ओ.पी. पाल. जौनपुर।
मुगलकाल के इतिहास को समेटे गोमती नदी के किनारे बसे शहर की जौनपुर लोकसभा
सीट के सियासी नतीजे खासकर सत्तर के दशक के बाद सत्ता के विपरीप रहे हैं।
यही कारण रहा है कि जौनपुर सदर का यह संसदीय क्षेत्र राजनीतिक दलों की
घोषणाओं में ही सिमटकर रह जाता है और विकास हाशिए पर रहा है। कांग्रेस की
सियासत में यहां पिछले तीस साल से सूखा पड़ा हुआ है, जिसे खत्म करने के लिए
तरूप के पत्ते के रूप में कांग्रेस ने भोजपुरी फिल्मों के महानायक रवि किशन
को सियासत के मैदान में उतारा है। लेकिन मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों को
देखते हुए भाजपा के कृष्ण प्रताप सिंह, बसपा के सुभाष पांडे व सपा के
पारसनाथ यादव के बीच कांटे की टक्कर मानी जा रही है। ऐसे में इस त्रिकोणीय
मुकाबले के बीच कांग्रेस के रवि किशन की सियासी राह कांग्रेस के अनुकूल नजर
नहीं आती, वहीं स्थानीय कांग्रेस नेताओं में अंदर खाने विरोध भी देखने को
मिल रहा है। वहीं सबसे बड़ा कारण पिछले चुनाव में बसपा के टिकट पर सांसद बने
बाहुबली धनंज्य सिंह निर्दलीय रूप से लोकसभा के महासंग्राम में यहां सभी
दलों की राह में रोड़ा बनते दिख रहे हैं, जो हत्या के आरोप में तिहाड़ जेल
में बंद हैं और बसपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया। हालांकि यहां आम आदमी
पार्टी ने भी डा. केपी यादव पर दांव आजमाया है। जौनपुर लोकसभा सीट को जिले
की छह विधानसभाओं बदलापुर, शाहगंज, जौनपुर, मल्हानी, मुंगरा व बादशाहपुर को
जोड़कर सृजित की गई है। इस सीट पर 17 लाख 37 हजरी 600 मतदाताओं का जाल बना
हुआ है, जिसका विभाजन करने के लिए यहां चौदह दलों समेत 21 उम्मीदवार अपनी
किस्मत आजमा रहे हैं।
मौजूदा सियासी मिजाज
जौनपुर संसदीय क्षेत्र के सियासी मिजाज जिस मुकाम पर है उसमें कांग्रेस प्रत्याशी रवि किशन का पूरा चुनाव अभियान भी फिल्मी अंदाज में चल रहा है,जिसमें सियासी रंग दूर तक भी नहीं दिख रहा है। यहां के कांग्रेस नेताओं की ही माने तो बदलती सियासी तस्वीर में फिल्मी अंदाज कहीं तक भी सिरे नहीं चढ़ रहा है और यहां ठोस और जमीनी प्रचार अभियान की ज्यादा जरूरत थी, जिसका पूरी तरह से सफाया है। एक वरिष्ठ पत्रकार अरविंद उपाध्याय की माने तो जौनपुर में कांग्रेस चुनावी जंग से बहार है और यहां भाजपा, बसपा व सपा के बीच ही मुकाबला है। इसमें बसपा उम्मीदवार के पक्ष में अल्पसंख्यक समुदाय के ज्यादा झुकाव को देखते हुए दलित-मुस्लिम कार्ड चलेगा अथवा मोदी लहर के कारण भाजपा को भी वोट बैंक की इस बंदरबांट में फायदा हो सकता है। वहीं निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मौजूदा सांसद धनंजय सिंह भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे सभी उम्मीदवार एक बड़ा रोड़ा मानकर चल रहे हैं। हालांकि सपा उम्मीदवार पारसनाथ यादव भी जौनपुर सीट से दो बार सांसद बनने का गौरव हासिल कर चुके हैं, लेकिन परिस्थिति सपा के पक्ष में ज्यादा नहीं हैं, जिसके लिए सपा के यादव वोट बैंक में आप के डा. केपी यादव मुश्किलों का कारण बने हुए हैं। ऐसे में इस सीट का सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा, यह 12 मई को वोटिंग के बाद 16 मई को आने वाले नतीजे ही तय करेंगे।
जौनपुर सीट का सियासी सफर
आजादी के बाद ही अस्तित्व में आई जौनपुर लोकसभा सीट पर पहला 1952 व 1957 का चुनाव कांग्रेस के बीरबल सिंह ने जीता। इसके बाद कांग्रेस के विजय अभियान का जारी रखते हुए 1962, 1967 व 1971 में राजदेव सिंह ने जीत की तिकड़ी बनाई। कांग्रेस का यह तिलिस्म आपातकाल में विरोधी लहर में टूटा और 1977 में यादवेन्द्र दत्त दुबे ने जनाता पार्टी तथा1980 अजीजुल्ला आजमी ने जनता पार्टी (सेकुलर)का परचम लहराया, लेकिन इंदिरागांधी की हत्या के कारण सहानुभूति की लहर में 1984 में कमला प्रसाद सिंह ने फिर कांग्रेस की वापसी कराई। इसके बाद अभी तक कांग्रेस अपनी खोई राजनतिक जमीन वापस नहीं ले सकी। 1989 में भाजपा के यादवेन्द्र दत्त दुबे, 1991 में जनता दल के अर्जुन यादव जीते। जबकि 1996 में राजकेशर सिंह व 1999 में स्वामी चिन्मयानंद ने भाजपा को जीत दिलाई। इनके बीच 1998 के चुनाव में सपा के पारसनाथ यादव ने जीत हासिल कर वर्ष 2004 में भी सपा को जीत दिलाई। पिछले 15वीं लोकसभा के चुनाव में धनन्जय सिंह ने बसपा का झंडा लहराया। अब सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में राजनीतिक माहौल में किसका परचम लहराएगा यह अभी भविष्य के गर्भ में हैं।
मौजूदा सियासी मिजाज
जौनपुर संसदीय क्षेत्र के सियासी मिजाज जिस मुकाम पर है उसमें कांग्रेस प्रत्याशी रवि किशन का पूरा चुनाव अभियान भी फिल्मी अंदाज में चल रहा है,जिसमें सियासी रंग दूर तक भी नहीं दिख रहा है। यहां के कांग्रेस नेताओं की ही माने तो बदलती सियासी तस्वीर में फिल्मी अंदाज कहीं तक भी सिरे नहीं चढ़ रहा है और यहां ठोस और जमीनी प्रचार अभियान की ज्यादा जरूरत थी, जिसका पूरी तरह से सफाया है। एक वरिष्ठ पत्रकार अरविंद उपाध्याय की माने तो जौनपुर में कांग्रेस चुनावी जंग से बहार है और यहां भाजपा, बसपा व सपा के बीच ही मुकाबला है। इसमें बसपा उम्मीदवार के पक्ष में अल्पसंख्यक समुदाय के ज्यादा झुकाव को देखते हुए दलित-मुस्लिम कार्ड चलेगा अथवा मोदी लहर के कारण भाजपा को भी वोट बैंक की इस बंदरबांट में फायदा हो सकता है। वहीं निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मौजूदा सांसद धनंजय सिंह भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसे सभी उम्मीदवार एक बड़ा रोड़ा मानकर चल रहे हैं। हालांकि सपा उम्मीदवार पारसनाथ यादव भी जौनपुर सीट से दो बार सांसद बनने का गौरव हासिल कर चुके हैं, लेकिन परिस्थिति सपा के पक्ष में ज्यादा नहीं हैं, जिसके लिए सपा के यादव वोट बैंक में आप के डा. केपी यादव मुश्किलों का कारण बने हुए हैं। ऐसे में इस सीट का सियासी ऊंट किस करवट बैठेगा, यह 12 मई को वोटिंग के बाद 16 मई को आने वाले नतीजे ही तय करेंगे।
जौनपुर सीट का सियासी सफर
आजादी के बाद ही अस्तित्व में आई जौनपुर लोकसभा सीट पर पहला 1952 व 1957 का चुनाव कांग्रेस के बीरबल सिंह ने जीता। इसके बाद कांग्रेस के विजय अभियान का जारी रखते हुए 1962, 1967 व 1971 में राजदेव सिंह ने जीत की तिकड़ी बनाई। कांग्रेस का यह तिलिस्म आपातकाल में विरोधी लहर में टूटा और 1977 में यादवेन्द्र दत्त दुबे ने जनाता पार्टी तथा1980 अजीजुल्ला आजमी ने जनता पार्टी (सेकुलर)का परचम लहराया, लेकिन इंदिरागांधी की हत्या के कारण सहानुभूति की लहर में 1984 में कमला प्रसाद सिंह ने फिर कांग्रेस की वापसी कराई। इसके बाद अभी तक कांग्रेस अपनी खोई राजनतिक जमीन वापस नहीं ले सकी। 1989 में भाजपा के यादवेन्द्र दत्त दुबे, 1991 में जनता दल के अर्जुन यादव जीते। जबकि 1996 में राजकेशर सिंह व 1999 में स्वामी चिन्मयानंद ने भाजपा को जीत दिलाई। इनके बीच 1998 के चुनाव में सपा के पारसनाथ यादव ने जीत हासिल कर वर्ष 2004 में भी सपा को जीत दिलाई। पिछले 15वीं लोकसभा के चुनाव में धनन्जय सिंह ने बसपा का झंडा लहराया। अब सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में राजनीतिक माहौल में किसका परचम लहराएगा यह अभी भविष्य के गर्भ में हैं।
09May-2014
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