सोमवार, 21 अप्रैल 2014

हॉट सीट: हाथरस- कांग्रेस की बैसाखी पर आसान नहीं रालोद की राह!


नब्बे के दशक से भाजपा का है दबदबा
ओ.पी.पाल 
हिंदी जगत के सुप्रसिद्ध कवि और काव्य कोष के धनी काका हाथरसी की नगरी हाथरस लोकसभा सीट पर वैसे तो जनता ने कभी क्षेत्रीय या छोटे दलों को एक सिरे से नकारा है। अयोध्या आंदोलन के बाद देशभर में चली रामलहर का असर हाथरस सीट पर कुछ ज्यादा देखने को मिला, जिसका लगातार दबदबा बना रहा है। पिछले चुनाव में रालोद की जीत को भाजपा की मजबूत बैशाखी के सहारे ही मिल पाई थी। इस बार रालोद कांग्रेस की बैशाखी के सहारे फिर से सियासत की जंग जितने की फिराक में है, लेकिन इस बार भाजपा की पहाड़ सी चुनौती के सामने रालोद की राह आसान नहीं लगती।
आगरा मंडल की हाथरस लोकसभा सीट देश के प्रथम चुनाव से ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित रही है। काका हाथरसी की की यह नगरी भी कभी कानपुर की भांति उद्योगों के मामले में अपनी पहचान बना चुकी थी। 17 साल पहले इस नगरी को आगरा और मथुरा के हिस्से काटकर जिले का दर्जा दिया गया तो लोगों को लगा था कि यहां का विकास अब तेजी से होगा, लेकिन सूबे की खासकर सपा व बसपा की सरकारों ने इन 17 सालों में इस जिले का नाम सात बार बदलने का काम किया है। मसलन जब बसपा सत्ता में आई तो उसने इसे महामायानगर नाम दिया और भाजपा या फिर सपा सरकार इसका नाम फिर हाथरस करती रही है। इस सीट का सियासी मिजाज ही कुछ ऐसा देखने को मिला जहां जातिवाद, तुष्टीकरण, जोड़-तोड़ व सियासी चालों में माहिर क्षेत्रीय व छोटे दलों को यहां की जनता ने वोट काटू मानते हुए हमेशा नकाराने का काम किया है। पिछले वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में भी रालोद की सारिका बघेल इसलिए जीतकर लोकसभा पहुंच गई थी, कि वह भाजपा-रालोद की संयुक्त प्रत्याशी थी। वरना इस सीट पर यहां की जनता ज्यादातर कांग्रेस या भाजपा को कसौटी पर कसती रही है। इस रालोद भाजपा के गठजोड़ के अनुभव पर कांग्रेस की बैशाखी पर है लेकिन भले ही पश्चिम उत्तर प्रदेश में रालोद अपना सियासी असर रखती हो, लेकिन कांग्रेस विरोधी लहर में उसकी सियासी डगर बेहद मुश्किल है।
चुनावी इतिहास
हाथरस लोकसभा चुनाव के इतिहास पर नजर डालें तो शुरूआती चार दशक में जहां कांग्रेस पांच बार जीती, तो 90 के दशक से इस सीट पर भाजपा का ही दबदबा है। मसलन पिछले चुनाव में श्रीमती सारिका बघेल (रालोद )की जीत में भी भाजपा का ही सेहरा बंधा था। आजाद भारत के पहले चुनाव दो और चौथी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस के नरदेव स्नातक जीते। तीसरी लोकसभा का चुनाव आरपीआई के जोती स्वरूप जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। वर्ष 1971 चन्द्रपाल सैलानी ने चौथी और 1984 में पूरन चंद ने कांग्रेस का पांचवी जीत दिलाई। आपातकाल के बार चली कांग्रेस विरोधी लहर में 1977 में आरपी देशमुख तथा 1980 में चन्द्रपाल सैलानी ने जनता पार्टी का परचम लहराया। 1989 का चुनाव जनता दल के बंगाली सिंह ने जीता, जिसके बाद 1991 में लाल बहादुर रावल ने जीत हासिल कर भाजपा का खाता खोला, जिसके बाद भाजपा ने पीछे मुडकर नहीं देखा और 1996 समेत लगातार चार जीत हासिल कर किशनलाल दिलेर भाजपा के टिकट पर लगातार लोकसभा पहुंचते रहे। इस बार इस सीट पर भाजपा के टिकट पर राजेश कुमार दिवाकर सियासी जंग में हैं, जबकि कांग्रेस के तालमेल में रालोद ने सारिका बघेल की बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले निरंजन सिंह धनगर को सीट बचाने की फिराक में खड़ा किया है। 15वीं लोकसभा में पहुंची सारिका बघेल की सदन में उपस्थिति तो 94 प्रतिशत हैं लेकिन क्षेत्र के लिए कुछ खास नहीं कर पाई और मात्र 23 सवाल पूछे और एक बहस में हिस्सा ले पाई।
मतदाताओं का चक्रव्यूह
आगरा, अलीगढ़ और मथुरा के हिस्से काटकर 17 साल पहले बनाए गये हाथरस जिले की इस लोकसभा सीट को नए परिसीमन के बाद छर्रा, इगलास,हाथरस, सादाबाद व सिकन्दराऊ विधानसभाओं को मिलाकर सृजित किया गया है। हाथरस लोकसभा सीट पर करीब 7.68 लाख महिलाओं समेत 17.13 लाख मतदाताओं का चक्रव्यूह बना हुआ है, जिसे भेदने के लिए इस सीट पर भाजपा के राजेश दिवाकर व रालोद के निरंजन सिंह धनगर के अलावा सपा के रामजीलाल सुमन, बसपा के मनोज कुमार सोनी व आप के सुनहरी लाल समेत नौ प्रत्याशी सियासत की जंग में हैं। रालोद के निरंजन सिंह के हमनाम भी एक निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव के मैदान में है।
अतीत की पहचान किला
ब्रज क्षेत्र के हाथरस का इतिहास महाकाव्य महाभारत और हिंदू पौराणिक कथाओं के साथ जुड़ा हुआ है, जहां शहर के पूर्वी छोर पर राजा दयाराम का किला अपने अतीत में इतिहास समेटे हुए है और इस शहर की पहचान भी है। अंग्रेजी हुकूमत के आगे न झुकने की गवाही भी किले पर बने दाऊजी मंदिर की प्राचीर देता है। एक जमाना था जब यहां ऊंचे-ऊंचे टीले और खाई किले के इतिहास की गवाही देते थे, लेकिन बदलती परिस्थितियों और सियासी जंजाल में यह किला जर्जर होने के कगार पर खड़ा हुआ है।
21Apr-2014

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