राज्यसभा में आने की चिंता
केंद्र में मोदी सरकार के फिर से आने के बाद कांग्रेस समेत
विभिन्न दलों के नेताओं का भाजपा में शामिल होने का सिलसिला जिस प्रकार से चला
उसमें संसद सत्र के दौरान ही कई नेता पाल बदलकर भाजपा में शामिल हो गये, भले ही
उन्हें राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा ही क्यों न देना पड़ गया हो। राज्यसभा से
ऐसे सांसदों में कांग्रेस के संजय सिंह, भुवनेश्वर कलिता व संजय सेठ, सपा के नीरज
शेखर तथा नागर शामिल रहे, जिनमें नीरज शेखर तो यूपी से उपचुनाव में निर्वाचित होकर
फिर राज्यसभा सदस्य बन गये, लेकिन बाकी को यही चिंता सता रही है कि उन्हें भी
भाजपा किसी न किसी तरह उच्च सदन में खाली हुई सीटो पर होने वाले उप चुनाव में
राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित करा देगी। ऐसे नेता इसी उम्मीद से दल बदलुओं का सेहरा
पहना है कि केंद्र की सत्ताधारी भाजपा उन्हें उसी तरह तोहफा देगी जिस प्रकार
लोकसभा चुनाव से पहले नारायण राणे व चौधरी बीरेन्द्र की तरह कई नेताओं को राज्यसभा
भेजा गया है। भाजपा की माने तो ऐसे दलबदुओं को भाजपा ने बिना शर्त पार्टी की
सदस्यता दी है। उदाहरण के तौर पर तृणमूल कांग्रेस के मुकुल राय को राज्यसभा में
आने के लिए पिछले करीब दो साल से इंतजार करना पड़ रहा है और बीजद के नेता वैजयंत पांडा भाजपा में आकर लोकसभा चुनाव हार गये, जिनके साथ
राज्यसभा में आने की चिंता सता रही है कई दलबदलु नेताओं को!
अमन चैन से
विपक्ष बेचैन
कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान की भाषा बोल रहे कांग्रेस व
अन्य विपक्षी दलों को शायद अभी भी यह यकीन है कि विपक्ष का दबाव बना तो शायद कश्मीर
से धारा 370 खत्म करने के निर्णय को वापस कर लिया जाएगा। यदि विपक्षी ऐसा मानकर इस
मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं तो यह उनकी गलत फहमी है और मोदी सरकार के इस ऐतिहिसक
निर्णय का विरोध करके पाकिस्तान को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित कर रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर अमन चैन के साथ इस कदम को लेकर जहां दुनिया के देश सराहना कर रहे
हैं, वहीं पाकिस्तान में मची हायतौबा के साथ अपने देश में ही विपक्षी दलों की
बेचैनी को सोशल मीडिया पर साफतौर से देखा जा सकता है। खासकर राहुल गांधी की
नादानी, कांग्रेस की हैरानी और परेशानी यह संदेश दे रही है कि उन्हें कश्मीर घाटी
में अमन-चैन कतई बर्दाश्त नहीं है!
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तोता बनाम पोपट
देश में सत्ता और विपक्ष सियासत का मतलब भारत
संविधान, कानून, प्रक्रिया, सभ्य प्रवृत्तियों से नहीं, बल्कि जिसकी लाठी उसकी भैंस
वाली कहावत को चरितार्थ करती आ रही है। मसलन जिसकी सत्ता वही सिकंदर..एक दशक पहले पी. चिदंबरम देश के गृह मंत्री थे,
तब अमित शाह हत्यारे,
तड़ीपार
के आरोपी थे, जिन्हें पुलिस,
एजेंसियों, अदालत, मीडिया ने अमित शाह को चैन में जीने नहीं दिया। आज समय ने करवट
बदली तो वही अमित शाह अब देश के गृहमंत्री हैं और पी. चिदंबरम
भ्रष्टाचार और आर्थिक घोटालों के आरोपी हैं। वैसे भी सियासत में दोस्ती और दुश्मनी
कोई मायने नहीं रखती, लेकिन यह सच है कि सत्ता में चाहे जो बैठा
हो उसका एक पसंदीदा डायलॉग यह होता है कि अमुक मुद्दे पर विपक्ष राजनीति न करे,
भले ही वह खुद विपक्ष में रहते उसी मसले पर राजनीति कर चुका होता है।
राजनीतिकारों की माने तो सत्ता में आने के बाद उसे लगता है कि यह राजनीति का नहीं राष्ट्र
नीति का मुद्दा है। इसलिए यह कहना कि सत्तापक्ष की एक किस्म की बेईमानी है कि विपक्ष
किसी खास मसले पर राजनीति न करे। सियासी अंदाज में कहा जाए तो सत्ता और विपक्ष एक सिक्के के दो पहलू हैं जो विपक्ष में होता है वह सत्ता पक्ष पर जांच एजेंसियों को अपनी कठपुतली बनाने का आरोप लगाता रहा है। लेकिन जिस चिदंबरम ने सीबीआई को तोता बना दिया था, आज उसी
सीबीआई ने अब चिदंबरम का पोपट बना दिया है।
कांग्रेसी बेल वृक्ष
देश की सियासत में संकट के दौर से गुजर रही
कांग्रेस की संस्कृति को लेकर ‘विनाश काले विपरित बुद्धि’ जैसी कहावत सीधेतौर पर चरितार्थ होती नजर आ रही है। जनमत हासिल करने में विफल
रही कांग्रेस भष्ट्राचार के मामले में पूर्व वित्त एवं गृह मंत्री पी. चिदंबरम की सीबीआई द्वारा गिरफ्तारी को लेकर जिस प्रकार से बौखला रही है,
वह सोशल मीडिया की सुर्खियों में तेजी के साथ वायरल हो रही है। राजनीतिकार
मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार पर सरकार की आक्रमक चोट से आहत कांग्रेस जिस प्रकार से भारतीय
संस्कृति को झकझोर कर भ्रष्टाचारियों के पक्ष में खड़ी हुई है उससे कांग्रेस का ही
नुकसान हो रहा है, लेकिन कहते हैं जब गीदड को मौत सामने दिखती
है वह शहर की तरफ भागता है? यही हालत आज कांग्रेस के सामने नजर
आ रही है, जिसके पूर्व मंत्री और अन्य दिग्गज नेता भ्रष्टाचार
और घोटालों में बेल पर हैं, जो फेल होने पर अब जेल में बदलने
को तैयार है। सियासी गलियारों में तो यहां तक दलील दी जा रही है कि कांग्रेस के भ्रष्टाचार
का बेल वृक्ष अब परिपक्व हो गया, जिसके फल पकने लगे हैं और इस
फल के रूप में पहला शिकार चिदंबरम बने जिसे सीबीआइर ने लपक लिया है यानि जैसी करनी
वैसी भरनी!
अजेय लोकतंत्र
भारत में शायद लोकतंत्र अजेय है, जो संविधान
के साथ बार-बार कथिततौर पर हत्या के शिकार होने के बावजूद बरकरार
है। भारतीय लोकतंत्र की कथित हत्या शायद अरसे से एक परंपरा बन चुकी है। कोई भी सरकार
जब भी देशहित में कोई फैसला लेती है तो विपक्षी दल उसे लोकतंत्र की हत्या की संज्ञा
देकर विरोध में खड़े हो जाते हैं, चाहे वह जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म करना हो या फिर भ्रष्टाचार या
घोटालों में लिप्त नेताओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाही ही क्यों न हो। हाल ही में एक
आर्थिक अपराध में पूर्व केंद्रीय मंत्री की गिरफ्तारी होने पर कांग्रेस ने इसे मोदी
सरकार की राजनीतिक बदले की भावना करार देते हुए इसे लोकतांत्रिक हत्या करार दिया। सोशल
मीडिया पर कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेस की शुरूआत लोकतंत्र की हत्या से करने पर यहां
तक टिप्पणी आई, कि कांग्रेस इस शब्द को ऐसे इस्तेमाल कर रही है,
जैसे स्कूल के बच्चे उत्तर पुस्तिका में 'ॐ नमः शिवाय' या 'जय माँ दुर्गे' लिखकर करते हैं।
कांग्रेसियों के बदले सुर
केंद्र की राजग सरकार के पहले कार्यकाल में
समूचा कांग्रेसी कुनबा पीएम मोदी की आलोचना करने से कहीं भी नहीं चूका, भले ही
मोदी सरकार ने राष्ट्र और जनहित के लिए कोई भी फैसले ही क्यों न लिये हों। शायद इसी
नकारात्मक राजनीति के कारण कांग्रेस को चुनावी जंग में करारी हार के रूप में खामियाजा
भुगतना पड़ा है, जिसे कांग्रेस नजदीक से महसूस करती नजर आ रही
है। मोदी के दूसरे कार्यकाल में जिस प्रकार के बड़े और ऐतिहासिक फैसले लिये गये हैं,
उनके कारण कांग्रेस के सामने ‘एक तरफ गड्ढा तो
दूसरी तरफ खाई’ जैसी स्थिति बनी हुई है, लेकिन मोदी के घोर आलोचक रहे कुछ कांग्रेसी दिग्गज खासकर संसद में तीन तलाक
और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म करने
के ऐतिहिसक फैसलों को लेकर इस कहावत के विपरीत सार्वजनिक रूप से खुलकर पीएम मोदी के
प्रति अपनी सोच बदलते नजर आ रहे हैं। सियासी गलियारों की बात करें तो शायद इन दिग्गजों
को समझ में आ गया है कि आलोचना करते रहने के उनका सियासी कैरियर गर्त में जा सकता है,
इसलिए जयराम रमेश, अभिषेक मनु सिंघवी व शशि थरूर
जैसे नेताओं के एक के बाद एक बयान आ रहे हैं कि मोदी की आलोचना करने के बजाए मोदी सरकार
के अच्छे कामों की तारीफ करनी चाहिए।
01Sep-2019
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