रविवार, 28 फ़रवरी 2016

राग दरबार: पढ़ा-लिखा जरूरी या कढ़ा होना

‘सास भी कभी बहू थी
किसी ने सही ही कहा है कि किसी का ज्यादा पढ़ा लिखा होना इतना जरूरी नहीं, जितना जरूरी है कढ़ा होना। कढ़ा होने का सबूत संसद के दोनों सदनों में मोदी सरकार की उस केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने जिस आक्रमक तरीके से दिया, इसका अंदाजा तो शायद स्वयं प्रधानमंत्री या उसकी सरकार को भी नहीं होगा, विपक्ष तो शायद इसके बारे में सोच भी नहीं सका होगा। दरअसल इसकी नींव तो सरकार की रणनीति से पहले ही रखी जा चुकी थी। इसीलिए संसद के बजट सत्र में विपक्ष के हमले को माकूल जवाब देने के लिए दोनों सदनों में सबसे पहले जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की मौत पर बहस कराने की पहल की गई। जाहिर सी बात है कि इस मामले पर गृहमंत्री और मानव संसाधन विकास मंत्री को विपक्ष के इन मुद्दों पर जवाब देना ही था, क्योंकि ये दोनों मुद्दे गृहमंत्रालय के साथ मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कार्यक्षेत्र के दायरे में आते हैं। लेकिन विपक्ष का तो सरकार पर हमला बोलना शायद नीयती में शामिल है। उच्च सदन में तो स्मृति ईरानी का सीधा मुकाबला बसपा सुप्रीमो मायावती से हो गया। सोशल मीडिया पर संसद में विपक्ष पर भारी पड़ी स्मृति ईरानी को लेकर जो टिप्पणियां सामने आ रही है कि जिस प्रकार की आक्रमक भूमिका स्मृति ने संसद में निभाई है शायद ऐसी तो उन्होंने टीवी सीरियल ‘सास भी कभी बहू थी’ में भी नहीं दिखाई होगी। स्मृति की शैक्षिक योग्यता पर उनके मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होते ही उंगलियां उठने लगी थी, लेकिन राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं को सही माना जाए तो पीएम मोदी ने यह मंत्रालय देकर सही चुनाव किया था, भले हीं उनके पास तमाम डिग्रियां हो या नहीं लेकिन उनके आक्रमक ने सरकार पर इन मुद्दो पर लग रहे तमाम आरोपों को तथ्यों और तर्क के आधार पर सिलसिलेवार जवाब देकर विरोधियों का मुंह बंद कर साबित कर दिया है कि पढ़े लिखे होने से ज्यादा कढ़ा होना यानि व्यवहारिक जानकारी होना जरूरी है।
ये हंगामा है क्यों बरपा?
बीते कुछ दिनों से देश के अलग-अलग भागों से आ रही हिंसक घटनाआें की खबरों के कें द्र में राजधानी दिल्ली नजर आ रही है। यहां के एक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान से देश विरोधी गतिविधियों की आहट आई, जिसे भांपकर पुलिस सक्रिय हो गई और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई। स्थानीय अदालत में लोगों का देशविरोधियों के खिलाफ आक्रोश फूटा। इस हो हंगामे के बीच अब कुछ सुकुन देने वाली खबर भी आ रही है। वो यह कि देशविरोध के बीच देश के समर्थन की गूंज भी भी सुनाई पड़ने लगी है। सुरक्षाबल जो दिनरात देश की सीमाआें से लेकर देश के अंदर अराजक तत्वों से लड़ रहे हैं। वो भी एक स्वर में देश का अपमान करने वालों का ना सिर्फ घोर विरोध कर रहे हैं। बल्कि पुलिसिया कार्रवाई को सही बता रहे हैं। इस स्थिति में जब हर कोई देशविरोधी गतिविधियों की एक स्वर में निंदा कर रहा है तो फिर ये हंगामा है क्यों बरपा, समझ से परे है।
कहां गये वो दिन..
होली अब तय तारीख पर एकबारगी आ जाती है। पहले की तरह महीने भर से होली की तैयारी देखने को नहीं मिलती यानि अब तो सब कुछ रेडीमेड। मसलन अब घरों की छत पर आलू के चिप्स, पापड़, साबूदाने के पापड़ और चावल की कचरी बहुत कम सूखते दिखायी पड़ती हैं। होली से महीना भर पहले यह काम शुरू हो जाता था, लेकिन अब एक दिन पहले बाजार से सब कुछ आ जाता है। नयी पीढ़ी के लिए किस्सा-सा है अब होली की पहले वाली तैयारी। आधे माह से ही गांव में कच्चे मकानों की लिसाई शुरू हो जाती थी और हर तरफ ताल-तलैया से लोग मिट्टी (पिड़ौर) निकाल-निकाल कर मकानों की दीवारे लेसने में मगन मिलते थे। सब कुछ जमाने के साथ बदल गया और अब गांवों में भी मिट्टी की वह सोंधी खुशबू नहीं मिलती है, जो वसंत से ही होली के आने का अहसास कराती थी।
-हरिभूमि ब्यूरो

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