गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

आजकल: लोकतंत्र में असंसदीय भाषा

संसदी अनुशासन जरुरी -डा. संजय कुमार भारतीय संसद में किसी भी सांसद को संसद की गरिमा और संसद के नियमों के अनुशासन के दायरे में आचरण करने की परंपरा जिस प्रकार ध्वस्त होती जा रही है, उससे सत्ता और विपक्ष की भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है, जब संसद के भीतर अपमानजनक या असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल पिछले एक दशक में कहीं ज्यादा हो रहा है। संसद के मौजूदा बजट सत्र में सत्ता या विपक्ष दोनों ओर से ही ऐसा पहली बार नहीं है, बल्कि पिछले एक दशक में संसद गरिमा को ज्यादा तार-तार करने का प्रयास रहा है। इसके कारण संसद में विपक्ष का हंगामा या वाकआउट जैसी बढ़ती प्रवृत्ति के कारण सार्थक बहस तक नहीं हो पा रही है। इससे साफ है कि संसद ऐसा स्थान है जहां कानून बनते हैं और देश व जनहित के मुद्दो पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिए। कोरोना महामारी के बीच मौजूदा बजट सत्र में जहां अलग-अलग पहलुओं या विभिन्न क्षेत्रों पर चर्चा होनी चाहिए थी, लेकिन यह दुर्भाग्य है की सत्ता या विपक्षी दल नीतियों या मुद्दों के बजाए राजनीतिक कटाक्ष और व्यक्ति विशेष पर हमले करके असंसदीय भाषा के साथ आरोप-प्रत्यारोप लगाकर एक पक्ष की बात को व्यंगात्मक लहजे में हमले करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। इसी वजह से संसदीय गरिमा और मर्यादाएं नष्ट हो रही है। सदन का बजट सत्र जब कोरोना महामारी के बीच चल रहा है तो ऐसे में बेहतर होता कि संसद में बजट, विधेयकों और अन्य सभी मुद्दों पर सत्ता और विपक्ष दोनों ही दलों के सदस्य सार्थक चर्चा को प्राथमिकता में रखें। संसदीय नियमों के विपरीत सदन में जिस परंपरा को बढ़ावा दिया जा रहा है उसकी वजह साफ है कि लगातार गिरते राजनीतिक स्तर के कारण संसद में कार्यवाही को सुचारु चलाने में सहयोग देने के बजाए जिस प्रकार आचरण हो रह है उससे जहां समय की बर्बादी हो रही है, वहीं एक घंटे की चर्चा या बहस पर होने वाले खर्च की भी बर्बादी हो रही है। संसद सुचारु रूप से चलाने के बजाए जिस प्रकर की परंपरा पनप रही है यह कोई साधारण समस्या (बीमारी) नहीं है, बल्कि कोरोना महामरी की तरह ऐसी गंभीर समस्या है जिसका कारण किसी को पता नहीं और इसका समाधान(इलाज) के लिए उसी तरह मंथन और जद्दोजहद करने की जरुरत है जिस प्रकार कोरोना और उसकी दवाई के लिए वैज्ञानिक लगातार शोध करते रहे। मसलन इस संसद में पनप रही इस समस्या का समाधान सत्ता और विपक्ष दोनों को संयम के साथ एक-दूसरे की बात सुनकर संसदीय मर्यादाओं के बीच शालीनता का परिचय देना होगा। वहीं सदन में पीठासीन अधिकारी का पद निष्पक्ष माना जाता है और सभी दलों को उनसे निष्पक्षता की अपेक्षा की जाती है, लेकिन दुर्भाग्यवश अब पीठ पर भी सवाल उठने लगे। सदन का बजट सत्र जब कोरोना महामारी के बीच चल रहा है तो ऐसे में बेहतर होता कि संसद में बजट, विधेयकों और अन्य सभी मुद्दों पर सत्ता और विपक्ष दोनों ही दलों के सदस्य सार्थक चर्चा करते। संसद में सदस्यों के असंसदीय आचरण को रोकने के लिए वह सख्त कानून बनाने के पक्ष में नहीं हैं, बल्कि असंसदीय शब्दों के बढ़ते उपयोग से संसदीय मर्यादाओं के विपरीत आचरण की समस्या के समाधान की जिम्मेदारी संसद सदस्यों होनी चाहिए, जिसके लिए सदन के भीतर एक-दूसरे पर राजनीतिक या व्यक्तिगत कटाक्ष के बजाए संयम, धैर्य और एक दूसरे के सम्मान की परंपरा कायम करने की जरुरत है। ऐसी परंपरा को पुनर्जीवित करके ही लोकतंत्र में संसदीय गरिमा और मर्यादाओं को नियमों की पटरी पर लाया जा सकेगा। वहीं पीठासीन अधिकारियों को अपने उपर उठने वाले सवालों को तलाशने के लिए संसद की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने की जरुरत है। नियमों के तहत सदन में एक संसद सदस्य जो कुछ भी कहता है वह संसद के नियमों के अनुशासन, सदस्यों की अच्छी समझ और पीठासीन अधिकारी द्वारा कार्यवाही के नियंत्रण के अधीन है। -(ओ,पी. पाल की बातचीत पर आधारित ) मीडिया की भूमिका भी जिम्मेदार सुभाष कश्यप देश के लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी चारों स्तंभ पर है, लेकिन संसद में जिस प्रकार से संसदीय नियमों के विपरीत असंसदीय भाषाओं और हंगामा करके सदन की कार्यवाही विघ्न डालने का प्रयास हो रहा है, उसके लिए कहीं हद तक मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। मसलन देश में राजनीतिक चरित्र का ह्रास इस कदम गिर गया है कि सत्ता पाने के लिए राजनीतक दलों का फोकस किसी तरह सरकार को बदनाम करने पर रहता है, भले ही उनके नेताओं को असंसदीय शब्दो का इस्तेमाल करना हो या किसी भी माध्यम को अपनाया जाए। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष संसद में महत्वपूर्ण है, जिसमें विपक्ष की भूमिका कहीं ज्यादा इसलिए होती है कि वह सत्तापक्ष पर निगरानी कर देशहित के कामों को आगे बढ़ाए और सरकार निरंकुश न हो जाए। लेकिन इसके विपरीत संसदीय गरिमा को गिराने का काम ज्यादा हो रहा है। पिछले कुछ सालों से तो सदन में ही नहीं, संसद से भी बहार विपक्ष सरकार के देश व जनहित के कामों की आलोचना करता नजर आ रहा है। इसमें विपक्ष की भूमिका नगण्य सी नजर आ रही है, जिसमें विपक्ष इस बात की भी परवाह नहीं कर रहा है कि उनके द्वारा किये जा रहे व्यक्तिगत कटाक्ष देश के विरोध में हैं या नहीं। ऐसे में मीडिया आग में घी डालने का काम करके संसद में इस असंसदीय परंपरा को बढ़ावा देकर अपनी जिम्मेदारी से दूर जा रही है। आज के दौर की राजनीति को अतीत से सबक लेना चाहिए जब विचाराधाराओं के बीच मतभेद के बावजूद सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी को सबसे पहले राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी ने जिन्ना को कायदे आजम कहा और अटल बिहारी वाजपेयी को पीएम बनाने की भविष्यवाणी पंडित नेहरु ने की थी। राजनीतक ह्रास बदजुबां आचरण का कारण -प्रो. विवेक कुमार राजनीति जब प्रतिद्वंद्वता तक पहुंचती है तो विचारधारा, मूल मुद्दे गौण हो जाते हैं यानि वैचारिक शून्यता के कारण कटाक्ष भी व्यक्तिगत हो जाते हैं। पुराने समय में आंदोलन में तपने के बाद संसद में आने वाले नेताओं का कद कितना बड़ा है, तय होता था और एक-दूसरे के प्रति सम्मान था। आलोचना भी करनी होती थी तो वह भी संसदीय मर्यादाओं और नियमों के दायरे में। आज के दौर में राजनीति के बदलते परिवेश में नेताओं के आचारण में नहीं बल्कि दलों में कमियां शुरू हो गई हैं। जहां तक संसद में नेताओं की बदजुबानी यानि असंसदीय भाषा के इस्तेमाल का सवाल है उसकी वजह अब राजनीतिक दलों की विचारधारा और सिद्धांत दरकिनार होते नजर आ रहे हैं, क्योंकि अब राजनीतिक दलों के सम्मेलन नाम मात्र के रह गये है, जिनमें पार्टियां अपने नेताओं को पाटीं की विचारधारा, सिद्धांत, भाषा शैली, आचरण और देश व राष्ट्रहित के मुद्दो पर चर्चा करती थी। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से संसद में सदस्यों के आचरण में बेहद कमी आई है। संसद में बदलते नेताओं के आचरण को संसदीय मर्यादाओं के अनुरुप करने के लिए राजनीतिक दलों को स्थानीय, जिला, प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलन शुरू करने होंगे, तभी राजनीतिक दलों के स्तर और सदनों में नेताओं के आचरण को पुनर्जीवित किया सकेगा। ------------------------ असंसदीय परंपरा घातक प्रवृत्ति देश के लोकतंत्र में संसद या किसी भी सदन में असंसदीय भाषा का उपयोग बढ़ने की प्रवृत्ति बेहद घातक है। भारतीय संविधान के तहत सत्ता पक्ष की आलोचना के लिए ही विपक्ष बना है। संससंसद में असंसदीय शब्दों के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। सत्ता हासिल करने के बाद सत्ता पक्ष आंदेालन करने वालों पर आंदोलनजीवी या परजीवी जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी असंसदीय भाषा के दायरे में है। भारी बहुमत से अकेले मौजूदा गठबंधन ही सत्ता में नहीं है, इससे पहले कांग्रेस इससे भी ज्यादा बहुमत हासिल करके सत्ता में आ चुकी है, लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार की तरह इससे पहले ऐसा घमंड किसी सत्तापक्ष ने नहीं किया। अली अनवर, पूर्व सांसद 14Feb-2021

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें