सोमवार, 13 जनवरी 2014

मॉरिशस में भारतीयों की हर क्षेत्र में हिस्सेदारी!

लघु भारत से भी नहीं मिला सबक!
भारत से ज्यादा सुविधाएं मॉरिशस में भोग रहे हैं भारतवंशी
ओ.पी.पाल

भारत को अंग्रेजी हकूमत से आजाद कराने के लिए वीरगाथाएं तो सुनने को मिलती हैं, लेकिन मॉरिशस को गुलजार करने में भारतवंशियों ने यातनाएं सहकर बलिदान दिया। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज मॉरिशस में 70 फीसदी आबादी भारतवंशियों की है, जिसके कारण लघु भारत के नाम से पहचाने जा रहे मॉरिशस में भारतीयों की हर क्षेत्र में हिस्सेदारी है। इससे भारत को भी सबक लेने की जरूरत है।
दुनिया में वैसे तो प्रत्येक देश का इतिहास होता है, जिसमें उसकी जय-पराजय, वीरगाथाएं, संघर्ष, अवसाद, सुनहरे क्षण दर्ज होते हैं। ऐसे ही इतिहास में मॉरिशस भी जहां का इतिहास भी कुछ इसी प्रकार से गुंथा हुआ है। इस बारे में मॉरिशस से यहां प्रवासी भारतीय सम्मेलन में आए सोमदत्त दलथुमन ने जिस वीरगाथा का वर्णन किया उससे भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मॉरिशस सनातन धर्म टेम्पल फेडरेशन और हिंदुत्व मूवमेंट के चेयरमैन सोमदत्त दलथुमन की जड़े उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से जुड़ी हैं, लेकिन उनके हाथ अभी तक असल मूल नहीं लग सकी है। हरिभूमि संवाददाता से हुई विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वज 1834 में पहली बार पांच लाख की संख्या में मॉरिशस गये थे वह भी एक बंधुआ मजदूरों के रूप में या कुछ यूं कहिए कि  रोजी रोटी की तलाश में घर से हजारों मील दूर निर्दयी, आतंकी, खेतों के मालिकों के चंगुल में। वहां भी उस समय उनकी स्थिति गिद्ध के हाथों आई चिड़िया से कम नहीं थी। उनके कथनानुसार एक वर्ष में एक धोती, एक कमीज, दो टोपी, दो कंबल, पांच रुपए वेतन जैसी सुविधाओं का सहारा ही मिलता था। खेत मालिकों की शर्तो का जरा भी उल्लंघन होने पर कोड़ो की सजा और मजदूरों के लिए एक बड़ा जेलखाना। उन्होंने बताया कि इन अत्याचारों की जांच के लिए हालांकि 1838 में जांच कमीशन भी बैठाया गया, लेकिन भारतवंशियों ने हार नहीं मानी और मॉरिशस के जंगलों को मेहनत से गुलजार करके आजादी का दम भरा और धीरे-धीरे सभी सुविधाएं मिलती गई तो वहां भारतवंशियों का ही बाहुल्य हो गया। इसकी प्रेरणा महात्मा गांधी से मिली, जिनके  नेतृत्व केवल भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को ही नहीं, बल्कि मारिशस के स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसी कारण एक लंबे संघर्ष के बाद धीरे-धीरे सामाजिक और राजनीतिक जागृति की मंजिले पार की गईं।
भारत से भी बेहतर योजनाएं
मॉरिशस में सरकार की नीतियों के बारे में सोमदत्त कहते हैं कि वहां प्राइमरी शिक्षा अनिवार्य है और 12 साल तक अनिवार्य शिक्षा पूरी तरह से निशुल्क है। उच्च शिक्षा के लिए मॉरिशस सरकार आर्थिक मदद देती है। लघु भारत इसलिए भी मॉरिशस को कहा जाता है कि वहां प्राइमरी से ही हिंदी और भोजपुरी जैसी हिंदुस्तानी भाषाओं को पढ़ाया जाता है। आवास बनाने के लिए भी सरकार भारतवंशियों को अनुदान देती है, तो रोजगार की भी समस्या नहीं है। उनके अनुसार मॉरिशस में बेरोजगारी की दर केवल सात प्रतिशत है। यही नहीं शिक्षित बेरोजगारों को 20 हजार मॉरिशस रूपया का भत्ता देने की भी योजना सुचारू रूप से चल रही है।
राजनीति में बेहती हिस्सेदारी
सोमदत्त दलथुमन बताते हैं कि हमारे भारतवंशी पूर्वजों का ही बलिदान है कि आज मॉरिशस में भारतीय मूल के लोग इतनी स्वतंत्रता से रहते हैं कि शायद ऐसी कल्पना यहां भारत में भी नहीं की जाती होगी। मॉरिशस की राजनीति में हिस्सेदारी के सवाल पर उनका कहना था कि वहां भारतीय मूल के लोग प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों में हमेशा बने रहते हैं। उन्होंने बताया कि मॉरिशस को आज लघु भारत के नाम से पहचाना जाने लगा है। इसी कारण भारत और मॉरिशस इतने करीब हैं कि हर क्षेत्र में नजदीकियां हैं और भारत का कोई भी नागरिक मॉरिशस आगमन वीजा पर मॉरिशस जा सकता है।
हिंदु-मुस्लिमों को लड़ाने का प्रयास
