रविवार, 18 सितंबर 2016

राग दरबार: टीपू की लोकप्रियता पर रार?

मुलायम सिंह को अखिलेश के ऐसे फैसले रास नहीं
देश की सियासत में वैसे तो दोस्ती या दुश्मनी कोई मायने नहीं रखती, लेकिन जब वंशवाद और परिवारवाद की परंपरा में दरार पैदा होने लगे तो उसे भरने के लिए घर में दीवारे खड़ी होना स्वाभाविक है। दरअसल मिशन-2017 को लेकर उत्तर प्रदेश में चल रही सियासी रणनीतियों के बीच सत्तासीन समाजवादी पार्टी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की रणनीतियों की विचारधाराएं जब विपरीत दिशा में बढ़ने लगी तो पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को कड़े फैसले लेने के लिए मजबूर तो होना पड़ा, वहीं अखिलेश सरकार के फैसलों में दखल देकर पार्टी में डेमेज कंट्रोल की सियासत को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। भले ही मुलायम यह कहे कि उनके होते हुए पार्टी या परिवार में कोई फूट होने का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सपा के परिवार के इस विवाद का फायदा यूपी चुनावी मिशन में जुटी भाजपा, कांग्रेस और बसपा जैसे दलों को मिलने की उम्मीद जरूर लगने लगी? सियासी गलियारों की चर्चा में सपा सरकार में चाचा-भतीजे के बीच खींचती इस दरार में डेमेज कंट्रोल करने के प्रयास में अखिलेश यादव को हटाकर भाई शिवपाल को पार्टी में यूपी की कमान देना मुलायम सिंह को शायद परिवारिक परिस्थियों को लेकर भारी पड़ता नजर आ रहा है। हालांकि यूपी के मामले में अध्यक्ष शिवपाल कोई बड़ा फैसला स्वतंत्र रूप से नहीं कर पाएंगे। चुनाव में संगठन से भी अधिक प्रभावी व निर्णायक कारक जनधारणा होता है और इस लिहाज से अखिलेश की छवि अपनी पार्टी के दूसरे बडे नेताओं पर कहीं भारी है। यह भी हकीकत हो सकती है कि लोग अखिलेश को सरल, शालीन व बेदाग छवि वाला नेता मानते हैं। राजनीतिकार मानते हैं कि एक मुख्यमंत्री के नाते टीपू सुल्तान के नाम से चर्चित अखिलेश यादव की बढ़ती लोकप्रियता चाचा शिवपाल यादव को पच नहीं पा रही थी, क्योंकि चुनावी दृष्टि से उन्होंने कड़े फैसले लेना शुरू कर चाचा को हलकान तो किया, लेकिन पिता मुलायम सिंह को अखिलेश के ऐसे फैसले रास नहीं आए, तभी तो पार्टी मुखिया होने के नाते उन्होंने अखिलेश के फैसले बदलने का ऐलान तक कर दिया। जबकि सपा के नजदीकी मानते हैं कि कौमी एकता दल के विलय का विरोध और दागी मंत्रियों की बरखास्तगी जैसे निर्णय, अखिलेश की लोकप्रियता बढाने वाले हैं। यदि लोकसभा चुनाव के बाद ही अखिलेश स्वतंत्र रूप से सरकार चलाने लगते और कुछ कड़े फैसले ले लेते तो फिर 2017 में उनकी सत्ता में वापसी की संभावना प्रबल होती।
जी का जंजाल बने सिद्धू
कुछ दिन पहले तक कांग्रेस और आप के नेता ये सोचकर खुश हो रहे थे कि पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू बीजेपी-अकाली गठबंधन को हराने के लिये तुरुफ का इक्का साबित होंगे पर अब तलवार का वार उल्टा पड़ता दिख रहा है। सिद्धू अब अकेले ही बीजेपी-अकाली, कांग्रेस और आप को चित करने का ऐलान कर रहे हैं। ये बात ठीक है कि अभी कोई उनको गम्भीरता से नहीं ले रहा। लगता भी यही है कि वे कोई बड़ा तीर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में नहीं मार पायेंगे, पर आप और कांग्रेस नेताओं को ये बात बखूबी पता है कि सिद्धू विपक्ष की वोटों में सेंध लगाकर सत्तापक्ष को फायदा पहुंचा सकते हैं। चर्चा है की सिद्धू को लेकर अभी आप के दरवाजे बंद नहीं हुए हैं। पता नवजोत सिंह सिद्धू को भी चुनाव में नई पार्टी बनाकर लड़ना आसान नहीं है। धनबल सिद्धू की सबसे बड़ी दिक्कत है, उनको कोई बड़ा फण्ड मिले तो बात बने पर कोई सेठ अपनी तिजौरी ऐसे नेता के लिए क्यों खोलेगा जो जीतने का माद्दा नहीं रखता हो। कहा जा रहा है कि ये पूर्व क्रिकेटर पूरी ताकत झोंकने के बाद भी मुश्किल से 3-4 सीट ही जीत जाए तो बड़ी बात होगी। फिलहाल तो सिद्धू अपने नए पैतरे से बीजेपी-अकाली गठबंधन को ही फायदा पहुंचाते दिख रहे हैं।
गोवा में बढ़ने लगी पर्रिकर की हाजिरी
गोवा में कुछ महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक दलों ने कमर कस ली है। ऐसे में देश के रक्षा मंत्री भी कहां पीछे रहने वाले हैं। चुनावों से पहले ग्रासरूट लेवल पर पार्टी को जनादेश दिलाने के लिए वो अथक प्रयास करने में जुट गए हैं। हो भी क्यों न गोवा तीन दशक तक उनकी कर्मभूमि जो रही है। यहीं मुख्यमंत्री रहते हुए उनका केंद्र की राजनीति यानि राजधानी दिल्ली में आगमन हुआ और उन्हें रक्षा मंत्री की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालने का मौका मिला। उनकी गोवा यात्राओं को लेकर पहले जहां ये चर्चाएं होती थीं कि पर्रिकर प्रत्येक सप्ताहांत गोवा चले जाते हैं। वहीं अब यह कहा जाता है कि वो सप्ताहभर के दौरे पर गोवा कूच रहे हैं। ऐसे तो उनकी गोवा में हाजिरी बढ़ना लाजिमी है।
-ओ.पी. पाल, आनंद राणा व कविता जोशी
18Sep-2016

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