शनिवार, 23 मई 2015

कानूनों में संशोधन से हो सकेगा बच्चों का सरंक्षण !

विधि आयोग ने सरकार को सौंपी संरक्षण कानून संबन्धी रिपोर्ट
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
देश में अभिभावकत्व और संरक्षण कानूनों में सुधार के मुद्दे पर विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी है। आयोग ने इस रिपोर्ट को संरक्षण के मामलों में बच्चों के कल्याण पर फोकस किया है, जिसमें कानूनों में बदलाव करके सुधारात्मक कदम उठाने की सिफारिश की गई है।
विधि मंत्रालय के अनुसार शुक्रवार को भारत के विधि आयोग ने ‘भारत में अभिभावकत्व और संरक्षण कानूनों में सुधार’ के संबन्ध में केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री डीवी सदानंद गौडा को सौंपी अपनी रिपोर्ट में संरक्षण और अभिभावकत्व के मामले में बच्चों के कल्याण से जुड़े मौजूदा कानूनों में संशोधन करने की सिफारिश की है। वहीं कुछ मामलों में संयुक्त संरक्षण की अवधारणा को विकल्प के तौर पर अपनाने का प्रस्ताव दिया है। रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि तलाक की कार्यवाही और परिवार टूटने की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा असर बच्चों पर ही पड़ता है। अधिकांश माता-पिता तलाक के दौरान सौदेबाजी में बच्चों को मोहरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। इसलिए बच्चों को महसूस होने वाली भावनाओं और सामाजिक, मानसिक,उतार-चढ़ाव की स्थिति पैदा होती है। आयोग का मानना है कि कानून में कुछ परिवर्तनों के द्वारा असंतुलन की स्थिति को कुछ हद तक सुधारा जा सकता है। कानून के जरिये न्यायालयों को ऐसी पहल करने का काम सौंपा जाना जरूरी है जिससे हर मामले में बच्चों का कल्याण सुनिश्चित हो सके। अभी तक भारत में अदालतों ने कल्याण के सिद्दांत को मान्यता दी है, लेकिन कानून के कई पहलू और कानूनी ढांचे में इसके मुताबिक बदलाव नहीं हो सके। इसके कारण तलाक और परिवार टूटने के मामलों मे अदालत बच्चों का संरक्षण या पिता के हाथ सौंप देती है। लेकिन बच्चों के कल्याण के लिए संयुक्त संरक्षण पर विचार नहीं किया जाता है। कानून मे असमानता की वजह से ही इस संबंध में होने वाले अदालती फैसलों की समस्याएं बढ़ जाती हैं।
लचीले कानून से बढ़ी समस्या
दरअसल सरकार ने विधि आयोग को संरक्षण अभिभावकत्व से जुड़े कानूनों की समीक्षा करके रिपोर्ट सौंपने का काम सौंपा था। आयोग के अनुसार हिंदू नाबालिग और अभिभावक कानून 1956 में बच्चों के कल्याण को सर्वोपरि माना गया है। लेकिन अभिभावक और उनके बच्चों से जुड़े कानून, 1890 (गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890) में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इसी तरह 1956 के कानून में माता को पिता के समान अभिभावक नहीं माना गया है। इसके अलावा संरक्षण की लड़ाइयां सबसे ज्यादा अदालतों लड़ी जाती हैं क्योंकि इस बात पर सहमति या समझ नहीं बन पाती कि आखिर बच्चों का कल्याण है क्या। ऐसे में बच्चों का कल्याण सुनिश्चित करना असंभव हो जाता है। कानूनी ढांचे के तहत भी प्रक्रिया और तरीकों से संबंधित ऐसा कोई निर्देश नहीं है, जिनसे संरक्षण के मामलों को सुलझाया जा सके।
क्या हैं विधि आयोग की सिफारिश
केंद्र सरकार को सौंपी रिपोर्ट में विधि आयोग ने संरक्षण अभिभावकत्व से जुड़े कानूनों गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890 और हिंदू नाबालिग और अभिभावकत्व कानून 1956 कई संशोधन सुझाएं हैं। ज्यादातर संशोधन गार्जियन एंड वार्ड्स,एक्ट 1890 में सुझाएं गये हैं। इसमें संरक्षण देखभाल से संबंधित समझौतों से जुड़ा एक नया अध्याय प्रस्तावित किया गया है। एक धर्मनिरपेक्ष कानून होने की वजह से पर्सनल लॉ समेत सभी तरह के संरक्षण की सभी कानूनी प्रक्रियाओं में लागू होगा। रिपोर्ट सभी मामलों में बच्चों के कल्याण के उद्देश्य को निर्देशक तत्व के आधार पर है और इसमें पहली बार भारत में संयुक्त संरक्षण और बाल कल्याण के विभिन्न मामलों खासकर बच्चों को मदद, मध्यस्थता प्रक्रिया, लालन पालन से जुड़ी योजना और नाना-नानी या दादा-दादी के पास बच्चों के रहने से जुड़े मामलों जैसी अवधारणाएँ शामिल की गई हैं। बच्चे के 18 साल की उम्र तक उसके पालन पोषण के लिए वित्तीय मदद तय करने का अधिकार अदालत को देने का सुझाव भी दिया गया है। हालांकि मानसिक और शारीरिक निशक्तता के मामले में उम्र सीमा 25 साल तक या इससे ज्यादा तक भी की जा सकती है।
23May-2015

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