रविवार, 5 जून 2016

राग दरबार सेक्युलर सूरमाओं पर भारी भाजपा...

मुस्लिम प्रेम की पोल खुली
देश में धर्मनिरेपक्षता का राग अलापने वाले सेक्युलर सूरमाओं के सिद्धांत राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव की सियासत में शायद धरे रह गये। यानि भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी के खिताब से नवाजते आ रहीे कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, जद-यू सहित किसी भी तथाकथित सेक्युलर पार्टी की राज्यसभा चुनाव ने सेक्युलर सूरमाओं के मुस्लिम प्रेम की पोल खोलकर रख दी है, जिन्होंने उच्च सदन की 16 राज्यों की 58 सीटों पर किसी भी मुसलमान को प्रत्याशी बनाने की जहमत नहीं उठायी। ये हाल इन सेक्युलर सूरमाओं का तब है जब मोदी के पीएम बनते ही भाजपा और उसके नेतृत्व वाली केंद्र की मोदी सरकार पर अल्पसंख्यकों को लेकर सेक्युलरिस्टों द्वारा असहिष्णुता के आरोप लगाये जा रहे हैं? भला हो भाजपा का जिसने राज्यसभा से रिटायर हो रहे दो मुसलमानों एम.जे. अकबर और मुख्तार अब्बास नकबी को राज्यसभा भेजने का निर्णय लेकर ऐसे तथाकथित दलो और सेक्युलर सूरमाओं को बेनकाब कर दिया। राजनीतिक गलियारों में अल्पसंख्यकों को मीठी-मीठी बातें करके मुसलमानों को ठगने का ऐसे तथाकथित सेक्युलर सूरमाओं का यह पहला मामला नहीं है। यह स्मरण करना जरुरी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से कोई मुसलिम उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका। इस वजह से लोकसभा में यूपी से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ही गोल हो गया। चुनाव के ठीक बाद नेताजी यानि मुलायम सिंह यादव ने आजमगढ़ का प्रतिनिधित्व करने का निर्णय लेते हुए मैनपुरी से इस्तीफा दिया। यदि वह चाहते तो मैनपुरी से किसी मुसलमान उम्मीदवार बनाकर लोकसभा में प्रतिनिधित्व देने की भरपाई कर सकते थे, लेकिन मुसलमानो के रहनुमा होने का दम भरने वाले मुलायम को तो सैफई के अपने यादव खानदान को ही तरजीह देने की कवायद को आगे बढ़ाना था। ऐसी ही सियासत संसद के ऊपरी सदन के लिये ऐसे सेक्युलर सूरमाओं का ऐसा पटाक्षेप होता दिखा कि देश के मुस्लिमों की समझ में आना चाहिए कि उनका हितैषी कौन है?
दर-दर भटकते अजित
भारतीय राजनीति में चौ. अजित सिंह और राम विलास पासवान की कुंडली काफी कुछ मिलती जुलती है। सत्ता के साथ बने रहने के दोनों खिलाड़ी रहे हैं पर अब लगता है कि अजित दांव-पेंच में कमजोर पड़ रहे हैं। बताते हैं कि चौ. चरण सिंह कई बार खुले तौर पर कहते थे कि अजित सिंह उनकी राजनैतिक विरासत को संभालने के योग्य नहीं हैं। आज का दौर देखे तो लगता है कि बड़े चौधरी गलत नहीं कहते थे। अजित ने कई बार अपने कुर्सी मोह से यह साबित किया है कि विचारधारा और अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं से उनका कोई ज्यादा लेना देना है नहीं। अब देखिये ज्यसभा में जाने के लिए उन्होंने भाजपा और सपा से लेकर हर उस दरवाजे पर दस्तक दी जहां से उनको उम्मीद थी। जब थक-हार कर घर लौटे तो हाथ खाली थे। सब जगह अजित से कहा गया कि अपनी पार्टी रालोद का विलय करो। इसके लिए छोटे चौधरी तैयार नहीं हुए। फिर क्या था अमित शाह और मुलायम सिंह ने मना कर दिया। दरअसल सब जानते हैं कि अजित सिंह मौकापरस्त हैं कब साथ छोड़ दे पता नहीं। इसलिए उनकी राजनैतिक उपयोगिता को अब दूसरे दलों ने दरकिनार कर दिया है।
तभी तो कहते हैं ‘पुलिस इज पुलिस’
भारत की पुलिस के चर्चे वैसे तो दुनिया भर में आम हैं। इसका जिक्र होते ही अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती है। लेकिन बीते दिनों एक केंद्रीय मंत्री ने जब पुलिस के रूतबे का रोचक अंदाज में बखान प्रस्तुत किया तो चारों ओर हंसी की गूंज सुनाई देने लगी। मौका था केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा एंट्री ट्रैफिंकिंग बिल के ड्राμट को यहां राजधानी के नेशनल मीडिया सेंटर में जारी करने का। ड्राμट पर पत्रकारों के सवाल- जवाब का दौर चल ही रहा था कि अचानक किसी ने विभागीय मंत्री से पूछा कि इसमें पुलिस वालों की ज्यादती रोकने के लिए भी कुछ प्रावधान किए गए हैं। मंत्री जी ने हंसते हुए कहा कि ‘पुलिस इज पुलिस’। यह मैं इस एक्ट में नहीं डाल सकती कि हम पुलिस वालों के खिलाफ क्या कर रहे हैं। इससे एक बात तो साफ है कि नियम कायदों की कड़ी में पुलिस के हाथ बांधे नहीं जा सकते।
-ओ.पी. पाल, आनंद राणा व कविता जोशी
05June-2016

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें