देश
प्रेम जताने के लिए हिंदुस्तान में ‘भ्ाारत माता की जय’ बोलना जरूरी है
या नही, इसी पर छिड़ी बहस पर कुछ सियासीदान सुर्खियोंं में बने रहना ज्यादा
पसंद करते हैं, जिन्हें शायद न तो देश प्रेम और न ही संविधान की परवाह है।
ऐसी सियासत करने वाले केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करके देश व समाज को बांटने
का ही प्रयास करते हैं। जरा इस मामले में इस्लामी दीनी तालीम के मरकज दारुल
उलूम देवबंद के फतवे को ही देखें, तो इस्लाम के नजरिए से यह फतवा दुरुस्त
माना जा रहा है। इसीलिये तमाम मुसलमानों ने दारुल उलूम से जानना चाहा था कि
इसलामी एतबार से भ्ाारत माता की जय बोलना उनके लिए जायज है या नहीं?
दारुल इफ्ता के आठ मुफ्तियों ने तमाम माथापच्ची के बाद जो तर्क दिये हैं
उनमें मुसलमानों के लिए भ्ाारत माता की जय बोलना जायज नहीं है, लेकिन अपने
वतन से मोहब्बत करना दिनी इमान है। इसका तात्पर्य मुसलमान वतन को अपना
माबूत यानि भ्ागवान नहीं समझते। मुफ्तियों ने वतन परस्ती को लेकर अपने
खयाल के इजहार में यहां तक कहा कि हम और हमारे पूर्वज यही पैदा हुए तो वतन
से मोहब्बत स्वाभ्ााविक है, लकिन इसे देवी मान कर पूजा नहीं कर सकते। ऐसे
बयान के बाद तमाम लोग दारुल उलूम पर नजला उतारते नजर आए। मसलन विहिप ने तो
दारूल उलूम के फतवे को आतंकवाद का समर्थक बताया, लेकिन वहीं इस मामले में
संघ प्रमुख मोहन भ्ाागवत ने सही बात को तकदीद करते हुए कहा कि भ्ाारत
माता की जय बोलना किसी के ऊपर थोपना उचित नहीं है। ये विचार करने की बात यह
है कि आखिर यह नौबत क्यों आयी कि देवबंद को फतवा देना पड़ा? राजनीतिक
गलियारं में इस मामले पर चर्चा होना लाजिमी है और इतिहास भी गवाह है कि
जंग-ए-आजादी के दौरान हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर भ्ाारत माता की जय
का नारा लगाया, तब विवाद पैदा नही हुआ? तो अब किस बात का विवाद। एक तरह का
ये विवाद उन लोगों की देन है जिन्होंने देश प्रेम जताने वाले इस नारे को
धार्मिक निष्ठा से जोड़ दिया या फिर धार्मिक निष्ठा के प्रतिकार के रुप में
एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ शुरू हुई है। जबकि भ्ाारत माता की जय वाला
भ्ााव ही हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे में निहित है।
आखिर बच गये उपाध्यायदिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष सतीश उपाध्याय की कुर्सी फिलहाल बच गयी है। दिल्ली विधानसभ्ाा में करारी हार के बाद से ही उनको हटाने की अटकले लगती रहीं हैं। उनको अब किस्मत का धनी माने जाना लगा है। बीजेपी ने जब शुक्रवार को पांच राज्यों के अध्यक्ष बदल कर नए नेताओं को कमान सौंपी तो दिल्ली का नाम लिस्ट में नहीं था। दरसल सतीश का हटना तो तय माना जा रहा है पर ये कब होगा ये पता नहीं चल रहा है। वे राजनाथ सिंह की कृप्या से दिल्ली में संगठन के मुखिया बने थे। उनकी अगुआई में बीजेपी विधानसभ्ाा चुनाव में मात्र 3 सीटें ही जीत सकी। अगले साल दिल्ली नगर निगम के चुनाव हैं। कहा जा रहा है कि उपाध्याय की अगुआई में चुनाव नहीं लड़ा जायेगा। अब ये तो जाहिर बात है कि विधानसभ्ाा चुनाव में मुँह की खाने के बाद दिल्ली बीजेपी को कोई जुझारू नेता चाहिए होगा जो केजरीवाल का मुकाबला कर सके। बीजेपी के कई नेता आस लगाये बैठे भी हैं पर उपाध्याय हटाये ही नहीं जा रहे तो उनको नंबर कैसे आये! फिलहाल दिल्ली बीजेपी का मुखिया बनने की उम्मीद पाले हुए नेताओं को इंतजार करना होगा।
मुश्किल में वीरभ्ाद्र
हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभ्ाद्र सिंह आजकल खासे परेशान हैं। सीबीआई तो आय से अधिक सम्पति मामले में उनके पीछे पड़ी ही हुई है और अब कांग्रेस हाईकमान भी उनकी खबर लेने में लगा हुआ है। जब से उत्तराखंड में हरीश रावत के खिलाफ कांग्रेस के कई विधायकों ने बगावत की तब से कांग्रेस में हडकंप मचा हुआ है। पहले सोनिया और राहुल गाँधी अपने किसी भी सीएम के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते थे और अब फरमान जारी हो रहे हैं कि सभी मुख्यमंत्री पार्टी विधायकों की दिक्कतों को दूर करें। वीरभ्ाद्र को भी दिल्ली बुलाकर हिदायत दे दी गयी है। राजा साहब हिमाचल में पूरी ठसक से राज कर रहे थे और अब देखिये कांग्रेस के अदने से विधायक पूरी हनक के साथ उनकी टेबल पर अपनी मांगों की लिस्ट पेश कर रहे हैं। वीरभ्ाद्र को कुर्सी पर रहना है लिहाजा वे भी सबको खुश करने में जुटे रहते हैं। उत्तराखंड का असर हिमाचल प्रदेश में महसूस हो रहा है।
जब लेखक की वजह से हुई देरी...
आमतौर पर किसी सरकारी कार्यक्रम की शुरूआत देरी पर होने का ठींकरा नेताओं के सिर ही फोड़ा जाता है। लेकिन जब मामला उल्टा हो तो क्या कहने। नेता भी कहां पीछे रहने वालों में से हैं, दूसरों की वजह से हुई देरी पर चुटकी लेने से नहीं चूकते। जी हां बीते दिनों राजधानी में लेखकों, प्रकाशकों से जुड़ा एक केंद्रीय मंत्रालय का कार्यक्रम हुआ। इसमें आमंत्रित मुख्य अतिथि यानि नेता तो समय पर पहुंच गए लेकिन लेखक नहीं पहुंच सके। वजह थी उनका दिल्ली के बाहर से आना और फ्लाइट का लेट होना। इस बीच जैसे ही कार्यक्रम देर से शुरू हुआ और मंच पर विराजमान नेता जी को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने मानो मौके का तुरंत फायदा उठाते हुए कह दिया कि मुझे इस बात की बेहद खुशी है कि यहां कार्यक्रम नेता के देर से पहुंचने पर नहीं बल्कि लेखक की वजह से देरी से शुरू हुआ है। हर बार नेताआें को ही देरी के लिए जिम्मेदार माना जाता है। उनकी इस टिप्पणी के साथ एक पंत दो काज हो गए। एक ओर नेताओं को देरी के लिए जिम्मेदार मानने को लेकर उनके मन का बोझ उतर गया तो दूसरी ओर हॉल में ठहाके गूंजने लगे और माहौल खुशनुमा हो गया।
-ओ.पी. पाल, आनंद राणा व कविता जोशी
10Apr-2016
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