सोमवार, 2 दिसंबर 2013

किसान राजनीति से गायब हुई गन्ने की मिठास!

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कै्रशर उद्योग के साथ कोल्हू भी संकट में
ओ.पी.पाल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने के बकाया भुगतान और और सरकार के साथ गतिरोध के कारण चीनी मिलों में पराई शुरू न होने के कारण गन्ना किसानों का आंदोलन बादस्तूर जारी है, जिसमें किसानों की राजनीति करने राजनीतिक दलों ने गन्ना किसानों के आंदोलन का समर्थन करते हुए यूपी की सपा सरकार चौतरफा घेरने की रणनीति तैयार कर ली है। इस गन्ने की राजनीति और सरकार की नीतियों के कारण गन्ने की मिठास गायब होती नजर आ रही है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि यूपी के अन्य क्षेत्रों में भी चीनी मिलों में पेराई सत्र अभी तक शुरू नहीं हो सका है। किसानों के प्रति दूरदर्शिता की कमी और सरकार की गलत नीतियों के कारण उत्तर प्रदेश का चीनी उद्योग तो बर्बादी के कगार पर है, वहीं गन्ना किसाना भी बेमौत इस राजनीति के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। यूपी सरकार ने भले ही चीनी मिल मालिकों को पेराई सत्र चार दिसंबर तक चलाने का अल्टीमेटम दिया हो, लेकिन गन्ना व चीनी की इस समस्या ने करोड़ों किसानों और इस उद्योग से जुड़े लाखों कामगारों की रोजी रोटी पर भी संकट पैदा कर दिया है। गन्ना किसानों के बकाया भुगतान न होने और चीनी मिलों का पेराई सत्र शुरू न होने के कारण किसानों के सामने गेंहू की बुआई को भी प्रभावित कर दिया है। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान और यहां की अर्थव्यवस्था को गन्ने और चीनी पर आये संकट ने संकट के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। इसका कारण यह भी है कि चीनी उद्योग की स्थिति का आकलन करें तो पिछले दो वर्षों में गन्ने के दाम अस्सी रुपये कुंतल बढेÞ हैं। इसके आधार पर चीनी के दाम आठ रुपये प्रतिकिलो बढ़ने चाहिएं थे। इसके उलट चीनी के दाम सात रुपये प्रतिकिलो कम हुए हैं। भाकियू प्रवक्ता राकेश टिकैत का कहना है कि चीनी मिल प्रबंधन के इंकार के बाद गन्ने का मामला अब जनता की अदालत में जा चुका है, जिसका फैसला अब जनता ही करेगी। किसानों के साथ यह मामला सभी कामगारों, व्यापारियों और दूसरे लोगों के रोजगार से जुड़ा है। उधर बीएम सिंह कोर्ट गए जरूर हैं, लेकिन अभी तो सरकार पिछले बकाया को लेकर हाईकोर्ट के आदेश का पालन भी नहीं करा पाई है। गन्ने की समस्या को लेकर सरकार भी फंसी हुई है वहीं भारतीय किसान यूनियन के साथ भाजपा तथा रालोद समेत तमाम राजनीतिक दल भी इस मुद्दे को लेकर अपने सियासी हमलों की धार तेज कर रहे हैं। यही नहीं ममता के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने भी यूपी में गन्ना राजनीति की शुरूआत कर दी है।
दम तोड़ चुके हैं के्रशर उद्योग
एक समय था जब समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हर दस किमी पर औसतन दो क्रेशर होते थे और अकेले मुजफ्फरनगर जिले में आठ सौ से अधिक क्रेशर प्लांट थे, जो सल्फर का उत्पादन करते थे। चीनी लॉबी के दबाव में सरकार ने ऐसी नीतियां बनाई कि आज एक भी सल्फर प्लांट जीवित नहीं है। किसानों को गन्ना देने के लिए दूसरा विकल्प था कोल्हू। मुजफ्फरनगर तथा शामली जिलों में एक समय सात हजार तक कोल्हू सीजन भर गुड बनाने का काम करते थे, जिनकी संख्या भी घटकर करीब साढेÞ तीन हजार रह गई है। एक समय था जब समूचे मध्य और दक्षिण भारत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गुड की धाक थी। राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि राज्य तो यहां के गुड के दीवाने थे।
वेस्ट यूपी बंद 
इस समस्या को लेकर एक दिसंबर को रालोद और पांच दिसंबर को भाकियू के वेस्ट यूपी बंद के आव्हान पहले ही हो चुका है। इसके अलावा तमाम चीनी मिलों और जिला मुख्यालयों पर चल रहे धरना प्रदर्शन बेकाबू होने की स्थिति में हैं। मुजफ्फरनगर जिला मुख्यालय जिला कलेक्ट्रेट परिसर में तो किसानों ने कोल्हू ही गाड़ दिया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के करीब सभी जिला मुख्यालयों के अलावा चीनी मिलों के बाहर गन्ना किसानों के धरने व प्रदर्शन लगातार जारी है और केंद्र सरकार के आव्हान पर भी यूपी सरकार व चीनी मिल मालिकों के बीच गतिरोध समाप्त नही हो सका है।
01Dec-2013

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