रविवार, 22 फ़रवरी 2015

राग दरबार

जासूसी पर भारी पड़ी जासूसी
केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से गोपनीय दस्तावेजों को लीक करने के लिए जासूसी का प्रकरण पूरे यौवन पर है और विपक्षी दल इस खुलासे पर मोदी सरकार को घेरने की जुगत में है, लेकिन खुफिया तंत्र के सूत्र जो सूचनाएं दे रहे हैं उनके मुताबिक तो मंत्रालयों में यह जासूसी पिछले कई सालों से चल रही है, लेकिन पिछली केंद्र की सरकार इन जासूसी को गंभीरता से नहीं ले सकी या फिर नजरअंदाज कर दिया गया। चर्चाएं तो ऐसी ही आम हैं कि कम से कम राजग सरकार की केंद्र सरकार ने इस जासूसी की खबरों को पर गंभीरता दिखाई और मंत्रालयों में हो रही जासूसी की जासूसी कराना शुरू कर दिया, जिसकी किसी को कानो-कान भनक तक नहीं लगी और रंगे हाथों एक मंत्रालय की जासूसी कर रहे कारिंदो को रंगे हाथो पकड़ लिया गया, तो पूरी नौकरशाही और सरकार के साथ राजनीतिक व कारपोरेट घरानों में हलचल मचना तो था ही ना। मंत्रालयों में गोपनीय दस्तावेजों की चोरी और फिर उनकी कालाबाजारी के गोरखधंधे का पर्दाफाश होने पर गलियारों में चर्चा है कि राजग सरकार ने सत्ता में आते ही सरकार की नीतियों की जासूसी पर अंकुश लगाने के लिए नौकरशाही पर पहले शिकंजा कसा और फिर इस जासूसी पर ऐसा जाल बिछाया कि उसमें जिस जासूसी का गोरखधंधा फंसा है उसकी बिसात कब से बिछी थी उसका तो खुलासा होना ही है। इस खुलासे की आंच में अरसे से चल ही जासूसी की जड़ तक जांच में जाना भी तय है और न जाने कितनी परतें पर परतें उतरेगी। इसी को तो जासूसी पर कसे गये जासूसी का शिकंजा या फिर केंद्र सरकार की स्पष्ट नीति की तस्वीर कहते हैं जनाब...।
बिहार कीजुगाड़ टेक्नोलॉजी
बिहार की राजनीति का पटाक्षेप जिस सूरत में सामने आया है उसमें बहुमत साबित करने से पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले जीतन राम मांझी पर जिस जुगाड़ टेक्नोलॉजी का आरोप जदयू नेता नीतीश कुमार लगा रहे हैं उससे पहले उन्हें अपने गिरवान में भी झांक लेना चाहिए, कि वह भी तो मुख्यमंत्री पद हथियाने के लिए हर हथकंडे अपनाने में कोई कसर नहीं छोड़ सके। भले ही इसमें वह मांझी पर भारी पड़े हो, लेकिन बिहार में महादलित समाज पर उनका दांव सिर चढ़ने वाला नहीं लगता। नीतिश का मांझी पर भाजपा-आरएसएस से हाथ मिलाने का आरोप है, जिसके साथ जदयू स्वयं 18 साल कदमताल मिलाने के बाद बड़ी गलती बताने में पीछे नहीं रहा। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मांझी ने दलितों की मुखर आवाज बनने से ज्यादा कुर्सी से चिपकने के प्रयास में ऊर्जा लगाई। यदि वह नीतिश के वार पर दलितों की आवाज बनकर सामने होते तो शायद आज उन्हें जदयू-राजद के अंदर सामंती ताकत के समूह के सामने नतमस्तक न होना पड़ता और वह कम से कम आगामी विधानसभा चुनाव में राज्य में दलितों की आवाज के साथ अपनी नैया पार लगा सकते थे। राजनीतिकारों की माने तो मांझी को यह समझना चाहिए कि बड़ी लड़ाई को सामाजिक सांस्कृत्ाक स्तर पर व्यापक जन-लामबंदी के बिना कभी भी अकेले नहीं जीता जा सकता।
निरोगी सीएम व परिवार
उत्तर प्रदेश के वाशिंदो के लिए यह राहत की बात है कि उनका मुख्यमंत्री और उनका पूरा परिवार पूरी तरह स्वस्थ है। दरअसल हाल के दिनों में ही इसके प्रमाण उस समय सामने आए जब सूचना के अधिकार के तहत उत्तर प्रदेश शासन के गोपन विभाग के जरिए यह तथ्य सामने आए कि वर्ष यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा अपनी एवं अपने परिवार की चिकित्सा सुविधा पर कोई धनराशि खर्च नहीं की यानि वह स्वयं और उनका पूरा परिवार पूरी तरह से स्वस्थ्य जीवन जी रहे हैं। मसलन सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा अपनी एवं अपने परिवार के किसी भी सदस्य का कोई चिकित्सा प्रतिपूर्ति संबंधी दावा गोपन विभाग में प्रेषित नहीं किया है और यह भी कि गोपन विभाग ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव एवं उनके परिवार के किसी भी सदस्य के चिकित्सा पर कोई भी धनराशि व्यय नहीं की है। जबकि आज के समय में उम्रदराज राजनेताओं की बीमारियों की बजह से राजकोष पर अतिरिक्त अधिभार आना आम सी बात हो गयी है, ऐसे में यूपी के मुख्यमंत्री और उनके परिवार ने स्वस्थ रहकर सूबे को मुस्कुराने की कम से कम एक वजह तो दे दी है।
22Feb-2015

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