मंगलवार, 17 सितंबर 2013

दंगे की आंच में अब सिकने लगी सियासी रोटियां!

राजनीतिक बेचैनी में दर्द बांटने का बहाना
ओ.पी. पाल

आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद जिस प्रकार से पश्चिम उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरण बदले हैं उससे खासकर सपा व रालोद का गणित पूरी तरह बिगड़ता नजर आ रहा है। इस बिगड़े राजनीतिक गणित से बेचैन राजनीतिक दलों ने दंगों का दर्द बांटने के बहाने अब सियासी रोटियां सेकनी शुरू कर दी है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ कांग्रेस के दिग्गजों के सोमवार को हुए दौरे से तो सियासी गलियारों में पहले ही सवाल खड़े होने लगे हैं कि कांग्रेस ने मुजफ्फरनगर के दंगों के कारण यूपी में सत्ताधारी सपा से नाराज मुस्लिम वर्ग को अपने पक्ष में करने की मुहिम में दंगों के जख्मों पर मरहम लगाने का काम किया है। यही काम रविवार को सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी किया, जिनका उनके ही वोटबैंक माने जाने वालों ने उन्हें दुत्कारने यानि विरोध करने का काम भी किया। राजनीतिकारों का मानना है कि सपा से नाराज मुस्लिम समाज को अपने हक में करने की ही रणनीति है कि सोमवार को पीएम समेत कांग्रेस के सभी दिग्गज मुजफ्फरनगर जिले के ब्लाक शाहपुर के इर्दगिर्द बसे तीन गांव बसीकलां, तावली व बरवाला गांव गये, जहां जिले भर के गांवों से पलायन करके मुस्लिम समाज के लोग शरण लिये हुए हैं। प्रधानमंत्री समेत कांग्रेसियों के इस दौरे को तो सपा के आजम खान ने सियासी दौरा करार दे दिया है, वहीं सपा महासचिव और राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव ने तो पीएम व उनके साथ सोनिया व राहुल गांधी दौरे पर तंज कसते हुए कांग्रेस पर सीधा निशाना साधा कि कांग्रेस सरकार के राज में मलयाना, मुरादाबाद,मेरठ, इलाहाबाद और भागलपुर के जैसे दंगें होने का जिक्र करते हुए कहा कि इनकों भुलाया नहीं जा सकता। पीएम, सोनिया व राहुल के दौरे को भाजपा ने सेकुलर पर्यटन की संज्ञा देते हुए ताना कसा है। गौरतलब बात यह है कि भाजपा और यूपीए के घटक दल रालोद के नेताओं को अभी तक इन क्षेत्र में जाने की इजाजत तक नहीं दी जा रही है।
रालोद की ज्यादा जमीन खिसकी
मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगे जो शहर में कम पहली बार गांव में ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं। इस सांप्रदायिक हिंसा में पहली बार जाट-मुस्लिम गठजोड़ टूटता नजर आ रहा है, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल की राजनीति का जमीनी आधार माना जाता रहा है, लेकिन इन दंगों के कारण कवाल की घटना से जाटों के समर्थन में केवल भाजपा ही ऐसा दल था जो उनके संघर्ष में खड़ा नजर आया। इस कारण स्वाभाविक है कि यूपीए में शामिल रालोद प्रमुख चौधरी अजित सिंह की जाट-मुस्लिम समीकरण के साथ आगामी चुनावी में की जा रही जंग की तैयारियों को झटका लगा है। दोनों के बीच हुए छत्तीस का आंकड़े के बीच रालोद के परंपरागत वोट माने जाने वाले जाटों का बड़ा धड़ा नरेन्द्र मोदी के नाम पर एकजुट होता नजर आ रहा है, जबकि सपा से नाराज हुआ मुस्लिम वर्ग भाजपा के पक्ष में तो कतई नहीं जाएगा। लेकिन वह बसपा व कांग्रेस में विभाजित होने की स्थिति में पहुंच रहा है। इन दंगों के कारण बिगड़े राजनीतिक गणित में भाजपा और बसपा को बिना किसी अभियान में राजनीतिक फायदा होता नजर आने लगा है। बसपा को इसलिए भी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिम गठजोड से पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा के सबसे ज्यादा सांसद निर्वाचित हुए थे।
चुनावी समीकरण में मुस्लिम वोटों पर नजरें
आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए इस दंगे से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बदले समीकरण में मुस्लिमों के जख्मों पर मरहम लगाने के प्रयास में सभी दल जुट गये हैं, जिनका चुनावी वैतरणी पार लगाने में महत्वूपर्ण योगदान रहा है, जहां तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी का सवाल है उसे देखते हुए भी राजनीतिक गतिविधियां चलती रही हैं। जिलावार मुस्लिम आबादी को यदि वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार माने तो सहारनपुर में 39 प्रतिशत, मुजफ्फरनगर-शामली में 37 प्रतिशत, बिजनौर में 41 प्रतिशत, बागपत में 25 प्रतिशत, मेरठ में 34 प्रतिशत, गाजियाबाद में 24 प्रतिशत, बुलंदशहर में 21 प्रतिशत, अलीगढ़ में 19 प्रतिशत, बरेली में 34 प्रतिशत, रामपुर में 49 प्रतिशत, मुरादाबाद में 46 प्रतिशत है, जो इस समय इससे भी ज्यादा हो चुकी है। 
17Sept-2013

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