सोमवार, 18 अगस्त 2025

साक्षात्कार: सामाजिक जीवन को सकारात्मक राह देता है साहित्य: डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’

साहित्य संवर्धन के साथ लोक कला के क्षेत्र में भी बनाई बड़ी पहचान 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ 
जन्म तिथि: 24 अक्टूबर 1956 
जन्म स्थान: गांव निगाना, जिला रोहतक(हरियाणा) शिक्षा: इंटरमिडिएट, पीएचडी उपाधि 
संप्रत्ति: साहित्यकार, संगीतकार, गायक एवं समाजसेवी, जल आपूर्ति विभाग से सेवानिवृत्त। 
संपर्क: गांव निगाना, जिला रोहतक(हरियाणा), मोबा. 9992570491 
 BY---ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। इसलिए सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर लेखन के जरिए साहित्य साधना कर रहे साहित्यकार संस्कृति और परंपराओं और सभ्यता के प्रति समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लेखकों में डॉ.सत्यबीर सिंह ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने पद्य, दोहे, वर्णमाला, चौपाई, भजन, हरियाणवी भजन व बारह मास जैसी विधाओं में सामाजिक जीवन को सकारात्मक राह देने का प्रयास किया है। गद्य और पद्य दोनों प्रारुप को साहित्य संवर्धन का हिस्सा बनाकर उन्होंने हरियाणवी भाषा और संस्कृति को सर्वोपरि रखते हुए कला और संगीत की विधाओं में भी एक कलाकार व गायक और समाजसेवा की भाव के साथ सक्रीय होकर अपनी पहचान बनाई है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति के प्रति प्रेरित करने पर बल दिया है। 
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रियाणा के  साहित्कार डॉ.सत्यवीर सिंह ‘निराला’ का जन्म 24 अक्टूबर 1956 को रोहतक जिले के गाँव निगाना में एक सामान्य कृषक परिवार में बनारसी दास नम्बरदार व श्रीमती सरबती देवी के घर में हुआ। परिवार में पारिवारिक पृष्ठभूमि में कोई साहित्यिक या सांस्कतिक माहौल नहीं था, लेकिन उन्हें बचपन से ही भजन और गीत गाने का बहुत शौंक था। हालांकि होश संभालने के बाद मध्यम वर्ग के परिवार होने की वजह उनके जीवन में भी आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। दरअसल संगीत में गायन और साहित्य में गीत, भजन, रागनी लिखने में उनकी रुचि 1975-76 से ही हो गई थी। बचपन में अभिरुचि के कारण ही उन्होंने अल्पायु यानी 14 या 15 वर्ष की उम्र में ही लिखना शुरु कर दिया था। वक्त के साथ जब वह बड़े हुए तो उन्होंने अपनी पढाई के साथ में संगीत की शिक्षा ग्रहण करनी भी जारी रखी और जल्द ही वह बड़ी बड़ी स्टेजों पर बतौर गायक तथा हारमोनियम वादक के तौर पर कार्य करने लगा। समय के साथ ख्याति बढ़ती गई और उन्हें फिल्मों में नाटकों में गीत लिखने के लिए तथा बतौर संगीतकार के तौर पर कार्य करने के अवसर मिलते रहे, लेकिन कहीं न कहीं मन मे एक टीस बाकी थी कि उनकी रचनाएं किस प्रकार आने वाली पीढी को जागरुक करे। इसलिए उन्होंने साहित्य लेखन की तरफ अपने कदम बढ़ाने शुरु कर दिये। साहित्य सृजन करते हुए वह अब तक करीब 78 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। हालांकि दस पुस्तकें की प्रकाशित हो चुकी है और बाकि पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। कवि धर्म संसद में सद्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने शुभ आशीष देते हुए उन्हें साल 1990 में ‘निराला’ उपाधि से नवाजा गया। हालांकि घर परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए सरकारी नौकरी करने तथा साहित्य लेखन व संगीत के कार्य में सामंजस्य बैठाने में वास्तव मे उन्हें बेहद परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन हरियाणा सरकार के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिक, जल आपूर्ति विभाग से सेवानिवृत्ति के बाद खासतौर से साहित्यिक क्षेत्र की दृष्टि से उन्हें बड़ी राहत मिली। इसलिए अब वह लगातार दिन-रात साहित्य सृजन तथा साहित्यिक गतिविधियों में इतना व्यस्त रहने लगे और अब तक वह करीब 75 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं। दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है और बाकि पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। साहित्य और संगीत में पीएचडी की मानद उपाधि हासिल कर चुके डॉ.सत्यबीर सिंह, आमतौर पर उनके लेखन का फोकस हर विषय पर रहा है, लेकिन सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दो, आध्यात्म एवं जनजागृति पर आधारित रचनाओं पर ज्यादा कलम चलाई है। साहित्य सृजन के अलावा वह सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रीय हैं और निराला चैरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक निदेशक के रुप में वह महिला सशक्तिकरण की दिशा में अब तक 150 महिलाओं एवं लड़कियों को निशुल्क रुप से एडवांस बेसिक कंप्यूटर कोर्स (6 महीने) और बेसिक कंप्यूटर कोर्स (3महीने) करवाया जा चुके है। वहीं वृक्षारोपण, रक्तदान आदि गतिविधियों तथा धर्म प्रचार-प्रसार कार्यों में अहम वह लगातार अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
हरियाणवी भाषा को भी दी तरजीह 
डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने बताया कि उनका जन्म हरियाणा की माटी में हुआ है, यह स्वाभाविक रुप से उनका कर्तव्य भी है कि वह अपनी मां बोली हरियाणवी भाषा को आगे बढ़ाने के प्रयास करें। इसलिए साहित्यिक सफर के दौरान वह अब तक हरियाणवी भाषा में लगभग 250 से ज्यादा गीत, कविताएं लिख चुके हैं, जिसमें उनकी एक पुस्तक ‘टूटता तारा’ हरियाणा भाषा मे प्रकाशित हो चुकी है, जबकि हरियाणवी भाषा में ’प्यार बड़ा हथियार सै’ अभी प्रकाशनाधीन है। साहित्य के अलावा उन्होंने संस्कृति संवर्धन के लिए भी बतौर संगीतकार, गीतकार, गायक एवं अदाकार के रुप मे कई हरियाणवी फिल्मों, टेलीफल्मिों तथा नाटकों मे कार्य किया, जिनमे से मुख्यतः हरियाणवी फिल्म हरियाणवी फिल्म छोरयां तै कम छोरी होगी और क्यूँ भरग्या माँग पिया, हरियाणवी नाटक-भोलू चल्या स्कूल, हरियाणवी एलबम बोरला, भोले तेरे भक्त निराले, गुरु महिमा, काँवड़िया, लव हरियाणे का, हरियाणे पै खतरा, हाय पड़ोसन, बाबा मोहनदास के अलावा उन्होंने टेलीफिल्म उपहार, अहसास और उज्ज्वला तथा प्राईवेट एलबम ’तनै जग सुखी बणाया सै, बोरला, नीली छतरी आलै, तेरा रूप गजब का, प्यारी-प्यारी बेटियों, तने कर दिया इसा कमाल, हक पै डाका और कुर्बानी नै याद करो आदि में भी कार्य किया है। इसके अलावा उनके यू-टयूब चैनल ’निराला डिवोशनल’ पर बहुत से हरियाणवी गीत उपलब्ध है, जिनमें उन्होंने गीतकार, संगीतकार तथा गायक के साथ अदाकार के तौर पर कार्य किया है। । 
प्रकाशित पुस्तकें 
प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने अब तक आध्यात्म,सामाजिक,पारिवारिक,राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्या व समाधान पर आधारित हिंदी व हरियाणवी भाषा में 75 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं। इनमें गद्य में और पद्य प्रारुप में 50 पुस्तकें और गद्य में 25 पुस्तकें शामिल हैं। प्रमुख रुप से प्रकाशित पुस्तकों में आइना-ए-निराला, सत्य की ओर, दरकते-रिश्ते, अदालत, प्यार का पैगाम,घटता आँचल, टूटता तारा (हरियाणवी), संत बाबा मेहरशाह (ग्रंथावली) शामिल हैं। इनके अलावा उनकी प्रकाशित साझा संग्रह पुस्तकों में ‘पौत्र प्रभाविकरण’, ‘तनै कर दिया इसा कमाल’, ‘गुरु कृपा’, ‘संस्कारों की क्यारी’, ‘प्यारा नंद लाला’, ‘भारत माता की जय’, ‘मेघा पुष्प’, ‘कविता कौमुदी’ के अलावा प्रकाशनाधीन साझा संग्रह पुस्तक ‘एकता’, ‘बेरहम’ और ‘महिलाओं की प्रधानता और नेतृत्व’ शामिल हैं। वहीं उन्होंने धराधाम इंटरनेशनल गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) के पीठाधीश्वर सौहार्द शिरोमणि प्रो.डा. सौरभ पाण्डेय के जीवन दर्शन पर लिखित पुस्तक ‘सौहार्द शिखर’ के अलावा डा. मधुकांत बंसल द्वारा लिखी हिंदी पुस्तक 'रक्तशाला' का हरियाणवी पुस्तक ‘खून खजाना’ का अनुवाद किया।
पुरस्कार व सम्मान 
उनके साहित्य सवंर्धन में उत्कृष्ट योगदान के लिए हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी से ‘हरियाणवी भाषा के विकास की संभावनाए’ विषय पर प्रमाण पत्र से सम्मानित साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ को अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर सैकड़ो पुरस्कार एवं प्रशस्ति पत्रों से नवाजा जा चुका है। उनके प्रमुख रुप से राष्ट्रीय साहित्य रत्न सम्मान, राष्ट्रीय कबीर कोहिनूर सम्मान, 'बाल अधिकार साहित्य सम्मान, अटलश्री सम्मान, विधा भास्कर निराला सम्मान, कवि महेन्द्र सिंह नंबरदार स्मृति सम्मान, मिसरी-जुगलाल स्मृति साहित्य श्री सम्मान, निर्मला स्मृति हरियाणा गौरव साहित्य सम्मान, समाज सेवा सम्मान, प्रकृति गौरव सम्मान, संस्कृति प्रेमी सम्मान, सनातन धर्म और साहित्य सम्मान शामिल हैं। इसके अलावा उन्हें लाइफ टाइम एचीवमेंट पुरस्कार के साथ ही नेपाल के काठमांडू और लुंबनी में अंतरराष्ट्रीय भारत-नेपाल मैत्री सम्मान से भी अलंकृत किया जा चुका है। 
ये भी रही उपलब्धियां 
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने साहित्य साधना के साथ संगीत के क्षेत्र में गायन, वादन, गीतकार, म्यूजिक कंपोजर एवं अभिनय के माध्यम से संस्कृति संवर्धन में भी अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने भोजपुरी फिल्म माँ सी भौजाई, हरियाणवी फिल्म छोरयां तै कम छोरी होगी और क्यूँ भरग्या माँग पिया, हिंदी धारावाहिक जमाना दौड़ता है, टेलीफिल्म उपहार, अहसास, भोलू चला स्कूल और उज्ज्वला के अलावा हरियाणवी एलबम बोरला, भोले तेरे भक्त निराले, गुरु महिमा, काँवड़िया, लव हरियाणे का, हरियाणे पै खतरा, हाय पड़ोसन, बाबा मोहनदास के साथ प्राइवेट एलबम तेरा रूप गजब का, प्यारी-प्यारी बेटियों, तने कर दिया इसा कमाल, हक पै डाका और कुर्बानी नै याद करो आदि में भी कार्य किया है। 
साहित्य की जटिल व रोचक हुई स्थिति 
डॉ.सत्यबीर सिंह ‘निराला’ ने आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को जटिल,लेकिन अत्यंत रोचक करार देते हुए कहा कि इस तकनीकी, सोशल मीडिया और डिजिटल माध्यमों के विस्तार ने साहित्य की प्रकृति, पहुंच और अभिव्यक्ति के तरीकों को पूरी तरह से बदल दिया है। पहले साहित्य मुख्यतः पुस्तकों, पत्रिकाओं और अखबारों तक सीमित था, लेकिन अब ब्लाग्स, ई-बुक्स, ऑडियोबुक्स, पॉस्टकास्ट और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य का प्रसार हो रहा है। साहित्य अब केवल शब्दों का खेल नहीं रहा, वह मल्टीमीडिया अनुभव बनता जा रहा है। साहित्य पर अब पाठक टिप्पणियों, प्रतिक्रियाओं और विमर्श के माध्यम से लेखक से संवाद कर सकते हैं। इससे साहित्य अधिक जीवंत और सामाजिक रुप से उत्तरदायी बना है। यही कारण है कि विशेषकर उपन्यास, कविताएं, नाटक, आलोचना आदि जैसे साहित्य के पारंपरिक पाठक निश्चित रुप से कम हो रहे हैं। अब लोग बदलती जीवनशैली के कारण लंबे समय तक किसी गहरी रचना को पढ़ने की बजाए इंस्टाग्राम रील्स, यूटयूब र्शाटस और टवीट्स में ज्यादा समय बिता रहे हैं, जिसका समाज में संवेदनशीलता की कमी के कारण सामाजिक तानाबाना टूटता जा रहा है और युवा पीढ़ी अपनी साहित्य, संस्कृति और परंपराओं से दूर होकर पाश्चत्य संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। इसलिए युवाओं को साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना आज के समय की मांग है, क्योंकि साहित्य केवल शब्दों का संग्र्रह नहीं है, बल्कि संवदेनाओं, सोच, भाषा, संस्कृति और चरित्र निमार्ण का साधन है। वहीं साहित्यकारों को भी अपनी रचनाओं और लेखों को रोचक व प्रासंगिक बनाने के लिए विज्ञान, राजनीति, समाजशास्त्र के साथ साहित्य का संवाद स्थापित करना होगा। 
18Aug-2025

रविवार, 10 अगस्त 2025

चौपाल: समाज को संस्कृति से जोड़ने में लोक कला का अहम योगदान: केलापति राहीवाल

अभिनय के साथ गायन शैली में लेड़ी लखमीचंद के नाम से बनी पहचान 
               व्यक्तिगत परिचय 
नाम: केलापति राहिवाल (हरियाणवी कलाकार ) 
जन्मतिथि: 1 फरवरी 1962 
जन्म स्थान: सरसौद, जिला हिसार(हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (हिंदी), डीएड, प्रभाकर, पीआरईपी (एन.एम.) 
संप्रत्ति: सेवानिवृत्त शिक्षक, रागनी गायक, अभिनय, 
संपर्क: आजाद नगर, राजगढ रोड, गली नं.-1, हिसार(हरियाणा), मोबा.9896254803 
By- ओ.पी. पाल 
रियाणवी लेखक, कलाकार अपनी अलग अलग विधाओं में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कलाओं के हुनर बिखेरकर हरियाणवी संस्कृति को पहचान देते आ रहे हैं। ऐसी ही हरियाणवी कलाकार ने अपने हिंदी और हरियाणवी भाषा में गीतों, कविताओं और भजनों का लेखन करने के साथ अपनी गायन कला और अभिनय के माध्यम से बड़ी पहचान बनाई है। हरियाणा में उनकी गायन शैली की तुलना सूर्य कवि दादा लखमीचंद से की जा रही है। इसलिए उन्हें लेडी लखमीचंद के नाम से पहचाना जा रहा है। एक शिक्षका, समाजसेवी, अभिनेत्री और गायक कलाकार केलापति राहीवाल ने हरिभूमि संवाददाता से अपनी लोक कला के सफर को लेकर कई ऐसे पहलुओं को सामने रखा, जिसमें लोक कला का समाज को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के प्रति नई दिशा देने में अहम योगदान है। 
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रियाणवी लोक कलाकार केलापति राहीवाल का जन्म 01 फरवरी 1962 को हिसार जिले के गांव सरसौद में एक छोटे से किसान परिवार में फकर सिंह व श्रीमती रूकमण देवी के यहां हुआ। उनके पिता खेती-बाड़ी व पशुपालन का काम करते थे। उनके माता -पिता दोनों ही अथक जी-तोड़ मेहनत करने वाले थे। उनकी माता को संगीत व नृत्य के प्रति बहुत लगाव था। हमेशा वह सुबह जब सुबह हाथ वाली चक्की से आटा पीसती थी, तो सुंदर गीत और भजन गाती रहती थी। वहीं उस जमाने में गांवों में सभी मौहल्ले और आस पड़ोस की औरतें कुंए से पानी भरने के लिए जाती थी, तब भी उनकी माता गीत गाते हुए चलती थी और वह भी उनके पीछे कुएं पर पहुंच जाती थी, जिसका असर पड़ना स्वाभाविक था। मसलन उन्हें गीत संगीत की कला मां से विरासत में मिली, तो इसी कारण बचपन से ही उन्हें भी कला संगीत में अभिरुचि पैदा हुई और बचपन से ही उनकी कविता, गीत और भजन सुनने में अभिरुचि रही। यही कारण था कि उसने स्कूली शिक्षा के दौरान चौथी कक्षा से ही शनिवार की होने वाली बालसभा में कविता, गीत और भजन सुनाना भी शुरु कर दिया था। पढ़ाई में भी वह अव्वल रही हैं जिसके कारण शिक्षकगणों का आशीर्वाद मिला और वह भी अपने मन में अध्यापकों के प्रति बहुत मान सम्मान रखती थी। उनके परिवारिक पृष्ठभूमि में उस समय माली हालत ठीक नहीं थी और पिता ऐसे संकट और आर्थिक तंगी के बावजूद बच्चों की पढ़ाई लिखाई में बहुत ध्यान दे रहे थे, इसलिए उनकी पढ़ाई में कभी कोई बाधा नहीं आई। पिता ने दो बेटियों व एक भाई को शिक्षित करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी और तीनो भाई बहन पढ़ लिखकर सरकारी नौकरी पाने में सफल रहे और परिवार व रहन सहन में सुधार भी हुआ। बकौल केलापति, उन्होंने एमए(हिंदी) स्नातकोत्तर की उच्च शिक्षा हासिल करने के साथ डीएड, प्रभाकर और स्नातकोत्तर शिक्षा कार्यक्रम(पीआरईपी-एनएम) भी किया है। इसके बाद उनकी छह अप्रैल 1988 को हरयिाणा शिक्षा विभाग में एक शिक्षक के रुप में नौकरी शुरु की और करीब 32 साल तक अध्यापन कार्य करने के बाद 31 जनवरी 2020 में सेवानिवृत्त हुई। शिक्षिका की नौकरी करने के दौरान उन्होंने जहां अध्यापन प्रशिक्षण में मास्टर ट्रेनिंग जैसे शिक्षण कार्य की हरेक गतिविधि में बढ़चढ़कर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया, वहीं उन्होंने जनहित और समाजहित के कार्यक्रमों पोलियो अभियान, जनगणना जैसे अभियानों में भी अपना योगदान दिया है। शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने लोक कला के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के साथ सक्रीय होकर अपनी भूमिका को आगे बढ़ाने का सिलसिला जारी रखा हुआ है। दूसरी ओर परिवार में केलापति की जिम्मेदारी बेहद अहम रही, क्योंकि वह अविवाहित हैं और अपने परिवार के साथ ही रहती हैं। उनका परिवार वर्तमान में आजाद नगर राजगढ रोड हिसार में रहता है। शहर में सबकुछ करने के बाद अभी उनके ऊपर अपने भतीजे व भतीजी को उच्च शिक्षा दिलाना, उनकी शादी करना, गांव में मकान बनाने की जिम्मेदारी भी है। उनकी कला का फोकस सामाजिक मुद्दों पर है और न्यायोचित दृष्टिकोण से तर्क संगत बात करने का रहा है। उनके कला क्षेत्र में भी रागनी, गीत या भजन के अलावा अभिनय के किरदार में भी अन्याय के खिलाफ समाजिक सरोकार के मुद्दे सर्वोपरि रहे हैं। उनका कला के माध्यम से समाज को सकारात्मक संदेश देने का प्रयास रहा है, ताकि समाज अपनी सभ्यता, परांपराओं, रीति रिवाज और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहे। वह सामाजिक कार्यो खासतौर से नारी विमर्श और महिलाओं के हित में भी सक्रीय रहती हैं और महिला संगठन में भी बहुत काम किया है। उनका कहना है कि जीवन में उतार चढ़ाव का दौर हर इंसान के सामने आता है, लेकिन जहां तक उनकी कला के क्षेत्र में अभिनय में कोई खास परेशानी नहीं हुई और इस क्षेत्र से जुड़े लोगों से प्रोत्साहन व सम्मान मिलता रहा है। 
अभिनय के रुप में भी छोड़ी छाप
हरियाणवी महिला लोक कलाकार केलापति राहीवाल ने स्कूल और कालेज में शैक्षिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक मंचों पर भी गीत और भाषण तथा अभिनय के रुप में अपनी कला का प्रदर्शन किया, उन्होंने अधिकांश फिल्मों व वेबसीरीज में दादी का किरदार निभाया है। उनकी विभिन्न विधाओं में कला को हरियाणवी फिल्मों और वेबसीरीज में भी बेहद पसंद किया जाता है। उन्होंने हरियाणवी फिल्म घूंघट, हरियाणा, हरियाणा की बेटी, मां, हरियाणा केसरी, मुआवजा, काला कौन है जैसी फिल्मों में अभिनय के साथ गायन का किरदार भी निभाया। खुशमिजाज मजाकिया स्वाभाव की कलाकार होने के नाते शूटिंग और सैट पर पूरी टीम उन्हें भरपूर मान सम्मान देती है। वहीं उनके यूट्यूब चैनल पर खुद के लिखे और गाये गये गीत और भजन भी प्रचलित हैं, जिन्हें खूब पसंद किया जा रहा है। 
पुरस्कार व सम्मान 
महिला लोक कलाकार केलापति को हाइफा की प्रतियोगिताओं के गीत कॉम्पिटिशन में दो बार प्रथम, एक बार द्वितीय और हाल ही सात्वनां पुरस्कार हासिल किया है। फिल्म अभिनेता और निर्देशक यशपाल शर्मा ने उनकी गायन शैली से प्रभावित होकर उन्हें बहुत मान सम्मान के साथ लेडी लख्मीचंद के नाम दिया है। केलापति को अध्यापन कार्य के दौरान भी राज्य, जिला और खंड स्तर पर अनेक पुरस्कार व सम्मान मिले हैं। 
आधुनिक युग में चुनौती 
आज के आधुनिक युग में कला और संस्कृति को लेकर लोक कलाकार केलापति राहीवाल का कहना है कि आजकल पैसा प्रधान हो गया है और इंस्ट्रा व फेसबुक आदि सोशल मिडिया पर भौंडा अश्लील प्रदर्शन शर्मसार होने को मजबूर कर रहा है, जिस पर प्रतिबंध होना जरुरी है। वहीं आजकल की युवा पीढ़ी को हरियाणवी संस्कृति के प्रति प्रोत्साहन देने की जरूरत है, क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव हमारी भारतीय संस्कृति को दूषित कर रहा है। युवा पीढ़ी को सरकारी स्तर और स्कूल व कालेज में सांस्कृतिक रुप से प्रोत्साहन देने की जरूरत है, ताकि उनके भविष्य को सुधारकर उन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता और परंपरा से जोड़ा जा सके। 
09Aug-2025

सोमवार, 4 अगस्त 2025

साक्षात्कार: साहित्य में यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करना आवश्यक: डॉ. सुरेश वशिष्ठ

साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के साथ एक रंगकर्मी के रुप में भी बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ सुरेश वशिष्ठ 
जन्मतिथि: 14 मार्च 1956 
जन्म स्थान: बरवाला गाँव, दिल्ली 
शिक्षा: एम.ए (हिन्दी) बी.एड. पी-एच.डी. 
संप्रत्ति: साहित्यकार और रंगकर्मी, कथाकार, नाटककार और उपन्यासकार सेवानिवृत्त प्राचार्य 
संपर्क: एफ. 189, फेस-2, न्यू पालम विहार, सैक्टर- 112, गुरुग्राम (हरियाणा), ई-मेल: sureshvashisht@gmail.com मोबा.: 9654404416
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BY- ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा के लेखकों ने विभिन्न विधाओं में साहित्य संवर्धन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है। ऐसे ही साहित्यकारों में शुमार डॉ. सुरेश वशिष्ठ अपनी लेखनी के जरिए साहित्यिक और सांस्कृतिक साधना करने में जुटे हैं। उन्होंने एक रंगकर्मी, नाटककार, कथाकार और उन्यासकार के अलावा रंगकर्मी के रुप में सामाजिक सरोकारों के मुददों को उजागर करते हुए बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं और अतीत से रुबरु कराने का प्रयास किया है। शिक्षाविद् और प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सुरेश वशिष्ठ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें कोई भी लेखक और कलाकार यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करके अपनी संस्कृति से विमुख होती युवा पीढ़ी को प्रेरित कर सकता है। 
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रिष्ठ साहित्यकार एवं लेखक डॉ. सुरेश वशिष्ठ का जन्म 14 मार्च 1956 को दिल्ली के बरवाला गाँव में पं. रघुवीर सिंह शर्मा व इन्द्रावती के घर में हुआ। उनके परिवार की पृष्ठभूमि में पीढ़ियों से धार्मिक और संस्कृति स्थापन की रही है। 1690 के दशक में मेरे पूर्वज श्री श्री 1008 श्री कृपाराम जी महाराज आमेर राज्य (राजस्थान) में स्थित (अब जयपुर) बालानंद मठ के मठाधीश रहे। 1692 में श्री श्री 1008 श्री बालानंद जी महाराज के संग कृपाराम जी वैष्णवों के चतुर्थ संप्रदाय के विशाल धार्मिक लश्कर और आमेर के राजकुमार जयसिंह के साथ औरंगजेब से अपनी धार्मिक शर्ते मनवाने आए और नजफगढ़ के निर्दयी सुलतान नजफ खां का संहार भी किया। उसके बाद पीढ़ियों की लम्बी परम्परा में मेरे पूर्वज ईश्वरीय भक्ति का निर्वहन और धार्मिक प्रवचन करते रहे। साल 1692 में ही दिल्ली के घने जंगल में प्रवास किया और वहीं आगे चलकर बरवाला गाँव बस गया। वशिष्ठ के पूर्वज ठाकुरद्वारे की पूजा-अर्चना में पुजारी रहे और वाचन भी करते थे। उनके पिताजी श्री पं.रघुवीर सिंह शर्मा दिल्ली के शिक्षा विभाग में शिक्षक, मुख्य शिक्षक और सहायक शिक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। वहीं धार्मिक पुस्तकों का लेखन भी करते रहे। वैष्णव धर्म एवं दर्शन, वैदिक धर्म एवं दर्शन, पूर्व पुरुष और सृष्टि विस्तार जैसी असंख्य पुस्तकों का लेखन उन्होंने किया। परिवार के ऐसे परिवेश ने उनका प्रेरित होना स्वाभाविक था, जिसके चलते उन्हं लिखने की प्रेरणा मिलती रही है। बकौल डॉ. सुरेश वशिष्ठ, उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव बरवाला में ही हुई। जबकि उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज महाविद्यालय से पूरी की। बाद में उन्होंने जामिया विश्वविद्यालयनई दिल्ली से 'हिन्दी नाटक और रंगमंच: बर्टोल्ट ब्रेख्त का प्रभाव' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की। उन्होंने दिल्ली सरकार के अधीनस्थ विद्यालयों में प्रवक्ता (हिन्दी) के पद पर अनेक वर्षों तक कार्य किया। इसके बाद साल 2006 में 'संघ लोक सेवा आयोग, दिल्ली' द्वारा उनकी प्रधानाचार्य पर नियुक्ति हुई और इसी पद से वे 31 मार्च-2018 को सेवानिवृत्त हुए। साहित्यिक अभिरुचि के चलते उन्होंने शुरू में व्रत कथाओं को लिखना शुरु किया। जब वे नौवीं कक्षा में थे, तो हरियाणा के सोनीपत के एक गाँव में उनके मामा उनके पिताजी को हरियाणा के किसी गाँव में हुई घटना सुना रहे थे, तो उन्होंने भी उसे सुना और अगले दिन उसे अपनी कलम से लिख डाला। इस पर उनके एक सहपाठी ने शिक्षक से उसके नोवल लिखने की शिकायत की। इस पर शिक्षक ने आँखें तरेरी और जो लिखा था, उसे दिखाने को कहा। उनके मन में था कि उसे डाँट पड़ेगी, लेकिन शिक्षक ने जब उनकी लिखी कहानी को पढ़ा और पूछा कि यह सब लिखने का ऑइडिया कैसे आया, बताने पर मुझे शाबाशी मिली और वह उनकी पहली कहानी थी। लेखन और साहित्यिक सफर में परेशानी को लेकर डा. वशिष्ठ का कहना है कि लिखना दिलचस्प भी है और दुखदाई भी। लेकिन यथार्थ में जो हो रहा है, उसे लेखन का विषय बनाया जाना चाहिए। उसके बाद उन्हें कथा-कहानी और शेरो-शायरी और फिर अभिनय का शौक चर्राया। उन दिनों, हरियाणा और दिल्ली के देहात में 'साँग' बहुत लोकप्रिय नाट्य था और उन्हें भी साँग में वर्णित किस्से बहुत दिलचस्प लगते थे। रामलीला और कृष्णलीला की मंडलियाँ भी दशहरा व जन्माष्टमी के आस-पास गाँव में होती थी, जिन्हें देखकर और कथा सुनकर उनका भी मन अभिनय करने को लुभाता था। उनका यह शौंक भी कक्षा नौ में पूरा हुआ, जब स्कूल के एक उत्सव में 'श्रवण कुमार' नामक नाटक में पहली बार अभिनय किया। उनके अभिनय को खूब सराहा गया। फिर उन्होंने कॉलेज में अभिनय के साथ नाट्य लेखन की शुरुआत की और उनका पहला और प्रसिद्ध नाटक 'पर्दा उठने दो!' इतना प्रसिद्ध हुआ कि उन दिनों उसके पूरे भारत में पाँच हजार से ज्यादा शो हुए। 'पर्दा उठने दो!' को नजीमाबाद दूरदर्शन, 'दृष्टि' बिजनौर, 'अभिनय' बीकानेर, 'इप्टा' जयपुर, 'राजस्थान संगीत अकादमी' जयपुर, 'दुर्गा नाट्य मंच' जम्मू, 'छवि नाट्य मंच' और 'शाकुतम नाटय मंच' दिल्ली, 'आर.आर. बाबा गर्ल्स कॉलेज' बटाला इत्यादि असंख्य संस्थाओं ने इस नाटक के बहुत से प्रदर्शन मंचों पर किए। उन्हीं दिनों उन्होंने एक हरियाणवी नाटक 'कातिल कौन' भी लिखा गया था, जो जाट कॉलेज सोनीपत में मनफूल सिंह ढांगी के निर्देशन में कई जगहों पर उसे खेला गया। वहीं नुक्कड़ों और चौराहों पर भी उनके लिखे नाटकों को लोगों ने खूब पसंद किया गया। उनके लिखे अन्य नाटकों में अभी हाल ही में 'एक अजेय योद्घा' और 'रंग बदलेगा जरूर!', सुनो दास्तान-1919 इत्यादि नाटकों का मंचन हो रहा है। उनकी कहानियों और लघु कथाओं को भी लोग बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते हैं और प्रतिक्रिया भी देते रहे हैं। उन्होंने गजलें और कविताएँ बहुत कम लिखी, जबकि लम्बी कहानियाँ, लघु कहानियाँ, यात्रा-वृतांत, बाल उपन्यास और नाटक ही ज्यादा लिखे हैं। उनके लेखन के फोकस में यथार्थ को दिखाना रहा है, क्योंकि रचनाकार की नजर यथार्थ पर जरूर रहनी चाहिए। हालांकि प्रेम प्रसंग और युवा धड़कने भी कुछेक कहानियों में उकेरे गए हैं। वहीं लोक कहानियों और बाल कथाओं में नैतिक ज्ञान भी सर्वोपरि रहा है। हरियाणवी उनकी मात्रभाषा है लेकिन वह अपना लेखन हिन्दी में ही करते हैं, हालांकि उन्होंने बहुत पहले कुछेक हरियाणवी लोककथाएँ लिखी थी, जिनमें से कुछ लोककथाओं को लोरांद विश्वविद्यालय, बुद्धापेस्त (हंगरी) में भारोपीय भाषा परिवार में शामिल किया गया था, जहां उनके एक मित्र इम्रे बंगा ने भी इसकी पुष्टि की, जहां हिन्दी की एकमात्र प्रोफेसर डॉ. मारिया और उस वक्त प्रसिद्ध साहित्यकार असगर वजाहत भी हंगरी में ही पढ़ाया करते थे। उनकी कहानियां, लघुकथाएं, हिंदी के लोकनाट्य और कला रंग और लोक (आलोचना) जैसे आलेख और साक्षात्कार देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। 
शोध कार्य 
लेखक डॉ. सुरेश वशिष्ठ के साहित्य पर पीएचडी और एमफिल की उपाधि के लिए शोधकार्य भी हुए। इनमें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में नाटककार: सुरेश वशिष्ठ विषय पर अश्वनी कुमार ने शोध कार्य पूरा किया, तो वहीं मुदरै कामराज विश्वविद्यालय, मुदरै में संदीप कुमार ने सुरेश वशिष्ठ के साहित्य में नारी और मनीषा ने सुरेश वशिष्ठ की कहानियों में लोक-संस्कृति पर शोध कार्य किया है। डा. सुरेश वशिष्ठ कला एवं साहित्य की अखिल भारतीय संस्था 'संस्कार भारती' में पिछले पच्चीस वर्षों से हरियाणा में, प्रांत उपाध्यक्ष, प्रांत नाट्य प्रमुख, प्रांत साहित्य प्रमुख जैसे विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते रहे हैं। वहीं वे तीन वर्ष तक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार) में सदस्य रहे। इसके अलावा कला, रंग-कर्म और लेखन से संबंधित अनेक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। 
प्रकाशित पुस्तकें 
वरिष्ठ साहित्यकार डा. सुरेश वरिष्ठ ने करीब तीन दर्जन नाटक, करीब पाँच सौ कहानियाँ, दो दर्जन बाल पुस्तकें और पाँच उपन्यास लिखे हैं। उनके कहानी संग्रहो में प्रमुख रुप से खुरदरी जमीन, चली पिया के देश, सिपाही की रस्म, घेरती दीवारें, बहती धारा, लोकताल, श्रंगारण, नीर बहे, ताल मधुरम्, झीनी-झीनी रोशनी(भाग-एक), छलकते कलश(भाग-दो), भुला नहीं सका हूँ (खंड-एक) कहानियाँ, रक्तचरित्र (खंड-दो) कहानियाँ, अधूरी दास्तान(खंड-तीन) कहानियाँ, सफर कभी रुका नहीं (खंड-चार) कहानियाँ, निर्झर नीर (खंड-पांच) कहानिया, सरवर ताल (खंड-छह) कहानियाँ, लघु कहानियाँ-मुझे बोलने दो! अंधा संगीतज्ञ, रक्तबीज व हिन्दुत्व स्वाह!, लघुकथाएँ-लाल लकीरें, अंधेरे गलियारे, काले मेघ, सूखे डबरा व रंगे हुए सियार, बाल लघुकथाएं-आँगन में खिले फूल के अलावा तीन खंडों में आधी डगर सुर्खियों में हैं। इसके उनके उपन्यासों में नीलगगन का विज्ञान (बाल उपन्यास), नन्ही चिरैया (बाल उपन्यास), कलिकृत्त (बाल उपन्यास), रुद्रदेव के कारनामे (बाल उपन्यास) के अलावा लावा व मेव दंश शामिल हैं। उनके नाटक की 16 पुस्तकों में पर्दा उठने दो, रेत के ढेर पर, सैलाबगंज का नुक्कड, खुदा का घर, हुकूमत उनकी, बेला की पुकार,गलत फैसला, अंधे शहर में, सुनो दास्तान-1919, एक अजेय यौद्धा, नी हिन्द तेरी शान बदले, रंग बदलेगा जरूर!, नाटक संग्रह-अष्टरंग व नाट्य द्ववम् के अलावा लघुनाटक संग्रह बहते दरिया के साथ लघु नाटक और लघुकथाएँ बेरंग चेहरे शामिल हैं। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह में पसर गई आवाज, तलाश जारी है, अंश अभी शेष है, रसधार, बरगद की छाँव और हुई सुहानी भोर है चर्चा में हैं। उनकी तीन पुस्तकें आलोचनात्मक भी प्रकाशित है, जिनमें हिन्दी नाटक और रंगमंच, हिन्दी के लोकनाट्य तथा कला रंग और लोक: दिशा एवं दृष्टि शामिल हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
वरिष्ठ कहानीकार और लेखक डा. सुरेश वशिष्ठ को साहित्य संवर्धन और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए अनेक पुरस्कार एवं सम्मानों से अलंकृत किया गया है। प्रमुख पुरस्कारों में हिन्दी साहित्यकार गौरव सम्मान, साहित्यकार सम्मान, साहित्य आराधना सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, सारस्वत सम्मान, साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन,प्रस्तुत आलेख सम्मान, सामाजिक गौरव पुरूस्कार, विमल शुभ स्मृति साहित्य रत्न सम्मान, शब्द शक्ति सम्मान, प्रतिष्ठा महोत्सव एवं विश्व-शान्ति सम्मान, डा.राधाकृष्णन सहस्त्राब्दि राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान, शिक्षक गौरव सम्मान, गौरक्षक एवं कला सम्मान के अलावा उनकी ‘पुस्तक पर्दा उठने दो’ को भी पुरस्कृत किया जा चुका है। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ साहित्यकार डा. सुरेश वशिष्ठ का आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहना है कि साहित्य कभी मर नहीं सकता और बदलते परिवेश में सोशल मीडिया और टीवी ने पुस्तकों से ध्यान हटाया है, लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया पर आज भी साहित्य खूब पढ़ा जा रहा है और पाठक प्रतिक्रिया भी खूब दे रहे हैं। आज इंटरनेट या सोशल साइट पर साहित्य का पाठक पहले से ज्यादा सक्रिय दिखलाई पड़ता है। उनका मानना है कि पुस्तकें पढ़ना कम हो सकता है, लेकिन साहित्य पढ़ा जाना आज भी जारी है। विगत की घटी घटनाओं को जानने और यथार्थ में हो रही घटनाओं पर से उसकी पैनी नजरें हटी नहीं हैं। जहाँ तक पुस्तकें पढ़ने के कम होने का सवाल है, उसके लिए बाजारीकरण और सरकारें दोषी हैं। साहित्य के प्रति बुजुर्ग हों या युवा वर्ग, वह आज भी उतना ही लालायित दिखता है, जितना पहले था। खासकर युवा पीढ़ी सटीक शब्दावली में वर्णित अच्छा साहित्य पढ़ने की इच्छुक रहती है। तब, कोरी कल्पना या ख्यालों की उड़ान से अलग यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करना लेखक का दायित्व भी है। पाठकों को जागरुक और साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए साहित्यकारों व लेखकों का दायित्व है कि वह अच्छा और रुचिकर लिखे, जिसमें यथार्थ नजर आए, क्योंकि पाठक तो सच जानना ही चाहता है। आज देखा जा रहा है कि चौतरफा कुकुरमुत्तों की तरह लेखक उग आए हैं,या उगाए जा रहे हैं। लिखने की सामर्थ्य जिनमें नहीं वे भी महान लेखक होने की ढ़ोंढी पीट रहे हैं। उनकी नजर में लेखक जन्मजात होते हैं, उन्हें जबरन इजाद नहीं किया जा सकता। लेखक बनाए जाते रहेंगे तो लेखन में गिरावट आना जारी रहेगा। ऐसा नहीं होना चाहिए। 
04Aug-2025

