सोमवार, 7 जुलाई 2014

राग दरबार- आंकड़ो का बाजीगर कौन?

लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अप्रत्याशित जीत के सामने आजकल अपनी ऐतिहासिक हार के कारणों का मंथन करने में जुटी कांग्रेस के रवैये के बल पुराने ही दिखाई दे रहे हैं। यानि कांग्रेस अपनी हार स्वीकार करने के बजाए आंकड़ों की बाजीगरी से यह सिद्ध करने में जुटी है कि देश की जनता ने उसे एकदम से नहीं नकारा है। यह हालत तब है जब कांग्रेस लोकसभा में विपक्ष का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाई और इसके बावजूद भी वह प्रतिपक्ष नेता के पद की दावेदारी ठोकने में लगी हुई है। राजनीतिक गलियारे में कांग्रेस की राजनीति को आंकड़ों की बाजीगिरी कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए, जो सदन में आंकड़ों में भाजपा के बाद दूसरे पायदान की पार्टी कहकर प्रतिपक्ष नेता बनने का दावा कर रही है। मसलन लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के लिए यह एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है कि आखिर देश की सबसे पुरानी पार्टी की ऐतिहासिक हार क्यों हुई और वह लोकसभा में 10 प्रतिशत सीटें जुटाने में भी कामयाब क्यों नहीं हो पाई? जिसकी वजह से उसे नेता प्रतिपक्ष के पद को हासिल करने के भी लाले पड़े हुए हैं। राजनीतिक जानकारों में यही चर्चा है कि कांग्रेस को भाजपा की जीत में प्रचंउ इस्तेमाल करने जैसे आरोप मंढ़ने तथा मोदी सरकार को कोसने के बजाए अपने इतिहास में झांकना चाहिए और इस बात पर गंभीरता से मंथन करना चाहिए कि उसकी लोकतंत्र के इतिहास में इतनी बुरी दुर्दशा कैसे हुई और भविष्य में अपने रजानीतिक अस्तित्व को कैसे वापस लिया जाए,। मोदी सरकार को आंकड़ो की बाजीगिर बताने वाली कांग्रेस को अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए जिसने दस साल के शासन में आंकड़ों की बाजीगिरी के जरिए जनता को अपनी पार्टी के खिलाफ जाने के लिए मजबूर कर दिया।
सत्ता का चरित्र

भारतीय लोकतंत्र में सत्ता का नशा अलग ही होता है या कुछ यूं कहिए कि सरकार में शामिल नेताओं की चाल, चरित्र, चेहरा सब कुछ सत्ता संस्कृति के अनुरूप स्वत: ढल जाता है। बोल बदल जाते हैं। भारतीय राजनीति में इसे एक परंपरागत तरीके के रूप मे देखा जाने लगा है। इसके उलट सत्ता से जनता द्वारा नकारे जा चुके यानि भूतपूर्व होने का दर्द उन नेताओं के चरित्र से साफ झलकने लगता है, चेहरे का नूर गायब हो जाता है। यही नहीं आजकल यह साफतौर से महसूस किया जा रहा है कि जो नेता सत्ता में होते विपक्षी दलों के बोल को देश व जनता के खिलाफ बताने में किसी प्रकार की चूक नहीं करते थे, वहीं नेता सत्ता से अलग होते ही उस समय के विपक्षी नेताओं की भाषा बोल रहे जो आज सत्ता में हैं। यूपीए सरकार के पूर्व मंत्रियों को इस बात का मलाल सताने लगा है कि कल तक उनके आगे-पीछे मंडराने वाले अब उन्हें भाव नहीं देते और उन नजरों से देखते हैं जैसे उनके कर्जदार हों। एक पूर्व मंत्री तो इस तरह का दर्द बयां कर बदरंगी सत्ता का बखान करने में पीछे नहीं हटे और यहां तक कहते नजर आए कि सत्ता में होने पर तो उनके जानकार भी रोबा गालिब करने के लिए रिश्तेदार जैसे तमगा पहन लेते थे। ऐसा तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि जनता सत्ता के कूचे से इस कदर बेआबरु कर देगी, कि वे गुमनामी के अंधेरे को महसूस करेंगे। यही राजनीति का खेल है जनाब..।
बदला माया का फार्मूला
बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख मुलायम सिंह यूपीए का हिस्सा न होते हुए भी हमेशा मनमोहन सरकार के खेवनहार रहे, जिनके अब केंद्र की सत्ता बदलते ही अपने राजनीतिक फार्मूला बदलने के आसार दिखाई देने लगे हैं। यह बात उत्तर प्रदेश के हाल ही में पेश हुए बजट सत्र के दौरान इन दोनों धुर विरोधी दलों के रूख से जाहिर हुई। यानि मायावती और मुलायम का कदम ठीक लालू-नितीश फामूर्ले की तरफ बढ़ता दिखा। उत्तर प्रदेश के बजट सत्र में नेता विरोधी दल स्वामी प्रसाद मौर्य यूंही संसदीय कार्य मंत्री आजम खां के सुर में सुर मिलाते नजर आए उसके पीछे पार्टी हाईकमान खासकर बसपा प्रमुख मायावती के इशारा ही होगा, क्योंकि बसपा का कोई भी नेता पार्टी सुप्रीमो माया के बिना जुबान हिलाने की हिमाकत नहीं कर सकता। दरअसल यूपी विधानसभा में जब आजम खां जब भाजपा प्रदर्शनकारियों की तुलना संसद पर हमला करने वाले आतंकवादियों से की, तो मौर्य ने सहमति जताने में देर नही लगायी। जाहिर सी बात है कि बहन जी का इशारा मिले बिना ऐसा मुमकिन नहीं था।
चोंच लड़ैया, टीपू भैय्या

