बुधवार, 18 जून 2014

सियासी तकरार के घेरे में आए राज्यपाल!

राज्यपाल बदलाव की राह में कानूनी भूमिका सीमित
रोड़ा बन सकती है सुप्रीम कोर्ट की दलील
ओ.पी. पाल
. नई दिल्ली।
केंद्र में भले ही नई सरकार आते ही कांग्रेसनीत यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त करीब तीन दर्जन राज्यपालों पर तलवार लटक गई हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का एक फैसला इन राज्यपालों को हटाने में रोड़ा साबित हो सकता है। हालांकि केंद्र में सत्ता दल पिछली सरकारों में नियुक्त राज्यपालों को हटाने की पंरपरा को यूपीए सरकार का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने ही हवा दी थी।
केंद्र में राजग की मोदी सरकार के आते ही वैसे तो यूपीए सरकार के नियुक्त किये गये राज्यपालों पर हटने की तलवार लटक चुकी थी और राजग सरकार के नोटिसों के बाद राज्यपालों के इस्तीफे का दौर भी शुरू हो गया है। वहीं राज्यपालों को हटाए जाने की प्रक्रिया के सियासी पारे को वही चढ़ाने में लगे हैं जिनके शासनकाल में राजनीतिक प्रतिशोध को तरजीह देकर एक-दूसरी सरकार के नियुक्त राज्यपालों को हटाने की परंपरा को हवा दी थी। दरअसल जब यूपीए सरकार ने केंद्र की सत्ता संभालते ही वर्ष 2004 में राजग की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त किये गये राज्यपालों विष्णुकांत शास्त्री,कैलाशपति मिश्र, बाबू परमानंद और केदारनाथ साहनी को हटाया था। यूपीए सरकार की इस कार्यवाही के कारण राजग व यूपीए के बीच तकरार हुआ और राज्यपालों को हटाने की मुहिम को भाजपा नेता बीपी सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आया। इस मामले के कोर्ट में जाने के बाद यूपीए सरकार ने राज्यपालों को हटाने का पूरा बचाव किया था और तर्क दिया था कि राष्ट्रपति अपनी सिफारिश वापस लेने के कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है। इसके बावजूद मई 2010 के महीने में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की ओर से एक फैसला आया, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल को हटाने के लिए केंद्र सरकार के पास पर्याप्त कारण होने चाहिए। यह फैसला सुनाते हुए शीर्ष अदालत एक न्यायिक सावधानी की व्यवस्था दी कि वह महज उस आधार पर हस्तक्षेप नहीं करेगा कि उसे हटाने के आदेश की कुछ और भी वजहें हैं या हटाने के कारण पर्याप्त नहीं है। ऐसे में हटाए गए राज्यपालों के लिए न्यायिक समीक्षा का रास्ता आसान नहीं रह जाता।
संविधानविदों की राय
पूर्व अटार्नी जरनल सोली सोराबजी की माने तो राज्यपालों को हटाने के मामले में अदालत की भूमिका बेहद सीमित है। अदालत तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब हटाए गये राज्यपाल यह साबित करेगा कि उसे दुर्भावनावश हटाया गया है। उनका कहना है कि किसी मुद्दे पर हरेक पक्ष का अलग-अगल दृष्टिकोण हो सकता है। इस दृष्टिकोण को देखने के लिए अदालत के पास कोई मापक नहीं हो सकता। वहीं सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता के वकील रहे अधिवक्ता हर्षवीर प्रताप शर्मा का कहना है कि कोर्ट ने राज्यपालों को हटाने के आदेश को न्यायिक समीक्षा के योग्य माना है, लेकिन राज्यपाल की नियुक्ति पूरी तरह  से राजनैतिक है, इसलिए उनके हटाए जाने की स्थिति में कोर्ट की भूमिका वाकई बहुत सीमित हो जाती है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 156.1 में राज्यपाल को हटाने की कोई प्रक्रिया नहीं दी गई है। इस फैसले में केवल सिफारिश वापस लेने का उल्लेख किया गया है। इसलिए राज्यपालों को हटाने के मामले में किसी भी केंद्र सरकार के सामने कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए।
राजनीतिक प्रतिक्रिया
मोदी सरकार के राज्यपालों को हटाने के कदम की आलोचना करते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलामनबी आजाद ने इस फैसले को राजनीतिक प्रतिशोध करार दिया और कहा कि इस तानाशाही कदम के गंभीर परिणाम होंगे। आजाद ने सरकार को उच्चतम न्यायालय के मई 2010 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि केन्द्र सरकार को सत्ता बदलने के साथ मनमाने ढंग से राज्यपालों को हटाने की हिदायत नहीं है। उन्होंने कहा कि राजग सरकार अपने चुनावी वादों को पूरा करने के बजाय राजनीतिक प्रतिशोध में रमकर देश का ध्यान बंटाने का प्रयास कर रही है। आजाद ने इस तरह के कदम को लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक औचित्य के खिलाफ करार दिया है। उधर सपा के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने राज्यपालों को हटाने के बारे में आरोप लगाया कि केंद्र राज्यों में आरएसएस और भाजपा नेताओं को राज्यपाल बनाकर देश का भगवाकरण करने का प्रयास कर रही है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है। जबकि भाजपा नेता सुशील मोदी का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले और पूर्व के उदाहरणों के मद्देनजर राजग सरकार को वरीयता के आधार पर राज्यपालों के इस्तीफे लेने चाहिए।
18June-2014

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें