बुधवार, 23 अप्रैल 2014

हॉट सीट: मैनपुरी- मुलायम का सियासी तिलिस्म तोड़ना आसान नहीं!

25 साल से बना है सपा का सियासी गढ़
ओ.पी.पाल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अंतिम जिला माने जाने वाले जिले की मैनपुरी लोकसभा संसदीय क्षेत्र समाजवादी पार्टी का गढ़ माना जाता है। मुजफ्फरनगर दंगों के कारण सपा से नाराज दिख रहे मुस्लिमों को शाक्य व अपने परंरागत वोट बैंक में समेटने की नीयत से बसपा सोशल इंजीनिरिंग की रणनीति से सीट कब्जाने के प्रयास में हैं, तो वहीं भाजपा भी मोदी मैजिक के सहारे इस सीट पर मुलायम सिंह को घेरेने की तैयारी से सियासत की जंग में हैं। इन रणनीतियों के बावजूद भाजपा व बसपा या अन्य किसी दल के लिए इस सीट पर ढाई दशक से जारी मुलायम सिंह के सियासी तिलिस्म को तोड़ना बेहद कठिन नजर आ रहा है।
ब्रिटिश राज में स्वतंत्रता आंदोलन की वीर गाथाओं को समेटे मैनपुरी लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी ने वर्ष 1989 में अपनी राजनीति का सिक्का जमाया और तभी से खासकर भाजपा व बसपा की सभी राजनीतिक कसरते सपा के गढ़ को भेदने में नाकाम रही। सूबे में सत्तारूढ़ सपा के शासन पर दंगों के दाग ने हालांकि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की परेशानी बढ़ाई हैं, शायद इसलिए उन्होंने मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया। कांग्रेस ने इस सीट पर मुलायम सिंह के खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारा, लेकिन नेताजी के हलकान होने के कारण भाजपा और बसपा को सपा से मुस्लिमों की बढ़ी नाराजगी से इस बार उम्मीदें बढ़ी हैं। इस सीट पर जब से सपा का सियासी तिलिस्म जारी है तभी से भाजपा व बसपा की सियासी कसरतें तो जारी रही, लेकिन चार बार भाजपा और तीन बार बसपा को उप विजेता के रूप में ही संतोष करना पड़ा है। राजनीति के धुरंधर और संयुक्त मोर्चा के पीएम पद के उम्मीदवारों में से एक मुलायम सिंह यादव को इस सीट पर चुनौती देने के लिए भाजपा ने जातियी समीकरण को साधते हुए शत्रुघ्न सिंह चौहान तथा बसपा ने डा. संघमित्रा मौर्य को सियासत की जंग में उतारा है। ऐसे में आम आदमी पार्टी ने भी इस सीट पर यूपी में ईमानदारी छवि के साथ प्रशासनिक अधिकारी रहे बाबा हरदेव सिंह पर दांव खेला है, तो पीस पार्टी के अबु नसीम पठान व फारवर्ड ब्लाक के सतेन्द्रवीर चौहान भी किस्मत आजमा रहे हैं।
नेता जी की प्रतिष्ठा का सवाल
उत्तर प्रदेश में तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव को सियासत का पहलवान भी कहा जाता है, जो कभी भी किसी को भी उसी तरह सियासी पटखनी देने में माहिर है जैसे वे पहलवानी के दौरान अखाड़ें में पछाड़ते थे। अध्यापन कार्य व पहलवानी छोड़कर 1967 में यपूी विधानसभा का चुनाव जीतकर राजनीतिक सफर शुरू करने के बाद उन्होंने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। चौधरी चरण सिंह का उत्तराधिकारी मानने वाले मुलायम सिंह यूपी में सात बार विधायक और पांच बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं और छठी बार लोकसभा में जाने की तैयारी कर रहे हैं। चूंकि गैर भाजपा व गैर कांग्रेसी दलों को एक मंच पर लाकर संयुक्त मोर्चा के पीएम उम्मीदवारों में से भी नेताजी एक हैं। इसलिए इस बार वह मैनपुरी के साथ आजमगढ़ सीट से भी चुनावी जंग में हैं।
मैनपुरी सीट का सियासी सफर
मैनपुरी लोकसभा सीट पर 15 लोकसभा के लिए 16 चुनाव हो चुके हैं। वर्ष 2004 के आम चुनाव में इस सीट से बसपा के अशोक शाक्य को हराकर 63.96 प्रतिशत वोट लेकर वे चुनाव जीते, लेकिन उधर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार गिरने से कांग्रेस व रालोद के साथ मिलकर सपा ने सरकार बनाई तो मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ही बने और उन्हें यह सीट छोड़ी पड़ी, लेकिन उन्होंने यहां उप चुनाव में अपने भतीजे धर्मेन्द्र यादव को लोकसभा पहुंचाया। पिछला चुनाव भी बसपा को हराकर मुलायम सिंह ने जीता। उससे पहले नेताजी 1998 व 1999 का चुनाव संभल सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। जबकि 1996 में पहली बार लोकसभा पहुंचे मुलायम सिंह यादव जनमोर्चा की वीपी सिंह की केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री भी रहे। इस सीट पर पहला चुनाव कांग्रेस और दूसरा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के कब्जे में गया, जबकि इसके बाद लगातार तीन चुनाव में कांग्रेस का परचम लहराया गया। आपातकाल के बाद 1977 में यहां भारतीय लोकदल और 1980 में जनता दल-सेक्युलर के टिकट पर रघुनाथ सिंह वर्मा लगातार दो बार लोकसभा पहुंचे। 1984 में फिर कांग्रेस के चौधरी बलराम सिंह यादव जीते, जिसके बाद कांग्रेस यहां कभी नहीं जीती। 1989 व 1991 में उदय प्रताप सिंह ने जनता दल व जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता। जबकि 1991 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने अन्य किसी दल के यहां सियासी पैर नहीं जमने दिये।
जातीय समीकरण
मैनपुरी लोकसभा सीट यादव बाहुल्य है, जहां दूसरे पायदान पर शाक्य व दलित वर्ग के मतदाता हैं। इसके बाद राजपूत जाति के वोटर इस सीट के लिए निर्णायक रहे हैं। अनुसूचित जाति के वोटरों की संख्या भी लगभग ढाई लाख से कम नहीं है। सपा यहां परंपरागत वोटरों के अलावा मुस्लिम और ओबीसी के समर्थन पर सियासत की जमीन पर खड़ी है। मैनपुरी, करहल, भौगांव, किशनी, जसवंतनगर विधानसभाओं को मिलाकर बनी इस सीट पर 7.32 लाख महिलाओं समेत 16.08 लाख मतदाताओं का जाल है, जिससे भेदने के लिए इस सीट पर 13 उम्मीदवार चुनावी जंग में हैं। राजनीतिक दलों के अलावा छह उम्मीदवार निर्दलीय रूप से भी किस्मत आजमा रहे हैं।
खाली होते कटोरे ने बदला मिजाज
आजादी के बाद 1990 तक मैनपुरी की पहचान सारे देश में धान के कटोरे के रूप में होती थी। तकरीबन 143 राइस मिलों के पहिए जब घूमते थे, तो पूरे देश में यहां के चावल की पहचान होती थी। मगर धान का कटोरा लगातार खाली होता गया। अब महज 14 राइस मिलें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। हालांकि एक चीनी यात्री हुएन सांग ने अपनी यात्रा वर्तांत में मैनपुरी का जिक्र कपिथ नामक शहर के रूप में किया है। बौद्ध धर्म के प्राचीन सांस्कृतिक स्थान सनकिसा की पहचान यहां बसंत गांव के रूप में की गई है। यहां प्राचीन शीतला मां का मंदिर है जहां पर चैत्र अपे्रल माह में 20 दिनों तक मेला लगता है। फूलबाग और लोहियाबाग भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं। यदि मैनपुरी के इतिहास को देखे तो यह जानकार हैरत होगी कि मैनपुरी जिला किसी जमाने में एक पूरा राज्य हुआ करता था। यहां राजाओं का राज्य था, उनकी सत्ता थी। मैनपुरी के चैहानवंशीय महाराजाओं ने जिले में जगह-जगह पर ऐतिहासिक इमारतों, किलों, दुर्ग और सरायों का निर्माण कराया था।
23Apr-2014

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