रविवार, 16 अप्रैल 2017

राग दरबार: उत्तराधिकारी या वंशवाद...

मायावती की बदलती रणनीति
देश की सियासत में जनता तेजी के साथ बदलाव देख रही है। जनता आजादी के 70 साल में लगभग सभी दलों की वोटबैंक वाली सियासत को समझने लगी है, इसलिए अब धर्म, जाति या संप्रदाय के नाम की राजनीति किसी भी दल के लिए सिरे चढ़ती नजर नहीं आती। इसलिए जो दल अपना जनाधार खोते जा रहे हैं उन्होंने अपनी रणनीति बदलना शुरू कर दिया है। इसी सिलसिले में बसपा ने भी अपनी सियासी रणनीति में आमूल चूल परिवर्तन करना शुरू कर दिया है मसलन मायावती ने अपने भाई को पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर वंशवाद को आगे बढ़ाने की रणनीति तो अपनाई है, वहीं मायावती के इस कदम को दूसरी पंक्ति में उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा है। राजनीतिकारों की माने तो बसपा में वरिष्ठ नेता सतीश चंद्र मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे सरीके नेताओं का कद स्वत: ही घट जाएगा और परिवारवाद की राजनीति का विरोध करती रही बसपा सुप्रीमो ने आखिर कांग्रेस की राह पकड़ ही ली, जिसे बसपा की इस बदलते सियासी परिवेश में बदलती रणनीति कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
बैकफुट पर केजरीवाल
दिल्ली नगर निगम चुनाव में लोगों से उत्साहजनक समर्थन नहीं मिलता देख आम आदमी पार्टी ने अपने चुनाव प्रचार की रणनीति को मझधार में बदलने का फैसला लिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के अलावा करीब 40 स्टार प्रचारकों को सभी 272 वार्डों में जनसभाएं करनी थी लेकिन अब इन जनसभाओं की बजाय डोर-टू-डोर पर चुनाव प्रचार पर ज्यादा फोकस करने का निर्देश उम्मीदवारों को दिया जा रहा है। बस चुनिंदा जगहों पर अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की जनसभाएं की जा रही हैं। बताया जा रहा है कि केजरीवाल की इच्छा हर जनसभा में कम से कम 25 हजार लोगों की भीड़ के बीच भाषण देने की है लेकिन वार्ड सतर के इस चुनाव में आप के ज्यादातर प्रत्याशी डेढ़-दो हजार लोग मुश्किल से जुटा पा रहे हैं। ऐसे में अरविंद केजरीवाल ने अपनी सभाओं की तादाद कम करने का निर्णय लेना पड़ा। आम आदमी पार्टी के रणनीतिकारों को उम्मीद थी कि दिल्ली विधानसभा चुनाव की तर्ज पर लोग केजरीवाल का भाषण सुनने के लिये उमड़ पडेंगे लेकिन अब कड़ी मशक्कत के बाद भी मनमाफिक भीड़ नहीं जुट पा रही है।
काम पर महकमों में हडकंप...
सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्यों की। सरकारी महकमों को लेकर यही आम मशहूर पंक्ति अक्सर सुनने को मिलती है कि वहां काम कम और आराम ज्यादा होता है। तभी तो देश का हर कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी पाने के लिए लालायित रहता है। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में नई सरकार आने के बाद जैसे माहौल ही बदलने लगा। केंद्रीय मंत्रालय व उनमें काम करने वाले अधिकारी, कर्मचारी खासकर हरकत में आए। लोग समय पर आॅफिस आने लगे व काम करने लगे। यह एक प्रकार से सरकारी महकमों में हडकंप जैसी स्थिति से कम नहीं था। क्योंकि जहां कभी आराम पसरा था, अब वहां काम को लेकर मारा-मारी मची हुई थी। ऐसा ही एक और हडकंप जल्द ही सरकार के तमाम केंद्रीय मंत्रालयों में फिर से मचने की तैयारी कर रहा है। इस बार मौका मोदी सरकार के 26 मई को तीन साल पूरा होने के जश्न को लेकर होगा। इसमें सिर्फ इंतजार संसद सत्र के खत्म होने का किया जा रहा है। जैसे ही सत्र खत्म होगा, मंत्रालयों में तीन वर्षों की गतिविधियों को लेकर जानकारी एकत्रित करने, मंत्रियों द्वारा प्रेस कॉंफ्रेंस करने, ग्राफ बनाने, चित्रात्मक गतिविधियां तैयार करने का दौर शुरू हो जाएगा। खैर जो भी हो काम को लेकर मचने वाले इस हडकंप को सुखद कहा जा सकता है।
फिर चली नेतृत्व परिवर्तन की हवा
इन दिनों में मप्र भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बदलने की चर्चा ने फिर जोर पकड लिया है। वर्तमान अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का अभी तक का कार्यकाल ठीक ही रहा है,वहीं उनके कार्यकाल में पार्टी ने उपचुनाव में भी अच्छा ही प्रदर्शन किया है। इधर,प्रदेश अध्यक्ष बदलने की चर्चा से कुछ नेताओ के चेहरे पर खुशी सी आ गई है। वे सोच रहे है,क्या पता कब उनका नंबर प्रदेश अध्यक्ष बनने की दौड में आ जाए। कब वे अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हो जाए। अध्यक्ष बनने की जुगाड के लिए कुछ नेताजी ने तो भोपाल से लेकर दिल्ली तक दौड लगाना शुरू भी कर दी है। तो कुछ दिल्ली में ही डेरा जमाए हुए है,लेकिन अभी तक इस बात का खुलासा नहीं हुआ कि वर्तमान अध्यक्ष से ऐसी क्या गलती हुई जो नए अध्यक्ष की तलाश शुरू हो गई है।
-ओ.पी. पाल, आनंद राणा, कविता जोशी व राहुल

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