सोमवार, 28 अगस्त 2023

साक्षात्कार:नारी शक्ति पर साहित्य सृजन करती रचनाकार शीला काकस

समाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर समाज को ऊर्जा देने का प्रयास 
                         व्यक्तिगत परिचय 
नाम: शीला काकस 
जन्मतिथि: 31 अगस्त 1957 
जन्म स्थान: मुंबई (हरियाणा) 
शिक्षा:‍ इंटरमिडिएट 
संप्रत्ति:‍ महिला रचनाकार व लेखक 
माता पिता: मालूराम व श्रीमती शांति देवी
संपर्क: गांव सैदपुर, मंडी अटेली (हरियाणा), मोबाइल: 9355010629 
By-ओ.पी. पाल 
 हरियाणा में साहित्य जगत में विभिन्न विधाओं में समाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर लेखन करने वाले साहित्यकारों में महिलाएं भी साहित्य सृजन करने में अहम योगदान दे रही है। ऐसी महिला रचनाकारों में शामिल गद्य व पद दोनों रुप में खासकर नारियों के उत्थान पर लेखन करते हुए अपनी रचनाओं के संसार को आगे बढ़ा रही है। उनका साहित्य सेवा के माध्यम से महिलाओं के प्रति समाज में पनपी विपरीत अवधारणा के उन्मूलन हेतु समाज में सकारात्मक विचारधारा को जीवंत करने का प्रयास है। वह महिलाओं की पीड़ा और दर्द को अपनी साहित्यिक रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों को तो उजागर कर ही रही हैं, वहीं वे महिलाओं के उत्थान के लिए सामाजिक सेवा में सक्रिय रुप से जुटी हुई है। साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं से जुड़ी महिला साहित्यकार शीला काकस ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में सामाजिक विकृतियों के खिलाफ जन चेतना जागृत करने, नारी उत्थान तथा पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अपनी भूमिका के पिछले करीब तीन दशक के सफर में कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया, जिसमें वह महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति प्रेरित करके नारी शक्ति का अहसास भी करा रही हैं। 
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साहित्यकार एवं समाजसेविका के रुप में महिलाओं के उत्थान करने में जुटी शीला काकस का जन्म 31 अगस्त 1957 को मुंबई में महेन्द्रगढ़ जिले के गांव मोहलड़ा के मूल निवासी मालूराम व श्रीमति शान्ति देवी के घर में हुआ। उनका जन्म उस दौरान हुआ, जब उनके पिता भारतीय वायु सेना में कैप्टन के पद पर मुंबई में तैनात थे। पिता सेना में रहे, तो परिवार में अनुशासन ही प्राथमिकता के साथ नियमित दिनचर्चा के साथ पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान रहा। हालांकि कविताएं और कभी लिखने की रुचि भी उन्हें स्कूली जीवन से रही। लेकिन परिवार में साहित्यिक माहौल कतई नहीं रहा। बकौल शीला काकस, हरियाणवी रीति रिवाज और प्राचीन परंपराओं के चलते 18 साल की उम्र होते ही परिजनों ने जुलाई 1975 को उसका विवाह महेन्द्रगढ़ जिले के अटेली मंडी में गांव सैदपुर निवासी रोहित यादव के साथ कर दिया। ससुराल आई तो वहां परिवेश कुछ अलग ही मिला, जहां उनके पति का रुझान पहले से ही पत्रकारिता और साहित्य लेखन की ओर बढ़ता नजर आया। यह देख उसे भी अपने साहित्य व लेखन में अभिरुचि को आगे बढ़ने की संभावनाएं नजर आने लगी। वह इसे संयोग या अपना सौभाग्य ही मानती है कि उसकी साहित्यिक अभिरुचि को आगे की राह मिली और वह भी पति के साथ साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने लगी और लिखना भी शुरु कर दिया। हमसफर के मिले प्रोत्साहन से उनके शुरु हुए लेखन का ही नतीजा रहा कि उनकी पहली रचना 1988 में दैनिक स्वतंत्र विश्व मानव में प्रकाशित हुई। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक ही था। हालांकि घर परिवार में गृहणी के रुप में घर का कामकाज और खेती बाड़ी के काम में हाथ बंटाने के कारण उनके सामने समाज सेवा और लेखन कार्य में कुछ उलझने तो सामने जरुर आई, लेकिन उनके हमसफर रोहित जी के साथ उनका साहित्यिक लेखन बरकरार रही नहीं रहा, बल्कि आगे बढ़ा। उन्होंने बताया कि उनकी गद्य व पद्य दोनों रुपो में लिखी गई साहित्यिक रचनाओं का फोकस देश प्रेम तथा लोक संस्कृति पर रहा, लेकिन सामाजिक सरोकारों के मुद्दे भी उन्हें लिखने के लिए झकझोरते रहे। खासबात ये है कि काव्य रचनाओं के जरिए समाज को दिशा देने के मकसद से उन्होंने अंधेरे में दीपक जलाते हुए औंधे घड़े को सीधा करने का प्रयास किया, ताकि आने वाली पीढ़ियां कुछ अच्छा तलाशने में सक्षम बन सकें। 
फोकस में सामाजिक सरोकार 
साहित्य क्षेत्र में शीला काकस की रचनाओं का फोकस नारी सशक्तिकरण, सामाजिक विसंगति तथा विद्रूपता के अलावा पर्यावरण जैसे विषयों पर रहा है। इसलिए उनकी रचनाओं में साक्षारता, बालिका शिक्षा, महिला सशक्तिकरण एवं समानता, बेटा-बेटी में अभेद, नारी सम्मान, पीढ़ियों का अंतर, सास-बहू में बढ़ती दूरिया, दहेज कुप्रभा, जनवृद्धि आदि सामाजिक मुद्दें प्रमुखता से नजर आते हैं। सामाजिक मुद्दों को उजागर करने के पीछे उनका यही प्रयास है कि ऐसी बुराईयों को त्यागकर समाज सकारात्मक विचारधारा की सोच सृजित करे, तो समाज को नई दिशा मिलना संभव है। उनकी रचनाएं निरंतर राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं और उनका आकाशवाणी रोहतक से भी प्रसारण होता रहा है। श्रीमती काकस नारी कल्याण और उनकी समस्याओं को लेकर सामाजिक सेवाओं में भी सक्रिय रुप से साहित्यिक संस्थाओं के अलावा सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ी हुई हैँ। ऐसी संस्थाओं में प्रमुख रुप से बाबू बालमुकुंद गुप्त पत्रकारिता एवं साहित्यिक सरंक्षण परिषद रेवाडी, अखिल भारतीय मानवाधिकार संघ नई दिल्ली, राष्ट्रीय पत्रकार मोर्चा भोपाल तथा कला संगम परिषद में सदस्य के रुप में जुड़ी हुई हैं। इसी प्रकार वह नारी चेतना मंच जिला महेन्द्रगढ़ की अध्यक्ष और अभिव्यक्ति सांस्कृतिक मंच नारनौल की सचिव पद की जिम्मेदारी भी संभाल रही हैं। 
पाठ्यक्रम का हिस्सा बने साहित्य 
आज के आधुनिक युग में साहित्य की चुनौतियों के बारे में शीला काकस का कहना है कि आज साहित्य लिखने वालों की संख्या तो बढ़ रही है, लेकिन उस हिसाब से पढ़ा नहीं जा रहा है। इसका कारण आज के बदलते परिवेश के अनुसार लेखन न होना भी है। वहीं प्रतिस्पर्धा के दौर में साहित्यकार और लेखक भी साधना के बिना आगे बढ़ने का प्रयास करता है, लेकिन वरिष्ठ लेखकों और साहित्यिक व संस्कृति से जुड़ी पुस्तकों के पठन-पाठन के बिना साहित्यिक लेखन कभी परवान नहीं चढ़ सकता। शायद इसी कारण आज की युवा पीढ़ी में भी साहित्य के प्रति रुझान कम हो रहा है और दूसरी ओर इंटरनेट व सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचलन की वजह युवा वर्ग मोबाइल में उलझा हुआ है। जहां तक युवा पीढ़ी को साहित्य और अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित करने का सवाल है, इसके लिए पाठ्यक्रमों में साहित्य व संस्कृति को हिस्सा बनाने के साथ प्रतियोगी परीक्षाओं में खेल की तरह साहित्यिक प्रश्नों को शामिल करना जरुरी है। शीला काकस की रचनाओं में सामाजिक मुद्दें उजागर किये गये हैं और इसमें उनका यही प्रयास है कि ऐसी सामाजिक बुराईयों को त्यागकर समाज सकारात्मक विचारधारा की सोच सृजित करे, तो समाज को नई दिशा मिलना संभव है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
महिला रचनाकार शीला काकस ने नारी उत्थान को लेकर कविताओं और लघुकथाओं जैसी रचानाएं लिखी हैं, जिनका प्रसारण आकाशवाणी रोहतक से भी होता रहा है। उनकी लिखित पुस्तकों में कन्या भ्रूण हत्या पर आधारित काव्य रचना पुस्तक ‘नारी तेरे नाम’ बेहद सुर्खियों में हैं, इसमें नारी शोषण व अत्याचार जैसी बुराईयों के खिलाफ 36 काव्य रचनाएं संकलित हैं। जबकि कविता संग्रह जागो मेरी बहनों जागो के अलावा वास्तुशास्त्र और हम और क्या कहती हैं रेखाएं जैसी किताबे भी उनकी कृतियों का हिस्सा हैं। इसके अलावा उनकी कुछ रचनाओं का पंजाबी भाषा में अनुवाद भी किया गया है। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्यकार शीला काकस को एबीआई संस्था के अमेरिकल मैडल ऑफ ऑनर सम्मान व वूमेन ऑफ द ईयर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा साक्षी सम्मान, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य मणि सम्मान, साहित्य मीना सम्मान, लोकवाणी सम्मान के साथ अखिल भारतीय मानवाधिकार संघ हरियाणा तथा दक्षिणी हरियाणा सांस्कृतिक मंच नारनौल जैसी देश-प्रदेश की दर्जनों संस्थाएं उन्हें पुरस्कार देकर सम्मानित किया है। 
28Aug-2023

सोमवार, 21 अगस्त 2023

चौपाल: कैनवास पर कला व संस्कृति के रंग बिखेरती रितु बामल

आपदा को अवसर में बदलकर महिलाओं के लिए बनी प्रेरणास्रोत 
              व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रितु बामल 
जन्मतिथि: 14 फरवरी 1982 
जन्म स्थान: गाँव माटोल जाटान, जिला हिसार (हरियाणा)
शिक्षा: स्नातक 
संप्रत्ति:‍ चित्रकार, फाइन आर्ट 
संपर्क: डीएलएफ एरिया, पंचकूला  (हरियाणा),  मोबाइल नं.-9130463317/8813047098 
माता-पिता: श्रीमती कृष्णा देवी, पिता स्व. धर्मसिंह बामल 
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BY--ओ.पी. पाल 
रियाणा की लोक कला व संस्कृति के क्षेत्र में पंचकूला-शिमला हाइवे स्थित डीएलएफ कालोनी की निवासी महिला चित्रकार श्रीमती रीतु बामल ने अपनी कला से बेटियों और महिलाओं को ऐसी प्रेरणा देकर एक मिसाल कायम की है, कि आपदाओं में अवसर कैसे ढूंढा जा सकता है? मसलन कोरोना काल के चुनौती पूर्ण समय के दौरान जब सीआईएसएफ में तैनात उनके पति देश की सेवा में व्यस्त रहे, तो उन्होंने अपनी चित्रकारी के शौंक को विभिन्न विधाओं में विस्तार देकर कला को ऐसा मूर्तरूप दिया कि उनके कैनवास पर कला और संस्कृति के बिखेरे जा रहे रंगों का हर कोई कायल होता नजर आया। हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान रितु बामल ने अपनी चित्रकारी कला को लेकर कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया है, जो समाज के लिए किसी सकारात्मक विचाराधारा की ऊर्जा देने से कम नहीं है। 
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रियाणा में कला और संस्कृति को प्रोत्साहन देती चित्रकार रीतू बामल का जन्म हिसार जिले के गांव माटोल जाटान में धर्मसिंह बामल और श्रीमती कृष्णा देवी के घर में 14 फरवरी 1982 को हुआ। उनके पिता एक आयुर्वेदिक वैद्य और माता मुख्याध्यापिका रही। रितु को चित्रकारी में बचपन से ही रुचि थी और वह घरेलू चीजों पर पेंटिंग करने का प्रयोग करती रहती थी। उन्होंने बताया कि बचपन में वे गांव से हिसार शहर में रहने लगे तो उन्होंने 'पेपर मेसी' कला से शुरूआत की। इस कला को कश्मीर की विकसित परंपरा से जोड़ कर देखा जाता है। वहीं देश के अन्य भागों में भी यह परम्परा देखने को मिलती है। बचपन में उसने देखा कि गांव में शादियों पेपर मैसी के बर्तनों में मिठाईयां डालकर परोसी जाती है, जिससे प्रेरित होकर उसने 'पेपर मेशी' के फोटोफ्रेम, पैन स्टैंड, मुखौटे बनाकर उन्हें पेंटिंग करके सजाना शुरु किया। कला के क्षेत्र में अभिरुचि इतनी गहरी होती गई कि उनकी चित्रकारी कला पहली बार पुणे में उस समय सार्वजनिक हुई, जब उन्होंने ‘वर्ली’ कला की पेंटिंग बनाई, जो महाराष्ट्र की ‘वर्ली’ लोककला के नाम से जानी जाती है। इस कला में सीनरी, गमले आदि शामिल हैं, जो कि अधिकांश घरो में सबकी पसंद होते हैं। हर कदम पर नई प्रेरणा लेकर अखबार और पत्रिकाओं के पेजों का इस्तेमाल करते हुए रितु ‘क्विलिंग’ से सजावट की चीजें तैयार की और कोस्टर, प्लेट, टोकरी, दीवार पर सजाने के लिए पत्ते के आकार के शोपीस बनाए। बकौल रितु बामल जब वे पंचकूला आ गये तो उन्होंने ‘पिछवाई’ कला पर काम करना शुरु किया, जो राजस्थान की प्रसिद्ध लोक चित्रकला है। इसमें उन्होंने श्रीनाथ जी, कमल के फूल, गाय, हाथी जैसे कई रूपों में पेंटिंग तैयार करके ग्रामीण परंपरा की झलक पेश की। 
देश की सेवा में जुटे पति 
रितु बामल के पति विनोद ढुल सीआईएसएफ हैदराबाद एयरपोर्ट पर तैनात है, जो देश की सेवा करते आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ रितु घर संभालने के साथ इस कला को विस्तार देने में जुटी हुई हैं। उन्होंने बताया कि जैसे ही उसने अपनी इस कला को सोशल मीडिया पर अपलोड किया, तो उसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया ही नहीं, बल्कि उससे रंगों से सजे गमले आदि बर्तन खरीदनों वालों की होड़ सी लग गई। उसके रंग बिरंगे तैयार उत्पादों की मांग बढ़ी तो उन्होंने अपनी कला को विस्तार देते हुए अब अमूर्त पेंटिंग, पेंटिंग्स, रंगीन बर्तन, सजी हुई टेराकोटा प्लेटें जैसे उत्पाद तैयार करके इसे एक व्यवसाय के रुप में अपना लिया है। उनका कहना है कि वैसे भी आज कल सभी लोग अपने घर के ड्राइंगरूम में पौधे रखने लगे हैं, जहां रंगों से सजा हुए गमले से हर कोना खिल उठता है। उनके पति भी उनके कामकाज औऱ कला जैसे रचनात्मकता में सहयोग करते हैं। वहीं परिवार में बेटा गर्वित 12वीं कॉमर्स का छात्र है, जो अपनी मां की कला के इस शौंक में हाथ बंटाकर उनका मनोबल बढ़ा रहा है। 
लॉकडाउन में मिली बड़ी मंजिल 
कोरोना काल में लॉकडाउन के समय उन्होंने अपने उन गमलों को रंगों से सजाना शुरु किया, जिसमें वह शौंक के तौर पर पौधे लगाती थी, तो आस पडोस के लोगों को वह बहुत पसंद आया। उनका कहना है कि एक तरह से उसे आपदा को अवसर में बदलने का मौका मिला, जिसका उनको अहसास भी नहीं था, कि उनके पेंटिंग किये गये गमलों के खरीदार भी सामने आएंगे, लेकिन उस मौके ने उनकी कला को ऐसा विस्तार दिया कि उनके पास गमलों के बड़े बड़े आर्डर आने लगे। यहां तक कि गमलों में कम रुचि रखने वाले भी उनके पास पेंटिंग वाले गमले अपने घरों को सजाने के लिए आने लगे। दरअसल गमलों को लोग जन्मदिन व सालगिरह के अलावा दीवाली पर और गृह प्रवेश के मौके पर उपहार देने और घर के साथ ऑफिस के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। रितु ने लोगों की पसंद के अनुसार कुछ चीजों में बदलाव करते हुए 'टेराकोटा' प्लेट भी तैयार करनी शुरु कर दी, जहां पलास्टिक बैन किया गया, तो उसके मद्देनजर उसने मिट्टी से बनी चीजों को भी रंगों से सजाना शुरु कर दिया। यहां से उनकी कला को ऐसी मंजिल मिली कि वह अब कई तरह की पेंटिंग करने लगी हैं, जिसमें 'एब्सट्रेक्ट पेंटिग' को वह अपनी कल्पना के शुद्ध रूप को कैनवास पर उतारने की कला में निपुण हो गई। उनकी पेटिंग में लिक्विड पेंट का ज्यादा प्रयोग किया जाता है, जिसमें उन्होंने मिट्टी की प्लेट्स पर भी रंगों का हुनर प्रस्तुत किया है। 
युवा पीढ़ी को प्रेरित करना आवश्यक 
आज के आधुनिक युग में खासतौर से नई पीढ़ी कला, संस्कृति और चित्रकारी में कम होती रूचि के बारे में रितु बामल मानती हैं कि इसका बड़ा और मुख्य कारण 'सोशलमीडिया' हैं, जिस पर युवाओं का ज्यादा समय व्यतीत हो रहा है। जाहिर सी बात है कि इसका सीधा प्रभाव समाज पर होना स्वाभाविक है। यदि युवाओं को साहित्य, कला व संस्कृति के प्रति प्रेरित न किया गया, तो ये चीजे धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगी। इस दिशा में सरकार को भी कदम उठाना चाहिए और युवाओं को अपने साहित्य लोक कला व संस्कृति के लिए प्रेरित करने की दिशा में सरकार को स्कूलों और कालेजों में भी इस विषय के पाठ्यक्रम को बढ़ावा देना चाहिए। 
 21Aug-2023

बुधवार, 16 अगस्त 2023

साक्षात्कार: साहित्य के माध्यम से बच्चों को राह दिखाते रचनाकार गोविन्द भारद्वाज

राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्यकार के रुप में बनाई अपनी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: गोविन्द भारद्वाज 
जन्मतिथि: 23 अक्टूबर 1969 
जन्म स्थान: गाँव नानूकलाँ तहसील पटौदी जिला गुरुग्राम (हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (इतिहास), बीएड सेट उत्तीर्ण। 
संप्रत्ति: प्राचार्य, महात्मा गांधी राजकीय विद्यालय(अंग्रेजी माध्यम)चौरसियावास,अजमेर (राज.) 
संपर्क: 'पितृकृपा' 4/254, बी-ब्लॉक, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, पंचशील नगर, अजमेर(हरियाणा)। 
मोबाइल नंबर 9461020491
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 BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य को समृद्ध बनाने की दिशा में साहित्यकार एवं लेखक सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों से समाज को नई दिशा देने का प्रयास करते आ रहे हैं। ऐसे रचनाकारों में बाल साहित्यकार के रुप में विख्यात हरियाणा के गोविन्द भारद्वाज उन चुनिंदा साहित्यकारों में शामिल है, जिन्होंने विभिन्न विधाओं में बाल मनोहार के प्रति समर्पित होकर बच्चों और नई पीढ़ियों के उज्जवल भविष्य के लिए अपनी रचनाओं को विस्तार दिया है। उन्होंने बाल कहानियों, कविताओं और लघुकथाओं के माध्यम से बच्चों को सामाजिक, सभ्यता, संस्कृति से प्रेरित करने के अलावा किसानों और मेहनतकश लोगों के जीवन और परिश्रम से अवगत कराते हुए उन्हें बेहतर भविष्य की राह दिखाने का प्रयास किया है। बच्चों में सकरात्मक रुप से एक नई सोच विकसित करने में जुटे बाल साहित्यकार, कवि, कहानीकार गोविंद भारद्वाज ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे पहलुओं को उजागर किया, जिसमें इस आधुनिक युग में बिगड़ते सामाजिक ताने बाने के लिए समाज को भी एक सकारात्मक विचारधारा और अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित रहने का संदेश मिलता है।
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सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार गोविन्द भारद्वाज का जन्म 23 अक्टूबर 1969 को गुरुग्राम जिले की पटौदी तहसील के गांव नानूकलां में सैनिक रहे राधेश्याम शर्मा व माया शर्मा के घर में हुआ। उनके दादा गोरधनलाल शर्मा गांव के प्रसिद्ध वैद्य थे। जबकि पिता सेना पुलिस में थे और माता गृहणी थी। एक फौजी परिवार में वे केवल वीरता की कहानियां ही वे सुनते रहे। मसलन उनके परिवार में किसी भी तरह का कोई साहित्यिक माहौल नहीं था। इसी गांव से प्राथमिक शिक्षा लेने के बाद गोविन्द ने उच्च प्राथमिक सैय्यद शाहपुर और मैट्रिक परीक्षा पटौदी के गांव खोड़ से उत्तीर्ण की। गोविन्द भारद्वाज को बचपन में रेडियो सुनने का शौक था, जिसमें उन्हें आकाशवाणी रोहतक और दिल्ली के कार्यक्रम सुनते हुए लेखन की अभिरुचि हुई। उनकी पहली रचना 1991 में राजस्थान के एक समाचार में प्रकाशित हुई तो उनका आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने निरंतर लेखन किया, जो उनके लिए एक साहित्यकार के रुप में सार्वजनिक होता गया। उनका ज्यादातर लेखन बाल साहित्य पर ही रहा। उनका कहना है कि पढ़ाई के साथ साथ उनके लिए लिखना किसी चुनौती से कम नहीं रहा, लेकिन वह लेखन को आगे बढ़ाते रहे। अजमेर में अपने ताऊ जी के पास रहकर उन्होंने उच्च शिक्षा पूरी की, क्योंकि दिव्यांग होने के कारण रेवाड़ी या गुरुग्राम जाना उनके लिए मुश्किल था। बाद में उन्हें राजस्थान के अजमेर में नौकरी मिली। हालांकि इससे र्ग्व उनका चयन राजकीय कन्या महाविद्यालय चंडीगढ़ में सहायक आचार्य के पद हुआ था। लेकिन अजमेर के महात्मा गांधी राजकीय विद्यालय में प्राचार्य के पद पर तैनात हैं। उन्होंने बताया कि नौकरी मिलने के बाद उन्होंने अपने लेखन के कार्य को तेजी से विस्तार देना शुरु किया और वे एक बाल साहित्यकार के रुप में पहचाने जाने लगे। क्योंकि उनके लेखन का फोकस बच्चों के मनोविज्ञान को समझना और उनके लिए लिखने पर ज्यादा रहा है। 
साहित्य की कई विधाओं में रचनाएं
पिछले करीब तीन दशक से लेखन करके समाज, खासतौर से बच्चों और युवा पीढ़ी को नई दिशा देने में जुटे साहित्यकार गोविन्द भारद्वाज बाल साहित्य में ही नहीं, बल्कि कविता, गजल और आध्यात्मिक गीत जैसी विधाओं में अपनी साहित्यिक रचनाओं को विस्तार देने में जुटे हुए हैं। उनकी बाल कविताएं और कहानियां आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रमों में भी प्रसारित हुई हैं। वहीं भजनों और गजलें यूट्यूब पर रिलीज हो चुकी हैं। उनकी रचनाएं राष्ट्रीय पत्र व पत्रिकों में प्रकाशित होती आ रही हैं। यही नहीं वे राजस्थान ओपन बोर्ड की पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति एवं विरासत’ में पाठ लेखन का कार्य भी कर चुके हैं। गोविन्द भारद्वाज को इसी साल जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी राजस्थान ने सुविख्यात रहे कथाकार स्वर्गीय यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र‘ की स्मृति में पहला यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र‘ बाल साहित्य पुरस्कार उनके बाल कहानी संग्रह ‘जंगल है तो मंगल है’ नामक पुस्तक को दिया है। बाल साहित्य के लिए लेखन करने वाले गोविन्द भारद्वाज को हरियाणा व राजस्थान ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश समेत कई राज्यों में सम्मानित होने गौरव हासिल है।
शिक्षा का अंग बने साहित्य 
इस आधुनिक युग में साहित्य का स्थिति को लेकर भारद्वाज का कहना है कि साहित्य समाज का दर्पण है, इसलिए प्राचीन काल से आज तक साहित्य को सम्मान मिला है।लेकिन आज के युग में साहित्य के सामने जरुर कुछ संकट खड़ा हुआ है, जहां कोई साहित्य के पठन पाठन का सवाल है इस तकनीकी युग में बदलती सोच के कारण साहित्य निचले पायदान पर खड़ा नजर आने लगा है, जिसे समृद्ध बनाने के लिए सभी लेखकों व साहित्यकारों को कोई नीति बनानी होगी। साहित्य और साहित्यकारों के सामने समस्या यही है कि इस मोबाइल, कम्प्यूटर और नयी-नयी सूचना तकनीक ने पाठकों में कमी आई है, इसके जिम्मेदार माता-पिता हैं, जिन्हें बच्चों को बचपन से साहित्य और संस्कृति के संस्कार देने की जरुरत है। लेकिन विडंबना ये है कि आज एकांकी परिवारों में बिखराव भी समाज को प्रभावित कर रहा है। जबकि लेखक और साहित्यकार अपने लेखन को समाज में सकारात्मक विचारधारा की ऊर्जा देने का प्रयास कर रहे हैं और करते रहेंगे। उनका यह भी मानना है कि बाल साहित्य, युवा साहित्य और प्रौढ़ साहित्य को शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाए, तो नई पीढ़ी को साहित्य के प्रति प्रेरित किया जा सकता है। लेकिन इसकी जिम्मेदारी हम साहित्यकारों की भी है, जो पढ़ते कम हैं और लिखते ज्यादा हैं, जो अच्छे साहित्य को कहीं न कहीं प्रभावित कर रहा है। इसलिए लिखने से पहले अध्ययन करना बेहद जरुरी है, तभी साहित्य और समाज के भविष्य को उज्जवल बनाया जा सकता है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
प्रसिद्ध बाल साहित्यकार गोविन्द भारद्वाज की प्रकाशित करीब एक दर्जन पुस्तकों में दो बाल कविता संग्रह में सूरज का संदेश व हम बच्चे मन के सच्चे, बाल कहानी संग्रह में सच्चे दोस्त, बिल्ली मौसी बड़ी सयानी, नन्हा जासूस, नये दोस्त, जंगल है तो मंगल है, छुटकी चींटी जिंदाबाद और उल्लू बना मुंगेरी लाल शामिल हैं। वहीं उन्होंने एक लघु कथा संग्रह ‘रिश्तों की भीड़’ की भी रचना की है। इसके अलावा उनके बालगीत, बाल कहानी, बाल कविता, पहेलियां, ग़ज़ल, लघुकथाएं, क्षणिकाएं एवं व्यंग्य आदि साहित्यिक विधाएं भी सुर्खियों में हैं। 
पुरस्कार एवं सम्मान 
देश-प्रदेश में विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी साहित्यिक संस्थाओं द्वारा प्रसिद्ध बाल साहित्यकार गोविंद भारद्वाज को चार दर्जन से भी अधिक पुरस्कारों से नवाजा गया है। जहां उन्हें हरियाणा के भिवानी में 'श्रीमती रज्जीदेवी नंदराम सिहाग स्मृति साहित्य सम्मान और हिसार और नारनौल में 'मनुमुक्त मानव स्मृति सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। वहीं उन्हें विभिन्न संस्थाओं ने बाल साहित्य पर विभिन्न विधाओं की रचनाओं के लिए 'प्रतिभा सम्मान के रुप में कई पुरसकार दिये हैं। इसके अलावा प्रमुख सम्मानों में 'शिक्षक सम्मान, बाल साहित्य सृजन सम्मान, बाल साहित्य सम्मान, अक्षय गौरव सम्मान, सलिला साहित्य रत्न सम्मान, शान-ए-अदब सम्मान, अनुराग बाल साहित्य सम्मान, स्व.रामनारायण अग्रवाल बाल साहित्य साधना सम्मान, हिंदी भाषा लघुकथा पुरस्कार आदि जैसे अनेक पुरस्कार गोविन्द भारद्वाज के नाम दर्ज हैं।
14Aug-2023

सोमवार, 7 अगस्त 2023

चौपाल: साहित्य व संगीत समाज का प्रतिबिंब: हरिकेश

लोककला गायकी व पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण पर बल 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हरिकेश जोगी 
जन्मतिथि: 01 मार्च 1975 
जन्म स्थान: गांव बजीणा, तहसील तोशाम, जिला भिवानी (हरियाणा) 
शिक्षा: दसवीं उत्तीर्ण 
संप्रत्ति: सांरगी वादक, कलाकार 
संपर्क: गांव बजीणा, तहसील तोशाम, जिला भिवानी (हरियाणा)। मोबा. 9991568430/8607690242
गुरु -पिता: श्री मुन्शीराम जोगी, दादा धर्मपाल जोगी से गायन व वादन की शिक्षा प्राप्त 
By--ओ.पी. पाल 
रियाणा की संस्कृति के सरंक्षण एवं संवर्धन के लिए लोक कलाकार अपनी विभिन्न विधाओं में अहम योगदान दे रहे हैं। ऐसे ही लोक कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में लोक गायक एवं सारंगी वादक हरिकेश जोगी परंपरागत जोगी संगीत को जीवंत रखने का प्रयास करने में जुटे हुए हैं। हरिकेश लोककला में निहित राग, गायन शैली, लोकगीत, साकी, दोहे, छंद, सवैया, सौरठा जैसी प्राचीन विद्याओं को जीवंत रखने के लिए युवा पीढ़ी को लोककला गायकी व पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण देने की वकालत करते आ रहे हैं, क्योंकि साहित्य व संगीत समाज का प्रतिबिंब हैं। हरिभूमि से हुई बातचीत के दौरान साल 2023 के लिए हरियाणा कला श्री पुरस्कार के लिए चयनित हरिकेश ने विरासत में मिली गायन एवं सारंगी वादन की कला को लेकर कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया, जिसमें समाज को अपनी पारंपरिक कला एवं संस्कृति का संदेश छिपा हुआ है। 
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रियाणा में छोटी काशी के नाम पहचाने जा रहे भिवानी जिले की तहसील तोशाम के गांव बजीणा में 01 मार्च 1975 को मुन्शीराम जोगी के घर में जन्में हरिकेाश जोगी को सांरगी के साथ गायकी विरासत में मिली है। उनके परिवार में पिछली पांच पीढ़ी से सारंगी संगीत बजाना व जोगी गायन प्रमुख व्यवसास रहा है, तो उन्हें बचपन से ही गायन, वादन का माहौल मिलना स्वाभाविक था। उनका पूरा परिवार संगीत विद्या से जुड़ा हुआ है और उनके पिता हरियाणा प्रांत के सुप्रसिद्ध सारंगी वादक रहे हैं। हरिकेश ने बताया कि उन्होंने कक्षा तीन में पढ़ते समय स्कूली कार्यक्रम में गणतंत्र दिवस पर मंच से अपनी पहली प्रस्तुति दी, तो शिक्षकों और पूरे गांव के गणमान्य लोगों ने मान बढ़ाया। रेतीले टिलो में बीते बचपन के दौरान उन्होंने आर्थिक विषमता का दंश भी झेला, क्योंकि लोक गायकी और जोगिया राग से ही परिवार का पोषण होता था, लेकिन इन विषम परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने इस विरासत को हरियाणवी संस्कृति में नया आयाम देने के मकसद से इसी कला को विस्तार देने का संकल्प लिया, ताकि उनकी लोककला और सारंगी का राग मुख्य रुप से पुरातन साहित्य जीवंत रह सके। इस कला में उनका फोकस राष्ट्र के प्रति प्रेम, कुर्बानी व वीर रस की रचनाओं पर आधारित गाने पर रहा है। उन्होंने गायन एवं वादन की शिक्षा अपने पिता मुन्शीराम जोगी और दादा धर्मपाल जोगी से हासिल की। हालांकि वह स्कूली शिक्षा में दसवीं की परीक्षा ही उत्तीर्ण कर पाए हैं, लेकिन इस पुश्तैनी कला को जीवंत रखने के मकसद से जोगी गायन शैली में निणुणता हासिल की। उनका यह भी मानना है कि पारंपरिक वाद्ययंत्र कभी पुराने नहीं होते हैं और ये ही संगीत की आत्मा है, भले ही आज के तकनीकी युग में कुछ पश्चिमी वादयन्त्र का प्रयोग हो रहा हों। लेकिन लोक कला व लोकगीत का असली आनंद पारंपरिक वादयंत्रों से ही सम्भव है। इसी परंपरागत वादयंत्रों के अपनी कला के जरिए वे आज भी हरियाणा की संस्कृति में अहम योगदान कर रहे हैं। 
