदों ने एक सुर में न्यायाधीशों की नियुक्ति व्यवस्था बदलने के राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक का समर्थन किया। हालांकि नियुक्ति प्रक्रिया को निष्पक्ष व पारदर्शी बनाने की बात करते हुए कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने यह जरूर कहा कि सरकार न्यायपालिका का बहुत सम्मान करती है और उसका इरादा न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र ने दखल देने का नहीं है और न ही सरकार का इस पर न्यायपालिका के साथ कोई टकराव है।
दो दशक के प्रयास को लगे पंख
लोकसभा में चर्चा के जवाब में विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सरकार चाहती है कि न्यायपालिका का नैतिक सम्मान बढ़े उसकी गरिमा बरकरार रहे। व्यवस्था को बदलने के लिए पिछले 20 सालों से प्रयास हो रहा है। इसके बारे में सात आयोगों ने रिपोर्ट दी और छह कमेटियों की रिपोर्ट आई जिसमें विधि आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट भी शामिल है जिसमें कोलेजियम व्यवस्था बदलने की बात कही गई थी। यहां तक कि कोलेजियम व्यवस्था का आदेश देने वाले न्यायाधीश जेएस वर्मा ने भी बाद में कहा था कि उनके मंतव्य को सही ढंग से नहीं समझा गया और अब इस पर पुनर्विचार की जरूरत है।
14ानह;2014

राष्ट्रीय दल का दर्जा गंवाने के कगार पर तीन दल

अगले सप्ताह तय होगा बसपा, राकांपा व भाकपा का भविष्य
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
सोलहवीं लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियों के रूप में चुनाव लड़ने वाली बहुजन समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अपने निराशाजनक प्रदर्शन के कारण अब राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे से हाथ धोना तय है, लेकिन चुनाव आयोग इन दलों का 19 अगस्त को पक्ष सुनेगा और और नियम व शर्तो के आधार पर उनके भविष्य का फैसला करेगा।
लोकसभा चुनाव 2014 में छह राष्ट्रीय दलों भाजपा, कांग्रेस व माकपा के अलावा बसपा, राकांपा व भाकपा ने हिस्सा लिया लेकिन इनमें केवल भाजपा 282, कांग्रेस 44 और माकपा नौ सीटें जीतकर मानकों को पूरा करते हुए अपनी पार्टी के राष्टÑीय दर्जे को कायम रखने में सफल रही हैं। जबकि बसपा का तो 16वीं लोकसभा के चुनाव में खाता तक नहीं खुल सका है और जबकि राकांपा को छह सीटें और भाकपा को मात्र एक सीट पर ही जीत हासिल हो चुकी है। इस संबन्ध में सोमवार को लोकसभा में ऐसे दलों के बारे में उठे सवाल पर विधि एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बताया कि हालिया आम चुनाव के बाद कुछ राजनीतिक दल अपने राष्ट्रीय दर्जे के लिए जरूरी योग्यताओं को भी पूरा करने में नाकाम रहे हैं और निर्वाचन आयोग चुनाव प्रदर्शन के आधार पर राष्ट्रीय दलों में बहुजन समाज पार्टी, भाकपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की मान्यता की समीक्षा कर रहा है, क्योंकि ये पार्टियां राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में अपनी मान्यता को बनाए रखने की शर्तों को पूरा नहीं कर रही हैं। फिर भी चुनाव आयोग ने इन दलों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया है, जिसके लिए 19 अगस्त की तिथि तय की गई है। आयोग सुनवाई के बाद इस संबंध में उचित आदेश जारी करेगा। गौरतलब है कि आम चुनाव में खराब प्रदर्शन के चलते आयोग ने बसपा, राकांपा और भाकपा को कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछा था कि उनका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा क्यों नहीं वापस ले लिया जाए।
राष्ट्रीय दलों के ये हैं नियम
चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार राष्टीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के लिए नियमानुसार कम से कम चार राज्यों में छह प्रतिशत मत हासिल करना जरूरी होता है। इसके अलावा दो नियम और भी हैं कि लोकसभा की कुल सीटों में से 2 फीसदी सीटें कम से कम तीन राज्यों से मिले या फिर पार्टी को चार राज्यों में क्षेत्रीय दल का दर्जा हासिल होना चाहिए। यदि इन तीन मानकों में से एक नियम भी कोई पार्टी पूरा करती है तो उसे राष्ट्रीय दल का दर्जा दिया जा सकता है, लेकिन इन तीनों दलों ने इन तीनों में से एक भी मापदंड को पूरा नहीं किया है। लिहाजा इन तीनों दलों के राष्ट्रीय दर्जे को छीनने के लिए केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने पूरी तैयारी कर ली है। चुनाव आयोग के सूत्रों के अनुसार इन तीनों दलों के जवाब चुनाव आयोग को संतुष्ट नहीं कर सके जिससे एक भी मानक पूरा होता हो। इसके विपरीत लोकसभा चुनाव में राष्टÑीय दलों में शुमार होने के बावजूद बसपा को 4.1 प्रतिशत, राकांपा को 1.6 प्रतिशत और भाकपा को 0.8 प्रतिशत वोट ही मिल सका है।
 दर्जा खत्म होने का नुकसान
चुनाव आयोग द्वारा सुनवाई के बाद यदि इन तीनों दलों की राष्ट्रीय मान्यता रद्द करता है है तो इन्हें राजनीतिक रूप से कई सुविधाओं से हाथ धोना पड़ेगा। राष्टÑीय मान्यता खत्म होने पर बसपा, राकांपा व भाकपा अब चुनावों के दौरान आॅल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले चुनाव पूर्व प्रसारण और मुμत मतदाता सूची पाने का अधिकार भी खो देंगी। यह सुविधा राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते अभी तक मिल रही थी। इस प्रकार वर्ष 1968 के जारी एक आदेश के अनुसार राष्ट्रीय पार्टी के दायरे से बाहर होने के कारण इन दलों को अपने चुनाव चिन्ह पर पूरे देश में चुनाव नहीं लड़ पाएंगी। नियमानुसार अपने इस मौजूदा चुनाव चिन्ह पर उसी राज्य में ये दल चुनाव लड़ सकते हैं जहां इन्हें क्षेत्रीय दल का दर्जा प्राप्त होगा अन्यथा अलग-अलग राज्य में उनके चुनाव चिन्ह अलग-अलग रूप में आवंटित किये जा सकते हैं। वहीं राष्ट्रीय राजधानी में पार्टी कार्यालय के लिए मिले सरकारी भवन भी इन दलों से खाली कराने के लिए जल्द ही कहा जा सकता है।
12Aug-2014


