सोमवार, 4 सितंबर 2023

चौपाल: हरियाणवी अंदाज में ‘आल्हा’ गायन शैली अलख जगाते इन्द्र सिंह

संस्कृति से लुप्त होती आल्हा की परंपरा को लेकर चिंतित हैं लोक कलाकार 
नाम: इन्द्र सिंह 
जन्म तिथि: 01 जनवरी 1974 
जन्म स्थान: गांव किठाना, ब्लॉक राजौंद, जिला कैथल शिक्षा: प्राइमरी 
संप्रत्ति: किस्सों पर आधारित गायक, सारंगी वादक संपर्क:गांव किठाना, जिला कैथल (हरियाणा) मोबा.9813640854
BY---ओ.पी. पाल 
रियाणवी लोकगायन में उत्तर भारत में प्रचलित लोकगीत और संगीत के एक रूप में ‘आल्हा’ गायन शैली को भी अपने अंदाज में गाया जाता है। वैसे तो अब हरियाणा में इस विद्या के माध्यम से दो वीर भाइयों आल्हा-ऊदल की गाथाओं को सुर-ताल से सजाकर गांव-गांव तक पहुंचाने वाले चुनिंदा ही लोक कलाकर रह गये हैं, लेकिन सारंगी वाद्य यंत्र के संगीत से जुड़े कलाकारों ने इसमें हरियाणवी वीरों और महापुरुषों की गाथाओं के साथ सामाजिक और आध्यात्मिक किस्सों का समावेश करके इसे नया आयाम देने का प्रयास किया है। ऐसे ही लोक कलाकारों में हरियाणवी संस्कृति व संगीत कला में आल्हा गायन के पहलू को पिरोने वाले कलाकार इन्द्र सिंह शामिल है, जिन्होंने हरियाणवी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु आल्हा गायन शैली को अपनी सारंगी संगीत कला के माध्यम से सामाज को सकारात्मक ऊर्जा देने का प्रयास किया है। लेकिन उन्हें इस बात का मलाल है कि एक परंपरागत संस्कृति, कला और गायन शैली को इस आधुनिकता की चकाचौंध में सरकार और समाज का प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। आल्हा के गायक और संगीत कलाकार इन्द्र सिंह ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपनी कला के सफर और अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि यदि लोक कला की विधाओं को इसी प्रकार से नजरअंदाज किया जाता रहा, तो एक दिन सारंगी के संगीत और आल्हा जैसी प्राचीन कला पूरी तरह से लुप्त हो जाएगी।
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रियाणा के कैथल जिले के गांव किठाना में जातीराम के परिवार में 01 जनवरी 1974 को जन्में आल्हा विधा के गायक एवं सारंगी वादक इन्द्र सिंह को सांरगी जैसे वाद्य यंत्र के संगीत के साथ किस्सों पर आधारित आल्हा गायन विरासत में मिली। उन्होंने बताया कि सारंगी जैसे वाद यंत्र के सांगीत में कई विधाओं की लोक गायकी के संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी से मिलते आ रहे हैं। उनके दादा व परदादा भी इसी संस्कृति में जाने माने लोक कलाकार रहे हैं। उन्हें प्राचीन कहानी किस्से सुनाने की आल्हा विधा में संगीत की शिक्षा उनके पिता और चाचा से ही मिली। इसलिए वे संस्कृति की विरासत में मिली इस विधा को सरंक्षित और इसे नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। चूंकि उनका पूरा परिवार का माहौल इसी कला व संस्कृति से परिपूर्ण रहा तो उन्हें भी बचपन से ही संगीत, सारंगी, लेखन, गायकी मंचन में रुचि होने लगी थी। इसी वजह से वह शिक्षा में केवल चौथी कक्षा यानी प्राइमरी शिक्षा ही ग्रहण कर पाये, लेकिन गायकी और संगीत में दिन रात मेहनत करके उन्होंने इस कला में निपुणता हासिल की। उन्होंने बताया कि यह कला सीखने में ज्यादा रुचि की वजह ये भी रही, ताकि समाज को हमारे पूर्वजों की गाथाओं और उनके बेहतर कामों का किस्सा संगीत के जरिए अवगत कराया जा सके। लोग ऐसे सामाजिक किस्सों को पसंद भी करते थे और उन जैसे लोक कलाकारों को गांवों में इस लोक कला को प्रस्तुत करने के लिए बुलाया भी जाता हैं। यह कला संस्कृति की एक बेहतरीन कला है, लेकिन सारंगी के संगीत किसी भी किस्से या गाथा के गायन में सुर-ताल मिलाने की धुन निकालना आसान भी नहीं है। इसीलिए उन्हें खुद भी इस परंपरागत कला को सीखते हुए परेशानियों का भी सामना करना पड़ा, जिसमें आर्थिक तंगी से जूझते परिवार के बीच विषम परिस्तियों में भी उन्होंने इस कला को प्रिय मानकर इसे आगे बढ़ाने का लक्ष्य तय किया। जोगी गायन शैली में भी आल्हा जैसी विधा इसलिए भी लुप्त होने के कगार पर है, क्योंकि आल्हा की परंपरा की विधा को अपनाने वाले प्रदेश में अब सांरंगी के संगीत वाले गिने चुने ही गायक बचे हुए हैं। विरासत में मिली इस प्राचीन लोक कला को जीवंत करने के मकसद से इस विधा को व्यवसाय के रुप में अपनाकर उन जैसे कलाकार समाज को दिशा देने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन आज के इस भौतिकवाद में नजरअंदाज होती जा रही इस कला से परिवार का पालन पोषण करना बेहद टेढ़ी खीर साबित हो रही है। 
महापुरुषों की गाथाओं पर फोकस 
आल्हा गायन शैली के कलाकार इन्द्र सिंह की विधा में हरफूल जाट के जन्म, गरीबों के दुख करने, फौज में जाने और गरीबों की मदद करने जैसे किस्सों के अलावा जोगी परंपरा में हीर-रांझा, शिवजी का ब्याह, गोपीचंद, उदल, अमर सिंह राठौर, पृथ्वीराज चौहान, पूरन मल और आल्हा-उदल जैसे महापुरुषों के किस्से व उनकी गाथाओं को संगीत के साथ गायन का रहा है। उन्होंने आल्हा गायन को नई दिशा देने के प्रयास में समाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दे भी शामिल करना शुरू किया है। इनमें बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओं, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या और सरकार के विभिन्न सामाजिक अभियान शामिल हैं। इन्द्र सिंह के ऐसे वीरों की गाथाओं और किस्सों को जिस हरियाणवीं अंदाज में पेश किया जाता रहा है, उसे आल्हा के रूप में आज भी बड़ी शिद्दत से सुनते हैं। 
परंपरागत विधाओं में शामिल रही आल्हा 
उनका कहना है कि हालांकि ग्रामीण परिवेश में आज भी आंशिक रुप से आल्हा, जोगी गायन अैर संस्कृति की प्राचीन कलाएं उस जमाने में समाजिक दृष्टि से भी पसंद की जाती हैं, लेकिन पुराने जमाने में इसकी विधा की अलग ही पहचान रही है, जहां ब्याह शादी या अन्य सांस्कृतिक आयोजनों के मौके पर आल्हा, रागनी गायकों के साथ सारंगी के संगीतकारों को बुलाया जाता था। बकौल इन्द्र सिंह हरियाणवी संस्कृति में इस लोककला में राग, गायन शैली, लोकगीत, साकी, दोहे, छंद, सवैया, सौरठा जैसी प्राचीन विद्याओं का समावेश भी है। इसलिए समाज में इसकी सुख और दुख या आपदा के समय गांव व परिवार की सुख शांति के लिए सांरगी के संगीत और आल्हा गायन को लोग एक विश्वास के साथ देखते थे। उस समय यह भी मान्यता रही है कि सारंगी के संगीत के साथ गायन से हारी बीमारी में परिवार के सदस्यों की ही नहीं, बल्कि पशुओं की बीमारियां भी ठीक होती हैं। 
मंच मुहैया कराने की दरकार 
आल्हा विधा के लोक कलाकार इन्द्र सिंह का कहना है कि आज के इस युग में दो चार महीने में इस विधा के कलाकारों को किसी कार्यक्रम में बुलाया भी जाता है, तो केवल अतिथियों के स्वागत के लिए मुख्य द्वार पर उन्हें अपनी कला का प्रदर्शन करने का मौका मिलता है। जबकि पाश्चत्य संस्कृति के गायकों और कलाकार मंच पर होते हैं। उनका आल्हा गायन शैली और सारंगी वादक जैसे कलाकारों को सरकार से मानदेय और पेंशन जैसी योजनाओं ने प्रोत्साहन देने पर भी बल दिया, ताकि उनकी आर्थिक व्यवस्था में सुधार हो सके। जहां तक लोककलाओं में इन विधाओं को प्रोत्साहन और युवा पीढ़ी को प्रेरित करने का सवाल है उसके लिए स्कूल कालेजों कार्यशालाएं और प्रशिक्षण देने की योजना पर बल देना जरुरी है। 
04Sep-2023

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