सोमवार, 7 अगस्त 2023

चौपाल: साहित्य व संगीत समाज का प्रतिबिंब: हरिकेश

लोककला गायकी व पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण पर बल 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: हरिकेश जोगी 
जन्मतिथि: 01 मार्च 1975 
जन्म स्थान: गांव बजीणा, तहसील तोशाम, जिला भिवानी (हरियाणा) 
शिक्षा: दसवीं उत्तीर्ण 
संप्रत्ति: सांरगी वादक, कलाकार 
संपर्क: गांव बजीणा, तहसील तोशाम, जिला भिवानी (हरियाणा)। मोबा. 9991568430/8607690242
गुरु -पिता: श्री मुन्शीराम जोगी, दादा धर्मपाल जोगी से गायन व वादन की शिक्षा प्राप्त 
By--ओ.पी. पाल 
रियाणा की संस्कृति के सरंक्षण एवं संवर्धन के लिए लोक कलाकार अपनी विभिन्न विधाओं में अहम योगदान दे रहे हैं। ऐसे ही लोक कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में लोक गायक एवं सारंगी वादक हरिकेश जोगी परंपरागत जोगी संगीत को जीवंत रखने का प्रयास करने में जुटे हुए हैं। हरिकेश लोककला में निहित राग, गायन शैली, लोकगीत, साकी, दोहे, छंद, सवैया, सौरठा जैसी प्राचीन विद्याओं को जीवंत रखने के लिए युवा पीढ़ी को लोककला गायकी व पारंपरिक वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण देने की वकालत करते आ रहे हैं, क्योंकि साहित्य व संगीत समाज का प्रतिबिंब हैं। हरिभूमि से हुई बातचीत के दौरान साल 2023 के लिए हरियाणा कला श्री पुरस्कार के लिए चयनित हरिकेश ने विरासत में मिली गायन एवं सारंगी वादन की कला को लेकर कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया, जिसमें समाज को अपनी पारंपरिक कला एवं संस्कृति का संदेश छिपा हुआ है। 
------- 
रियाणा में छोटी काशी के नाम पहचाने जा रहे भिवानी जिले की तहसील तोशाम के गांव बजीणा में 01 मार्च 1975 को मुन्शीराम जोगी के घर में जन्में हरिकेाश जोगी को सांरगी के साथ गायकी विरासत में मिली है। उनके परिवार में पिछली पांच पीढ़ी से सारंगी संगीत बजाना व जोगी गायन प्रमुख व्यवसास रहा है, तो उन्हें बचपन से ही गायन, वादन का माहौल मिलना स्वाभाविक था। उनका पूरा परिवार संगीत विद्या से जुड़ा हुआ है और उनके पिता हरियाणा प्रांत के सुप्रसिद्ध सारंगी वादक रहे हैं। हरिकेश ने बताया कि उन्होंने कक्षा तीन में पढ़ते समय स्कूली कार्यक्रम में गणतंत्र दिवस पर मंच से अपनी पहली प्रस्तुति दी, तो शिक्षकों और पूरे गांव के गणमान्य लोगों ने मान बढ़ाया। रेतीले टिलो में बीते बचपन के दौरान उन्होंने आर्थिक विषमता का दंश भी झेला, क्योंकि लोक गायकी और जोगिया राग से ही परिवार का पोषण होता था, लेकिन इन विषम परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने इस विरासत को हरियाणवी संस्कृति में नया आयाम देने के मकसद से इसी कला को विस्तार देने का संकल्प लिया, ताकि उनकी लोककला और सारंगी का राग मुख्य रुप से पुरातन साहित्य जीवंत रह सके। इस कला में उनका फोकस राष्ट्र के प्रति प्रेम, कुर्बानी व वीर रस की रचनाओं पर आधारित गाने पर रहा है। उन्होंने गायन एवं वादन की शिक्षा अपने पिता मुन्शीराम जोगी और दादा धर्मपाल जोगी से हासिल की। हालांकि वह स्कूली शिक्षा में दसवीं की परीक्षा ही उत्तीर्ण कर पाए हैं, लेकिन इस पुश्तैनी कला को जीवंत रखने के मकसद से जोगी गायन शैली में निणुणता हासिल की। उनका यह भी मानना है कि पारंपरिक वाद्ययंत्र कभी पुराने नहीं होते हैं और ये ही संगीत की आत्मा है, भले ही आज के तकनीकी युग में कुछ पश्चिमी वादयन्त्र का प्रयोग हो रहा हों। लेकिन लोक कला व लोकगीत का असली आनंद पारंपरिक वादयंत्रों से ही सम्भव है। इसी परंपरागत वादयंत्रों के अपनी कला के जरिए वे आज भी हरियाणा की संस्कृति में अहम योगदान कर रहे हैं। 