भारत रत्न को लेकर अटकलों की राजनीति

कानून के मुताबिक एक बार में तीन को मिल सकता है यह सम्मान
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से मोदी सरकार किस-किस हस्ती को नवाजने जा रही है इसकी अटकलों की राजनीति गरमानी शुरू हो गई है। माना जा रहा है कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर ही इन अटकलों पर विराम लग सकता है, जब सरकार भारत रत्न से नवाजने वाली हस्तियों के नामों का ऐलान करेगी।
मोदी सरकार द्वारा एक तीर से कई निशाने साधने की रणनीति को लेकर भारत रत्न देने वाली हस्तियों की सुगबुगहाट में जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के अलावा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, कांशीराम, मदन मोहन मालवीय की तरह कई नामों की चर्चा हुई तो इस पर राजनीति गरमाना स्वाभाविक ही है। सूत्रों के अनुसार गृहमंत्रालय ने रिजर्व बैंक के छापेखाने को पांच भारत रत्न पदक बनवाने का आर्डर दिया है, तो माना जा रहा है कि मोदी सरकार इस साल पांच हस्तियों को इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजने जा रही है। सूत्रों की माने तो जिन हस्तियों को इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा जाएगा उसका ऐलान स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर हो जाएगा, लेकिन अभी तक ऐसी हस्तियों के नामों के बारे में मात्र अटकलें ही लगाई जा रही हैं, जिनकी कोई अधिकारिक पुष्टि नहीं हो सकी है। संविधान के जानकारों का तो कहना है कि भारत में मौजूदा कानूनों के मुताबिक एक बार में केवल देश का यह सर्वोच्च सम्मान तीन लोगों को ही दिया जा सकता है। वहीं यह भी मानना है कि यदि भारत सरकार तीन से ज्यादा लोगों को भारत रत्न से सम्मानित करना चाहती है तो सरकार को इसके लिए मानकों में भी बदलाव करना होगा। जहां तक पांच पदकों के आर्डर का सवाल है उसके बारे में गृहमंत्रालय के सूत्र भी कह चुके हैं कि यह जरूरी नहीं है कि जितने पदकों का आर्डर दिया गया हो उतने ही लोगों को इस सम्मान से नवाजा जाए।
सर्वोच्च सम्मान पर राजनीति
देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न देने के मामले पर राजनीति भी गरमाने लगी है। कांग्रेस के एक नेता का कहना है कि संभावित नामों की चर्चा में काशीराम को इस सम्मान से नवाजकर मोदी सरकार दलित वोटबैंक की राजनीति करना चाहती है। सूत्रों के अनुसार मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दलित नेता काशीराम को भी भारत रत्न से सम्मानित करने जा रही है, वहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी भारत रत्न का सम्मान देने की चर्चा है। कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने मोदी सरकार के इस रूख पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि यदि भारत रत्न देने के लिए सरकार इतिहास बनाने का प्रयास कर रही है तो उन्‍होंने भगत सिंह, सुखदेव और लाला लाजपत राय रास बिहारी बोस, जनरल मोहन सिंह, एनी बेसेंट, एओ ह्यूम, गोपाल कृष्ण गोखले के नाम भी सुझाए हैं। इससे पहले देश में यह सर्वोच्च सम्मान 43 लोगों को दिया जा चुका है, जिसमें 11 को मरणोपरांत यह सम्मान दिया गया है। पिछले साल यूपीए सरकार ने महानतम क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और वैज्ञानिक सीएनआर राव को इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा था।
नेताजी के परिजनों का ऐतराज
देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजे जाने वालों में जब नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नाम की चर्चा आई तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजनों ने भारत सरकार से नेताजी को भारत रत्न देने के बजाय उनकी गुमशुदगी की गुत्थी सुलझाने की मांग कर डाली। नेताजी के पोते सीके बोस ने कहा कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील करते हैं कि यदि वह सुभाष चंद्र बोस का सम्मान करना ही चाहते हैं, तो उनकी गुमशुदगी की गुत्थी को सुलझाएं। उन्होंने कहा कि नेताजी के गायब होने से जुड़ी करीब 100 गुप्त फाइलें सरकार के पास हैं, उन्हें सार्वजनिक किया जाना चाहिए। जिससे सच देश के सामने आ सके। उन्होंने कहा कि एक स्पेशल टीम गठित कर इन फाइलों की जांच करवाई जानी चाहिए। उन्होंने नेताजी के लिए भारत रत्न को अनुपयुक्त बताते हुए कहा कि इसमें अब बहुत देर हो चुकी है। गौरतलब है कि इससे पहले 1992 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुभाष चंद्र बोस को मरणोपरांत भारत रत्न सम्मान देने का फैसला लिया था, लेकिन इस पर जमकर हंगामा हुआ और मामला अदालत तक पहुंचा और नतीजन सम्मान वापस लेना पड़ा।
11Aug-2014

रविवार, 10 अगस्त 2014

भारत में तेजी से बढ़े एड्स के मामले!

महिलाओं से ज्यादा पुरुषों की मौत
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
देश में एड्स यानि एचआईवी पोजीटिव के मामलों में लगातार वृद्धि देखने को मिल रही है और यह भी चौंकाने वाले आंकड़े केंद्र सरकार की स्वास्थ्य नीति को चुनौती देते नजर आ रहे हैं कि एड्स के कारण होने वाली मौतों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की संख्या ज्यादा है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा एचआईवी के मामलों को नियंत्रित करने के लिए अनेक परियोजनाएं और अभियान चलाए हुए हैं इसके बावजूद पिछले तीन साल में एड्स के मामलों की संख्या में बढ़ोतरी नजर आ रही है। हालात ये हैं कि मौजूदा वित्तीय वर्ष 2014-15 यानि अप्रैल व मई के पिछले दो माह में ही देश में 35436 एड्स के नए मामले सामने आये हैं। सरकार की चिंता इसलिए भी बढ़ना स्वाभाविक है कि यदि इस रफ्तार से ही इन मामलों का बढ़ना जारी रहा तो एक साल में यह संख्या कितनी होगी। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर की जाए तो वर्ष 2013-14 में ऐसे मामलों की संख्या दो लाख 39 हजार 763 थी। जहां तक राज्यों का सवाल है इन दो माह में सबसे ज्यादा 5499 मामले आंध्र प्रदेश में सामने आए हैं। पिछले तीन सालों में भी इन मामलों में यह राज्य सबसे ऊपर रहा है। हिमाचल प्रदेश ही पूरे देश में ऐसा राज्य रहा है जहां मौजूदा वित्तीय वर्ष के पहले दो माह में एक भी एड्स का रोगी सामने नहीं आया अन्यथा हर राज्य में एचआईवी पोजीटिव के मामलें बढ़ते नजर आए हैं। मौजूदा वित्तीय वर्ष के पहले दो माह की ही बात करें तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 1433, हरियाणा में 902, छत्तीसगढ़ में 416 तथा मध्य प्रदेश में 993 एड्स के नए मामले सामने आए हैं। आंध्र प्रदेश के बाद कर्नाटक ऐसा राज्य रहा जहां 5116 नए मामले इन दो माह में ही प्रकट हुए हैं। उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य रहा है जहां पिछले तीन साल में एचआईवी यानि एड्स के मामलों में तेजी से गिरावट आई है, हालांकि मौजूदा वित्तीय वर्ष के इन पहले दो माह में यूपी में 2388 मामले सामने आए हैं। मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार देशभर में एड्स रोगियों में 55.3 प्रतिशत पुरुष और 44.2 महिलाएं शामिल हैं, जबकि पिछले तीन साल में इस रोग से ग्रस्त मरने वालों में 60 प्रतिशत पुरुष और 40 प्रतिशत महिलाएं शामिल रही हैं।
दो माह में हजारों मौत
एड्स के कारण देशभर में मौजूदा वित्तीय वर्ष 2014-15 के पहले दो माह में 9752 लोगों की मौत हुई है, जिसमें सर्वाधिक 3689 लोग महाराष्ट्र में मरे हैं,जबकि आंध्र प्रदेश में 1489, कर्नाटक में 1191 लोग एचआईवी पोजीटिव होने के कारण मौत के मुहं में समा गये हैं। बाकी सभी राज्यों में मरने वालों की संख्या हजार से कम ही रही। दिल्ली में इन दो माह में 87, हरियाणा में 56, मध्य प्रदेश में 170 लोगों की मौत हुई। हिमाचल प्रदेश में इस दौरान 38,पंजाब में 114, राजस्थान में 282, उत्तर प्रदेश में 535 लोगों की मौत हुई है। इन दो माह के आंकड़े देखें तो छत्तीसगढ़ राज्य ही ऐसा रहा जहां एक भी व्यक्ति इस रोग से नहीं मरा है। यदि मौजूदा वित्तीय वर्ष के दो माह में हुई 9752 लोगों को शामिल कर लिया जाए तो पिछले तीन साल में 1.07 लाख लोग चआईवी/एड्स की चपेट में आने के कारण काल का ग्रास बने हैं।
10Aug-2014

हर घंटे में एक बच्चा लापता!

सरकार की बढ़ी चिंता, सख्त कानून पर मंथन

ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
मोदी सरकार द्वारा मानव तस्करी यानि बच्चों की सुरक्षा एवं सरंक्षा की दिशा में सख्त कानून बनाने की कवायद की जा रही है, लेकिन सरकार के माथे पर चिंता की लकीर इसलिए भी बढ़ गई कि मानवाधिकार के सामने आए आंकड़ों में देश में औसतन हर घंटे एक बच्चा गायब हो रहा है।
राष्टÑीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं कि देशभर में हर साल करीब 44 हजार बच्चें लापता हो रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर का कोई सुराग तक नहीं लग पाता है। एक आंकड़ा इस चिंता को ज्यादा बढ़ा रहा है जिसमें अभी तक लापता करीब 55 हजार बच्चों में 35,615 यानि 64 प्रतिशत नाबालिग लड़कियां शामिल हैं। पिछले आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2009 से 2011 के बीच एक लाख 70 हजार 600 बच्चें लापता हुए थे,लेकिन 1.22 से कुछ ज्यादा का ही पता लग पाया था, बाकी अभी तक लापता हैं। यह मामला शुक्रवार को लोकसभा में भी जोरशोर से उठाया गया। मध्य प्रदेश के भाजपा सांसद वीरेनद्र कुमार ने शून्यकाल के दौरान यह मामला उठाते हुए चिंता जताई और सख्त कानून बनाने की मांग की। सरकार के समक्ष यह मांग भी की गई कि गुमशुदा एवं अनाथ बच्चों के संबन्ध में एक ठोस नीति बनाई जाए। संसद में उठे इस मामले में सरकार के संज्ञान में यह भी लाया गया है कि देश में बच्चों के लापता होने की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और ऐसे बच्चें सड़कों पर भीख मांगने या फिर नक्सलियों के हाथों का खिलौना बनने के लिए मजबूर हो जाते हैं। बच्चों की खरीद-फरोखत खासकर नाबालिग लड़कियों के लापता होने की घटनाएं बेहद चिंताजनक हैं। यह भी दुर्भाग्यवश करार दिया गया कि हर घंटे में एक बच्चा लापता हो रहा है। अस्पतालों से बच्चों की चोरी और खरीद-फरोख्त तथा मानव तस्करी के गोरखधंधे में देश में करीब आठ सौ गिरोह सक्रिय बताये जा रहे हैं। हाल ही में मीडिया रिपोर्ट के अनुसार मेरठ के खरखौदा की एक लड़की के मामले से यह भी खुलासा हुआ है कि इस गैर कानूनी धंधे में लड़कियों को विदेशों में भी तस्करी के रूप में भेजने वाले गिरोह सक्रिय हैं, तो वहीं हाल ही में दिल्ली के रेड एरिया से बरामद लापता लड़कियों की बरामदगी इस बात की पुष्टि कर रही है कि ऐसे गिरोह लड़कियों की खरीद-फरोख्त करके बच्चों की जिंदगियों को बर्बाद कर रहे हैं।
ठोस रणनीति बनाना जरूरी
हाल ही में केंद्रीय बाल एवं महिला विकास मंत्री श्रीमती मेनका गांधी ने संसद में इस बात की जानकारी दी थी कि सरकार बच्चों की सुरक्षा और संरक्षा के प्रति सख्त कानून बनाने जा रही है जिसका मसौदा तैयार कर लिया गया है और कैबिनेट में मंजूरी के लिए जाने को तैयार है। वहीं बच्चों की खरीद-फरोख्त एवं उनकी तस्करी के मुद्दे पर भी सरकार गंभीर है, जिसके लिए कड़े कानूनों के जरिए अंकुश लगाने की योजना केंद्र सरकार बना रही है। संसद में उठे इस मामले में सरकार से यह भी मांग की गई है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे आयोगों की सक्रियता बढाने के साथ-साथ गुमशुदा और अनाथ बच्चों के संबंध में एक ठोस नीति बनाने की पहल करने की जरूरत है।
09Aug-2014

शनिवार, 9 अगस्त 2014

बीमा विधेयक पर बढ़ी सरकार की मुश्किलें!

प्रवर समिति को भेजने की मांग पर अड़ा विपक्ष
ऐनवक्त पर टाली गई सर्वदलीय बैठक
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
केंद्र सरकार उच्च सदन में बीमा विधेयक को कांग्रेस को साथ लेने के प्रयास में है, लेकिन कांग्रेस के साथ विपक्षी दल इस विधेयक को प्रवर समिति को सौंपने की मांग पर अड़िग हैं, इससे इस विधेयक को लेकर सरकार की मुश्किलें बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि इस विधेयक पर आमसहमति बनाने के लिए बुधवार को होने वाली सर्वदलीय बैठक को भी टाल दिया गया है।
राज्यसभा में केंद्र सरकार बीमा क्षेत्र में एफडीआई का दायरा बढ़ाने की योजना के तहत संशोधनों के जरिए बीमा विधेयक को पारित कराने के लिए उलझे हुए पेंच को कांग्रेस के साथ मिलकर हल करने के प्रयास में है। लेकिन कांग्रेस और उसके साथ अन्य विपक्षी दल इस विधेयक को प्रवर समिति के हवाले करने की मांग पर अड़िग है इसके लिए नौ दलों ने राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी को पहले ही नोटिस दे रखा है। हालांकि सरकार ने अपने प्रयासों को अभी ढीला नहीं छोड़ा है जिसके लिए कांग्रेस के नेताओं को यह बताने का प्रयास है कि वह वह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानि एफडीआई सीमा को छोड़कर कोई संशोधन सुझाएं, सरकार उसे उसमें शामिल करने को तैयार है। इसी प्रयास के अधर में लटकने का कारण सर्वदलीय बैठक को स्थगित करना बताया जा रहा है। हालांकि सरकार अन्य छोटे दलों के संपर्क में भी है जो राज्यसभा में सरकार के इस विधेयक को पारित कराने की क्षमता रखते हैं उनमें खासकर बसपा और सपा ऐसे दल है जिनका साथ मिलते ही सरकार को कांग्रेस की जरूरत भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि कांग्रेस की सहयोगी पार्टीराकांपा पहले ही इस बिल पर सरकार के पक्ष में आ चुकी है। हालांकि फिलहाल राज्यसभा में अन्नाद्रमुक, सपा व बसपा के भी विरोधी सुर गूंज रहे हैं, जो सरकार की मुश्किलों का सबसे बड़ा सबब हैं। इसलिए सरकार कांग्रेस को समझाने में जुटी हुई है, लेकिन सरकार आम बजट में बीमा क्षेत्र में 49 फीसद एफडीआई की सीमा का ऐलान कर चुकी है जिस पर वह किसी कीमत पर समझौता नहीं करेगी
सरकार के पास विकल्प
बीमा विधेयक को लेकर बने टकराव के बीच सरकार के पास अन्य विकल्प भी हैं। मसलन सरकार प्रवर समिति के लिए राज्यसभा में बने दबाव से निपटने के लिए यदि विधेयक को उच्च सदन से वापस ले और फिर लोकसभा में पेश करे तो जाहिर सी बात है कि लोकसभा में पारित होने के बाद उसकी राह आसान हो जाएगी। संविधान के जानकारों की माने तो फिर कुछ संशोधनों के साथ राज्यसभा में पारित कराना आसान हो सकता है। हालांकि इससे पहले सरकार बीमा विधेयक पारित कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र भी बुलाने के भी संकेत दे चुकी हैं, लेकिन उसमें भी कुछ अनिवार्य शर्ते भी रोड़ा बन सकती हैं। या जा सकता है, मगर उसके लिए कुछ अनिवार्य शर्ते भी हैं। सूत्रों के मुताबिक सरकार फिलहाल ऐसे विकल्प के बारे में नहीं सोच रही है और वह सीधे रास्ते से बीमा विधेयक को पारित कराने के प्रयास में जुटी हुई है।
कांग्रेस में बिखराव?
सूत्रों के मुताबिक राज्यसभा में सबसे बड़े दल और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस में भी बीमा विधेयक पर विरोधी स्वर सामने आने लगे हैं। कुछ कांग्रेसी सदस्यों का कहना है कि यूपीए शासन काल में भाजपा ने भी भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन देकर यूपीए की राह आसान बनाई थी। उसी तर्ज पर कांग्रेस को भी बीमा विधेयक में संशोधन देकर इस बिल का समर्थन करना चाहिए। राकांपा के सुर में सुर मिलाते हुए कुछ कांग्रेस नेता यह भी कह रहे हैं कि यह विधेयक 2008 में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ही लेकर आई थी, इसलिए कांग्रेस को ज्यादा विरोध नहीं करना चाहिए। इस बात को तो स्वयं वित्त मंत्री अरुण जेटली भी कांग्रेस को स्मरण करा रहे हैं।
o7Aug-2014

बुधवार, 6 अगस्त 2014

अब बीमा विधेयक पर संसद में बढ़ा तकरार!

प्रवर समिति के पास भेजने के पक्ष में नहीं सरकार
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
मोदी सरकार द्वारा बीमा क्षेत्र में एफडीआई का दायरा बढ़ाने के फैसले के विरोध में विपक्ष बीमा विधेयक के विरोध में लामबंद होता नजर आ रहा है। बीमा विधेयक पर सर्वदलीय बैठक भी बेनतीजा साबित होने के बाद हालांकि सरकार ने कड़ा रूख अख्तियार करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि सरकार इस विधेयक को प्रवर समति के पास नहीं भेजेगी, भले की विधेयक सदन में गिर जाए।
राज्यसभा में सोमवार को विचार और पारित करने के लिए पेश किये जाने वाले बीमा विधेयक पर विपक्ष के विरोधी स्वर सामने आने के बाद इसे कार्यवाही से अलग रखा गया और इस मुद्दे पर सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर आम सहमति बनाने का प्रयास किया, लेकिन गतिरोध समाप्त होने के बजाए तकरार बढ़ता ही नजर आया। हालांकि यूपीए में इस मुद्दे पर बिखराव सामने आ चुका है जिसका मुख्य दल राकांपा सरकार के साथ है, जबकि सपा और बसपा अभी तक तटस्थ नजर आ रहे और आमसहमति बनाने की बात कर रहे हैं। बीमा विधेयक पर आम सहमति न बनने और विपक्षी दलो खासकर कांग्रेस के अड़ियल रवैये के सामने सरकार ने भी कड़ा रूख अख्तियार कर लिया है। सरकार और विपक्ष के बीच तकरार के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साफ कर दिया है कि सरकार इस विधेयक को सलेक्ट कमेटी यानि राज्यसभा की तदर्थ समिति के पास भेजने के कतई पक्ष में नहीं है, भले ही सदन में यह विधेयक गिर जाए या संशोधित ही क्यों न कर दिया जाए। सूत्रों के अनुसार राकांपा द्वारा इस बिल का समर्थन करने से उन्हें एक नया साथी मिल रहा है और सरकार को उम्मीद है कि इसी प्रकार अन्य कुछ दलों का भी इस मुद्दे पर सरकार को समर्थन मिलेगा।
नौ दलों का विरोध

सोमवार को इस विधेयक पर सर्वदलीय बैठक बुलाकर सरकार ने पहल तो की, लेकिन इससे पहले ही नौ दलों ने इस विधेयक को प्रवर समिति को भेजने के लिए सभापति हामिद अंसारी को नोटिस दे चुके हैं, जिनमें कांग्रेस, माकपा, भाकपा, सपा, बसपा, द्रमुक, जदयू, तृणमूल कांग्रेस और राजद ने इस विधेयक को एक प्रवर समिति को भेजने की मांग की है। सरकार चाहती है कि वह देश की आर्थिक सुधार की दिशा सभी की सहमति से आगे बढ़े। दरअसल उच्च सदन में सत्तारढ़ राजग बहुमत में नहीं है, इसलिए ऐसे विधेयक को पारित कराने के लिए उसे अन्य दलों के सहयोग की जरूरत होगी। सरकार चाहती है कि ऐसे बिलों पर आम सहमति बनाकर उन्हें आगे बढ़ाया जाए। ऐसे में राकांपा कांग्रेस से इस बिल का यह कहकर समर्थन करने को कह रही है कि वर्ष 2008 में यूपीए ही इसे लेकर आई थी तो विरोध करने के बजाए संशोधन पर ध्यान देकर समर्थन करना चाहिए। हालांकि सरकार फिर से सर्वदलीय बैठक बुलाने की योजना बना रही है।
क्या हैं प्रावधान

केंद्र में आई मोदी सरकार के आम बजट में बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का ऐलान किया गया है इस विधेयक में बीमा क्षेत्र की निजी कंपनियों में विदेशी हिस्सेदारी को 49 फीसदी तक करने की छूट के प्रावधान के साथ यह शर्त रखी गई है कि इनका प्रबंधकीय नियंत्रण भारतीय भागीदारों के ही हाथ में होगा। अभी बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी भागीदारी (एफडीआई) की अधिकतम सीमा 26 फीसदी है। उसी के अनुसार इस विधेयक में प्रावधान किये गये हैं, जिसके साथ अन्य संशोधनों के साथ सरकार इस विधेयक को पारित कराना चाहती है। विपक्षी दलों का सहयोग लेने के लिए ही सरकार ने सोमवार के लिए इस बिल का टाला और सर्वदलीय बैठक बुलाने की पहल की। उधर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस का तर्क है कि इस विधेयक में 11 संशोधन किये हैं इसलिए इसे अध्ययन के लिए प्रवर समिति के समक्ष भेजा जाना चाहिए। इसी वजह से विपक्षी दलों ने सभापति को नोटिस भेजे हैं। संसदीय कार्यमंत्री एम. वेंकैया नायडू ने इस विधेयक को पारित करने में विपक्ष से सहयोग करने की अपील करते हुए कहा है कि सरकार विपक्ष के किसी भी अर्थपूर्ण सुझाव पर गौर करने के लिए तैयार है।
05Aug-2014

रविवार, 3 अगस्त 2014

वैश्विक संपदा को संभालने में नाकाम रही सरकार!

एक साल में ही फिजूल खर्ची में फूंके करोड़ो रुपये
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
वैश्विक संपदा का प्रबंध करने में नाकाम रही पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने विदेशों में भारतीय दूतावास और मिशनों के लिए भूमि खरीद या भूमि अधिग्रहणकरने में जो शिथिलता बरती है उसके खुलासे के बाद केंद्र में मोदी सरकार सबक लेकर कैग द्वारा की गई सिफारिशों पर गौर करेगी? मसलन कैग द्वारा पिछली सरकार पर वैश्विक संपति के अधिग्रहण, निर्माण या पुनर्विकास जैसी प्रबंधन गतिविधियों में बरती गई खामियों के कारण करोड़ो रुपये का फिजूल खर्ची होने उंगलियां उठाई हैं। इसके लिए विदेश मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराया गया है।
भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षा द्वारा संसद में वैश्विक संपदा प्रबंधन पर पेश की गई रिपोर्ट में यह खुलासा किया गया है कि भारत और विदेशों में भारत सरकार के स्वामित्व में आने वाली संपत्तियों के अधिग्रहण एवं अनुरक्षण हेतु विदेश मंत्रालय उत्तरदायी होता है, जो भारत के अलावा विदेशों में 180 मिशनों में संपत्तियों का प्रबंध करता है। वर्ष 20111-12 हेतु संपत्ति प्रबंधन के प्रति पूंजीगत व्यह 358.92 करोड़ था, लेकिन विदेश मंत्रालय ने अपनी जिम्मेदारियों के प्रति कार्य निष्पादन में ऐसी त्रुटियां व विलंब किया है, जिसके कारण विदेशी संपदा के प्रबंधन में विदेशों में भूमि अधिग्रहण या खरीद जैसी गतिविधियां पूरी नहीं हो सकी, जबकि इसके लिए सरकार ने किराए के रूप में करोड़ो रुपये खर्च कर दिये। कैग द्वारा एक दिन पहले शुक्रवार को किये गये खुलासे के अनुसार लोक लेखा समिति को आश्वासन देने के बावजूद विदेश मंत्रालय ने सात मामलों जिनेवा, बर्न, हैमबर्ग, मयुनिख, बिश्केक, स्टॉकहॉम तथा मिलान में भूमि की खरीद व संपत्ति के अधिग्रहण में निर्णय लेने में त्रुटियां की और इतना विलंब किया कि वर्ष 2011-12 के दौरान 7.83 करोड़ रुपये किराए पर ही खर्च हो गया।
निर्माण में विलंब

इसी प्रकार लेखा परीक्षा में दस ऐसे मामलों का खुलासा हुआ, जहां निर्माण में विलंब के कारण 16.36 करोड़ रुपये इस दौरान किराए पर खर्च करने पड़े। मसलन शंघाई, स्पेन पोर्ट, पोर्ट लुई, दार-ए-सलाम, काठमांडु, ताशकंद, क्यीव, ब्रासीलिया, दोहरा तथा निकोसिया जैसे दस स्थानों पर संपत्त्तियों का निर्माण शुरू होना था, लेकिन लगातार इतना विलंब हुआ कि अभी तक यह कार्य नहीं हो सका है। कैग ने इस विलंब के लिए विदेश मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराया है। जबकि लोक लेखा समिति ने मंत्रालय से निर्माण पूर्ण गतिविधियों में विलंब से बचने के लिए निर्धारित समय सीमा एवं मॉनिटरिंग तंत्र स्थापित करने का भी अनुरोध किया था।
नवीकरण में अनियमिता
एक अन्य मामले में विदेश मंत्रालय की कमियों व त्रुटियों के कारण इस 2011-12 के दौरान 7.44 करोड़ रुपये किराये के रूप में फिजूल खर्च कर दिये गये। रिपोर्ट के अनुसार सिडनी, हांगकांग, कुआलाललाम्पुर एवं जकार्ता में भारत सरकार के स्वामित्व वाले भारतीय मिशनों में नवीकरण और पुन:विकास कार्य होना था, लेकिन उसमें विलंब ही नहीं अनियमितताएं भी सामने आई हैं। इस मामले पर लोक लेखा समिति भी सवाल खड़े कर चुकी है।
देश में भी करोड़ो फिजूल खर्ची

कैग की रिपोर्ट की माने तो घरेलू निर्माण परियोजनाओें में विदेश मंत्रालय की प्रबंधन दृष्टि त्रुटियांपूर्ण रही। जिसमें जयपुर, अमृतसर, मुंबई, श्रीनगर में क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालयोें तथा विदेशी सेवा संस्थान दिल्ली के निर्माण संबन्धी अभिलेखों की जांच पड़ताल हुई तो जयपुर का कार्यालय तो 22 साल से निर्माण की बाट जोहता मिला, जबकि श्रीनगर में दिसंबर 2006 में भूमि खरीद के बावजूद निर्माण की शुरूआत नहीं हुई। शेष तीन कार्यालयों का निर्माण भी अधूरा है और वर्ष 2011-12 में 3.98 करोड़ का किराये के रूप में परिहार्य खर्च किया गया है।
03Aug-2014

दीपेन्द्र हुड्डा के दावों पर प्रवेश वर्मा का पंच!

लोकसभा में दिल्ली बजट पर कांग्रेस हुई बेनकाब
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
लोकसभा में दिल्ली बजट पर चर्चा के दौरान दिल्ली के भाजपा सांसदों में ऐसा उत्साह देखने को मिला कि उन्होंने कांग्रेस के दावों की पोल खोलकर रख दी। खासकर पश्चिमी दिल्ली के सांसद प्रवेश साहिब सिंह वर्मा ने ऐसा पंच मारा कि चाहते हुए भी कांग्रेस के दीपेन्द्र हुड्डा सदन में मुस्कराने के अलावा कुछ जवाब नहीं दे सके।
दरअसल दिल्ली के बजट की चर्चा की शुरूआत कांग्रेस की ओर से रोहतक के सांसद दीपेन्द्र हुड्डा से कराई गई, जिसमें उन्होंने दिल्ली में शीला दीक्षित और केंद्र की यूपीए सरकार की उपलब्धियों के पुलिंदों का पिटारा पेश करने का प्रयास किया। केंद्र सरकार पर दिल्ली के बजट में कांग्रेस सांसद के लगाए गये आरोपो को प्रवेश वर्मा ने ऐसा करारा जवाब दिया कि कुछ बोलने को हुड्डा खड़े तो हुए लेकिन जब प्रवेश वर्मा ने तर्क और कांग्रेसी सांसद के दावों को खोखला साबित करते हुए प्रमाण दिये तो हुड्डा खड़े हुए केवल मुस्कराते ही नजर आए। भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने दिल्ली मेट्रो का श्रेय कांग्रेस को देने के हुड्डा के दावों की सफाई करते हुए कहा कि जब दिल्ली में वर्ष 1995 में दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन का पंजीकरण हुआ तो दिल्ली में भाजपा की सरकार थी। जब वर्ष 1998 में मेट्रो परियोजना का निर्माण शुरू हुआ तो दिल्ली और केंद्र दोनों में ही भाजपा की सरकारें थी। यही नहीं जब वर्ष 2002 में शाहदरा से कश्मीरी गेट तक पहली मेट्रो रेल चलाने का ट्रायल हुआ तो उस समय तत्कालीन केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उसे हरी झंडी दिखाई। ऐसे में मेट्रो रेल परियोजना में कांग्रेस का रोल कहां से आया? जबकि 2003 से 2008 तक कांग्रेस बार-बार यह कहती नहीं थकी कि दिल्ली में मेट्रो का निर्माण उनकी पार्टी की देन है। प्रवेश वर्मा के दिल्ली की अन्य परियोजनाओं के लिए हुड्डा द्वारा गिनाई गई उपलब्धियों पर पानी फेरते हुए यहां तक तंज कसा गया कि यह अच्छी बात है कि हरियाणा में उनकी सरकार भले ही डांवाडोल हो, लेकिन दीपेन्द्र हुड्डा को दिल्ली की फिक्र है। सही भी है कि दिल्ली पूरे देश के लोगों की है, जहां सांसद ज्यादा समय बिताते हैं। वर्मा ने कहा कि यदि दिल्ली से सभी को ऐसा प्रेम है तो सभी सांसदों खासकर दिल्ली के पडोसी राज्यों के सांसदों को अपनी सांसद निधि से 50-50 लाख रुपये दिल्ली के विकास में खर्च करने की योजना का प्रस्ताव रखना चाहिए, उसके बाद शायद ही दिल्ली के लिए किसी बजट पेश करने की जरूरत पड़े। प्रवेश वर्मा ने कांग्रेस को करारा जवाब देते हुए कहा कि कांग्रेस कहानी बहुत सुनाती है और उसकी पटकथा भी लिखती है, लेकिन करती कुछ नहीं है।
दिल्ली को छलती रही कांग्रेस

लोकसभा में कांग्रेस के दावों और उसके आरोपों पर वार पर वार करते जा रहे भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने कहा कि दिल्ली में 15 साल कांग्रेस ने शासन किया, लेकिन कुछ नया नहीं दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद कांग्रेस की दिल्ली सरकार ने बसों की संख्या को पूरा नहीं कर पायी। वहीं एक भी यूनिवर्सिटी या स्कूल अथवा अस्पताल दिल्ली को दिया। हां कांग्रेस ने नाम बदलकर ऐसे संस्थानों को नया रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने यहां तक कहा कि 2008 के चुनाव छत्रसाल स्टेडियम में कांग्रेस प्रमुख ने अनियमित कालोनियों को नियमित करने के लिए प्रोविजनल सर्टीफिकेट तो बांटे, लेकिन सोनिया गांधी को यह मालूम नहीं कि शीला सरकार ने एक भी कालोनी को नियमित नहीं किया। मसलन कहानी सुनाने में कांग्रेस पूरी तरह से माहिर रही है। कांग्रेस की इस कहानी और कथनी को भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार पूरा करने जा रही है, जहां कालोनिया भी नियमित होंगी और पीने के पानी व सीवर व्यवस्था भी होगी। वर्मा ने बिजली व्यवस्था, कामनवैल्थ गेम घोटाले, गांव के लाल डोरे, दिल्ली की शिक्षा प्रणाली व स्वास्थ्य, परिवहन व्यवस्था, जलापूर्ति जैसे तमाम मुद्दों पर कांग्रेस द्वारा किये गये सभी दावों की तर्को और उदाहरणों के साथ परते उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
31JULY-2014