मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

दो दशक बाद फिर कम हुए सियासी योद्धा!

यूपी चुनावः लोकतंत्र में इतिहास बनने लगा चुनाव
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
उत्तर प्रदेश की 17वीं विधानसभा के गठन के लिए इस बार पिछले दो दशक पहले की तरह चुनावी जंग लड़ने वाले प्रत्याशियों में कमी देखी गई है। पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार 28.73 फीसदी कम उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में हैं। इस बार चुनावी मैदान में उतरे कुल 4874 प्रत्याशियों में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और गैर मान्यता प्राप्त दलों के अलावा 30 फीसदी निर्दलीय रूप से अपनी किस्मत आजमा रहे है।
देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया चुनाव सुधार की दिशा में चुनाव आयोग द्वारा सख्ती और नये नियमों का राजनीतिक दलों पर कसते शिकंजे ने ही शायद चुनावी समर की तस्वीर बदली है। मसलन अब बदलते इस चुनावी परिवेश में उम्मीदवारों की तादात में कमी देखी जा रही है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की 17वीं विधानसभा के लिए 403 सीटों पर हो रहे चुनावों पर ही नजर डाली जाए तो यूपी इस बार चुनाव मैदान में सियासी जंग के मैदान में पिछले 2012 के चुनाव की अपेक्षा 28.73 फीसदी उम्मीदवारों में कमी दर्ज की गई है। मसलन यूपी की 403 सीटों पर चुनाव लड़ रहे कुल 4874 प्रत्याशियों में 1461 यानि 30 फीसदी निर्दलीय प्रत्याशी शामिल है। जबकि 16वीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव में 1691 यानि 24.73 फीसदी निर्दलीयों समेत 6839 प्रत्याशी चुनाव लड़े थे, लेकिन 5760 यानि 84 फीसदी की जमानत जब्त हो गई थी, जिनमें 487 महिला उम्मीदवार भी शामिल थी। इससे पहले वर्ष 2007 में 6086 तथा वर्ष 2002 के चुनाव में 5533 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। पिछले दो दशक में निर्दलीय प्रत्याशियों में भी कमी आई और और उनकी विधानसभा में भी संख्या घटती आ रही है। यूपी में अब तक 16 विधानसभा चुनाव में वर्ष 1993 के चुनाव में सर्वाधिक 9716 प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आजमायी थी, लेकिन 8652 प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने का रिकार्ड आज तक कायम है।
बसपा के सर्वाधिक उम्मीदवार
यूपी मिशन 2017 के चुनाव में राजनीतिक दलों के कुल 3413 प्रत्याशियों में बसपा ही एक ऐसा दल है जिसके सभी 403 सीटों पर उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे है। अन्यथा राष्ट्रीय दलों में शामिल भाजपा व कांग्रेस भी गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में है। भाजपा ने करीब 25 सीटें अपने सहयोगी दलों अपना दल और सहदेव भारतीय समाज पार्टी को दी है। जबकि कांग्रेस ने सत्तारूढ. सपा के साथ गठबंधन में 105 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। इसके अलावा चैधरी अजीत सिंह की पार्टी रालोद ने चुनाव मैदान में उतरे करीब 222 दलों के मुकाबले सर्वाधिक प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है।
क्या मानते हैं विशेषज्ञ
चुनावी जंग में योद्धाओं की घटती संख्या के बारे में राजनीतिकारों का मानना है कि यह चुनाव आयोग के सख्त नियमों और नई व्यवस्था का परिणाम है जिसमें अब हरेक व्यक्ति के लिए चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटाना संभव नहीं है। चुनाव सुधार की दिशा में चुनाव प्रचार, चुनावी खर्च और अन्य कई तरह की बंदिशों की जकड़ में आई चुनावी व्यवस्था में यह बात तो सामने आई है कि प्रत्याशियों के खर्चो में भी बेहताशा कमी आई है यानि चुनाव अब इतने खर्चीले नहीं रह गये जिस तरह प्रत्याशी पहले चुनाव में दिल खोलकर खर्च करता रहा है। हालांकि कुछ जानकार इस बार नोटबंदी का असर भी बता रहे हैं, लेकिन दो दशक पूर्व 1996 के यूपी चुनाव में 2031 निर्दलीयों समेत इस बार से भी कम 4429 प्रत्याशी चुनाव लड़े थे तो उस समय तो आर्थिक तंगी का भी सवाल नहीं था। इसलिए नोटबंदी का तर्क कोई मायने नहीं रखता।

निर्दलीयों की भी यही कहानी
यूपी चुनाव में पार्टियों के टिकट काटे जाने से बागी होने वाले नेता भी अपने क्षेत्रीय समर्थन के सहारे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में अपनी किस्मत आजमाने की परंपरा को इस बार के चुनावों में ज्यादा हवा दी है। यूपी के इतिहास में वर्ष 1557 के चुनाव में कूदे 660 में से सर्वाधिक 74 निर्दलीयांे की जीत मिली थी, लेकिन यूपी विधानसभा में पिछले दो दशक में निर्दलीयों की मौजूदगी में कमी ही देखी गई है। पिछले चुनाव में विधानसभा में 1691 में से केवल छह निर्दलीय विधायक बन पाए थे। जबकि वर्ष 2007 के चुनाव में 2581 में नौ, वर्ष 2002 में 2353 में से 16 और 1996 में 2031 में से 13 निर्दलीय जीतने के बाद विधानसभा में दाखिल हुए थे। इससे पहले वर्ष 1993 के चुनाव में उतरे 9716 प्रत्याशियों में से 6557 निर्दलीय रूप से चुनाव लड़े थे, लेकिन आठ ही निर्वाचित हुए, जबकि बाकी को जमानत जब्त कराने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
01Mar-2017

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