शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

आसान नहीं होगी महामोर्चा की सियासी राह!

कभी मजबूत नहीं हो पाई तीसरी ताकतें
ओ.पी. पाल. नई दिल्ली।
गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी दलों ने एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ महामोर्चा के रूप में एकजुट होकर सियासी तानाबाना बुनना शुरू कर दिया है। यह सियासी कवायद ठीक उसी तर्ज पर शुरू हुई जिस तरह लोकसभा चुनाव से पहले 11 दलों ने भाजपा में नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी होने पर बदली भारतीय राजनीति की तस्वीर को धुंधला करने और उसे रोकने के लिए फेडरल फ्रंट बनाने के लिए की थी। वैसे भी भारतीय राजनीति के इतिहास में तीसरी ताकतों की जड़े कभी मजबूत हो ही नही पाई हैं। इसलिए महामोर्चा की सियासी डगर भी आसान नहीं है?
दरअसल केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार बनने के बाद हरियाणा व महाराष्टÑ जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के प्रभाव ने सभी गैर कांग्रेस व गैर भाजपाई दलों की चिंताओं को बढ़ा दिया है। इस बात की चिंता ने ही फिर से जनता पार्टी के बिखरे कुनबे को एकजुटता का सबक दिया है। इसकी वजह यह भी मानी जा रही है कि देश की राजनीति की तस्वीर पर मोदी का साया इसी प्रकार मंडराता रहा तो बिहार में अगले साल और उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनावों में दोनों ही राज्यों में सत्ताधारी पार्टियों के लिए भाजपा से मुकाबला करना एक बड़ी चुनौती साबित होगी। इसलिए उससे पहले ही गैर भाजपा और गैर कांग्रेस दलों को एकजुट करके महामोर्चा को एक तीसरी ताकत के रूप में जिंदा करने का एक बार फिर से प्रयास हो रहा है। इसी प्रकार की कवायद लोकसभा चुनावों के लिए भी की गई थी, लेकिन वह चुनाव आते आते तार-तार हो गई।
वैसे भी भारतीय राजनीति का इतिहास इस बात का गवाह है कि एक बार नहीं कई बार भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ तीसरी राजनीतिक ताकतें सक्रिय हुई हैं, लेकिन कभी भी तीसरा मोर्चा ठोस राजनीतिक आधार हासिल नहीं कर सका है। वर्ष 1996 के आम चुनाव में तीसरा मोर्चा बनाने वाली ताकतें सक्रिय हुई, तो भाजपा मजबूत हुई थी। इससे पहले ऐसा मौका वर्ष 1989 में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा बना और भाजपा व वामदलों के बाहरी समर्थन से सरकार भी बनी, लेकिन राष्ट्रीय जनमोर्चा ऐसा टूटा कि उससे जनता दल, सपा, द्रमुक, तेलुगु देशम, तिवारी कांग्रेस जैसे दलों का उदय हुआ। नतीजा यह था कि चार वामदलों और नेशनल कांफ्रेंस समेत इन दलों ने संयुक्त मोर्चा बना लिया और कांग्रेस के बाहरी समर्थन से केंद्र में सरकार भी बनाई। आखिर यह मोर्चा भी टूटने को मजबूर हुआ और 1998 में मध्यावधि चुनाव की घोषणा हुई, तो तीसरे मोर्चे की पहल हुई और भाजपा की सरकार केंद्र में बनी तो तीसरे मोर्चे में शामिल कई दल भाजपा के नेतृत्व में बने राजग में शामिल हुए, जिनमें से जदयू भी एक है,जिसके भाजपा से 17 साल के रिश्ते तोड़ने का दुष्परिणाम भी उसके सामने है।
कैसे बनेगा सशक्त विपक्ष
भाजपा और उसकी केंद्र सरकार के खिलाफ महामोर्चा बनाने की कवायद में जिस प्रकार से इन दलों ने दावा किया है कि संसद के दोनों सदनों में इस अभियान में शामिल होने वाले दलों की यदि सदन में स्थिति पर गौर की जाए तो बिना कांग्रेस, अन्नाद्रमुक और तृणमूल कांग्रेस के कभी सशक्त विपक्ष नहीं बन सकता। मसलन लोकसभा में सपा के पांच, राजद के चार, इनेलो, जद-यू व जद-एस के दो-दो यानि फिलहाल की स्थिति में 15 सदस्य ही हैं। यदि वामदलों के दस लोकसभा सदस्य भी इस अभियान में जुडते हैं तो भी सशक्त विपक्ष तैयार करने की स्थिति में नहीं होगा यह महामोर्चा। हालांकि जदयू नेता नीतीश कुमार ने कहा कि उनकी तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और अन्य दलों से भी बात चल रही है, लेकिन सदन में सरकार को घेरने के लिए यह दावा बेमानी लगता है।
अजीत सिंह को मझधार में छोड़ा
इस तीसरी ताकत की पटकथा तो रालोद प्रमुख की मेरठ में हुई स्वाभिमान रैली में ही लिखी जा चुकी थी, जिसमें राजद को छोडकर इस अभियान का बिगुल बजाने वाले दलों के नेता भी शामिल हुए थे। इस पटकथा में लोकसभा में अपना अस्तित्व खो चुके रालोद प्रमुख को सपा के सहारे राज्यसभा भेजने की भी संभावनाएं व्यक्त की गई थी, लेकिन सपा ने राज्यसभा के लिए उन्हें दरकिनार करके इस मुहिम में भी रालोद को न्यौता न देकर मझधार में छोड़ दिया है।
07Nov-2014

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