बकौल हरिकेश हरियाणा की संस्कृति में सारंगी वादकों और जोगी गायकों को बहुत ही महत्व दिया जाता रहा है और लोग सारंगी के साथ हीर-रांझा, निहाल दे, जसमत राखेर, जयमल फता, भूरा बादल, अमर सिंह राठौर, हरियाणवी रागिनी, भजन आदि किस्सों को बहुत ही चाव के साथ सुनते रहे हैं। उन्होंने ऐसे कुछ किस्सों को दस से पंद्रह दिन तक गाते हए इस कला को विस्तार दिया है। यही कला उनकी आय का साधन भी रही है। उनके गायन में बहुत सी रचनाएं उनके दादा व पिता द्वारा रचित रही हैं। उनका कहना है कि अब जैसे जैसे टीवी और फिल्मों का प्रचलन बढ़ता गया, वैसे ही जोगी गायकों की संख्या कम होती चली गई है, लेकिन जोगी गायन की विद्या के हरियाणा में कुछ ही परिवार हैं, जो इस विद्या को जीवंत रखने का प्रयास कर रहे हैं। वह खुद भी सारंगी और जोगी कला अन्य परिवारों को भी सीखा रहे हैं, ताकि लुप्त प्राय: होती जा रही इस प्राचीन कला को संरक्षित रखा जा सके। इस कला को उन्होंने गांवो के प्रोग्रामों के अलावा विभिन्न सांस्कृति संस्थाओं, कालेज व यूनिवर्सटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हरियाणा की इस विशेष गायन-वादन शैली की प्रस्तुति करके समाज को इसके प्रति जागरुक किया है। आकाशवाणी केंद्र रोहतक पर 2003 से लगातार वे अपनी प्रस्तुति देते आ रहे हैं। 
जोगी गायन का विश्वास 
इस जोगी गायकी के साथ लोगों में पुरानी परंपरा का एक ऐसा विश्वास भी जुड़ा हुआ है, कि यदि सात या नौ दिन तक सारंगी के साथ हीर-रांझा गाने से पशुओ मे फैली मुहँ खुर की बीमारी ठीक हो जाती थी। यही नहीं जोगी गायन शैली में शादी-विवाह जैसे मौको पर सारंगी के साथ जोगी गायन शुभ माना जाता था। हालांकि जोगी गायन जैसी बेहद कठिन है, लेकिन इस विधा के अलावा लोक गीत, भजन, कीर्तन, रागनियां, पुराने लोक नाटककारों की संगीतमय रचनाएं भी वह सारंगी वादन के साथ गाते रहे हैं। उनके पुरानी पीढ़ी के बुजर्ग बीरबल जोगी अनपढ़ होते हुए भी भजन, रागिनी, किस्से व सारंगी गायन में इतने लोकप्रिय रहे कि उनको हरियाणा व अन्य राज्यों में भी इस कला के क्षेत्र में अच्छी प्रसिद्धि मिली। 
जी-20 कार्यक्रम में बिखेरे रंग 
प्रसिद्ध गायक एवं सारंगी वादक हरिकेश ने अपनी कला और गायन शैली से पिछले दिनो पिंजौर में जी-20 कार्यक्रम के तहत हुए सांस्कृतिक कार्यक्रम में भी रंग बिखेरे हैं। सरकार और विभिन्न साहित्य तथा लोक कला से जुड़ी संस्थाओं के कार्यक्रम में उनकी भागीदारी लगतार बनी हुई है। पिछले करीब ढ़ाई दशक से वे अंतर्राष्ट्रीय सूरजकुंड मेला फरीदाबाद में भी वे सारंगी और जोगी गायन शैली की प्रस्तुति देते आ रहे हैं। संगीत नाटक अकादमी दिल्ली, प्रगति मैदान दिल्ली, पंजाब के मालवा हैरिटेज विलेन फेस्टीवल भठिंडा, गुरु शिष्य परंपरा पटियाला, यूनिवर्सिटी अमृतसर, कलां ग्राम चंडीगढ़ और राजस्थान में सादुलपुर के मोहता लोक संस्कृति शोध संस्थान में सेठाणा लोक संगीत कार्यशाला में विशेष रुप से हिस्सेदारी की है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव कुरुक्षेत्र, हिसार में आयोजित गुजरी उत्सव सांस्कृतिक समारोह, नाच्चे गावै हरियाणा व यूथ फेस्टिवल, कलां ग्राम चंडीगढ़, जोगी संगीत उत्सव रोहतक, फिल्म स्कूल रोहतक, लॉ कालेज गुरुग्राम , एमडीयू रोहतक तथा हिंदू गर्ल कॉलेज सोनीपत के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इस शैली का प्रदर्शन किया है। 
युवाओं को प्रेरणा आवश्यक 
सारंगी वादक हरिकेश का आज के इस आधुनिक युग में पश्चिमी सभ्यता की वजह से लुप्त होती संस्कृति को जीवंत रखने के लिए युवा पीढ़ी को प्रेरित करने पर बल देते हुए कहा कि इस समय का खान पान से भी हमारी संस्कृति का लगातार ह्रास होता जा रहा है। आधुनिक संगीत में फुहडता ज्यादा परोसे जाने से पथभ्रष्ट समाज का युवा वर्ग पारस्परिक संगीत से दूर जा रहा है। युवा पीढी को इस तरह के संस्कार नहीं दिये जा रहे कि उनके मन मस्तिष्क की खुराक ऊंचा संगीत समा रहे हैं, भले ही उसमें लय सुर, ताल न हो। इसलिए युवाओं को लोककला गायकी व पारंपरिक वाद्य यंत्रां में प्रशिक्षण व रुचि की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो अनेक प्राचीन विद्याएं, राग, गायन शैली, लोकगीत, साकी, दोहे, छंद, सवैया, सौरठा लुप्त हो जाएंगे। हरियाणा में भी एक सेंसर बोर्ड का गठन होना चाहिए। द्विअर्थी गीतों, असभ्य गायन, समाज में वैमनस्य फैलाने वाले गीतों को रोका जाए। समाज के नैतिक जीवन के विकास से ही यह संभव है। 
07Aug-2023