मॉरिशस में भारतीय मूल के सभी धर्मो के लोगों को धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक आजादी मिली हुई हैं और करीब 300 मंदिरों में सभी देवी देवताओं की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। मॉरिशस सरकार वहां मंदिरों की मरम्मत और आयोजनों के लिए प्रति वर्ष ग्रांट के रूप में बड़ी धनराशि देती है। रामचरित्र मानस और महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर भारत की आजादी के लिए 15 अगस्त को भारतीय ध्वज तथा अन्य सभी भारतीय पर्वो पर भारतीय व मॉरिशस के ध्वज लहराए जाते हैं। यही भारत और मॉरिशस के प्रगाढ़ संबन्धों का प्रतीक है। ऐसा भी नहीं है कि मॉरिशस में हिंदु और मुस्लिमों को लड़ाने वाली शक्तियां प्रकट नहीं हुई। सच तो यह है कि ऐसी शक्तियों के मंसूबों पर हिंदु-मुस्लिमों की एकता के चलते राजनीति से ऊपर उठकर पानी फेरा गया है।
ऐसा रहा पूर्वजों का दर्द
सोमदत्त दलथुमन ने बताया कि जब मजदूरी के लिए भारत से लोग पानी के जहाज से मॉरिशस जाते थे तो किसी के बीमार होने पर उसका इलाज नहीं, बल्कि उसे समुद्र में फेंक दिया जाता रहा। उनके अनुसार एक गांव से दूसरे गांव में जाने की इजाजत नहीं होती थी। यहां तक के दुख सहने पड़े कि यदि एक दिन काम नहीं किया तो दो दिन का मेहनताना गंवाना पड़ता था। लेकिन पूर्वजों के इसी बलिदान से आज भारतवंशियों को इतनी आजादी है और भारत व मॉरिशस के बीच ब्लड रिलेशनशिप भी तेज हुई है। यह भी इतिहास का सच है कि जब 1968 में मॉरिशस की आजादी का समय आया तो उन्होंने 12 मार्च का समय इसलिए चुना कि इसी दिन गांधी जी ने भारत में असहयोग आंदोंलन प्रारंभ किया था।
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राग दरबार
भाजपा नहीं मोदी-केजरीवाल नहीं आप
आजकल देश की राजनीति में आम आदमी पार्टी, भाजपा के नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बीच चल रही सियासी स्पर्धा सुर्खियों में हैं। भारतीय राजनीति की उथल-पुथल पर विदेशों में होने वाली गूंज का ही कारण है कि प्रवासी भारतीय भी बेहद दिलचस्पी के साथ सियासत पर नजर रखते हैं। हाल ही में यहां प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन संपन्न हुआ, जिसमें विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीय बड़ी संख्या में शामिल हुए, जिनमें इस बार ज्यादातर प्रवासी युवा पीढ़ी को शिरकत करने का मौका दिया गया। तो जाहिर सी बात है कि लोकसभा चुनाव से पहले इस सम्मेलन में भी भारतीय राजनीति का प्रभाव तो होना ही था, जिसमें युवाओं को राजनीति, सामाजिक और आर्थिक विकास में हिस्सेदार बनने की अपेक्षा भी की गई। इसके बावजूद विदेशों में रह रहे भारतवंशी युवाओं के बीच भारतीय राजनीति में कितनी रूचि है उसी का परिणाम कि इस सम्मेलन में आए प्रवासी युवाओं ने उसी कहावत को चरितार्थ किया कि जो दिखता है वहीं बिकता है और वहीं सुनने को मिलता है। मसलन भारतीय राजनीति के बारे में विभिन्न देशों के युवाओं का जो मत उसमें उनके बीच नरेन्द्र मोदी का तो क्रेज है लेकिन वे भाजपा से पूरी तरह अनभिज्ञ दिखे। इसी तरह के सवालों में प्रवासी युवा भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए आप का नाम तो सुनते हैं लेकिन उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल को नहीं जानते। यहां तक कि राहुल गांधी का नाम लेने पर अलग-अलग देशोें से आए युवा यह सवाल करते नजर आए कि ये कौन है? यह नाम तो कभी सुनने को भी नहीं मिला।
जिज्ञासा की जड़
विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के उन लोगों की अपनी जड़े तलाशने के लिए सरकार ने दुनियाभर के विभिन्न देशों के 18 से 26 साल तक के 40 प्रवासी युवाओं का समूह के रूप में ‘भारत को जानो’ कार्यक्रम शुरू करके उनकी जिज्ञासा को शांत किया। प्रवासी सम्मेलन के दौरान विभिन्न सत्रों में पहली बार शिरकत करने अलग-अलग देशों से आए युवाओं के केंद्र सरकार के मंत्रियों और अन्य वक्ताओं से यही सवाल किये कि उनकी जिज्ञासा है कि वे भारत में अपनी जड़ों की खोज करें, जिन्हें उनके बड़े भी नहीं खोज पाये। दरअसल इस सम्मेलन में आए युवाओं के पूर्वज कम से कम पांच पीढ़ियों पहले ही भारत छोड़कर विदेश चले गये थे और उनका मकसद भारत आने का यही है कि वे अपनी जड़े पता लगा सके। सवाल इस बात का है कि कुछ प्रवासी युवा कह  चुके हैं कि उनके पूर्वज कई बार यहां आकर जड़ों का पता लगाने का प्रयास कर चुके हैं लेकिन उन्हेें जड़े नहीं मिली। सरकार के पास ‘भारत को जानो’ कार्यक्रम कौन से जादू की छड़ी है जिससे उनकी जड़े मिल पाएंगी? भारत में कई बार आ चुके कुछ भारतवंशियों का कहना है कि युवाओं को जड़े मिले या न मिलें, लेकिन भारत की सांस्कृतिक विरासत से तो रूबरू होने का मौका मिल ही जाता है।
12Jan-2014

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