रविवार, 12 फ़रवरी 2017

राष्ट्रपपति प्रणव मुखर्जी








एक विश्वस्तरीय लोकेकप्रिय्रयता के धनी
भारत के राष्ट्रपति के रूप में 25 जुलाई 2012 को पद और गोपनीयता की शपथ लेकर देश के प्रथम नागरिक का दर्जा हासिल करने वाले प्रणव मुखर्जी ने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार से अपनी बौद्धिक तथा राजनीतिक कौशल की छाप छोड़ी है, उससे भारत जैसे बडे़ लोकतांत्रिक देश की दुनियाभर में साख को बल मिला है। राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद के रूप में ही नहीं उन्होंने एक ओजस्वी वक्ता तथा विद्वान प्रणव मुखर्जी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, वित्तीय क्रियाकलापों तथा संसदीय प्रक्रियाओं के बारे में उनके असाधारण ज्ञान की चारों ओर प्रशंसा किसी से छिपी नहीं है। भारत के जीवंत बहुदलीय लोकतंत्र में, विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच एकता स्थापित करने की अपनी योग्यता के द्वारा जटिल राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति बनाने की अपनी भूमिका के लिए भी उनकी सराहना की जाती है।
भारत के राष्ट्रपति का पद ग्रहण करने से पहले प्रणव मुखर्जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने ही उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार घोषित किया, जो सीधे मुकाबले में अपने प्रतिपक्षी प्रत्याशी पी.ए. संगमा को हरसने के बाद देश के तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित घोषित किये गये।
अतंतं र्राषर््ष्ट्रीीय मुदुद्द्दों ें मंेंें बडी़ी़ भूूिमिका
देश के राष्ट्रपति के अपने करीब चार साल छह माह के कार्यकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की विदेशी दौरों में भी बेहतर और एक उभरते हुए भारत की तस्वीर को संवारने में योगदान दिया। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने अपनी पहली यात्रा बांग्लादेश का दौरा करके 42 साल पुराने सीमा विवाद को सुलझाने में जो भूमिका निभाई उसका केंद्र की मोदी सरकार ने भी कोई देरी नहीं की और संसद में संबन्धित विधेयक पारित कराकर सीमा विवाद को सुलझाया ही नहीं, बल्कि सीमा के दोनों और बिना किसी देश की पहचान से रह रहे 52 हजार नागरिकों को भारत और बांग्लादेश के नागरिक होने का सौभाग्य मिला, जिन्हें वे सभी अधिकार दिये गये, जो लोकतांत्रिक गणराज्य में हर किसी के पास होने चाहिए। इस दौरान प्रणब मुखर्जी ने दो दर्जन से भी ज्यादा विदेश यात्राआंे के दौरान देश को हर क्षेत्र में मजबूत करने के लिए सकारात्मक भूमिका निभाई, जिसमें देश की सरकार भी कहीं तक पीछे नहीं रही। केंद्र सरकार के राष्ट्र और जनहित में लिए गये फैसलों पर मुहर लगाने में भी मुखर्जी ने कोई देर नहीं, लेकिन कुछ मुद्दों पर उन्होंने अपनी स्पष्टता से कोई समझौता नहीं किया। यूपीए सरकार के दौरान 10 अक्टूबर 2008 को मुखर्जी और अमेरिकी विदेश सचिव कोंडोलीजा राइस ने धारा 123 समझौते पर हस्ताक्षर किए। वे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और अफ्रीकी विकास बैंक के प्रशासक बोर्ड के सदस्य भी थे। इससे पहले वर्ष 1984 में उन्होंने आईएमएफ और विश्व बैंक से जुड़े ग्रुप-24 की बैठक की अध्यक्षता की। मई और नवम्बर 1995 के बीच उन्होंने सार्क मन्त्रिपरिषद सम्मेलन की अध्यक्षता की। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर भी शामिल हैं। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया।
28 याचिकाएं निरस्त की
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मंुबई हमले और संसद हमले के आतंकियों मो. अजमल कसाब व अफजल गुरु जैसे कई आतंकियों और खूंखार आपराधियों की मृत्युदंड को माफ करने वाली याचिकाओं पर भी कोई नरमी नहीं बरती और सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाई गए मृत्युदंड को बरकरार रखते हुए न्यायपालिका का मान रखा। ऐसा भी नहीं है उन्होंने कुछ याचिकाओं को वापस करके पूरी रिपोर्ट तक का अध्ययन भी कराया है जो अभी विचाराधीन हैं। मुखर्जी का आतंकवाद के खिलाफ आरंभ से ही कड़ा रूख रहा है जिसके लिए उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में भी केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य के नाते दूसरे देशों के साथ नीतियों को साझा किया है।
