रविवार, 1 नवंबर 2015

राग दरबार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या सियासत

बुद्धिजीवियों की विधा भी राजनीति के फेर में
देश की सियासत ही ऐसी है जिसमें बुद्धिजीवियों की विधा भी राजनीति के फेर से नहीं बच पाती। तभी तो लेखकों, फिल्मकारों एवं वैज्ञानिकों के असहिष्णुता के माहौल के विरोध में इतिहासकार भी शामिल हो गये हैं। ऐसा ही कुछ गीतकार गुलजार को अभिव्यक्ति पर बोले गये हमले से सामने नजर आ रहा है। हमला भी ऐसा जिसमें केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद उनके बयान को हैरानी पैदा करने वाला तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता, लेकिन उन्होंने जो चश्मा लगा रखा है, उससे ऐसा ही दिखायी देना लाजिम है। गुलजार यदि कुछ ना कहते तो भी उनसे यही कहने की उम्मीद थी। राजनीति के गलियारों में तो ऐसी ही चर्चाएं सुर्खियों में हैं कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ना होती तो शायद पुरस्कार वापसी की नौटंकी का लाइव प्रसारण भी गुलजार साहब और उन जैसे खास चश्मा लगाने वाले ना देख पाते। आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अलम्बरदार है तो पहले सलमान रूश्दी और तस्लीमा को बुला कर उन्हें भी भारत में अपनी बात कहने की आजादी दीजिए। यह सभी को पता है कि ऐसा हरगिज नहीं होगा, क्योंकि ऐसे चश्मे वाले दिखावे के प्रगतिशील हैं, जैसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व उनके बयान करते हैं, जो शायद सीधे सियासत का संकेत देते हैं।
तसलीमा की खरी-खरी
देश के स्यापाबाज सेक्युलरों को जानी-मानी लेखिका तसलीमा नसरीन की खरी-खरी भले ही अखरती नजर आ रही हो, लेकिन यह सच है जब तसलीमा नसरीन मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर थीं और भारत के अधिकांश बुद्धिजीवियों ने उसका समर्थन करने के बजाए चुप्पी साधी हुई थी। हालांकि जब वे हमले का शिकार हुए तो नसरीन ने बिना ढोंग किये उनका साथ दिया था। कुछ भारतीय लेखकों ने उनकी पुस्तक पर पाबंदी लगाने और उन्हें पश्चिम बंगाल से बाहर किए जाने का भी समर्थन किया था। तमाम भारतीय लेखक तब भी चुप थे, जब उनके खिलाफ फतवे जारी हुए थे। भारत के ज्यादातर सेक्युलर लोग मुस्लिम समर्थक और हिंदू विरोधी हैं। वे हिंदू कट्टरपंथियों के कामों का तो विरोध करते हैं, लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों का बचाव करते हैं। ऐसे में तसलीमा की ताजा नसीहत से ऐसे स्यापाबाजों को सबक लेना चाहिए।
. . . जमकर पड़ी डांट
एक खास तबके के कल्याण के लिए गठित एक केंद्रीय संस्थान के आने अधिकारी इन दिनों पत्रकारों से दूरी बना के चल रहे हैं। संस्थान का जिम्मा संभालने के बाद जनाब पत्रकारों से गर्मजोशी से मिलते थे। हालांकि, वह ऊर्दू के पत्रकारों से उनकी ज्यादा छनती थी। हिंदी व अंग्रेजी अखबार के पत्रकारों से भी उनके रिश्ते ठीक ही रहे। हुआ यूं कि जनाब ने एक दिन 4 पत्रकारों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया। दोपहर के भोजन के दौरान उन्होंने बातचीत में एक ऐसी खबर दे दी जो उनके जी का जंजाल बन गई । पहले तो वो खबर उनके चहते ऊर्दू के पत्रकार ने अपने वहां लिखी। यहं तक तो ठीक था। उस पत्रकार ने वो खबर एक अंग्रेजी अखबार के पत्रकार को दे दी। फिर क्या, अगले दिन मचा बवाल। जनाब को उनके आला अधिकारियों ने जमकर सुनाई। तब से वह पत्रकारों से बच के चल रहे हैं। खास तौर पर ऊर्दू के पत्रकारों से।
ये कैसी उलझन है भाई
केंद्र सरकार को बने हुए डेढ़ वर्ष हो गया है। इस दौरान तमाम अहम विभागों में जरूरी कार्य विभाजन के बाद कामकाज ने रμतार पकड़ ली है। लेकिन इस गति के बीच मंत्रियों की मीडिया से भागने वाली छवि बन रही है। जब-जहां कभी मीडिया नजर आ जाता है तो मंत्री किनारा करके निकल जाते हैं। इसे लेकर धीरे-धीरे मीडिया में सरकार की गलत छवि बननी शुरू हुई। काफी देर बाद सरकार जागी और उसके मंत्रियों ने खबरनवीसों से बातचीत शुरू की। लेकिन इस बातचीत में भी मीडिया के काम की कोई बात नजर नहीं आती। मंत्री आते हैं मीडिया से मिलते हैं, लेकिन उसमें भी केवल गपशप ही होती है। ये मीडिया के लिए अजब उलझन है भाई। मांगने पर कोई खबर बताता नहीं और जब मिलता भी है तो उससे कोई गुजारा नहीं। ये कैसी उलझन है भाई।
01Nov-2015

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