आम चुनाव में कमलधारियों ने यूपी में सत्तारुढ़ सपा की साइकिल का कल पुर्जा ऐसा छटकाया कि सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (टीपू भैय्या) भी पूरी तरह से बदल गए हैं। ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी की सक्रियता पर चुटकी लेने का मौका टीपू भैय्या कभी नही चूकते थे। एक बार तो उन्होंने ट्विटर का मतलब चोंट लड़ाना बताया था। लेकिन हार की हकीकत देख वह भी हर जतन करने को तैयार हैं। इसके लिए टीपू भैय्या ने भी अब मोदी की ही राह धर ली है। चुनाव और उसके बाद प्रधानमंत्री बनने के साथ ही सोशल मीडिया का बढ़ चढ़कर इस्तेमाल कर रहे मोदी से प्रेरित होकर टीपू भैय्या ने भी सरकार की छवि को चमकाने के लिए फेसबुक और ट्विटर का सहारा ले लिया है। मुख्यमंत्री ने ट्विटर पर एक नही बल्कि तीन-तीन एकाउंट बनवा रखा है। इतना ही नही उन्होंने हर एक विभाग में सोशल मीडिया के लिए नोडल अधिकारी भी नियुक्त करने का मन बना लिया है। मतलब कि. . टीपू भैय्या भी अब चोंच लड़ाने के लिए पूरी तैयारी से मैदान में उतर गए हैं।
समय होत बलवान

मानुज बली नही होत है, समय होत बलवान। भाजपा व उसके अनेकों नेताओं पर यह उक्ति सटीक बैठती है। नरेन्द्र मोदी के पराक्रम ने कईयों के लिए अच्छे दिन ला दिए। जो नेता किसी संसद के किसी सदन के सदस्य भी नही थे और न ही चुनाव में टिकट ही हाथ लगा, मोदी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में जगह दे दी। जबकि ऐसे नेता तकरीबन नाउम्मीद ही थे। इसके उलट, एक नेता जो अपने लिए अच्छे दिन आने की जुबानी गारंटी देते फिर रहे थे, उन पर वक्त की ऐसी मार पड़ी कि आलम यह है कि आज उन्हें दिल्ली में एक अदद ठिकाना तलाशना पड़ रहा है। इसीलिए कहा जाता गया है कि मानुज बली नही होत है, समय होत बलवान।
---ओ.पी. पाल व अजीत पाठक
06July-2014

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