प्रारम्भिक जीवन
एक साधारण परिवार के श्री मुखर्जी ने स्वतंत्रता सेनानी श्री कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी के पुत्र के रूप में पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में एक छोटे से गांव मिराती में 11 दिसंबर, 1935 को जन्म लिया। श्री मुखर्जी के पिता एक कांग्रेसी नेता थे, जिन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण, कई बार जेल जाने सहित, बहुत से कष्टों का सामना करना पड़ा। उनके पिता 1920 से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होने के साथ पश्चिम बंगाल विधान परिषद में 1952 से 64 तक सदस्य और वीरभूम (पश्चिम बंगाल) जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की खिलाफत के परिणामस्वरूप 10 वर्षो से अधिक जेल की सजा भी काटी थी। प्रणब मुखर्जी के दो बेटे और एक बेटी-कुल तीन बच्चे हैं। खाली समय में पढ़ना, बागवानी करना तथा संगीत सुनना पसंद करते हैं। साधारण रुचि वाले श्री मुखर्जी कला तथा संस्कृति के समर्पित संरक्षक हैं। एक जिज्ञासु पर्यटक के रूप में,भारत के कुछ ही हिस्से तथा दुनिया के कुछ ही देश ऐसे होंगे, जहां वे अपने शानदार तथा लम्बे सार्वजनिक जीवन में न जा पाए हों।
निजी कैैिरियर
श्री मुखर्जी ने कोलकाता विश्वविद्यालय से इतिहास और राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि तथा विधि में उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने कॉलेज शिक्षक और पत्रकार के रूप में अपना व्यावसायिक जीवन शुरू किया। प्रणव मुखर्जी ने सूरी (वीरभूम) के सूरी विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा पाई, जो उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर के साथ साथ कानून की डिग्री हासिल की है। वे एक वकील और कॉलेज प्राध्यापक भी रह चुके हैं। उन्हें मानद डी.लिट उपाधि भी प्राप्त है। उन्होंने पहले एक कॉलेज प्राध्यापक के रूप में और बाद में एक पत्रकार के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। वे बाँग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक (मातृभूमि की पुकार) में भी काम कर चुके हैं। प्रणव मुखर्जी बंगीय साहित्य परिषद के ट्रस्टी एवं अखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन
के अध्यक्ष भी रहे।
झटके से ऐसेसे उबरे
प्रणव मुखर्जी के राजनीति कैरियर में झटके भी आए जो 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गांधी की केंद्र सरकार में राजीव गांधी समर्थक मण्डली के षड्यन्त्र के शिकार हुए,जिसके कारण उन्हे मन्त्रिमणडल में शामिल नहीं किया जा सका, बल्कि उन्हे कांग्रेस पार्टी से ही निकाल दिया गया। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया, लेकिन सन 1989 में राजीव गान्धी के साथ समझौता हुआ और उन्होंने अपने दल का कांग्रेस पार्टी में विलय करा फिर कांग्रेस का दामन थम लिया। मसलन उनका राजनीतिक कैरियर उस समय पुनर्जीवित हो उठा, जब पी.वी. नरसिंह राव ने पहले उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में और बाद में एक केन्द्रीय कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला किया। उन्होंने राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद के रूप में भी चुना गया। वर्ष 1985 के बाद से वह कांग्रेस की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के भी अध्यक्ष भी रहे हैं।
यहां से बुलुलंदंद हुएुए सितारे
केद्र में वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में राजग सरकार को सत्ता से बेदखल करने के बाद कांगेस की अगुवाई में यूपीए गठबन्धन सरकार में कांग्रेस के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राज्यसभा सांसद थे। इसलिए जंगीपुर (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मन्त्रालय, राजस्व, नौवहन,परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिज्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्वपूर्ण मन्त्रालयों के मन्त्री होने का गौरव भी हासिल है। वह कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता रह चुके हैं, जिसमें देश के सभी कांग्रेस सांसद और विधायक शामिल होते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोकसभा में सदन के नेता, बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रिपरिषद में
केन्द्रीय वित्त मन्त्री भी रहे। लोकसभा चुनावों से पहले जब प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने अपनी बाई-पास सर्जरी कराई, प्रणव दा विदेश मन्त्रालय में केन्द्रीय मंत्री होने के बावजूद राजनैतिक मामलों की कैबिनेट समिति के अध्यक्ष और वित्त मन्त्रालय में केन्द्रीय मन्त्री का अतिरिक्त प्रभार लेकर मन्त्रिमण्डल के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे।
राजनीतिक दल में भूूिमिका
मुखर्जी को पार्टी के भीतर तो मिला ही, सामाजिक नीतियों के क्षेत्र में भी काफी सम्मान मिला है। अन्य प्रचार माध्यमों में उन्हें बेजोड़ स्मरणशक्ति वाला, आंकड़ाप्रेमी और अपना अस्तित्व बरकरार रखने की अचूक इच्छाशक्ति रखने वाले एक राजनेता के रूप में वर्णित किया जाता है। जब सोनिया गान्धी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में उन्हें उदाहरणों के जरिये बताया कि उनकी सास इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से कैसे निपटती थीं। मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने ही उन्हें यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी और प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह के करीब लाया और इसी वजह से जब 2004 में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आयी तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुँचने में मदद मिली। वर्ष 1991 से 1996 तक वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 2005 के प्रारम्भ में पेटेण्ट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। कांग्रेस एक आईपी विधेयक पारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी, लेकिन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल वाम मोर्चे के कुछ घटक दल बौद्धिक सम्पदा के एकाधिकार के कुछ पहलुओं का परम्परागत रूप से विरोध कर रहे थे। रक्षा मन्त्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट नेता ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबन्धनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदु तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेण्ट के अलावा और कुछ और बातें भी शामिल थींय तब उन्हें, वाणिज्य मन्त्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्ण कानून बनना। अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई। दिवंगत प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी के सतर्क मार्गदर्शन के अधीन श्री मुखर्जी अपने राजनीतिक जीवन में तेजी से ऊंचाइयों की ओर बढ़ते गए। वर्ष 1973-74 की अवधि के दौरान उन्हें उद्योगय जहाजरानी एवं परिवहन, इस्पात एवं उद्योग उपमंत्री तथा वित्त राज्य मंत्री बनाया गया। दरअसल पहली बार 1982 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में भारत के वित्त मंत्री का पद ग्रहण किया और वे 1980 से 1985 तक संसद के उच्च सदन (राज्य सभा) में सदन के नेता रहे। बाद में वे 1991 से 1996 तक योजना आयोग के उपाध्यक्ष, 1993 से 1995 तक वाणिज्य मंत्री, 1995 से 1996 तक विदेश मंत्री, 2004 से 2006 तक रक्षा मंत्री तथा पुनः 2006 से 2009 तक विदेश मंत्री रहे। वे 2009 से 2012 तक वित्त मंत्री रहे तथा 2004 से 2012 तक राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के लिए त्याग-पत्र देने तक संसद के निम्न सदन के नेता रहे।
भ्रष््रष्टाचार पर विचार
मुखर्जी की खुद की छवि पाक-साफ है, परन्तु सन् 1998 में रीडिफ.कॉम को दिये गये एक साक्षात्कार में उनसे जब कांग्रेस सरकार, जिसमें वह विदेश मंत्री थे, पर लगे भ्रष्टाचार के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने कहा-भ्रष्टाचार एक मुद्दा है। घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है। लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूँ कि ये घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमें शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी। शायद इसी स्पष्टजा का नतीजा था कि इससे पहले भी प्रणव मुखर्जी के नाम पर एक बार भारतीय राष्ट्रपति जैसे सम्मानजनक पद के लिए भी विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमण्डल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया।
वित्त मन्त्री के रूप में योगदान
मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में मुखर्जी भारत के वित्त मन्त्री बने। इस पद पर वे पहले 1980 के दशक में भी काम कर चुके थे। 6 जुलाई 2009 को उन्होंने सरकार का वार्षिक बजट पेश किया। इस बजट में उन्होंने क्षुब्ध करने वाले फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटीज ट्रांसक्शन कर को हटाने सहित कई तरह के कर सुधारों की घोषणा की। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मन्त्रालय की हालत इतनी अच्छी नहीं है कि माल और सेवा कर लागू किये बगैर काम चला सके। उनके इस तर्क को कई महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा। प्रणव ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम, लड़कियों की साक्षरता और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए समुचित धन का प्रावधान किया। इसके अलावा उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम, बिजलीकरण का विस्तार और जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन सरीखी बुनियादी सुविधाओं वाले कार्यक्रमों का भी विस्तार किया। हालांकि, कई लोगों ने 1991 के बाद लगातार बढ़ रहे राजकोषीय घाटे के बारे में चिन्ता व्यक्त की, परन्तु मुखर्जी ने कहा कि सरकारी खर्च में विस्तार केवल अस्थायी है और सरकार वित्तीय दूरदर्शिता के सिद्धान्त के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध है।
सम्मान औरैर विशिष्टता
न्यूयॉर्क से प्रकाशित पत्रिका, यूरोमनी के एक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 1984 में दुनिया के पाँच सर्वोत्तम वित्त मन्त्रियों में से एक प्रणव मुखर्जी भी थे। उन्हें सन् 1997 में सर्वश्रेष्ठ सांसद का अवार्ड मिला। उनके नेतृत्व में ही भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ऋण की 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर की अन्तिम किस्त नहीं लेने का गौरव अर्जित किया। उन्हें प्रथम दर्जे का मन्त्री माना जाता है और सन 1980-1985 के दौरान प्रधानमन्त्री की अनुपस्थिति में उन्होंने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता की। उन्हें वर्ष 2008 के दौरान सार्वजनिक मामलों में उनके योगदान के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाजा गया।
कूटूटनीतिज्ञ का अनुभ्ुभव
श्री मुखर्जी को व्यापक कूटनीतिक अनुभव प्राप्त है और वे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक तथा अफ्रीकी विकास बैंकों के संचालक मंडलों में रहे हैं। उन्होंने 1982, 1983 और 1984 में राष्ट्रमंडल वित्त मंत्रियों के सम्मेलन मेंय 1994, 1995, 2005 तथा 2006 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में, 1995 में ऑकलैंड में राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों के सम्मेलन में, 1995 में कार्टाजीना में गुटनिरपेक्ष विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में तथा 1995 में बांडुंग में अफ्रीकी-एशियाई सम्मेलन की 40वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया।
भारत के प्रथम नागरिक
भारत के राष्ट्रपति, राष्ट्राध्यक्ष एवं सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर हैं। उन्हें एक निर्वाचक मंडल के सदस्यों द्वारा चुना जाता है जिसमें संसद के दोनों सदनों एवं राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों की विधानसभाओं के सभी चुने गए सदस्य शामिल होते हैं। राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि के लिए पद पर रहते हैं। संविधान के विभिन्न अनुच्छेद राष्ट्रपति की भूमिका एवं शक्तियों का उल्लेख करते हैं। सभी विदेशी राष्ट्राध्यक्षों एवं शासनाध्यक्षों की अगवानी राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति, विदेशों में भारत के राजदूतों एवं उच्चायुक्तों को नियुक्त करते हैं तथा नई दिल्ली स्थित विदेशी मिशनों के प्रमुखों से परिचय पत्र प्राप्त करते हैं। राष्ट्रपति,केंद्रीय विश्वविद्यालयों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थानों तथा भारतीय विज्ञान संस्थान के कुलाध्यक्ष भी हैं।
-ओमप्रकाश पाल


केन-बेतवा लिंक परियोजना




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