सोमवार, 13 अप्रैल 2015

बसपा की सियासी जमीन पर संकट

चुनाव आयोग भी झटका देने की तैयारी मे
ओ.पी. पाल.
नई दिल्ली।
सोलहवीं लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टियों के रूप में चुनाव लड़ने वाली जिन तीन दलों के राष्ट्रीय दर्जा छीनने के कगार पर है उसमें बहुजन समाजवादी पार्टी भी शमिल है। जहां तक उत्तर प्रदेश की राजनीति का सवाल है उसमें बसपा की सियासी जमीन पर भी खतरा मंडराने लगा है।
उत्तर प्रदेश समेत पूरे भारत में बसपा अपना जनाधार बनाने की कवायद में जुटी मायावती को वर्ष 2012 के यूपी चुनाव में सत्ता से हटने के बाद झटके पर झटके लग रहे हैं। बसपा सोलहवीं लोकसभा चुनाव में अपना खाता तक नहीं खोल पाई। उत्तर प्रदेश में ही नहीं बसपा का हर राज्य में जनाधार घटता जा रहा है। खासकर इसका सबसे ज्यादा राजनीतिक लाभ उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को होगा। इसका कारण यह भी माना जा रहा है कि वर्ष 1984 में जिस बसपा की स्थापना कांशीराम ने करते हुए मायावती को फर्श से अर्श तक पहुंचाया था। उसी कांशीराम के भाई दलबारा सिंह ने बसपा को चुनौती देने के लिए एक अलग से नई पार्टी बहुजन संघर्ष पार्टी (कांशीराम) बनाकर उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा लड़ने का ऐलान भी कर दिया है। इसी पार्टी के बैनर तले कांशीराम की जयंती पर पिछले महीने दलित सम्मेलन में मायावती पर आरोप ही नहीं लगाए थे, बल्कि मायावती द्वारा निकाले गये पूर्व मंत्रियों और पूर्व सांसदों व विधायकों को इस पार्टी में जगह देना शुरू कर दिया है। इस सम्मेलन में कांशीराम के दलितों के उत्थान के अधूरे मिशन को पूरा करने के साथ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक मुक्ति आन्दोलन को पूरे देश में फैलाने का सकंल्प भी लिया गया। यूपी में समानांतर नए राजनीतिक समीकरण में इस सियासत को राजनीतिक गलियारे में मायावती के घटते जनाधार के रूप में देखा जा रहा है।
जल्द छीनेगा राष्टÑीय दल का दर्जा
16वीं लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय दलों में शुमार होने के बावजूद बसपा को 4.1 प्रतिशत वोट मिले, जो राष्ट्रीय दल को बरकरार रखने के लिए नाकाफी साबित हुए। लोकसभा चुनाव के दौरा पूरे भारत में बसपा के प्रदर्शन को लेकर चुनाव आयोग भी बसपा को उसकी राष्टÑीय दर्जे के दल की मान्यता खत्म करने की तैयारी में है। इसका कारण है कि लोकसभा चुनाव में बसपा राष्टÑीय दर्जा बरकरार रखने वाले नियमों के तहत वोट बैंक नहीं जुटा पायी यानि उसके जनाधार में भारी कमी आई। राजनीतिक विशेषज्ञों की माने तो चुनावी आंकड़ों के लिहाज से भी ऐसे संकेत मिलने लगे हैं कि देश भर मे बहुजन समाज पार्टी की लोकप्रियत मे तेजी से कमी आ रही है और इसका कारण सिर्फ मायावती की रणनीति और खुद के निर्णय लेने जैसे अडियल रवैये को माना जा रहा है। वर्ष 1986 मे पहली बार बहुजन समाज पार्टी ने लोकसभा चुनावों मे 86 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद मात्र एक सीट जीतकर 2.07 प्रतिशत मत हासिल किये थे। लोकसभा चुनावों मे बसपा का सबसे अच्छा प्रदर्शन वर्ष 2004 के आम चुनावों मे रहा, जिसमे उसने 435 सीटों पर चुनाव लड़कर 19 सीटें हासिल की थी और जबकि बसपा की सियासी जमीन खिसकने के लिए मायावतती को सबसे बड़ा झटका 16 वी लोकसभा मे लगा, जब सबसे ज्यादा 503 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद बसपा एक भी सीट नहीं जीत सकी। अभी तक अभी तक छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 51 क्षेत्रीय दल हैं। चुनाव आयोग का निर्णय आते ही राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की संख्या पांच और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की संख्या 52 हो जायेगी।
ऐसे चला झटकों का दौर
लोकसभा चुनाव के बाद से मायावती को लगातार झटके लगते आ रहे हैं। वैसे तो लोकसभा चुनाव से पहले ही प्रो. एसपी सिंह बघेल ने पार्टी छोड़ी और चुनावों के बाद बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व राज्य सभा सांसद अखिलेश दास गुप्ता, राज्य सभा सांसद जुगल किशोर भी अपनी नेता पर हमला बोलने में पीछे नहीं रहे। ऐसे में उनका पार्टी से नाता टूटना तो तय ही था। वैसे भी मायावती ने इन्हें ही नहीं कई कद्दावर नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया, जिनमें पूर्व सांसद दारा सिंह चैहान व कादिर राणा कि अलावा शाहिद अखलाक और हाल ही में विधायक बाला प्रसाद अवस्थी भी शामिल है।
13Apr-2015

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