शनिवार, 5 अप्रैल 2014

हॉट सीट: बागपत- खतरे में पड़ी चौधरी अजित सिंह की कुर्सी !

अजित के सामने कर्मभूमि बचाए रखने की चुनौती
दंगों से तार-तार हुआ जाट-मुस्लिम सियासी समीकरण बड़ी समस्या
ओ.पी.पाल
जाट बाहुल्य बागपत लोकसभा सीट पर रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह के लिए जाट आरक्षण लागू कराने के बावजूद सियासत की जंग आसान नहीं है। इसकी वजह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर व आसपास के दंगों से रालोद के परंपरागत जाट-मुस्लिम वोट बैंक की टूटी डोर की गांठ न बांधना माना जा सकता है। इसलिए चौधरी अजित सिंह के सामने इस सियासी समस्या के कारण जहां चौधराहट की कर्मभूमि कायम रखने की चुनौती होगी, वहीं अपनी जीत की दूसरी तिकड़ी बनाने का पहाड़ जैसा लक्ष्य भी साधने की दरकार होगी।
देश में सबसे कम मतदाताओं के चक्रव्यूह से जकड़ी बागपत लोकसभा सीट पर 14.64 लाख मतदाता हैं और 2008 के परिसीमन के बाद इस सीट में बागपत, छपरौली, बडौत के अलावा मेरठ की सिवाल खास व गाजियाबाद की मोदीनगर विधानसभाओं को इस संसदीय क्षेत्र में शामिल किया गया है। जहां तक जातिगत समीकरण का सवाल है सबसे बड़ी तादाद जाट और मुस्लिम वोटरों की है। पिछले करीब चार दशक से बागपत लोकसभा सीट पर चौधरी चरण सिंह का परिवार ही काबिज है, केवल 1998 को छोड़कर पिछले 37 सालों में इस परिवार से मतदाताओं का कभी मोहभंग नहीं हुआ। इस सीट पर ही नहीं बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम गठजोड़ ही अभी तक रालोद की सियासत का प्रमुख समीकरण रहा है। 16वीं लोकसभा चुनाव में रालोद के लिए दंगों के कारण टूटे इस गठजोड़ की पीड़ा सबसे बड़ी समस्या नजर आ रही है। यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहते चौधरी अजित सिंह ने जाट आरक्षण लागू कराकर जाट वोटबैंक को तो साधने में कहीं हद तक कामयाबी हासिल की है, लेकिन मुस्लिम वोट बैंक की डोर रालोद की पकड़ में नहीं आ पाई। इसलिए रालोद प्रत्याशी अजित सिंह के लिए बागपत लोकसभा सीट पर जीत की तिकड़ी हासिल करना इतना आसान नहीं है जितना रालोद दावा करती आ रही है। ऐसे में रालोद प्रमुख अजित सिंह के सामने अपने पिता स्व. चौधरी चरण सिंह की संजोयी गई विरासत को कायम रखने और उनकी कर्मभूमि को बनाए रखना इस बार किसी चुनौती से कम नहीं होगा। हालांकि रालोद को कांग्रेस के वोट बैंक का सहारा जरूर दिखाई दे रहा है,लेकिन कांग्रेस विरोधी हवा के सामने इसका असर ज्यादा होने की संभावनाएं कम हैं। जबकि भाजपा ने चौधरी अजित सिंह की लगातार जीत की तिकड़ी रोकने के लिए ठीक उसी तरह इसी इलाके के पूर्व पुलिस आयुक्त मुंबई डा. सतपाल सिंह को सियासत की जंग में उतारा है, जिस प्रकार से 1998 में सोमपाल शास्त्री ने भाजपा के टिकट पर चौधरी अजित सिंह की लगातार चौथी जीत में रोड़ा अटकाया था। जबकि चौधरी अजित सिंह की राह में कांटे बिछाने की गर्ज से ही बसपा ने प्रशांत चौधरी और सपा ने गुलाम मोहम्मद को टिकट दिया है तो आम आदमी पार्टी ने भी जाट बाहुल्य सीट पर जाटों के इस महासंग्राम में सौमेन्द्र ढाका पर दावं खेला है।
चार दशक से है चौधराहट का दबदबा
बागपत लोकसभा सीट के सृजित होने पर 1967 में पहला लोकसभा चुनाव यहां सोमपाल शास्त्री के पिता रघुबीर शास्त्री ने आजाद उम्मीदवार के रूप में जीता था। आजादी के बाद पहले दो लोकसभा चुनाव में यह इलाका मेरठ दक्षित और तीसरे चुनाव में मेरठ-सरधना संसदीय क्षेत्र में था। 19 71 के चुनाव में बागपत से रामचन्द्र विकल निर्वाचित हुए थे, उस समय चौधरी चरण सिंह ने बीएलडी के टिकट पर मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट पर किस्मत आजमाई थी, लेकिन वे वहां कम्युनिस्ट पार्टी के ठाकुर विजय पाल के सामने परास्त होकर अगले 1977 के चुनाव में बागपत लोकसभा सीट को कर्मभूमि बनाकर सियासत करते रहे और लगातार तीन बार लोकसभा पहुंचे। चौधरी चरण सिंह ने 1980 का चुनाव जनता पार्टी और 1984 का चुनाव लोकदल से लड़ा। इसके बाद पिता की विरासत संभालने चौधरी अजित सिंह बागपत को सियासत का आधार बनाते आ रहे हैं, जिन्होंने 1989 व 1991 के चुनाव जनता दल के टिकट पर जीते, जबकि 1996 में उन्हें कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी बनाकर लोकसभा भेजा। 1998 का चुनाव उन्हें रास नहीं आया और भजपा के सोमपाल शास्त्री ने उन्हें पटखनी दी, लेकिन 1999 में भाकिकापा और उसके बाद लगातार दो चुनाव रालोद के बैनर पर जीतकर लोकसभा पहुंचे। रालोद की यह सातवीं सियासी जंग है। यह सीट करीब चार दशक से चौधरी चरण सिंह के परिवार के पास है। जाट समुदाय से आने वाला चौधरी परिवार सियासत में दखल रखने वाला अग्रणी परिवार है। इस परिवार से यहां के मतदाताओं का 1998 को छोड़कर पिछले 37 सालों में कभी मोहभंग नहीं हुआ। 1977 से 1984 तक चौधरी चरण सिंह काबिज रहे। इसके बाद उनके पुत्र चौधरी अजित सिंह ने 1989 में उनकी विरासत संभाली। तब से 1998 का अपवाद छोड़कर आज तक यह सीट उनके कब्जे में है।
यहां नहीं होता लहर का असर
राजनीतिक विशेषज्ञों की माने तो जातीय वर्चस्व का मुद्दा इस सीट पर बाकी तमाम मुद्दों को हमेशा पीछे छोड़ता रहा है। शायद यही कारण है कि यहां न तो सोशल मीडिया के असर की बात होती है और न ही किसी लहर की। ऐसे में किसानों की बदहाली और मोदीनगर की बंद पड़ी मिलों को खुलवाने जैसे असल मुद्दे अनदेखे रह जाते हैं। इस बार मुजफ्फरनगर दंगे की मार भी एक संवेदनशील मुद्दा है। रालोद प्रमुख ने केंद्र में यूपीए का हिस्सा बनकर हालांकि इस बार जाट आरक्षण की समस्या को हल कराने में जीतोड़ प्रयास किये हैं, जिसके कारण जाट वोट बैंक तो एकजुट होता नजर आता है, लेकिन दूसरे पायदान के मतदाता मुस्लिम वोट बैंक का छिटकना रालोद की मुश्किलों का कारण बन सकता है।
03Apr-2014

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