बकौल हरिकेश हरियाणा की संस्कृति में सारंगी वादकों और जोगी गायकों को बहुत ही महत्व दिया जाता रहा है और लोग सारंगी के साथ हीर-रांझा, निहाल दे, जसमत राखेर, जयमल फता, भूरा बादल, अमर सिंह राठौर, हरियाणवी रागिनी, भजन आदि किस्सों को बहुत ही चाव के साथ सुनते रहे हैं। उन्होंने ऐसे कुछ किस्सों को दस से पंद्रह दिन तक गाते हए इस कला को विस्तार दिया है। यही कला उनकी आय का साधन भी रही है। उनके गायन में बहुत सी रचनाएं उनके दादा व पिता द्वारा रचित रही हैं। उनका कहना है कि अब जैसे जैसे टीवी और फिल्मों का प्रचलन बढ़ता गया, वैसे ही जोगी गायकों की संख्या कम होती चली गई है, लेकिन जोगी गायन की विद्या के हरियाणा में कुछ ही परिवार हैं, जो इस विद्या को जीवंत रखने का प्रयास कर रहे हैं। वह खुद भी सारंगी और जोगी कला अन्य परिवारों को भी सीखा रहे हैं, ताकि लुप्त प्राय: होती जा रही इस प्राचीन कला को संरक्षित रखा जा सके। इस कला को उन्होंने गांवो के प्रोग्रामों के अलावा विभिन्न सांस्कृति संस्थाओं, कालेज व यूनिवर्सटी के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हरियाणा की इस विशेष गायन-वादन शैली की प्रस्तुति करके समाज को इसके प्रति जागरुक किया है। आकाशवाणी केंद्र रोहतक पर 2003 से लगातार वे अपनी प्रस्तुति देते आ रहे हैं। 
जोगी गायन का विश्वास 
इस जोगी गायकी के साथ लोगों में पुरानी परंपरा का एक ऐसा विश्वास भी जुड़ा हुआ है, कि यदि सात या नौ दिन तक सारंगी के साथ हीर-रांझा गाने से पशुओ मे फैली मुहँ खुर की बीमारी ठीक हो जाती थी। यही नहीं जोगी गायन शैली में शादी-विवाह जैसे मौको पर सारंगी के साथ जोगी गायन शुभ माना जाता था। हालांकि जोगी गायन जैसी बेहद कठिन है, लेकिन इस विधा के अलावा लोक गीत, भजन, कीर्तन, रागनियां, पुराने लोक नाटककारों की संगीतमय रचनाएं भी वह सारंगी वादन के साथ गाते रहे हैं। उनके पुरानी पीढ़ी के बुजर्ग बीरबल जोगी अनपढ़ होते हुए भी भजन, रागिनी, किस्से व सारंगी गायन में इतने लोकप्रिय रहे कि उनको हरियाणा व अन्य राज्यों में भी इस कला के क्षेत्र में अच्छी प्रसिद्धि मिली। 
जी-20 कार्यक्रम में बिखेरे रंग 
प्रसिद्ध गायक एवं सारंगी वादक हरिकेश ने अपनी कला और गायन शैली से पिछले दिनो पिंजौर में जी-20 कार्यक्रम के तहत हुए सांस्कृतिक कार्यक्रम में भी रंग बिखेरे हैं। सरकार और विभिन्न साहित्य तथा लोक कला से जुड़ी संस्थाओं के कार्यक्रम में उनकी भागीदारी लगतार बनी हुई है। पिछले करीब ढ़ाई दशक से वे अंतर्राष्ट्रीय सूरजकुंड मेला फरीदाबाद में भी वे सारंगी और जोगी गायन शैली की प्रस्तुति देते आ रहे हैं। संगीत नाटक अकादमी दिल्ली, प्रगति मैदान दिल्ली, पंजाब के मालवा हैरिटेज विलेन फेस्टीवल भठिंडा, गुरु शिष्य परंपरा पटियाला, यूनिवर्सिटी अमृतसर, कलां ग्राम चंडीगढ़ और राजस्थान में सादुलपुर के मोहता लोक संस्कृति शोध संस्थान में सेठाणा लोक संगीत कार्यशाला में विशेष रुप से हिस्सेदारी की है। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव कुरुक्षेत्र, हिसार में आयोजित गुजरी उत्सव सांस्कृतिक समारोह, नाच्चे गावै हरियाणा व यूथ फेस्टिवल, कलां ग्राम चंडीगढ़, जोगी संगीत उत्सव रोहतक, फिल्म स्कूल रोहतक, लॉ कालेज गुरुग्राम , एमडीयू रोहतक तथा हिंदू गर्ल कॉलेज सोनीपत के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इस शैली का प्रदर्शन किया है। 
युवाओं को प्रेरणा आवश्यक 
सारंगी वादक हरिकेश का आज के इस आधुनिक युग में पश्चिमी सभ्यता की वजह से लुप्त होती संस्कृति को जीवंत रखने के लिए युवा पीढ़ी को प्रेरित करने पर बल देते हुए कहा कि इस समय का खान पान से भी हमारी संस्कृति का लगातार ह्रास होता जा रहा है। आधुनिक संगीत में फुहडता ज्यादा परोसे जाने से पथभ्रष्ट समाज का युवा वर्ग पारस्परिक संगीत से दूर जा रहा है। युवा पीढी को इस तरह के संस्कार नहीं दिये जा रहे कि उनके मन मस्तिष्क की खुराक ऊंचा संगीत समा रहे हैं, भले ही उसमें लय सुर, ताल न हो। इसलिए युवाओं को लोककला गायकी व पारंपरिक वाद्य यंत्रां में प्रशिक्षण व रुचि की आवश्यकता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो अनेक प्राचीन विद्याएं, राग, गायन शैली, लोकगीत, साकी, दोहे, छंद, सवैया, सौरठा लुप्त हो जाएंगे। हरियाणा में भी एक सेंसर बोर्ड का गठन होना चाहिए। द्विअर्थी गीतों, असभ्य गायन, समाज में वैमनस्य फैलाने वाले गीतों को रोका जाए। समाज के नैतिक जीवन के विकास से ही यह संभव है। 
07Aug-2023

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें