शनिवार, 28 सितंबर 2013

राइट टू रिजेक्ट: लोकतंत्र को मजबूत करेगा सुप्रीम कोर्ट का फैसला!

चुनाव सुधार के साथ राजनीतिक दलों में भी सुधार की राह
ओ.पी.पाल

सुप्रीम कोर्ट के चुनाव आयोग को वोटरों को ईवीएम में 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प देने का ऐतिहासिक फैसला राजनैतिक दलों को रास नहीं आ रहा,लेकिन गैर राजनीतिक संगठन एवं संस्थाएं इसे लोकतंत्र को मजबूत करने और चुनावी सुधार के लिए जारी कवायद का हिस्सा करार दिया है।
शुक्रवार को वोटरों को नेगेटिव वोट डालकर सभी उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने का अधिकार देने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को वोटरों को ईवीएम में 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प देने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पिछले 12 साल से चुनाव आयोग के उस प्रस्ताव की भी परते खुल सकती है, जिसे इस प्रकार के विकल्प के प्रस्ताव को सरकार ठंडे बस्ते में रखे हुए है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसलें पर हरिभूमि से बातचीत के दौरान संविधान विशेषज्ञ कमलेश जैन का कहना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र कहने को ही है, जिस पर सरकार का नेतृत्व  करने वाले राजनीतिक दलों की थौंपी हुई व्यवस्था ज्यादा हावी है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का चुनाव के समय मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने के लिए ईवीएम में विकल्प देने का फैसला लोकतंत्र को मजबूत करेगा। कमलेश जैन कहती हैं कि यह राजनीतिक दलों की मनमानी का ही नतीजा है कि लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए जो कार्य सरकारों को करने चाहिए वे न्यायपालिका को करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है और उन्हें भी बदलने के प्रयास में राजनीतिक दल कानूनों में संशोधन करके न्यायपालिका को नीचा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। राजनीतिक विशेषज्ञ नीरजा चौधरी का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को जो निर्देश दिया है वह निश्चिततौर पर एक अहम कदम है, लेकिन राइट टू रिजेक्ट की दिशा में यह पहला कदम है और इससे आगे अभी और सुधार पर विचार करने की जरूरत है। इस फैसले के बाद राजनीतिक दलों को अपने में भी सुधार लाने की आवश्यकता होगी। जनता में जनप्रतिनिधियों को लेकर जिस प्रकार की नाराजगी है और जमीनी दबाव के चलते वह खुद में सुधार लाने की कोशिश अवश्य करेंगें, तो लोकतंत्र को मजबूत बनाने में चुनाव सुधार की कवायद को गति मिल सकती है।
ऐसे लागू होना चाहिए फैसला
देश में चुनाव सुधार के लिए कार्य कर रही गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिर्फाम्स और नैशनल इलेक्शन वॉच के संस्थापक प्रो. जगदीप छोकर ने हरिभूमि को अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि लोकतंत्र में अभी और भी सुधार होने की जरूरत है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला चुनाव सुधार के साथ-साथ राजनीतिक सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण साबित हो सकता है, बेशर्ते इसे लोकतांत्रिक तरीकों के साथ ही लागू किया जाए। छोकर का कहना है कि इस व्यवस्था को चुनाव आयोग कैसे लागू कराए उसमें कुछ महत्वपूर्ण पहलूओं में यह जरूरी है कि इस व्यवस्था के साथ चुनाव परिणाम आने पर सभी उम्मीदवारों को नापसंद करने वालों की मतगणना होनी चाहिए। यदि रिजेक्ट करने वाले मतों की गिनती सर्वाधिक हो तो  वह चुनाव निरस्त करके दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए। दोबारा चुनाव कराने में जिन्हें नापसंद कर दिया गया हो उन्हें चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाए और नये उम्मीदवार मैदान में हों। दोबारा चुनाव मे जिस उम्मीदवार को डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलते हैं उसे निर्वाचित करने का प्रावधान किया जाए तो इस निर्णय की सार्थकता मानी जाएगी।
राजनीतिक दलों को नहीं आया रास
दलित नेता उदित राज ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि लोकतंत्र में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट को ऐसे फैसले करने से पहले देशभर में तीन करोड़ से ज्यादा लंबित पड़े मुकदमों के निपटान पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे फैसलों के लिए सरकार को अपना काम करने देना चाहिए। माकपा नेता सीताराम येचूरी ने इस अदालती फैसले का विरोध करते हुए कहा कि यह असमान्य स्थिति है जिसे दुरूस्त किये जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि हमारे संसदीय लोकतंत्र में चुनाव की प्रत्यक्ष भूमिका होती है। चुनाव में न तो चुनाव आयोग और न ही न्यायपालिका हिस्सा लेती है। इसमें राजनीतिक दल हिस्सा लेते हैं। कांग्रेस महासचिव अजय माकन ने कहा कि इस फैसले का अध्ययन किये जाने की जरूरत है ताकि यह देखा जा सके कि शीर्ष अदालत ने नहीं करने वाले मतों की सम्पूर्ण संख्या जैसे सभी आयामों पर विचार किया है या नहीं। कांग्रेस के नेता राशिद अल्वी ने कहा कि इस फैसले पर अमल करना कठिन काम तो होगा और साथ कई समस्याएं पैदा होंगी। भाजपा प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी ने कहा कि हम ऐसी किसी पहल का स्वागत करते हैं जिससे व्यवस्था को मजबूत बनाया जा सके। संस्थान की मांग है कि उनकी विश्वसनीयता बनी रहे और अगर राजनीतिक व्यवस्था अपनी विश्वसनीयता नहीं बनाये रख सकती है तब दूसरे संस्थान उसका स्थान ले लेंगे।
बारह साल से ठंडे बस्ते में है प्रस्ताव
चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया को गोपनीय और सुविधाजनक बनाने के लिए 10 दिसंबर 2001 को ही ईवीएम में उम्मीदवारों के नाम के बाद 'इनमें से कोई नहीं' का विकल्प देने का प्रस्ताव सरकार को भेजा था, लेकिन इन 12 सालों में इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने वोटरों को यह अधिकार देने वाला फैसला सुनाया और चुनाव आयोग को इस प्रकार की व्यवस्था ईवीएम मशीन में कराने के निर्देश दिये। चुनाव सुधारों की मांग कर रहे कार्यकतार्ओं का मानना है कि किसी क्षेत्र में अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट 'इनमें से कोई नहीं' के विकल्प पर पड़ता है, तो वहां दोबारा चुनाव करवाना चाहिए। अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। याचिकाकतार्ओं का तर्क था कि यह मतदाता का अधिकार है कि वह सभी उम्मीदवारों को खारिज कर सके। चुनाव आयोग ने भी इसका समर्थन किया था और सुझाव दिया था कि सरकार को ऐसा प्रावधान करने के लिए कानून में संशोधन करना चाहिए।
28Sept-2013

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें