रविवार, 13 मार्च 2016

राग दरबार: बहुत हुआ कन्हैया राग

बोल कामरेड जय कन्हैया लाल की
कहते हैं कि जवान तवायफ जब मुजरे की महफिल में ठुमकती है तो सजिंदों की बगल में पानदान लेकर बैठने वाली बूढ़ी खाला की कमर खुद ब खुद लचकने लगती है। ऐसा ही हाल शायद आजकल की राजनीति में इन दिनों मुरझाए कामरेडो में नजर आ रहा है। मसलन जेएनयू में कन्हैया के ठुमके देख इन कामरेडों भी जवानी अंगड़ायी लेने को बेताब है। संसद के सत्र के शुरूआती दौर में कामरेडों की सक्रियता में वोटबैंक राजनीति में देश के लिए कुर्बानी करने देने का दावा करते आ रहे कांग्रेसियों ने भी ऐसा दम दिखाया जैसे जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया में भारतीय वामपंथ का भविष्य दिखाई दे रहा हो। कुछ वामपंथी तो मोदी सरकार के केंद्र में शपथ लेते ही यह बात कहते नजर आए थे कि इस बार एक विचारधारा की पूर्ण बहुमत सरकार बनी है, जिसका मुकाबला मध्यमार्गी कॉग्रेस नहीं, वामपंथी विचारधारा ही कर सकती है। जेएनयू प्रकरण में नारेबाजी को वह भले ही बहाना मान रहे हो, लेकिन उनकी सोच सारा संघर्ष वैचारिक ही नजर आ रहा है। ऐसी टिप्पणियां सोशलमीडिया पर खुलकर अपनी करवटे बदल रही हैं। वामपंथी और समाजवादी गलेबाजी में अव्वल और शब्दजाल बुनने में माहिर कुछ सियासीदान की हां में हां भले ही मिला रहे हों, लेकिन फिलहाल तो ना हाथी ना घोड़ा और ना पालकी, बोल कामरेड जय कन्हैया लाल की। राजनीतिक गलियारों में हो रही चर्चा पर गौर करें, तो संसदीय राजनीति की पौध छात्र राजनीति में ही तैयार होती है, यह राजनीतिक पाठ है और मौजूदा समय में भी सत्ता और विरोध दोनों खेमों में तमाम नेता छात्र राजनीति की देन हैं। ऐसे में यदि कन्हैया सक्रिय राजनीति में आता है तो कोई अचरज की बात नहीं, लेकिन सवाल उसके देशभक्ति को नकारने का है, भले ही उसके भाषण पर ताली बजाने की बात कुछ खास मायने न रखे। मसलन कोई कन्हैया को नायक बनाने में मगन है तो कोई खलनायक बनाने पर तुला है। ऐसे में देशभक्ति और देशद्रोह की परिभाषा में अंतर करने वाले ऐसे समय यही कहने को मजबूर हैं कि बहुत हो चुका कन्हैया राग..अब और नही?
राहुल का यूपी मंथन
कांग्रेस के भीतर उत्तर प्रदेश को लेकर मंथन चल रहा है। सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव है। राहुल गांधी का फोकस इस बात पर है कि कांग्रेस यहां जीत का परचम फहराये। अब ये बात दीगर है कि कांग्रेस के ही तमाम अनुभवी नेता इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि सपा, बसपा और भाजपा के मौजूद रहते कुछ हाथ लगना लगभग असंभव है। अब कांग्रेस उपाध्यक्ष को कौन समझाये। राहुल अपनी धुन में लगे हुए हैं। किसी ने उनको सलाह दी तो उन्होंने प्रशांत किशोर को चर्चा के लिए बुला लिया। दोनों के बीच कई दौर की चर्चा हुई। लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के सिपसालार रहे प्रशांत बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के सेनापति थे। खैर, प्रशांत किशोर ने भी राहुल गांधी को वही जवाब दिया जो सोनिया और राहुल से लेकर कांग्रेस का हर नेता जानता है। जवाब था, कांग्रेस यूपी में नहीं जीत पायेगी। राहुल ने पूछा क्यों? अब प्रशांत किशोर ने अपने सिर से बला टालते हुए कहा कि आपकी पार्टी के पास यूपी में चेहरा नहीं है, अगर प्रियंका गांधी प्रचार की कमान संभाले तो बात बने। चर्चा है कि प्रशांत ने एक सलाह और दी, उन्होंने कहा कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को यूपी में सीएम कैंडिडेट बनाइये हो सकता है कुछ बात बन जाये। प्रशांत किशोर तो अपना सुझाव देकर निकल लिये पर मुश्किल शीला के सिर आन पड़ी हैं। बताया जा रहा है कि शीला दीक्षित यूपी जाने के मूड में नहीं है। उनको पता है कि यूपी हाथ नहीं आने वाली।
यमुना तो मैली ही रह गई
पानी के मामले में राजधानी दिल्ली समेत आसपड़ोस के कई राज्यों की लाइफलाइन यमुना नदी की हालत प्रदूषण के मामले में जस की तस बनी हुई है। लेकिन हर बार सरकारी नीतियों और योजनाओं का ऐसा शोर मचाया जाता है कि अब या तब बस रातों रात नदी का कायाकल्प हो जाएगा। मगर होता कुछ भी नहीं हैं, हालत वहीं के वहीं है। इसमें वक्त बीतने के साथ यमुना पहले के मुकाबले साफ होने के बजाय और गंदी होती हुई नजर आने लगती है। इन सबसे इतर कभी यमुना नदी के किनारे धार्मिक उत्सवों के नाम पर गंदगी मचाने का फलसफा निकल पड़ता है तो कभी अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों के नाम पर इसकी आत्मा पर चोट जारी है। लेकिन नदी ने मानो मैलेपन की ही अपनी नियति समझ लिया है और उसी के साथ इन सब तामझामों से बेपरवाह बस बहे चली जा रही है। शायद यही उसका धर्म है।
-ओ.पी. पाल, आनंद राणा व कविता जोशी
13Mar-2016

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