लोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल..
देश की सियासत में वैसे तो ऐसी कहावत रही है कि इसमें न कोई दोस्ती और न ही कोई दुश्मनी..। भले ही चुनावी समर में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर मतदाताओं को आकर्षित किया जाता रहा हो, यही नहीं जीतने को को बधाई और हारने वाले दलों की स्वीकृति इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की मिसाल रही है, लेकिन पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत से घबराए विपक्षी दलों की जिस नकारात्मक रणनीति ने जन्म लिया है, वह भारत जैसे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर बेहद चिंता का विषय है। मसलन हालत यह हो गई कि चुनावी जीत होती तो ठीक अन्यथा हार स्वीकार करने के बजाए समूचा दोष ईवीएम मशीन के सिर मंढने की परंपरा नासूर बनती नजर आ रही है। यूपी में बसपा ने बुरी हार के बाद ऐसी परंपरा को जन्म दिया तो उसे दिल्ली सरकार चला रही आम आदमी पार्टी के संयोजक ने अंगीकृत कर लिया। दिल्ली नगर निगम चुनाव में आप की हार से बौखलाए केजरीवाल ने आंदोलन की ही धमकी दे डाली। राजनीतिकार तो इसका सीधा मतलब यही निकाल रहे हैं कि देश की संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग को संदेह के घेरे में लेना, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था यानि चुनाव सुधार के लिए दुनियाभर के देशों की नजर में बेमिसाल साबित हो चुका है। दरअसल विपक्षी दल ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी के आरोप लगाकर अतीत में जाने का भी प्रयास नहीं करते जो ईवीएम की वोटिंग से ही प्रचंड जीत के हकदार बनते रहे है और खासकर केजरीवाल की पार्टी तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में 67 सीटों पर जीतकर आई थी। राजनीतिकार मान रहे है कि ऐसी नकारात्मक राजनीति अब सीधे लोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल बनकर हावी होने का संकेत है..।
खोने का दुख
कांग्रेस में दिन दिनों सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। एआईसीसी से लेकर प्रदेश संगठनों तक बेहद निराशा का माहौल है। राष्टÑीय नेतृत्व की शून्यता या यूं कहें कि हर छोटे-बड़े मसलों पर चुप्पी ने पार्टी को रसातल में पहुंचा दिया है। राहुल गांधी पप्पू की छवि से बाहर खुद को नहीं निकाल पा रहे हैं। सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से अनमने ढंग संगठन का कामकाज संभाल रही हैं। अधिकांश पुराने नेता राहुल गांधी को नेता मानने को मन से तैयार नहीं। तो अधिकांश पुराने नेताओं के साथ राहुल काम करने को तैयार नहीं। कशकश की स्थिति ऐसी कि जिनमें कुछ दम था सब इधर-उधर हो लिए। कुछ नेताओं ने अपनी पार्टी बना ली तो कुछ ने राजनीति से ही तौबा करने की घोषणा कर दी। उनमें से किसी की खास चर्चा एआईसीसी में नहीं होती। मगर, असम के घुटे हुए नेता हेमंत बिस्वशर्मा को लेकर जरूर पार्टी का हर नेता मानता है कि उनके जाने से पार्टी केवल असम में ही नहीं पूरे उत्तर-पूर्व राज्य में खत्म हो रही है। लगभग सभी बड़े नेता हेमंत की अगुवाई में भाजपा में शामिल हो रहे हैं। मणिपुर में पिछले हμते एक भाजपा विधायक कांग्रेस में गया तो सभी चार बड़े कांग्रेसी नेताओं को हेमंत बिस्वशर्मा ने भाजपाई बना दिया। उत्तरपूर्व शीघ्र ही कांग्रेस मुक्त होने की कगार पर है।
तथ्यों को जांचे-परखे बिना हो-हल्ला...
कामकाज के सामान्य प्रचलन में यह देखने को मिलता है कि कोई भी संस्था या संगठन एक-दूसरे पर बिना तथ्यों को जांचे-परखे कोई बात नहीं कह सकती है। लेकिन कभी-कभार ऐसी स्थिति भी देखने को मिलती है, जहां बिना सोचे-समझे एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की झड़ी लगा दी जाती है। इससे वाद-विवाद का हो-हल्ला ही नतीजे के रूप में सामने होता है और कुछ नहीं। बीते दिनों सरकार के दो विभागों के बीच ऐसी स्थिति बनी। जिसमेंएक कहता कि मैंने फलां कार्य को कितनी बखूबी पूरा किया है, तो दूसरा कहता कि ये तो मैंने किया है। अंत में ये सिर्फ गुथमगुत्था बनकर रह गई, परिणाम सिफर। तू-तू मैं-मैं के बीच तो यही कहेंगे कि तथ्यों को जांचे-परखे बिना हो-हल्ला व्यर्थ है। काम कीजिए और परिणाम दीजिए...क्योंकि सरकार में काम करने वालों की ही पूछ है और होगी।
फिर चली हवा... नेताओ के चेहरे खिेले
मध्यप्रदेश बीजेपी में इन दिनों भारी उठा पटक का महौल सा बना हुआ है। जैसे ही प्रदेश के मुखिया या प्रदेश अध्यक्ष दिल्ली आते है उनके पद की जाने की अपवाह चलने लग जाती है। बीते दिनों शिवराज सिंह चौहान की जाने और केंद्र में मंत्री बनने की की हवा चली तो अब इन दिनों प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की पद से हटाए जाने की हवा तेजी से चल रही है। प्रदेश अध्यक्ष बदलने की चर्चा के बीच कई दावेदारों के चेहरे खिल से गए है कि क्या बता कब हाईकमान का आदेश आए और उन्हें प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष का पद संभालना पडे। ऐसी अपवाहों से सबसे ज्यादा परेशान वर्तमान मेंकाबिज अध्यक्ष और उनके पदाधिकारी है। वे सभी को कहकर थक चुके है कि कोई बदलाव नहीं हो रहा है ,लेकिन बदलाव की हवा चलाने वाले कहां बाज आने वाले है।
ओ.पी. पाल, शिशिर सोनी, कविता जोशी व राहुल
देश की सियासत में वैसे तो ऐसी कहावत रही है कि इसमें न कोई दोस्ती और न ही कोई दुश्मनी..। भले ही चुनावी समर में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर मतदाताओं को आकर्षित किया जाता रहा हो, यही नहीं जीतने को को बधाई और हारने वाले दलों की स्वीकृति इस लोकतांत्रिक व्यवस्था की मिसाल रही है, लेकिन पिछले दिनों पांच राज्यों में हुए चुनाव में भाजपा की ऐतिहासिक जीत से घबराए विपक्षी दलों की जिस नकारात्मक रणनीति ने जन्म लिया है, वह भारत जैसे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर बेहद चिंता का विषय है। मसलन हालत यह हो गई कि चुनावी जीत होती तो ठीक अन्यथा हार स्वीकार करने के बजाए समूचा दोष ईवीएम मशीन के सिर मंढने की परंपरा नासूर बनती नजर आ रही है। यूपी में बसपा ने बुरी हार के बाद ऐसी परंपरा को जन्म दिया तो उसे दिल्ली सरकार चला रही आम आदमी पार्टी के संयोजक ने अंगीकृत कर लिया। दिल्ली नगर निगम चुनाव में आप की हार से बौखलाए केजरीवाल ने आंदोलन की ही धमकी दे डाली। राजनीतिकार तो इसका सीधा मतलब यही निकाल रहे हैं कि देश की संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग को संदेह के घेरे में लेना, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था यानि चुनाव सुधार के लिए दुनियाभर के देशों की नजर में बेमिसाल साबित हो चुका है। दरअसल विपक्षी दल ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी के आरोप लगाकर अतीत में जाने का भी प्रयास नहीं करते जो ईवीएम की वोटिंग से ही प्रचंड जीत के हकदार बनते रहे है और खासकर केजरीवाल की पार्टी तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में 67 सीटों पर जीतकर आई थी। राजनीतिकार मान रहे है कि ऐसी नकारात्मक राजनीति अब सीधे लोकतांत्रिक व्यवस्था का सवाल बनकर हावी होने का संकेत है..।
खोने का दुख
कांग्रेस में दिन दिनों सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। एआईसीसी से लेकर प्रदेश संगठनों तक बेहद निराशा का माहौल है। राष्टÑीय नेतृत्व की शून्यता या यूं कहें कि हर छोटे-बड़े मसलों पर चुप्पी ने पार्टी को रसातल में पहुंचा दिया है। राहुल गांधी पप्पू की छवि से बाहर खुद को नहीं निकाल पा रहे हैं। सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से अनमने ढंग संगठन का कामकाज संभाल रही हैं। अधिकांश पुराने नेता राहुल गांधी को नेता मानने को मन से तैयार नहीं। तो अधिकांश पुराने नेताओं के साथ राहुल काम करने को तैयार नहीं। कशकश की स्थिति ऐसी कि जिनमें कुछ दम था सब इधर-उधर हो लिए। कुछ नेताओं ने अपनी पार्टी बना ली तो कुछ ने राजनीति से ही तौबा करने की घोषणा कर दी। उनमें से किसी की खास चर्चा एआईसीसी में नहीं होती। मगर, असम के घुटे हुए नेता हेमंत बिस्वशर्मा को लेकर जरूर पार्टी का हर नेता मानता है कि उनके जाने से पार्टी केवल असम में ही नहीं पूरे उत्तर-पूर्व राज्य में खत्म हो रही है। लगभग सभी बड़े नेता हेमंत की अगुवाई में भाजपा में शामिल हो रहे हैं। मणिपुर में पिछले हμते एक भाजपा विधायक कांग्रेस में गया तो सभी चार बड़े कांग्रेसी नेताओं को हेमंत बिस्वशर्मा ने भाजपाई बना दिया। उत्तरपूर्व शीघ्र ही कांग्रेस मुक्त होने की कगार पर है।
तथ्यों को जांचे-परखे बिना हो-हल्ला...
कामकाज के सामान्य प्रचलन में यह देखने को मिलता है कि कोई भी संस्था या संगठन एक-दूसरे पर बिना तथ्यों को जांचे-परखे कोई बात नहीं कह सकती है। लेकिन कभी-कभार ऐसी स्थिति भी देखने को मिलती है, जहां बिना सोचे-समझे एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की झड़ी लगा दी जाती है। इससे वाद-विवाद का हो-हल्ला ही नतीजे के रूप में सामने होता है और कुछ नहीं। बीते दिनों सरकार के दो विभागों के बीच ऐसी स्थिति बनी। जिसमेंएक कहता कि मैंने फलां कार्य को कितनी बखूबी पूरा किया है, तो दूसरा कहता कि ये तो मैंने किया है। अंत में ये सिर्फ गुथमगुत्था बनकर रह गई, परिणाम सिफर। तू-तू मैं-मैं के बीच तो यही कहेंगे कि तथ्यों को जांचे-परखे बिना हो-हल्ला व्यर्थ है। काम कीजिए और परिणाम दीजिए...क्योंकि सरकार में काम करने वालों की ही पूछ है और होगी।
फिर चली हवा... नेताओ के चेहरे खिेले
मध्यप्रदेश बीजेपी में इन दिनों भारी उठा पटक का महौल सा बना हुआ है। जैसे ही प्रदेश के मुखिया या प्रदेश अध्यक्ष दिल्ली आते है उनके पद की जाने की अपवाह चलने लग जाती है। बीते दिनों शिवराज सिंह चौहान की जाने और केंद्र में मंत्री बनने की की हवा चली तो अब इन दिनों प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की पद से हटाए जाने की हवा तेजी से चल रही है। प्रदेश अध्यक्ष बदलने की चर्चा के बीच कई दावेदारों के चेहरे खिल से गए है कि क्या बता कब हाईकमान का आदेश आए और उन्हें प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष का पद संभालना पडे। ऐसी अपवाहों से सबसे ज्यादा परेशान वर्तमान मेंकाबिज अध्यक्ष और उनके पदाधिकारी है। वे सभी को कहकर थक चुके है कि कोई बदलाव नहीं हो रहा है ,लेकिन बदलाव की हवा चलाने वाले कहां बाज आने वाले है।
ओ.पी. पाल, शिशिर सोनी, कविता जोशी व राहुल
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