रविवार, 22 जनवरी 2017

राग दरबार: आखिर कहां गए वो चुनावी मेले...

रकम लुटाते उम्मीदवार...
भारत जैसे लोकतंत्र देश के सबसे बडे पर्व चुनाव की उत्सवधर्मिता शायद वैधव्य को प्राप्त हो चुकी है? यह बात चुनाव आयोग भी अच्छी तरह जानता है कि चुनाव सुधार की दिशा में तय की गई 28 लाख की खर्च सीमा में तो अब ग्राम प्रधान का भी चुनाव नहीं लडा जा सकता, विधानसभा के चुनाव तो दूर की बात। मसलन सब कुछ भीतरखाने होता है यानि उम्मीदवार रकम लुटाते हैं और वोट के ठेकेदारों की पौबारा होती ही है। सही मायने में तो नियमों के बहाने चुनाव आयोग की मार सिर्फ उन पर होती है, जिन्हें चुनाव प्रचार के दौरान दिहाड़ी मजदूरी के साथ सुबह-शाम खाने की पर्ची मिल जाती थी। आदर्श चुनाव आचार संहिता की जकड़ में अब हर तरफ मरघट-सा सन्नाटा ही नजर आता है और लगता ही नहीं कि चुनाव का सीजन है। चुनाव आयोग के इस तरह कसते जा रहे शिकंजे और नई चुनावी व्यवस्था में झंडे, बैनर, होर्डिंग्स व पोस्टर कहीं दिखाई ही नहीं पड़ रहे हैं। इससे अच्छा तो आचार संहिता लागू होने से पहले ही जगह-जगह होर्डिंग्स दिखने से चुनावी माहौल सा बना हुआ था, लेकिन पांच राज्यों के चुनावों का ऐलान होते ही उन्हें भी प्रशासन ने उतारवा दिया। यदि दो या जीन दशक या यूं कहे कि बचपन में गांव और शहर झंडे-बैनरो से पटे रहने से लगता था कि चुनावी मेला चल रहा है और रिक्शाओं तथा अन्य वाहनों पर लाउडस्पीकर से सभी दल धुआंधार तरीके से चुनाव प्रचार कराते थे। यही नहीं प्रत्याशियों और पार्टी के लिए लोकगीत व रागणियों के अलावा गांव दर गांव बाजारों में आमने-सामने भाषणबाजी भी कव्वाली के मुकाबले की तर्ज पर होती थी। ज्यों ही किसी प्रत्याशी की जीप-कार दिखाई पडती थी तो बच्चे दौड़ पडते, जिन्हें कागज, प्लास्टिक, टीन और पीतल के चमचमाते हुए चुनाव चिन्ह वाले ब्बिल्ले खूब बंटते थे। झंडे और टोपियों को पाने की मारामारी मचती थी। शहर की बाजारों में राजनीतिक दलों के झंडे और पोस्टरों की वंदनवार सजी रहती थी। पार्टियों के दμतर शादी विवाह के घर जैसे लगते थे। लेटने-बैठने से लेकर खाने-पीने के सारे इंतजाम। झंडा-बैनर लगाने, पोस्टर चिपकाने और जुलूसों में गला फांडने की सीजनल दिहाड़ी खूब होती थी। दिलचस्प बात तो यह है कि अब यह तामझाम खत्म होने के बावजूद धन और बल पहले से कर्द हजार गुना अधिक खर्च होता है। बहरहाल चुनाव प्रचार को लेकर तमाम पाबंदियों के कारण अब कहीे दूर तक भी चुनाव की उत्सवधर्मिता नजर नहीं आती और यही कहने की मजबूरी है कि आखिर कहां गये वो चुनावी मेलों के वे पुराने दिन..?
मीडिया से पीएम की हंसी-ठिठोली
आमतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में मीडिया से बातचीत नहीं करते हैं। लेकिन बीते 15 जनवरी को सेवा दिवस के समारोह के बाद शाम को सेनाप्रमुख जनरल बिपिन रावत के घर पर आयोजित रिसेप्शन कार्यक्रम में पीएम बिलकुल अलग हंसी-मजाक के अंदाज में नजर आए। उनका यह बदला हुआ रूप रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के स्टेज से नीचे उतरकर मीडियाकर्मियों से सहजता से बात करने के दौरान नजर आया। यह देखकर रक्षा मंत्री के आगे चल रहे पीएम मोदी ने पीछे मुड़कर उसमें हस्तक्षेप करते हुए एक मीडियाकर्मी से पूछा कि ‘भैया कुछ निकला क्या’। मतलब रक्षा मंत्री के साथ आपकी बातचीत में कुछ खबर निकली क्या? पीएम के इस सवाल के साथ ही उनके सम्मुख खड़े मीडियाकमियों, रक्षा मंत्री समेत अन्य वीवीआईपी मेहमानों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। इससे कुछ देर के लिए ही सही माहौल से गंभीरता की जगह पीएम की हंसी-ठिठोली छा गई।
टिकट के लिए घर पर पहरा

जब से उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड के चुनावों की घोषणा हुई है तभी से इन राज्यों के सांसदों की दिन का चैन और रात की नींद भी परेशानी में पड गई है। विधानसभा चुनाव में टिकट पाने के लिए उम्मीदवार उनके घर से लेकर दिल्ली के निवास तक चक्कर लगा रहे है। कुछ उम्मीदवार तो ऐसे है जो टिकट पाने के लिए अपने सांसदों को लेकर दिल्ली आ पहुंचे। रोज पर टिकट दिलवाने के लिए दबाव बना रहे है। उन्हें लेकर पार्टी के कार्यालयों से लेकर प्रभारी तक के घरों के चक्कर कटवा रहे है। इतना ही नहीं रात को उनकी कोठी या फलैटस के बाहर रात काट लेते है। सुबह से फिर उनके पीछे टिकट की जुगाड के लिए लग जाते है। वहीं कुछ सांसदों ने अपने समर्थकों के लिए घरों के बाहर ठहरने और खाने पीने के लिए भी व्यवस्था करवा दी है।
-ओ.पी. पाल, कविता जोशी व राहुल संपाल
22Jan-2017

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