बुधवार, 3 अप्रैल 2019

मतदाताओं पर अभी पड़ी है खामोशी की चादर

पश्चिमी यूपी: अपने समीकरण साधने में जुटे सियासी योद्धा                                      
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली। 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2014 में मोदी लहर में अन्य तमाम दलों का सफाया हो गया था, जहां इस बार भाजपा को रोकने के लिए सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के अलावा अकेले चुनाव मैदान में उतरी कांग्रेस अपनी-अपनी जीत के समीकरणों को साधने में जुटे हुए हैं। इसके बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों पर यह सियासी महासंग्राम किसके पक्ष में होगा, इसके लिए मतदाता अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आठ लोकसभा सीटों पर पहले चरण के लिए 11 अप्रैल को होने वाले चुनाव में प्रमुख रूप से भाजपा, सपा-बसपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस के उम्मीदवारों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। हालांकि मतदाताओं की खामोशी के सामने सीधा मुकाबला भाजपा और गठबंधन के प्रत्याशियों के बीच ही होता नजर आ रहा है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है उनमें मुजफ्फरनगर और बागपत में रालोद (गठबंधन) प्रत्याशी चौधरी अजित सिंह और उनके शहजादे जयंत चौधरी को कांग्रेस ने वाकओवर देने का प्रयास किया है। जबकि बाकी छह सीटों पर कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी उतारकर गठबंधन का सिरदर्द बढ़ाने का काम किया है। ऐसा माना जा रहा है कि आठ में से छह सीटों पर उतारे गये कांग्रेस प्रत्याशी वोट कटवा साबित होंगे, जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिलने की उम्मीद जताई जा रही है। दरअसल इन सीटों पर गठबंधन अपने परंपरागत जातीय समीकरण के आधार पर भाजपा को मात देने का प्रयास कर रहा है, लेकिन पहले चरण में इन आठ सीटों पर मतदाताओं ने अभी तक खुलकर अपने पत्ते नहीं खोले हैं।
इसलिए बिखर सकता है गठबंधन का वोटबैंक
पश्चिमी उत्तर प्रदेश रालोद का गढ़ माना जाता रहा है, लेकिन पिछले चुनाव में यह पूरा गढ़ ढह गया था और इस बार केवल बागपत, मुजफ्फरनगर व मथुरा सीट ही गठबंधन से रालोद के हिस्से में आई है। इसलिए पहले चरण के चुनाव में इनमें से मुजफ्फरनगर और बागपत सीटों के चुनाव में ईवीएम पर सपा व बसपा का चुनाव चिन्ह नहीं होगा, तो वहीं बिजनौर, सहारनपुर, मेरठ और गौतमबुद्धनगर सीटों पर सपा व रालोद का चुनाव चिन्ह ईवीएम से गायब होगा। इसी प्रकार कैराना और गाजियाबाद सीट पर होने वाले चुनाव के दौरान बसपा और रालोद का चुनाव चिन्ह नहीं होगा। ऐसे में गठबंधन में शामिल इन तीनों दलों के परंपरागत वोटबैंक के बिखराव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। राजनीतिकारों की माने तो ऐसे में चुनावी जंग में उतरे योद्धाओं को समीकरण साधने की गफलत में नहीं रहना चाहिए। वैसे भी मतदाताओं की खामोशी किस करवट टूटेगी यह चुनाव नतीजे के बाद ही सामने आएगी।
अजित का बिगड़ सकता है खेल
जहां तक रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह का मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट पर गठबंधन प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने का दांव है, वहां मतदाताओं की उक्त खामोशी में सबसे बड़ा सिरदर्द 2013 के दंगों के जख्मों पर हाल ही में पड़े नमक भी हो सकता है। दरअसल करीब साढ़े छह साल पहले हुए जाट-मुस्लिम दंगों में एक सौ से ज्यादा मुकदमें दर्ज किये गये थे, जिनमें से पिछले दिनों यूपी की योगी सरकार ने 111 मुकदमों को वापस कराने के लिए रिपोर्ट मांगी थी, जिनमें 37 मुकदमों को वापस करने की शासन से अनुमति मिल चुकी है। वहीं अभी तक एक मुकदमें में अदालत का फैसला आ चुका है, जिसमें करीब पांच दर्जन से ज्यादा को बरी कर दिया गया है और कवाल कांड में सात मुस्लिम आरोपियों को आजीवन करावास का सजा सुनाई गई है। मसलन दंगों में  एक ही समुदाय के लोगों की सजा को लेकर मुस्लिम मतदाताओं में जाट प्रत्याशियों को लेकर खासी तल्खी नजर आई। हालांकि मुस्लिमों में संजीव बालियान को लेकर इतनी नाराजगी देखने को नहीं मिली, जितनी नाराजगी अजित को लेकर देखी गई और यही कारण अजित सिंह की राह में कांटे बो सकता है।
01Apr-2019

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