गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

दल तो मिले, पर दिल मिलने में संशय!

-सपा समेत परिवार के कई दलों में उजागर हुई अंतर्कलह
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
केंद्र में मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने के इरादे से जनता परिवार के छह दलों का विलय तो हो गया। इस एकजुटता में चौतरफा झोल इसलिए भी नजर आ रहे हैं कि इन क्षेत्रीय दलों के झंडे और चुनाव चिन्ह उनके अपने अपने राज्यों की सियासी बिसात में मायने रखते हैं। शायद यही कारण है कि इन दलों की एकता की दुहाई के बीच एक झंडे और एक चुनाव चिन्ह पर निरंतर मंथन के के बावजूद अंतिम निर्णय नहीं हो सका। इन्हीं मुद्दों की चिंता के बीच राज्य स्तर की राजनीति के प्रभावित होने की आशंका पर सपा और राजद जैसे दलों में अंतर्कलह की आवाज भी आने लगी है।
जनता परिवार की पिछले छह माह से एकजुटता के साथ एक झंडे व बैनर तले तीसरी सियासी ताकत को बढ़ाने की कवायद सही मायने में अंजाम तक नहीं पहुंच पायी। मसलन इन छह दलों का मिलन तो हो गया, लेकिन दिल मिलने पर बरकार संशय की संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इसका कारण साफ है कि क्षत्रप सियासत में नई पार्टी के झंडे व चुनाव चिन्ह से इन छह दलों की सियासी बिसात को पटरी पर लाने के लिए मशक्कत करनी पड़ेगी। सूत्रों की माने तो झंडे पर इतना बड़ा पेंच नहीं है जितना चुनाव चिन्ह के मुद्दे पर फंसा हुआ है। इस महाविलय में शामिल हर पार्टी की इच्छा है कि उसके दल का चुनाव चिन्ह हो। सपा के मुलायम सिंह तो पहले से ही ‘साइकिल’ का अलाप कर रहे हैं, जिसका विरोध अन्य दलों ने इसलिए किया कि उससे यूपी से पहले बिहार में चुनाव चिन्ह को सिरे चढ़ाना होगा, जहां इसी साल चुनाव होने हैं। यही कारण है कि जनता परिवार के एकजुट होते इस कुनबे पर सपा और राजद में ज्यादा अंतर्कलह की आवाज सुनाई दे रही है। सूत्रों के अनुसार विलय के ऐलान के लिए बुलाई गई बुधवार की बैठक में नाराजगी के चलते सपा के महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने हिस्सा नहीं लिया। वहीं यूपी में सत्ताधारी इस पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ही इन पार्टियों के विलय के खिलाफ हैं। सूत्रों के मुताबिक बेनाम की पार्टी के अध्यक्ष मुलायम के बेटे ही नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी के कई सांसद ने भी इस कवायद के खिलाफ अपना मत प्रकट करते नजर आ रहे हैं। उधर राजद के सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव पहले ही इस विलय के विरोधी स्वर सुना चुके हैं। राजनीतिकारों की माने तो समाजवादी पार्टी को निकट भविष्य में राजग गठबंधन से कोई खास खतरा महसूस नहीं हो रहा है, बल्कि राजद और जदयू के साथ मामला उल्टा पड़ने की संभावना है, जहां इसी साल चुनाव की सुगबुगाहट होने लगी है। यह सपा भी जानती है कि लोकसभा चुनाव में खोई सियासी जमीन को पाने के लिए चिरद्वंदी जदयू-राजद दोनों की ही विलय करने की मजबूरी रही।
संसद में दलीय गणित
संसद में विपक्ष के सशक्त भूमिका निभाने का दावा कर रहे इन दलों के कुल 45 सदस्य हैं। लोकसभा में जनता परिवार के इन दलों में से पांच राज्यों से पांच दलों के कुल 15 सदस्य हैं। उत्तर प्रदेश से सपा के पांच, बिहार से राजद के चार और जदयू के दो सदस्य चुने गए हैं। हरियाणा से इनेलो और कर्नाटक से जदएस के दो-दो सदस्य लोकसभा में निर्वाचित हैं। जबकि राज्यसभा में पांच दलों के 30 सदस्यों में सपा के सर्वाधिक 15, जदयू के 12 और जद-एस, राजद और इनेलो के एक-एक सदस्य शामल हैं। लोकसभा में इस महाविलय के बाद भी फिलहाल तो प्रमुख विपक्षी दल के रूप में नई पार्टी भूमिका में नहीं होगी, लेकिन राज्यसभा में 30 सदस्यों के साथ तीसरे नंबर की पार्टी के रूप में निश्चित तौर से नजर आएगी।
राष्टÑीय दल का मिल सकता है दर्जा
इन सभी दलों के विलय के बाद नई बनने वाली पार्टी को राष्ट्रीय दल के रूप में निर्वाचन आयोग मान्यता दे सकता है। हालांकि नई पार्टी के गठन के लिए पुराने दलों के विलय, विभाजन और विघटन की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होगी। फिर भी राष्टÑीय मान्यता के मानकों को इन दलों को लोकसभा चुनाव में मिले वोटों के आधार और राज्य  विधान सभाओं में निर्वाचित सदस्यों के सहारे पूरा कर सकती है। निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक स्थायी चुनाव चिह्न और बाद में राष्ट्रीय दल की मान्यता बनाए रखने के लिए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में कम से कम छह प्रतिशत वोट के साथ चार या इससे अधिक सदस्यों की जीत जरूरी होगी।
16Apr-20105

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