बुधवार, 28 मई 2014

राग दरबार-रहनुमा भी न रहे मुसलमान

बमबम हैं पासवान
रामविलास पासवान के बारे में प्रचलित है कि जिस दल को वे समर्थन देते हैं वह सत्ता में आती है। आमतौर पर उनकी नजर केंद्र की सरकारों पर रहती है। पहले भाजपानीत राजग के साथ सत्ता भोगी फिर कांग्रेसनीत यूपीए में 5 सालों तक मंत्री रहे। लोकसभा चुनाव हार गए तो लालू प्रसाद की मदद से राज्यसभा में जगह पक्की की और अब फिर से राजग कुनबे में शामिल होकर खुद तो जीते ही भाई रामचंद्र पासवान और बेटे चिराग पासवान को भी जिता कर ले आए हैं। और तो और उनकी पार्टी के बाहुबली नेता रमा सिंह ने राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह को हराने में सफलता पाई। मोदी लहर ने राजद-कांग्रेस से छिटके पासवान कुनबे की नई सियासी ताबीर लिख दी। उम्मीद है कि मोदी मंत्रिमंडल में वे जगह भी पा लेंगे। पूर्व के उनके साथी लालू प्रसाद अब नीतीश कुमार के साथ मिलकर अपनी राजनीतिक जमीन बचाने की जुगत में लगे हैं।
बुझता हुआ नाग-मणि
कभी बिहार की राजनीति में नागमणि की तूती बोलती थी। सूबे के 15 फीसदी कुशवाहा वोटों पर एकछत्र राज था। जेपी आंदोलन की उपज रहे नागमणि शुरूआती दिनों में लालू प्रसाद के साथ रहे और अब वे ऐसी कोई पार्टी नहीं है जहां चार-छह महीने नहीं रहें हों। एक समय ऐसा आया था जब राजग सरकार में केंद्र में मंत्री पद तक से नवाजे गए। उनकी पत्नी नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में मंत्री रहीं। मुख्यमंत्री से अनबन के कारण नागमणि ने पत्नी का इस्तीफा करवा लिया। उसके बाद से उनके दिन लगातार खराब चल रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें बड़ा गेम-प्लान किया। राकांपा के प्रदेश अध्यक्ष इस उम्मीद के साथ बने कि यूपीए की गणित के तहत उन्हें एक टिकट तो मिल ही जाएगा,मगर राकांपा कोटे का वह एक टिकट तारिक अनवर लपक ले गए। बुझे हुए नागमणि ने झारखंड की अपनी पुरानी सीट चतरा से आजसू की टिकट पर उतरे। न केवल बुरी तरह हारे बल्कि चौथे नंबर पर रहे।
योग्यता का प्रदर्शन
भाजपा के एक पूर्व महासचिव इन दिनों अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने में जुटे हुए हैं। जब से चुनाव नतीजे सामने आए हैं इन नेताजी ने नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार में अपनी जगह फिट करने के लिए दिमागी कसरत तेज कर दी है। अलसुबह ही ये नेताजी अंग्रेजी अखबारों के संपादकों को फोन लगाकर बकायदा हालचाल ले रहे हैं। बात-बात में वह कानून से लेकर देश- विदेश की मौजूदा परिस्थितियों पर तफ्सील से चर्चा करते हैं। फिर मौका मिलते ही वह संपादक जी से उनके अखबार में अपना इंटरव्यू कराने की पेशकश कर देते हैं। इतना तक तो ठीक है, पर वह संपादक को इंटरव्यू का विषय भी खुद ही सुझा देते हैं ताकि उनका मंतव्य पूरा हो सके। पर, संयोग देखिए कि किसी भी संपादक ने अब तक उनके आग्रह पर गंभीरता से विचार नही किया है। जिस कारण खुद को कानून का धुरंधर साबित करने वाले इन नेताजी की प्रतिभा खुल कर मोदी जी तक नही पहुंच पाई है। चर्चा है कि उन्होंने अब अंग्रेजी चैनलों का रूख कर लिया है।
बायोडेटा की चिंता
मनोनीत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब से भाजपा सांसदों से उनका बायोडेटा मंगाया है, तब से पार्टी के तमाम सांसद अपने विरोधी गुट वाले सांसद के बारे में यह पता लगान में जुट गए हैं कि उसने अपने बायोडेटा में क्या खास लिखवाया है। ताकि विरोधी के बायोडेटा के बारे में जानकारी मिलने के बाद वह उससे बेहतर अपना बायोडेटा बनवा  सके। इसके अलावा कई सांसदों को दूसरी ही चिंता सता रही है। वह ये कि बायोडेटा हिन्दी में बनवाया जाए अथवा अंग्रेजी में। इसके लिए वह अपनी जान पहचान के पत्रकारों से संपर्क साध कर सलाह भी ले रहे हैं कि, खुद तो अंग्रेजी आती नही और बायोडेटा अंग्रेजी में बनवा दिया तो कहीं मामला खटाई में न पड़ जाए। अब ऐसे सांसदों के इस सवाल का उनके शुभेच्छू पत्रकार जवाब क्या देते हैं यह तो अलग बात है पर उनका माखौल खुब उड़ा रहे।
रहनुमा भी न रहे मुसलमान
देश के बंटवारे के समय जो पाकिस्तान चले गये थे वे आज भी मुहाजिर कहलाने की जिल्लत झेल रहे हैं और जो मुसलमान भारत में रह गये थे वे आज तक अपने आपको राष्टÑवादी साबित नहीं कर सके। वैसे तो देश की राजनीति में नेहरूजी और इंदिराजी के बीच हेमवतीनंदन बहुगुणा और वीपी सिंह भी मुसलमानों के नेता रहे, तो राजीव गांधी को भी मुसलमानो ने अपना नेता माना। सूबाई स्तर पर लालू यादव, मुलायम सिंह याद और नीतीश कुमार ने भी मुसलमानो की रहनुमाई की, तो ऐसे में मुसलमानो को अलग से मुसलमान नेता की जरूरत नहीं है। यह एक हकीकत भी रही है कि मुसलमान राष्टÑीय स्तर पर किसी मुसलमान को नेता स्वीकार नहीं कर पाए। मुसलमानो के बीच नेताओं की इतनी दुकाने हैं कि कोई किसी को अहमियत देने को तैयार नहीं है। धर्मनिरपेक्षता का चोला पहने कुछ सियासी दल व उनके नेता उनके रहनुमा होने का नाटक करते रहे हैं। इस बार के चुनाव में उत्तर प्रदेश ऐसा सूबा है जहां मुसलमानों के रहनुमाओं का शासन है लेकिन ये रहनुमा इस सूबे से एक भी मुसलमान को लोकसभा का प्रतिनिधित्व देने में विफल रहे। जिन्ना के बाद यूपी जैसे विशाल सूबे से मुस्लिम सांसद न दे पाना मुसलमानों को साल रहा है। वे यह समझ रहे हैं कि वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो मुस्लिम बहुल इलाकों से भी हिंदू उम्मीदवारों में बाजी मारी।
केजरीवाल की कसक
सियासत ही ऐसी चीज है कि उसका नशा जिस पर चढ़ जाए उतरने का नाम ही नहीं लेता। इसी नशे में चूर नजर आ रहे आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल, जिसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी भी समय से पहले नसीब हुई, लेकिन उन पर सियासत इतनी सवार हुई कि उसे लात मारकर वह पीएम की कुर्सी का ख्वाब देखने लगे और लोकसभा चुनाव में इतने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाया कि इतनी संख्या प्रमुख राष्टÑीय दलों भाजपा व कांग्रेस की भी नहीं थी। बहरहाल वे स्वयं भी फैलाए गये रायते से तर होकर मात खा गये और मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने की भूल मानते नजर आए। केजरीवाल की सियासत करने की कसक ने उन्हें लोकसभा के बजाए तिहाड़ जेल जाने का मजबूर कर दिया। भाजपा के वरिष्ठ नेता नीतिन गडकरी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को एक तरफ तो वे साबित नहीं कर पाए ऊपर से बेल-बांड भरकर कानूनी प्रक्रिया पूरी करके जमानत लेने से भी इनकार कर दिया। संविधान का सम्मान करने के बजाए जज को सियासत का ककहरा पढ़ाना चाहा तो जज ने सलाखों के पीछे डाल दिया।
यूपीए बनाम अंग्रेजी
सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेसनीत यूपीए की करारी हार का कारण राकांपा प्रमुख शरद पवार ने खोज लिया,जिबकि कांग्रेस हार के कारण अभी तलाश ही रही है। राकांपा नेता का मानना है कि यदि यूपीए सरकार ने अपने महत्वपूर्ण निर्णय अंग्रेजी में लिये हैं और हिंदी का उपयोग नाममात्र को किया है। इसलिए यूपीए को हार का सामना करना पड़ा है। राकांपा मानती है कि देश की जनता हिंदी भाषणा ज्यादा समझती है और यदि सरकार की अंग्रेजी देश की मातृभाषा पर सवार न होती तो इस जिल्लत का सामना न करना पड़ता। लेकिन सदन में भी कांग्रेसी मंत्री अंग्रेजी में जवाब देना अपनी शान समझते रहे, इसका ही खामियाजा इन चुनाव में भुगतना पड़ा है। इसके विपरीत भाजपा के नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में हिंदी में संवाद को बढ़ावा दिया और उसका ईनाम जनता ने भाजपा को बहुमत में लोकसभा भेजकर दिया है।
25May-2014

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