रविवार, 20 मई 2018

राग दरबार :अपने गिरेवां में भी झांके कांग्रेस



प्रीत जहां की रीत सदा
भारतीय फिल्म के पुराने गीत ‘हैं प्रीत जहां की रीत सदा, गीत वहां के गाता हूं! वाली कहावत भारत की सियासत में सटीक ही बैठती है। मसलन कर्नाटक चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के प्रयास में रही कांग्रेस ने जेडीएस से गठजोड़ करके सरकार बनाने का दावा पेश किया, लेकिन राज्यपाल द्वारा भाजपा को सरकार बनाने का आमंत्रण देने के फैसले पर कांग्रेस और तमाम विपक्षी दलों इसे लोकतांत्रिक संविधान के एनकाउंटर की संज्ञा दी है। सोशल मीडिया पर कांग्रेस ऐसे बयान पर ट्रोल भी हो रही है कि जैसा बीज बोया है वैसा ही काटना पड़ता है जैसी टिप्पणियां सटीक होने की पुष्टि तो बसपा प्रमुख मायावती ने भी कर दी है कि आजादी के बाद देश में ज्यादातर यहीं परंपरा रही है कि केंद्र में जिस दल की सत्ता है राज्यपाल उसके अनुसार ही अपने फैसले देते आ रहे हैं। आजाद भारत की राजनीति का इतिहास गवाह है कि संविधान में लोकतंत्र कायम होते ही उसकी हत्या करने की शुरूआत कांग्रेस पार्टी ने ही की थी, जब देश में पहली केंद्र की सरकार में नेहरू जी भी सरदार पटेल के पक्ष में मत के बावजूद देश के पहले प्रधानमंत्री बन गये थे, तो वही परंपरा देश की सियासत में रमी हुई। मसलन यह केंद्र की भाजपानीत सरकार के कार्यकाल में ही नहीं, बल्कि देश पर सबसे ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस और कांग्रेसनीत यूपीए सरकार में भी कई राज्यों में चुनाव नतीजे कुछ भी रहे हों, लेकिन राज्यपालों ने केंद्र की मंशा के अनुरूप पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता दिया है। सियासी गलियारों में यही चर्चा है कि ऐसे में कांग्रेस को हल्ला-गुल्ला करने से पहले अपने गिरेवां में भी झांक लेना चाहिए। इसलिए कर्नाटक की सियासत पर सवाल खड़े करने वाली कांग्रेस की परंपरा ही बदलती परिस्थितियों में उसी गीत को स्मरण कराती है, कि प्रीत जहां की रीत सदा!
धर्म बनाम आतंकवाद
केंद्र सरकार का जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ जारी अभियान को रमजान के दिनों में विराम देने का आदेश समझ से परे है। यह इसलिए भी कि दुनिया मानती है और दलील देती आ रही है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, तो आतंकवाद के खिलाफ इस आपरेशन को धर्म से जोड़कर जम्मू-कश्मीर की सीएम के अनुरोध को स्वीकार करना देश के लिए सुरक्षा के खतरे को बुलावा देने के रूप में ही नहीं देखा जा रहा है, बल्कि इस अभियान को विराम देने के आदेश का आतंकियों पर कोई असर नहीं पड़ा और सीमापार प्रायोजित आतंकवादियों के हमले जारी हैं। मतलब रमजान के दिनों में भी सीमापार प्रायोजित आंतकवाद का फन के हौंसले भारत की सीमा में फुंकार मारने के लिए और भी ज्यादा बुलंद होते नजर आ रहे हैं। हालांकि सरकार के इस आदेश के बावजूद आतंकवाद और आतंकवादियों पर नजर रखे हुए भारतीय गुप्तचर एजेंसी राज्य में 200 से ज्यादा आतंकवादियों की मौजूदगी की पुष्टि कर चुकी है। ऐसे में रक्षा विशेषज्ञों के उन सवालों में दम लगता है कि मुस्लिम धर्म की आस्था में भारत की दरियादिली का फायदा उठाने का मौका आतंकी भला क्यों चूकेंगे? हालांकि सरकार का तर्क है कि आतंकियों द्वारा किसी हमले का जवाब सेना व सुरक्षा बल उसी लहजे में देने के लिए सतर्क रहेगी। विशेषज्ञों की माने तो सरकार के यूनीलेटरल सीजफायर नाम से आतंकियों के अभियान को रोकने से आतंकवादियों को अपने मोर्चो को मजबूत करने का मौका मिलने वाली बात उनके बास्तूर जारी नापाक हमलों से साफ नजर आ रही है।
सियासी रणनीतिक झोल
एक कहावत है कि जिसके घर कांच के हों वो दूसरों के घरो पर पत्थर नहीं फेंका करते! इसके बावजूद कांग्रेस की नकारात्मक सियासत उसकी कमजोर कड़ी का कारण बनती नजर आ रही है। शायद कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पिछड़ी कांग्रेस को लेकर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह की वो टिप्पणी सही निशाने पर है जिसमें कांग्रेस की लगातार हार को लेकर तंज कसा गया है कि जिस टीम का कोच ही कमजोर होगा तो उसकी हार तो होनी ही है। इस बात की पुष्टि देश के कई राज्यों में हुए चुनाव भी गवाही के रूप में कांग्रेस में रणनीतक झोल स्पष्ट करते हैं। मसलन देश में मोदी सरकार के खिलाफ अभियान चलाती आ रही कांग्रेस के सभी दावों को मतदाता खारिज करते आ रहे हैं, चाहे वह नोटबंदी और जीएसटी को बेरोजगारी और व्यापारियों की परेशानी अथवा मोदी सरकार की विकास योजनाओं को लेकर की गई राजनीतक ही क्यों न हो। खासकर फिलहाल कोई भी पीएम मोदी की आलोचना कांग्रेस की नकारात्मक राजनीति बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। सोशल मीडिया पर आती इस प्रकार की टिप्पणियों के बावजूद कांग्रेस सत्ता पाने की होड में आत्मचिंतन करने को तैयार नहीं है कि उसकी पार्टी में रणनीतिक झोल कहां है और उसे सकारात्मक किया जाए या नहीं। राजनीतिकारों का मानना है कि जब से राहुल गांधी के हाथ में बागडौर आई है तब से कांग्रेस की रणनीति नकारात्मक और कमजोर हुई है, जिसका खामियाजा उसे हर मोर्चे पर भुगतना पड़ रहा है।
और अंत में
सरकारी कर्मचारियों को ही नहीं प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों और स्टाफ को भी सातवें वेतन आयोग के मुताबिक वेतन चाहिए। इसी मांग को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट में सोशल ज्यूरिस्ट की ओर से वकील अशोक अग्रवाल ने एक जनहित दाखिल की है। मसलन इस याचिका में गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में दिल्ली सरकार और एमसीडी सरकारी स्कूलों की तर्ज पर सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के निर्देश देने का अनुरोध किया गया है। हाई कोर्ट इस जनहित याचिका पर 21 मई को सुनवाई करेगा।
-हरिभूमि ब्यूरो
20May-2018

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