रविवार, 20 मार्च 2016

राग दरबार:- कन्हैया को रास नहीं केजरीवाल राह?

केजरी की  छवि पर काले बादल
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हर उस शख्स को पसंद करते हैं जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा से अदावत रखता हो। इस मामले में अपने सभी सिद्धांतों, नैतिकता को ताक पर रखते हुए आम आदमी पार्टी के मुखिया भ्रष्टाचार से लेकर राष्ट्रद्रोह तक से आंखे बंद कर लेते हैं। अपने आपको खुद ही ईमानदारी, देशभक्ति और न जाने किस-किस खिताब देकर दुनिया की सुर्खियां बटोरने की चाह समेटे केजरीवाल ठीक उसी तरह मोदी और भाजपा को कोसने में कमी नहीं छोड़ते, जैसे कांग्रेस युवराज की मर्यादाहीन भाषा सार्वजनिक हुइै है। अन्ना हजारे के साथ दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में भारत माता की जय, वंदेमातरम के नारे लगाने वाले केजरीवाल अब देशद्रोह की भाषा बोलने वालों के साथ सुर मिला रहे हैँ, लेकिन जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार के मुरीद हुए केजरीवाल को उस समय मुहं की खानी पड़ी, जब कन्हैया को उनकी राह शायद कतई रास नहीं आई। मसलन जब जेएनयू के हालिया मामले में केजरीवाल पूरी तरह से कन्हैया कुमार के रंग में रंगे नजर आये और उन्होंने टविट्र पर जेएनयू अध्यक्ष के जेल से बाहर आने के बाद दिये गये भाषण की खूब तारीफ तो की ही, वहीं केजरीवाल ने कन्हैया कुमार को मिलने का न्यौता भी दे दिया। केजरी की चर्चित छवि पर छाते नजर आ रहे काले बादलों का ही शायद यह नतीजा सामने आया कि मुख्यमंत्री जी आंखे तब खुली, जब कन्हैया कुमार तय मुलाकात के बावजूद दिल्ली सचिवालय नहीं पहुंचे और केजरीवाल उनकी राह ही ताकते रह गये। फिर क्या था अपनी परंपरागत शैली में झल्लाए केजरीवाल ने गुस्से में कन्हैया से मुलाकात रद्द करने का आदेश सुना दिया। फिलहाल मुख्यमंत्री पूरी तरह से कन्हैया से खफा हैं। इससे पहले भी केजरी के ऐसे हाईटेक नाटकों का पटाक्षेप सार्वजनिक होता रहा है। यानि बिहार चुनाव में जीत के बाद जब वे नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में पटना पहुंचे थे तो उन्होंने मंच पर लालू यादव से गले मिलने से देर नहीं लगाई।
छवि को लेकर सतर्क मंत्रीजी
केंद्र सरकार के एक महत्वपूर्ण मंत्रालय में राज्यमंत्री पद पर आसीन एक नेताजी अपनी छवि को लेकर खासा सतर्क रहते हैं। उनकी कोशिश रहती है कि वह किसी तरह के विवाद से दूर रहे। यही कारण है कि वह जब मीडिया से मुखातिब होते हैं तो अपने मंत्रालय से जुड़े कामकाज पर ही बात करने पर जोर देते हैं। इतना ही नही, वह अगर पत्रकारों द्वारा उनके मंत्रालय से जुड़ी किसी योजना की स्थिति अथवा दूसरे पहलुओं पर पूछे जाने पर मंत्रीजी तथ्य और आंकड़ों को लेकर सावधानी बरतते हैं। आंकड़ों के बारे में अगर उन्हें ठीक-ठाक याद नही आता तो तुरंत संबंधित अधिकारी को तलब कर वास्तविक आंकड़ा उपलब्ध कराते हैं। उनकी यह सतर्कता यूं ही नही है। मंत्रीजी को पता है कि तनिक भी फिसले तो मामला बिगड़ सकता है। अरे भाई..पिछली यूपीए सरकार में बतौर सांसद रहते इन्होंने ही कोलगेट घोटाले को उजागर करने में अहम भूमिका निभाई। यही कारण है कि अब मंत्रीजी किसी तरह का जोखिम नही लेना चाहते।
बाबू बिना तो काम नहीं चलेगा...
देश के सिस्टम के सबसे बड़े कर्णधार के रूप में हर किसी की जुबान पर सरकारी बाबू का नाम सबसे पहले आता है। आए भी क्यों ना भई ये बाबू ही तो हैं जो हर फाइल को पास करवाने और रोकने का पूरा माद्दा रखते हैं। इनकी सलाह तो मंत्री भी आसानी से इग्नोर नहीं कर पाते। लेकिन इन दिनों सरकार के एक महत्वपूर्ण प्रचार-पसार विभाग पीआईबी में बाबूआें की संख्या में अचानक कमी देखने को मिल रही है। इसके पीछे इससे जुड़े कई विभागीय अधिकारियों का विदेश दौरे पर चले जाना वजह बताया जा रहा है। विदेश दौरे की वजह से यहां जो मौजूदा अधिकारी बचे हैं उनपर काम का बोझ बढ़ गया है। इस सूरतेहाल को देखकर तो यही कहेंगे कि बाबूओं के बिना तो काम चलाना मुश्किल है।
-हरिभूमि ब्यूरो
20Mar-2016

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