सोमवार, 13 जुलाई 2015

तो देश में खत्म होगी मृत्युदंड की सजा?

विधि आयोग जल्द कर सकता है सिफारिश
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
अंग्रेजी हुकूमत से सजा-ए-मौत को खत्म करने पर जारी बहस के बाद उम्मीद जगी है कि पश्चिमी देशों की तर्ज पर भारत में भी मौत की सजा को खत्म किया जा सकता है? मोदी सरकार और विधि आयोग की पहल पर देश के राजनेतनाओं, कानूनविदों और स्वयंसेवी संगठनों ने मौत की सजा को खत्म करने की वकालत की है। ऐसे में अब विधि आयोग जल्द ही अपनी रिपोर्ट में इसके लिए सिफारिश कर सकता है, जिसके लिए संसद की मंजूरी लेनी होगी।
दरअसल में देश में स्वयंसेवी संगठनों द्वारा लंबे वक्त से मृत्युदंड को खत्म करने की मांग की जा रही है। आजादी से पहले 1931 में अंग्रेजी शासन के दौरान फांसी की सजा को खत्म करने के लिए मांग उठी थी, जिसे ब्रिटेन के शासकों ने खारिज कर दिया था। 1958 में और फिर 1962 में राज्यसभा में फांसी की सजा को खत्म करने के लिए प्रस्ताव रखा गया, जिसे चर्चा के बाद वापस ले लिया गया। देश में सजा-ए-मौत की सजा की प्रासंगितकता पर अरसे से चल रही बहस के बीच विधि आयोग ने मौत की सजा को लेकर जनमानस की परिपक्वता का धरातल टटोला और पिछले साल अगस्त में ही एक परामर्श-पत्र जारी करके मौत की सजा को लेकर आमजन से 16 बिंदुओं पर सुझाव मांगे थे। जिनमें यह भी पूछा गया था कि क्या फांसी की सजा माफ करने के मामले में राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए भी दिशानिर्देश तय होने चाहिए? हालांकि इससे पहले विधि आयोग ने वर्ष 1967 में अपनी में मृत्युदंड की सजा जारी रखने का सुझाव दिया था, लेकिन दशकों बाद मृत्युदंड पर विधि आयोग ने सामाजिक और कानून-व्यवस्था की परिस्थितियों के बदलते स्वरूप में रायशुमारी कराई। ऐसे ही सुझावों के पिटारे को खोलने के लिए विधि आयोग ने एक दिन पहले ही यहां एक राष्‍ट्रीय सम्मेलन में स्वयं सेवी संगठनों, कानूनविदों, राजनीतिज्ञों के अलावा न्यायपालिका और पुलिस विभाग जैसे विशेषज्ञों का पक्ष जानने का प्रयास किया और प्रासंगिक चर्चा कराई। इस चर्चा के दौरान लगभग सभी वर्गो ने मौत की सजा को सभ्य समाज के खिलाफ करार दिया। चर्चा में स्वयं विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एपी शाह ने कहा कि दो-तिहाई देशों में फांसी समाप्त हो चुकी है। समय और परिस्थितियों में बहुत बदलाव को देखते हुए मृत्युदंड पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है। इस सम्मेलन में चर्चा के दौरान यह तर्क भी दिये गये कि दुनिया के 140 देशों में फांसी की सजा के प्रावधान को खत्म कर दिया गया है, जबकि वर्तमान समय में 58 देशों में ही फांसी की सजा का प्रावधान है। भारत में लंबे वक्त से फांसी की सजा को खत्म करने के मुद्दे पर बहस चल रही है हालांकि मृत्युदंड को खत्म करने की पैरोकारी में जुटे लोग यह नहीं कहते हैं कि गंभीर श्रेणी के अपराधी को छोड़ दिया जाए, बल्कि उनका तर्क है कि उन्हें ऐसी सजा मिले, जिससे वे जीवनभर जेल में ही सड़ते रहें और वहीं उन्हें सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए। अब उम्मीद है कि विधि आयोग अपनी रिपोर्ट तैयार करके सरकार को सौंपेगा, जिसमें मृत्युदंड को समाप्त करने की सिफारिश हो सकती है। क्योंकि फांसी की सजा भारतीय नागरिक के संवैधानिक अधिकार अनुच्छेद-19 में वर्णित मूल अधिकारों का हनन भी माना गया है।
सभी चाहते हैं खत्म हो सजा
पूर्व राज्यपाल और महात्मा गांधी के पोते गोपालकृष्ण गांधी ने चर्चा के दौरान कहा कि फांसी की सजा समाप्त कर दी जानी चाहिए। भाजपा सांसद वरुण गांधी ने कहा कि मृत्युदंड न तो राजनीतिक रूप से सही है और न ही समाजिक तौर पर। जिसे फांसी दी जाती है वह हीरो बन जाता है। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने मृत्युदंड के विकल्प के तौर पर उम्रकैद और अपराधी के पुनर्वास पर विचार करने का सुझाव दिया। कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने सीधे तौर पर तो मृत्युदंड समाप्त करने की बात नहीं की, लेकिन लंबे समय तक राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिकाएं लंबित रहने का आंकड़ा पेश करते हुए प्रक्रिया पर सवाल उठाया। माकपा सांसद वृंदा करात ने फांसी की सजा खत्म करने की पैरवी करते हुए कहा कि हम लहरों के विपरीत चल रहे हैं। इस पर राजनीतिक चर्चा शुरू करने की जरूरत है। डीएमके सांसद कनीमोझी ने सभ्य समाज में ऐसी सजा को गलत बताते हुए इसे खत्म किए जाने की पैरवी की। आप के नेता आशीष खेतान ने जांच से लेकर ट्रायल तक आपराधिक न्याय प्रक्रिया में खामियों पर सवाल उठाते हुए अन्य वक्ताओं के सुर में सुर मिलाया। वहीं इस चर्चा के दौरान विदेशी विशेषज्ञों के रूप में एमेरिटस आॅफ क्रिमिनोलॉजी एंड रिसर्च एसोसिएट सेन्टर फॉर क्रिमिनोलॉजी,आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रोजर हूड ने भी मौत की सजा पर अपने सुझाव दिये।
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‘‘भारतीय अपराध दंड संहिता के मुताबिक मृत्युदंड की सजा सुनाने की हालत में अदालत द्वारा इसकी खास वजह को भी स्पष्ट की जाती है, लेकिन फांसी की सजा सुनाने के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का रवैया सावधानी भरा और प्रतिबंधात्मक रहता है, जो आधुनिक न्याय पद्धति के उदारवादी रवैये जैसा है। फिर भी देश में ऐसे मौके आए हैं जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा संगीनतम अपराधों और अपवाद की विचारधारा में न्याय व्यवस्था के मानवीय पहलुओं को भी उजागर किया और ऐसे कई मामलों में गंभीर श्रेणी के आरोपी को भी मृत्युदंड देने से इंकार किया है।’’
--कमलेश जैन, अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट
13July-2015

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