सोमवार, 21 जुलाई 2025

साक्षात्कार: साहित्य संवर्धन में नैतिकता और आध्यात्मिकता भी अहम: ओपी चौहान

हास्य-व्यंग्य से हरियाणवी जीवन, संस्कृति और सामाजिक मुद्दों पर दी समाज को नई दिशा 
                     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: ओम प्रकाश चौहान 
जन्मतिथि: 6 मार्च, 1954 
जन्म स्थान: गांव मोठ करनैल, जिला हिसार (हरियाणा)
शिक्षा: एम.ए.(हिंदी), एम.फिल., प्रभाकर, संगीत भूषण 
सम्प्रति: सेवानित्त शिक्षक, कवि, रचनाकार, साहित्यकार, समाजसेवी 
संपर्क: दीप निवास, गुरुद्वारा कॉलोनी, गली नं. 5, रोहतक रोड़, जींद-126102 (हरियाणा), मो. नं. 9466552377 
By-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में लेखक एवं साहित्यकार विभिन्न विधाओं में सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर साहित्य संवर्धन करके समाज को सकारात्मक संदेश देते आ रहे हैं। ऐसे ही हिंदी एवं हरियाणवी भाषा के मूर्धन्य विद्वान एवं प्रबुद्ध साहित्यकार ओम प्रकाश चौहान ने विभिन्न विधाओं में साहित्य सृजन करते हुए समाज में बाल मनुहार से बुजुर्गो तक के मनो को छूते हुए हरियाणा के ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय-साहित्यिक-क्षितिज को अपने साहित्यिक सेवा से आलोकित किया है। गद्य और पद्य दोनों प्रारुपों मे उन्होंने काव्य के विविध रूपों यथा-यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी, हास्य-व्यंग्य, पुस्तक-समीक्षा, तथा रिपोर्ताज आदि साहित्यिक विधाओं पर लेखन में एक हास्य कलाकार और बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के रुप में पहचान बनाई है। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान वरिष्ठ एवं सुविख्यात साहित्यकार ओ.पी. चौहान ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर कई ऐसे अनुछुए पहलुओं को उजागर किया है, जिसमें सामाजिक सरोकारों के मुद्दों के साथ नैतिकता और आध्यात्मिकता भी साहित्य संवर्धन में महत्वपूर्ण है, ताकि भारतीय संस्कृति को जीवंत रखा जा सके। 
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रियाणा के वरिष्ठ साहित्यकार एवं हास्य कवि ओम प्रकाश चौहान का जन्म 6 मार्च, 1954 को हिसार जिले के गांव मोठ करनैल में जुगलाल चौहान और श्रीमती मिसरी देवी के घर में हुआ था। आर्थिक दृष्टि से निर्धन होते हुए भी उनका पारिवारिक परिवेश सुसंस्कारी एवं संवेदनशील रहा। उनके माता-पिता धार्मिक प्रवृत्ति के सद्गृहस्थ थे, इसी का ही परिणाम है कि उदात्त मानवीय गुण आए, जो उन्हें साहित्य पढ़ने और रचने की अभिरुचि की ओर अग्रसर करते चले गए। दूसरी तरफ उनके पिता महाकवि सूरदास, संत कबीर दास, संत शिरोमणि रविदास आदि की वाणियाँ सुनते सुनाते थे, तो इसके प्रभाव के कारण बचपन में ही उन्हें लेखन करने की प्रेरणा मिलने लगी। राजपूत लखेरा समाज से संबंध रखने वाले ओम प्रकाश चौहान का बचपन भले ही निर्धनता भरे माहौल में गुजरा हो, लेकिन उनके पिता का अपने परिवार के प्रति समर्पण सदैव सुखद रहा है। जुलाना कस्वे में पले-बढ़े-पढ़े और प्रारंभिक शिक्षा राजकीय उच्च विद्यालय जुलाना मंडी जींद में हुई। उन्होंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद प्रभाकर और ओ.टी. की परीक्षा पास की। उसके बाद वह जींद में जुलाना के संस्कृत महाविद्यालय में प्रभाकर की कक्षा पढ़ाने लगा। इसी दौरान उन्होंने महाकवि सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास, जायसी आदि कवियों के काव्य का अध्ययन किया। इन सभी के श्रेष्ठ काव्यांशों से वह ऐसे प्रभावित होते चले गये कि उन्हें सभी काव्यांश कंठस्थ हो गए। हालाकिं तत्कालीन प्रभाकर का पाठ्यक्रम विशाल था, जिसमें मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह 'दिनकर, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, हरिवंशराय बच्चन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ आदि की शामिल कविताएँ विशेष प्रभाव डालने वाली थीं। उन्होंने सनातन धर्म उच्च विद्यालय जींद में हिंदी अध्यापक के पद पर करीब 12 वर्ष तक कार्य किया। इसके बाद उन्होंने पारिवारिक परिस्थितियों के कारण सरकारी सेवा में आने का निर्णय लिया और वह नवम्बर 1991 में सरकारी सेवा में आ गये। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने आरंभ में अनेक हरियाणवी भजन लिखे, जो जो विशेष स्तरीय न होने पर भी संख्या में अधिक थीं, कीर्तन के रूप में स्थानीय लोगों द्वारा गाई जाने लगी थीं। व्याकरण सम्मत परिमार्जित भाषा के अध्ययन के कारण मुझे हिन्दी लेखन अधिक रुचिकर लगने लगा और उन्होंने हिन्दी में अपनी प्रथम कहानी ‘दूसरा पत्र’ लिखी, जिसे पाठकों ने खूब सराहा। 
गद्य व पद्य में किया साहित्य सृजन 
बकौल ओपी चौहान, उन्होंने अपने साहित्य सृजन में गद्य और पद्य दोनों प्रारुप को समान स्थान दिया। गद्य विधा में उन्होंने निबंध, लघुकथाएं, कहानियां, यात्रा कृतांत और विनोद वार्त्ताएँ लिखीं, तो वहीं पद्य में कविता, गजल, दोहे, रागनियां और भजन लिखे हैं। साल 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद उनके भीतर अलग तरह की प्रेरणा समा गई थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने हिन्दी में देशभक्तिपूर्ण रचनाएं लिखना आरम्भ किया और यहीं से हिन्दी कविता लेखन में पर्दापण किया। उनकी साहित्यिक साधना में आत्मानंद की अनुभूति, कर्त्तव्यपरायणता का जज्बा, राष्ट्रीय चेतना और पूर्वजों द्वारा धर्मपरायणता की सिद्धि मूल में रही हैं। इसलिए वह निराशा के पलों में भी प्रफुल्लित रहते हुए अपनी कविताओं में रस, छंद, अलंकार, शब्दशक्ति, शब्दरीति, काव्यगुण आदि को सदैव महत्व देते रहे हैं। ओपी चौहान के साहित्यिक बोध के ‘विविध आयाम’ विषय पर बाबा मस्तनाथ यूनिवर्सिटी में पीएचडी की उपाधि के लिए शोध हो रहा है, वहीं हरियाणा बाल साहित्य को ओपी चौहान का योगदान विषय पर कुरुक्षेत्र विवि में एमफिल की जा चुकी है। पिछले 43 साल यानी 1981 से निरंतर जुडाव, शिक्षा, संस्कृति, समाज सुधार और युवाओं को दिशादान, नशामुक्ति व राष्ट्रीयता आदि विषयों पर वक्तव्य, संगीत रुपक और गीत आदि का निरंतर प्रसारण होता आ रहा है और उनकी कविताएं, आलेख और रचनाएं देश के प्रतिष्ठ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। हरियाणवी में लिखे उनके आध्यात्मिक एवं देशभक्ति गीतों की टी-सीरीज सहित विभिन्न कंपनियों से अनेक ऑडियो कैसेट्स प्रसारित हो चुकी हैं। ओम प्रकाश चौहान हिन्दी साहित्य प्रेरक संस्था जीन्द के पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी भाषा प्रचार-प्रसार मंच हरियाणा के अध्यक्ष और लोक-सेवा परिषद् जीन्द के वरिष्ठ उपाध्यक्ष तथा अखिल भारतीय साहित्य परिषद् जीन्द इकाई के उपाध्यक्ष रहे हैं। वहीं वे संस्कार भारती जीन्द इकाई के साहित्य विधा प्रमुख और अनेक साहित्यिक और सामाजिक संस्थाओं के आजीवन सदस्य भी है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
हिंदी व हरियाणवी साहित्यकार ओपी चौहान अभी तक तीन दर्जन पुस्तकें लिख चुके हैं, जिनमें प्रकाशित 15 पुस्तकों में हिंदी भाषा की कृतियों में कविता संग्रह-प्रथम प्रपात, अमृत प्याला जिन्दगी, प्रबन्ध काव्य-जिन्दगी, विनोद वार्ताएं-श्रीमती ने पत्र लिखा, बाल साहित्य में बाल गीत माला गर्वित, अर्पिता, हर्ष बाल गीत के अलावा नानी की कहानियां और बाल निबन्ध-वाटिका सुर्खियों में हैं। उनके हरियाणवी भाषा की रचनाओं में वीराख्यान प्रबन्ध काव्य-मेवाड़ का शेर: महाराणा प्रताप, भजन संग्रह-आराधना के गीत और गजल संग्रह-ऐसे मन बहलाया जाए पाठकों के बीच हैं। उन्होंने पाठ्यक्रम पुस्तक के रुप में पांच भागों में अमर संदेश भी लिखी है। इसके अलावा उनकी संपादित पुस्तक के रुप ज्ञान-गीतांजलि और सह संपादन की जयन्ती के आराधक भी शामिल है। जबकि हिंदी और हरियाणवी भाषा में उनकी डेढ़ दर्जन से ज्यादा विभिन्न विधाओं में लिखी गई पुस्तकें अप्रकाशित हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा साहित्य अभिनंदन योजना 2022 के पं. माधव प्रसाद मिश्र सम्मान से अलंकृत वरिष्ठ साहित्यकार ओम प्रकाश चौहान को अब तक अनेकों पुरस्कार मिल चुके हैं। इसके अलावा उन्हें साहित्य सारथी सम्मान, इन्दिरा-स्वरुप स्मृति साहित्य श्री सम्मान, उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान के अलावा शैक्षणिक, समाजिक एवं सांस्कृति क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए अनेक पुरस्कार व सम्मान के अलावा प्रशस्ति पत्र, प्रशंसा पत्र और अन्य प्रमाण पत्रों से भी नवाजा जा चुका है। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ रचनाकार एवं कवि ओम प्रकाश चौहान का आधुनिक युग में साहित्य के सामने चुनौतियों को लेकर मानना है कि पिछले कुछ वर्षों से मानवीय जीवन मूल्यों में बदलाव हुए हैं और गिरावट भी आई है। इसलिए इस बदलते परिवेश में साहित्यिक साधना हो या सुरुचिपूर्ण जीवनशैली इस बदलते परिवेश में प्रभावित हुई है। उन्होंने कहा कि आज का युवा स्वाध्याय छोड़कर मोबाइल पकड़ बैठा है इसीलिए वह ज्ञानी होने के दंभ में अज्ञानी होता जा रहा है। जबकि स्वाध्याय मानव को संस्कृति और संस्कारों से जोड़ता है समुचित दिशा देता है अतः युवाओं को स्वाध्याय अपनाना चाहिए। उनका कहना है कि एक सच्चा साहित्यकार संत प्रवृत्ति का धनी होता है, इसलिए सभी को सदैव अपने समुचित लोकव्यवहार के अनुरूप जीवन व्यतीत करना चाहिए। समाज और संस्कृति को जीवंत रखने के लिए साहित्यकारों व लेखकों को भी इसी आधार पर श्रेष्ठ साहित्य सृजन करना आवश्यक है, जो मानव जीवन का मूल उद्देश्य भी है। उनका यह भी मत है कि साहित्य की प्रत्येक रचना कालजयी नहीं होती। कुछ रचनाएँ साहित्य में स्थान पाती हैं और कुछ अल्पकालीन जीवन के साथ प्रभावहीन होकर तिरोहित हो जाती हैं। केवल वे रचनाएँ ही शाश्वत होने का गुण ग्रहण करती हैं, जो मानवीय जीवन मूल्यों पर खरी उतरती हई अनुभूति की संजीवनी पीये हए हों। 
21July-2025

सोमवार, 14 जुलाई 2025

चौपाल: लोक कला एवं संस्कृति अतीत की विरासत: डा. सीमा वत्स

लोक नृत्य और गीतकार के साथ सामाजिक गतिविधियों ने भी दी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डा. सीमा वत्स 
जन्मतिथि: 4 मई 1981 
जन्म स्थान: घरौंडा, जिला करनाल (हरियाणा) 
शिक्षा:पीएचडी(अंग्रेजी),एमए(अंग्रेजी),एमएससी, बीएड, लोक नृत्य और संगीत कोर्स 
संप्रत्ति: शिक्षिका, कवियत्रि, हरियाणवी लोक कलाकार 
संपर्क: मोबाइल नंबर 9654609425, ईमेल आईडी seemavats02@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति में लोक कला एवं संगीत की परंपरा की विरासत को संजोने के लिए लोक कलाकार अपनी अलग अलग विधाओं में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला के रंग बिखेर रहे हैं। ऐसे ही कलाकारों में महिला लोक कलाकार डा. सीमा वत्स भी कविताओं और गीत संगीत के साथ लोक नृत्य की कला को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। अपनी लोक कला के जरिए वह लिंग भेदभाव, नारी विमर्श और सामाजिक सरोकार के मुद्दों को लेकर समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रही है। खासकर वह नई पीढ़ी को लोक कला एवं संस्कृति की शिक्षा देकर उन्हें अपनी परंपराओं से जुड़े रहने का भी संदेश दे रही हैं। अपनी लोक नृत्य और गीत संगीत के सफर को लेकर एक शिक्षिका, कवियत्री और लोक कलाकार डा. सीमा वत्स ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे पहलुओं को भी रखा है, जिसमें लोक कला, संगीत और संस्कृति एक अतीत की विरासत ही नहीं है, बल्कि भविष्य का आधार भी हैं, जिससे अपनी संस्कृति को जीवंत रखने के साथ युवा पीढ़ी को आत्मिक, रचनात्मक और सामाजिक रूप से समृद्ध बनाना संभव है। 
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रियाणा की लोक कलाकार डा. सीमा शर्मा वत्स का जन्म 4 मई 1981 को करनाल जिले के घरौंडा में मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हरिकिशन शर्मा और श्रीमती कमला देवी के घर में हुआ। घर परिवार में कोई किसी तरह का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। लेकिन घरों में तीज़ त्यौहार शादी ब्याह आदि समारोह में गीत, संगीत, नृत्य, अभिनय जैसी कलाकारी देखने को जरुर मिलती रही। उनकी प्राइमरी से इंटरमिडिएट की शिक्षा सरकारी स्कूल में हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्य कालेज में दाखिला लिया और स्नातक की द्वितीय शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही महज 19 साल की आयु में परिवार वालों ने विवाह कर दिया और अगले वर्ष मातृत्व सुख और गृहस्थ जीवन की जिम्मेवारियों के साथ पढ़ाई को जारी रखना और लोक कला को जीवित रखना उनके लिए संघर्षशील जीवन रहा। उस समय इतने साधन भी नहीं होते थे, जिसके कारण वह एमए अंग्रेजी फाइनल की परीक्षा भी नहीं दे सकी और उनकी उच्च शिक्षा अधूरी पड़ गई। हालांकि कुछ समय बाद उन्होंने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से पीजीडीसीए के लिए फॉर्म भरा और किसी तरह उसे पूरा भी किया, चूंकि बचपन से ही उन्हें गीत संगीत की अभिरुचि के साथ साहित्यिक का भी शोक था। इसलिए मन की आवाज को दबाकर भी नहीं रख सकती थी और साहित्य प्रेम उसे आकर्षित करता रहा। इसीलिए उन्होंने दोबारा से एमए (अंग्रेजी) की शिक्षा पूरी की। इसके बाद वह पीएचडी पूरी करने में भी कामयाब रही। जीवन के ऐसे उतार चढ़ाव के बीच उन्होंने अपना हौंसला कायम रखा और उन्होंने लोक कला में नृत्य विधा को अपने से दूर नहीं होने दिया। लोक संस्कृति में नृत्य और गीत की अभिरुचि के चलते ही उन्होंने ग्रेजुएशन में संगीत विषय को चुना था। बकौल डा. सीमा शर्मा, जब स्कूल में पढ़ रही थी तो एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए बच्चों का चयन किया जा रहा था, इसके लिए शिक्षिका ने उनसे भी गीत सुना और डांस कराया। उन्हें उनका डांस बहुत पसंद आया। इसलिए इस कार्यक्रम के लिए गीत ‘कोठे चढ़ ललकारूँ दिखे ओ मेरा दामन लयाइए..’, के लिए उसका नृत्य के लिए चयन कर लिया गया। इस गीत पर उनकी ताई भी नृत्य करती थी और वह ढोलक बजाया करती थी। सौभाग्य से स्कूल के इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में हरियाणा के मुख्यमंत्री भी अतिथि के रुप में शामिल हुए, जिन्होंने उनके गीत पर नृत्य को सराहते हुए ईनाम स्वरुप कुछ धनराशि भी भेंट की। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। इसके बाद उनका लोक नृत्य के प्रति रुझान बढ़ता गया। दूसरी ओर उन्हें स्कूल में किसी विषय पर कविता पाठ का अवसर मिलता तो वह अपनी कविता लिखकर प्रस्तुति देती थी। उनकी कला एवं साहित्यिक गतिविधियों तथा लेखन का फोकस सामाजिक सरोकार के मुद्दे रहे हैं। वह लिंग भेदभाव को कम करने की दिशा में भी लगातार समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रही है, जिसमें थर्ड जेंडरों के भी कार्य करना शामिल है। डा. सीमा शर्मा गीता जयंती, जिला स्तरीय कार्यक्रमों, कवि सम्मेलन और काव्य गोष्ठी, रेडियो आकाशवाणी आदि में अपने लोक नृत्य का प्रदर्शन कर चुकी हैं।विश्वविद्यालयों और डीओई आदि के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वह जूरी सदस्य के रुप में भी जिम्मेदारी निभा रही हैं। उन्हें कार्यस्थल और घर की कक्षाओं में सांस्कृतिक प्रभारी और कोरियोग्राफर के अलावा जिला राज्य स्तरीय कार्यक्रमों में कोरियोग्राफर के रुप में कार्य करने का भी अनुभव है। यूजीसी और साझा काव्य संग्रह में शोध पत्र के अलावा उनकी कविताएं, कहानी, ग़ज़लें और लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। वह गीत और संगीत में निर्देशक तौर पर भी कार्य कर रही हैं। उनका प्रयास हमेशा हरियाणवी लोककला और संस्कृति को अपने जीवन में उतारकर उसके संवर्धन के लिए कार्य करने का है। 
सामाजिक सेवा में सक्रीय 
लोक नृत्य कलाकार एवं कवियत्री डा. सीमा शर्मा साहित्यिक एवं लोक कला के क्षेत्र में अपना हुनर का प्रदर्शन करने के अलावा विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा, ड्रॉप आउट छात्रों यानी पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाकर उन्हें शिक्षा से जोड़ रही हैं। वहीं वे ट्रांसजेंडरों के उत्थान के लिए सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रीय है। बतौर शिक्षिका उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि उनकी एक छात्रा कक्षा बारह में फेल हो गई थी। निराश वह छात्रा उनके पास आकर रोने लगी और बताने लगी कि उनके घरवाले उन्हें आगे नहीं पढ़ाएंगे और उसकी शादी करने को कह रहे हैं। इस पर डा. सीमा ने छात्रा की मम्मी को बुलाकर उसे एक साल पढ़ाने का आग्रह किया और दोबारा 12वीं कक्षा में प्रवेशा करया, जो इस बार उत्तीर्ण हुई और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करके उसने नौकरी हासिल करके यह साबित कर दिया कि जीवन में मौके मिलेंगे तो निश्चित रुप से अवसर भी बदलेंगे। 
पुरस्कार व सम्मान 
लोक कलाकार डा. सीमा वत्स को लोक कला व संगीत में अनेक पुरस्कार व सम्मानों से नवाजा जा चुका है। भारत नेपाल साहित्य सम्मेलन में स्वर साधना मंच द्वारा उन्हें काव्य सयंदन सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। वहीं उन्हें गोपाल दास नीरज साहित्य समूह साहित्य सम्मान, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान, कला सांस्कृतिक साहित्य सम्मान, सनिधा साहित्य श्री सम्मान, राष्ट्र शक्ति शिरोमणि सम्मान, बी एम बी एक्सीलेंस अवार्ड और लखनऊ में हेल्प यू नारी अस्मिता सम्मान से भी पुरस्कृत किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें सार्थक सेवा समिति, आशा रंगलाल जगदेव फाउंडेशन और श्री शक्ति स्वरूपा भव्य भारत की दिव्य विभूति जैसी संस्थाएं सम्मानित कर चुकी है। 
आधुनिक युग में परंपरागत विधाओं में चुनौती 
हरियाणा की लोक नृत्य कलाकार डा. सीमा वत्स का इस आधुनिक युग में लोक कला एवं संस्कृति के सामने चुनौतियों को लेकर कहना है कि इंटरनेट व सोशलमीडिया के प्रभाव लोक कला, रंगमंच, अभिनय, संस्कृति और साहित्य जैसी परंपरागत विधाओं में देखा जा रहा है। खासकर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है, जिसके कारण पहले की तुलना में कला एवं संस्कृति के प्रति की रुचि कुछ कम होना स्वाभाविक है। खासतौर से डिजिटल युग में पारंपरिक कलाओं की जगह आधुनिक, तकनीकी और त्वरित मनोरंजन के साधन बन गये और युवाओं को ओटीटी प्लेटफॉर्म्स, सोशल मीडिया, गेमिंग और रील्स जैसी चीजें भाने लगी हैं। जबकि जबकि लोक कला या साहित्य जैसे क्षेत्र ही समाज को सकारात्मक ऊर्जा और अपनी संस्कृति से जोड़े रखता है। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि युवाओं को साहित्य और लोक कला व संस्कृति के प्रति प्रेरित करने की दिशा में स्कूली और कालेज स्तर पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। वहीं सरकारी और निजी स्तर पर लोक कला व संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन देने की जरुरत है, ताकि सामाजिक दृष्टि से भी लोककला और साहित्य जैसी सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखा जा सके। 
14July-2025

सोमवार, 7 जुलाई 2025

साक्षात्कार: साहित्य और समाज एक दूसरे के बिना अधूरे: डा. नीरू मित्तल ‘नीर’

समाजिक सरोकार के मुद्दों पर साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन से बनी पहचान 
     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डॉ. नीरू मित्तल ‘नीर’ 
जन्मतिथि: 26 जून 1958 
जन्म स्थान: अजमेर(राजस्थान) 
शिक्षा: एम. कॉम, सी.ए.आई.आई.बी 
संप्रति: बैंकिंग सेवा से निवृत, साहित्यकार, कथाकार, कवयित्री एवं लेखक, समाजसेविका, योग शिक्षिका 
वर्तमान पता: 40, सेक्टर-15, पंचकूला(हरियाणा)
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By- ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में कविता, गजल, कहानी, व्यंग्य, लघुकथा, लेख निबंध, समीक्षा जैसी विधाओं का मानवीय एवं सामाजिक सरोकार के लिए कितना महत्व है। इन्हीं मूल्यों को लेकर साहित्यकार एवं लेखक साहित्य सृजन करने में जुटे हैं, जिसमें लेखकों का मकसद समाज को नई दिशा और सकारात्मक विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए अपनी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं जुड़े रहने का संदेश देना है। ऐसी की लेखक एवं महिला साहित्यकार डॉ. नीरू मित्तल अपनी ऐसी ही लेखन विधाओं के माध्यम से बच्चों से लेकर बुजुर्गो के साथ ही हरियाणवी संस्कृति संवर्धन एवं सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य साधना करती आ रही हैं। अपने साहित्यिक सफर को लेकर साहित्यकार, कथाकार, कवयित्री एवं लेखक डॉ. नीरू मित्तल ‘नीर’ ने कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजागर किये, जिसमें समाज और साहित्य एक दूसरे के बिना जीवंत नहीं रह सकते। 
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रिष्ठ महिला साहित्यकार डॉ. नीरू मित्तल का जन्म 26 जून 1958 को अजमेर(राजस्थान) में हरिश चन्द्र गुप्ता और श्रीमति दम्यंती देवी गुप्ता के घर में हुआ। परिवार में कोई भी साहित्य माहौल नहीं था और न ही कोई सदस्य साहित्य से जुड़ा था, लेकिन उन्हें बचपन में ही तुकबंदियां करते हुए कुछ न कुछ लिखने में अभिरुचि हुई। स्कूल में भी वे कविताएं सुनाती और उनकी लिखी कविताएं स्कूल और कॉलेज की मैगजीन में प्रकाशित होने लगी, तो उनके पिताजी ने बहुत प्रोत्साहित करना शुरु कर दिया। उनके लेखन की शुरुआत कविताओं से हुई, लेकिन वह जल्द ही कहानियां भी लिखने लगी। जब वह कॉलेज में पढ़ रही थी, तो उनकी रचनाएं आकाशवाणी पर प्रसारित होने लगी और पिता अजमेर से रिकार्डिंग के लिए आकाशवाणी केंद्र जयपुर ले जाते थे। बकौल डॉ. नीरू मित्तल, साल 1981 में उनकी जयपुर में बैंक ऑफ बडौदा में नौकरी लग गई। इसके बाद साल 1984 में उनका विवाह हरियाणा के पंचकूला में हुआ। इस वजह से उन्होंने अपना स्थानांतरण पंचकूला की बैंक शाखा में करा लिया और यहीं से वह सेवानिवृत्त हुई। हालांकि शादी के बाद वह अपनी बैंकिंग की नौकरी, परिवार और बच्चों में अत्यधिक व्यस्त हो गई और लेखन बहुत सीमित रह गया। लेकिन इस दौरान भी वह नराकास के कार्यक्रमों में भाग लेती रही और पुरस्कार जीतती रही। बच्चे जब प्रोफेशनल कॉलेज में चले गए और उन्हें कुछ समय मिलने लगा तो मेरा साहित्य के प्रति लगाव पुनः जागृत हो गया और उन्होंने हरियाणवी संस्कृति संवर्धन एवं सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य सृजन को नई दिशा दी। उनकी रचनाओं का फोकस मुख्य रूप से समाज में व्याप्त विडंबनाओं, कुंठाओं बेबसी, आक्रोश, अनेकों विषमताएं और लोगों की जिजीविषा जैसे सामाजिक सरोकार के मुद्दे और समस्याओं पर रहा है, इन्हीं पर उनकी कलम सक्रीय रही, जिसमें नारी विमर्श भी उनके लेखन में स्वतः ही झांकने लगा। बकौल नीरु मित्तल, साहित्य के अलावा उन्हें गायन और नृत्य का भी शौक रहा है। वह अपने हम उम्र साथियों के लिए नृत्य कोरियोग्राफ भी करती हैं। जहां वे कहानी, लघुकथा, लेख निबंध, कविता, साक्षात्कार, समीक्षा, व्यंग्य, यात्रा संस्मरण, समीक्षा और साक्षात्कार ज जैसी विधाओं में साहित्य संवर्धन करने में जुटी हैं, वहीं वह योगा शिक्षक भी रही और सामाजिक गतिविधियों में भी वे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती हैं। उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ भी किये हैं। देश के वरिष्ठ साहित्यकारों व रचनाकारों का सानिध्य मिला है। उनकी रचनाएं देश ही नहीं विदेश के पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही है। चंडीगढ़ दूरदर्शन केंद्र और आकाशवाणी केंद्र जयपुर से समय-समय पर उनकी कविताओं व रचनाओं का प्रसारण तो हो ही रहा है। वहीं रेडियो 'अपना विनीपेग' कनाडा और 'जस टीवी' कनाडा पर भी उनके साहित्यिक काव्य पाठ कार्यक्रम और साक्षात्कार प्रस्तुत हुए हैं। कई विदेशी मंचों जैसे 'रूट्स टू हिंदी काव्यांजलि' शिकागो, 'निर्मल रोशन मंच' न्यूयॉर्क, 'महिला काव्य मंच' इंडोनेशिया पर भी वे अपनी कविताएं प्रस्तुत कर चुकी हैं। यहाँ वह यह बात अवश्य कहना चाहती है कि विदेश में बैठे भारतीय अपनी संस्कृति अपनी भाषा और अपने देश से कहीं गहराई से जुड़े हुए हैं। वह उनकी निष्ठा और समर्पण को नमन करती हैं। 
आधुनिक युग में साहित्य 
वरिष्ठ महिला साहित्यकार एवं लेखक नीरु मित्तल का मानना है कि आज के आधुनिक युग में भी साहित्य गतिशील है और गद्य हो या पद्य, दोनों विधाओं में ही नवीन शैलियों का विकास हो रहा है। लघुकथा, लघुकविता, नवगीत जैसी विधाएं अपने उत्कर्ष की ओर अग्रसर हैं। छायावाद से आगे हम प्रयोगवाद पर आ गए हैं। साहित्य पर सामाजिक, राजनीतिक चेतनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा है। आधुनिक युग की जीवन शैलियों और मूल्यों का भी साहित्य पर असर हुआ है। इंटरनेट और सोशल मीडिया यथा व्हाट्सएप, फेसबुक आदि के माध्यम से भी साहित्य का प्रचार और प्रसार हो रहा है। अब एक भाषा का लिखा गया साहित्य दूसरी भाषाओं में भी अनुवादित होकर वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि इस युग में जैसे जैसे भौतिकवाद बढ़ रहा है, वैसे ही स्वार्थ और धन लोलुपता बढ़ने से साहित्य में भी दिखावा और सस्ती लोकप्रियता पाने की लालसा बढ़ती नजर आ रही है। इसका नतीजा ये है कि लेखक तो बहुत हो गए परंतु पाठक सिमट गए। सोशल मीडिया के चलते पुस्तकों का क्रय विक्रय संकुचित हुआ है। युवा पीढ़ी साहित्य से वंचित नहीं है। साहित्य में तो रुचि है परंतु वह साहित्य अंग्रेजी माध्यम में है। आज के बच्चे किंडल पर अंग्रेजी किताबें पढ़ते हैं। अंग्रेजी के बड़े लेखकों की किताबें पढ़ते हैं। इसमें सुधार के लिए जरुरी है कि सर्वप्रथम हमें अपने संस्कारों अपनी संस्कृति के प्रति गर्व महसूस करते हुए अपनी भाषा का सम्मान करें, तभी हिंदी साहित्य में उनकी रुचि स्वतः ही जागृत हो जाएगी। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्य की विभिन्न विधाओं में साहित्य सृजन करती आ रही महिला साहित्यकार डॉ. नीरू मित्तल की प्रकाशित पुस्तकों में काव्य संग्रह-अनकहे शब्द, शब्दों की परछाइयाँ, चट्टान पर खिले फूल, पंचतत्त्व और मैं, कहानी संग्रह-रिश्तों की डोर, कोहरे से झाँकती धूप, लघुकथा संग्रह-तिनका तिनका मन, प्रतिबिम्बों की अनंत यात्रा, बाल साहित्य-मेरे वर्णमाला गीत, छू लो आसमान प्रमुख रुप से पाठकों के सामने हैं। उन्होंने खुशियाँ लौटेंगी, सुनहरी यादों के झरोखों से नामक पुस्तकों का संपादन भी किया। वहीं पंजाबी रचनाओं का अन्य भाषाओं में अनुदित भी की हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
महिला साहित्यकार एवं लेखिका डॉ. नीरू मित्तल और उनकी विभिन्न विधाओं में लिखी किताबों को पुरस्कार मिले। उन्हें हरियाणा साहित्य गौरव सम्मान, बाल सहित्य सम्मान, डॉ कैलाश अहलूवालिया स्मृति सम्मान पुरस्कार, डॉ. श्यामसुंदर व्यास स्मृति सम्मान, काव्य मंजरी वागीश्वरी सम्मान, काव्य मंजरी वागीश्वरी सम्मान, काव्य शिरोमणि सम्मान, स्मृति साहित्य सम्मान, संस्कृति संवाहक पुरस्कार, शब्द निष्ठा सम्मान, लघुकथा सेवी सम्मान, साहित्य सारथी सम्मान और मां भारती साहित्य के सम्मान जैसे अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 
07July-2025

सोमवार, 23 जून 2025

साक्षात्कार: मानवीय मूल्यों को जीवंत रखने में अहम है साहित्य: वीरेन्द्र ‘मधुर’

हिंदी व हरियाणवी कवि व गीतकार के रुप में बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: वीरेन्द्र 'मधुर' 
पूरा नाम: वीरेन्द्र कुमार शर्मा 
जन्मतिथि: 1 जनवरी 1958 
जन्म स्थान: मुजफ्फरनगर (यूपी) 
शिक्षा: एम.एस.सी. (रसायन) 
संप्रत्ति: साहित्यकार, लेखक, कवि एवं गीतकार 
संपर्क: 90-ए/22, किशनपुरा, लक्ष्मी नगर, रोहतक(हरियाणा), मोबा. 9253187577 
BY--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति में सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य संवर्धन की भी अहम भूमिका मानी जाती है। इसलिए साहित्य के क्षेत्र में लेखक और साहित्यकार अपनी अलग अलग विधाओं में साहित्य सृजन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे ही लेखकों में शामिल वरिष्ठ साहित्यकार वीरेन्द्र कुमार शर्मा भी सामायिक विषयों और सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर कविताएं, गीत, गजल, मुक्तक और आलेख जैसी रचनाओं के संसार को दिशा देने में जुटे हैं। उन्होंने हिंदी और हरियाणवी भाषा में साहित्यिक साधना के साथ सामाजिक सेवा को भी सर्वोपरि रखा है। वरिष्ठ साहित्यकार, कवि एवं गीतकार वीरेन्द्र ‘मधुर’ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को उजाकर किया है, जिनमें साहित्य संवर्धन में सभी भाषाओं के सम्मान के साथ मानवीय मूल्यों को जीवंत रखना संभव है। 
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रिष्ठ साहित्यकार एवं कवि वीरेन्द्र 'मधुर' का जन्म 1 जनवरी 1958 को यूपी के मुजफ्फरनगर में रामेश्वर प्रसाद शर्मा एवं श्रीमती सुशीला देवी के घर में हुआ। परिवार में हालांकि कोई साहित्यिक माहौल नहीं था, लेकिन उनके दादा मूल चंद शर्मा शिक्षक रहे। जबकि पिता रामेश्वर प्रसाद भी अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे और रामलीला मंच के संरक्षक रहे। साथ ही वे गुड खांडसारी के अच्छे व्यापारी रहे। वीरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा शहर की प्राइमरी पाठशाला में हुई, जहां उनके प्रथम गुरु मोहम्मद इकबाल बने। उन्होंने पहली बार साल 1968 में कक्षा पांच के दौरान स्कूील में मंच मिला। स्कूल में स्कूल में वे साप्ताहिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी मंचन के साथ ड्रामा, डांस और गाना बजाना भी भी करने लगे। उन्होंने कक्षा छह से आठ तक स्कूल में अंताक्षरी] वाद-विवाद और अभिनय में हमेशा प्रथम स्थान हासिल करके हैट्रिक अपने नाम की। वहीं स्कूी रसायन विषय से एमएससी की डिग्री के बाद उन्होंने सरकारी और गैर सरकारी केमिकल प्रतिष्ठानों 32 साल तक नौकरी और व्यवसाय किया। इसके बावजूद उन्होंने अपनी साहित्यिक और सांस्कृति अभिरुचि से नाता नहीं तोड़ा और हारमोनियम और तबला भी सीखकर अपनी विधा और लेकर को लगातार धार दी। बकौल वीरेन्द्र कुमार शर्मा, साल 1969 में रामलीला में विभिन्न किरदार के रुप में मंचन शुरु किया। उन्होंने साल 1974 में रचना गीत जब पीहू पीहू, इस रेत के शहर में, रिमझिम आया सावन, कहां से लाऊं बचपन अपना, जैसे गीत लिखना शुरु किया, जिन्हें सराहत हुए एक प्रख्यात कवि ने उन्हें मधुर नाम दिया। उनके ये गीत काफी प्रचलित भी हुए। साल 1985 में वह परिवार के साथ हरियाणा के रोहतक आए, जहां उन्होंने एक कैमिकल प्रतिष्ठान में नौकरी की और उसके बाद रोहतक में ही बस गये। उन्होंने बताया कि उन्होंने रोहतक में ही एक अपनी पेस्टिसाइड फैक्ट्री भी लगाई, लेकिन खास सफलता नहीं मिली। परिवार में बेटों के रोजगार लगने के बाद वे अपने साहित्यिक लेखन को आगे बढ़ाते रहे और हिरयाणवी संस्कृति में रमना शुरु कर दिया। हालांकि उन्हें हरियाणा में भाषा विशेष के कारण परेशानी का भी सामना किया, जहां अलग पड़े धड़ों में हिंदी गीत को रागिनी के प्रचलन में रखना एक कठिन डगर रही। मसलन सीमा और भाषा अड़चन तो पैदा करते ही हैं लेकिन उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और साहित्य सृजन में तपस्या, मेहनत और अभ्यास ने उनके साहित्यिक लक्ष्य को बुलंदियां दी। उन्होंने म्हारे गाम की छोरी, कदे कदे न्यू धड़के सै, जैसे अनेक हरियाणवी गीत व कविताएं भी लिखी हैं। उनकी रचनाओं का फोकस सामयिक और सामाजिक सरोकारों के मुद्दों, अंधविश्वास, मानव एकता, देशभक्ति जैसे विषयों पर रहा है। कोविड के दौरान उन्होंने मानवता के प्रति गीत लेखन, गायन, संगीतमय धार्मिक संवेदनाएं लिखे। साल 2017 से एक मुक्तक और नई पहल की एक रचना निरंतर फेसबुक जैसी सोशल मीडिया पर लिखने का सिलसिला अभी तक जारी है, जिसमें गीत, कहानी, ग़ज़ल और आलेख आदि शामिल हैं। अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में सक्रीय भागीदारी और काव्य मंच के संयोजक व संचालन का दायित्व निभाना उनके लिए गर्व का विषय है। उन्होंने बताया कि हिंदी के साथ हरियाणवी गीतों व कविताओं के लेखन को आगे बढ़ाने का श्रेय वरिष्ठों लेखकों और साहित्यकारों के प्रोत्साहन को जाता है। उनका सौभाग्य रहा कि उन्हें देश के तमाम श्रेष्ठ कवियों नागार्जुन, काका हाथरसी, सत्यदेव शास्त्री भोंपू, गोपालदास नीरज, संतोषानंद, कैफ़ी आजमी, निदा फाजली, कुंअर बेचैन ,हरिओम पंवार,उदय भानु हंस, सुरेन्द्र शर्मा जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों व कवियों के साथ मंच साझा करने और काव्य पाठ करने का मौका मिला। उन्होंने साल 2017 में दुबई(यूएई)की विदेश यात्रा के दौरान आयोजित कार्यक्रम में हरियाणवी संस्कृति से जुड़े गीत और काव्य पाठ किया है। जबकि उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों के अनेक हिस्सों में काव्य पाठ करने का सौभाग्य मिला और आज वह देश के अच्छे गीतकारों में सम्मानित नाम के रुप से पहचाने जाने लगे हैं। साल 1999 में शोधग्रंथ वीरेन्द्र ‘मधुर’ की कृतित्व और व्यक्तित्व पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के कई छात्र एमफिल की उपाधि के लिए शोध भी कर चुके हैं। वह रोहतक की कला परिक्रमा, पंजाबी साहित्यकार मण्डल, विजन फाऊण्डेशन, टैगोर कॉसिल आफ आर्टस रोहतक जैसी कई साहित्यिक, सामाजिक से जुड़े हैं। वहीं वे संस्कार भारती रोहतक जिला ईकाई के साहित्य प्रमुख भी रह चुके हैं। आकशवाणी, डीडी न्यूज जयपुर और आकाशवाणी नई दिल्ली व हिसार से भी उनकी कविताओं और गीतों का प्रसारण हो चुका है। उनकी रचनाएं देश के प्रतिष्ठत पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाए प्रकाशित हो रही है। 
आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति 
वरिष्ठ साहित्यकार, कवि और गीतकार वीरेन्द्र कुमार शर्मा का आधुनिक युग में साहित्य की चुनौतियों को लेकर कहना है कि इस इंटरनेट युग में हर कोई सोशल मीडिया पर अपनी अभिरुचि की सामग्री तलाश कर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, लेकिन यह सत्य है कि गुरुओं के सानिध्य के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए इस बदलते परिवेश में वरिष्ठ साहित्यकारों और लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन करने से लेखनी को यशस्वी किया जा सकता है। जीवन ही संग्राम है और इस बदलते युग में युवाओं को अपनी संस्कृति के ज्ञान के लिए साहित्य के लिए प्रेरित किया जाना आवश्यक है। मसलन भाषा है तो ज्ञान है और ज्ञान है तो भाषा है। ऐसे में लेखकों को भी भाषा विशेष पर अपनी पकड़ बनाकर सभी भाषाओं का सम्मान देकर समाज को नई दिशा देने की जरुरत है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार एवं गीतकार वीरेन्द मधुर की प्रकाशित एक दर्जन पुस्तकों में गीत संग्रह ‘गलता हुआ हिमानी’, ‘भ्रूण के पहरुए’, ‘कोहराम जिंदगी का’, कविता संग्रह आसमान लुटता है व साँझ मेरे आँगन आयी, गजल संग्रह आवाज़ का जंगल, कहानी संग्रह वापस गांव की ओर, भक्तिगीत काव्य संग्रह हरि मन मनके सुर्खियों में हैं। उन्होंने काव्य शास्त्र संग्रह के रुप में मुक्तक वाटिका और बच्चों के लिए हंसता बचपन शीर्षक से भी पुस्तक लिखी हैं। इसके अलावा कल्पना वार्षिकी 1977, वीणापाणी वार्षिकी 1979 में सम्पादन कला परिक्रमा सँग्रह रचनाएं भी लिखी है।
पुरस्कार व सम्मान 
वरिष्ठ कवि एवं गीतकार वीरेन्द्र मधुर को साहित्यिक सेवाओं के लिए अनेक पुरस्कार मिले हैं। प्रमुख रुप से उन्हें हिन्दी साहित्य श्री सम्मान, हंस पुरस्कार, अजमेर मोर स्मृति साहित्य सम्मान, काव्य-भूषण सम्मान, साहित्य सम्मान, प्रज्ञा साहित्य मंच का 'साहित्य सोम' सम्मान मिले हैं। वहीं जयपुर, मेरठ, नांदूरा, हिंदी साहित्य अकादमी दिल्ली, कला संगम दिल्ली, भारतीय महोत्सव समिति श्रीगंगानगर जैसी सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं से सम्मान दिया जा चुका है। 
23June-2025

सोमवार, 16 जून 2025

चौपाल: संस्कृति में लोक साहित्य की वाचन परंपरा का खास महत्व: रविन्द्र रवि

वरिष्ठ रचनाकारों की साहित्य विधाओं को अपनी आवाज देकर बनाई पहचान 
     व्यक्तिगत परिचय 
नाम: रविन्द्र कुमार 'रवि' 
जन्मतिथि: 18 जुलाई 1978 
जन्म स्थान: गांव सुरेहली, जिला रेवाडी (हरियाणा)
शिक्षा: स्नातकोत्तर आंग्ल भाषा 
संप्रत्ति: अध्यापन, हिंदी व हरियाणवी लेखन 
संपर्क: गांव सुरहेली तहसील कोसली,जिला रेवाड़ी, मोबा. 9991514244
-BY--ओ.पी. पाल 
भारतीय संस्कृति एवं साहित्य को अपनी अलग अलग विधाओं के जरिए नई दिशा देने का प्रयास करते आ रहे लेखक एवं कलाकारों ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। ऐसे ही हरियाणवी संस्कृति में लोक साहित्य को अपनी आवाज के जादू से नया आयाम देते आ रहे रविन्द्र कुमार रवि अनूठी साधना में जुटे हैं। मसलन कवि सम्मेलन, काव्य मंच, आकाशवाणी व टीवी चैनलों के माध्यमों से साहित्य की विधाओं को स्थान मिलता रहा है, लेकिन वह सोशल मीडिया पर साहित्य की वाचन-परंपरा का नया चितेरा बनकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना चुके हैं, जो पिछले करीब नौ वर्षो से हिंदी और हरियाणवी भाषा में अपनी कलम और आवाज के जादूगर के रूप में एक मजबूत व्यक्तित्व और बेहतरीन मंच संचालक के रुप में उभरे हैं। अंग्रेजी शिक्षक एवं साहित्य विद्, लेखक एवं आवाज के जादूगर रविन्द्र कुमार रवि ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे तथ्यों को उजागर किया है, जिसमें वह अपनी वाचन कला की प्रतिभा के बल पर हरियाणवी संस्कृति में लोक साहित्य की वाचन परंपरा को देश भर की रचनाधर्मिता से जोड़े हुए हैं। 
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रियाणवी संस्कृति में लोक साहित्य की वाचन परंपरा को अपनी जादुई आवाज से पहचान दे रहे रविन्द्र कुमार 'रवि' का जन्म 18 जुलाई 1978 को हरियाणा के रेवाड़ी जिले के गांव सुरेहली में फतेह सिंह और श्रीमती चंद्रकला के घर में हुआ। उनके पिता सेना में देश की सेवा में रहे तथा माता गृहणी में धार्मिक प्रवृत्ति के साथ परिवार को संस्कार देने में जुटी रही। परिवार में कोई साहित्यिक और सांस्कृतिक माहौल नहीं रहा, लेकिन बचपन से रेडियो सुनने के शौकीन रहे रविन्द्र रवि यादव लोक संस्कृति पर आधारित का काव्य सृजन यानी काव्य मंचों पर तरन्नुम में मधुरकंठी काव्यपाठ से छाप छोड़ने माहिर हैं। पठन पाठन, वाचन, संगीत सुनना, हिंदी हरियाणवी में लिखना उनकी अभिरुचित में समाया हुआ है। वह खेती-किसानी तथा ग्रामीण परिवेश के सभी कार्य करने में दक्ष रहे हैं। रवि ने नाहड़ के सरकारी कालेज से स्नातक मोरनी हिल्स से जेबीटी की पढ़ाई पूरी की, जिसके छह वर्ष तक एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे, जिनकी बाद में दिल्ली सरकार के स्कूल में अंग्रेजी के जेबीटी शिक्षक के तौर पर नियुक्ति हुई। इसके बावजूद वह अपनी लोक साहित्य को नया आयाम देते हुए रचनात्मक कार्य में जुटे रहे। उनकी काव्य सृजन, मंच संचालन, काव्य पाठ आदि अभिरुचि को लगातार मंच मिलता रहा है। इसी दौरान वर्ष 2016 में वे बोल हरियाणा के एक बड़े मंच से जुड़े और उनकी इस कला की प्रतिभा को ऐसे पंख लगे, कि उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बकौल रवि उन्होंने बोल हरियाणा देश के विभिन्न कोनों के वरिष्ठ रचनाकारों की चार सौ से ज्यादा लघुकथाओं तथा ‘बोल किताबों ताई के’ नामक शीर्षक से अपनी हरियाणवी रचनाओं की एक लंबी श्रृंखला को स्वर देकर विशिष्ट पहचान बनाई। उनका कहना है कि वह हरियाणवी में तुकबंदी की छह पंक्तियों को ‘बोल किताबो ताई के’ लिखते हैं, जो तस्वीर पर आधारित होती हैं यानी जैसी तस्वीर वैसी ही छह हरियाणवी पंक्तियां होती हैं। अब तक वह करीब पांच सौ बोल किताबो ताई के लिख चुके हैं। फोटो आधारित इन छह पंक्तियों में हरियाणवी जीवन के हर पहलू को लिखने का प्रयास किया है। वहीं उन्होंने कोराना काल में अपने उक्त स्थायी स्तंभों के अलावा एक चिट्ठी अपनों के नाम, माई लाइफ ड्यूरिंग लॉकडाउन, आपके जज्बात-के साथ आदि समसामयिक स्तंभों का लेखन करके अपना रचनात्मक योगदान दिया है। उनका कहना है कि अंग्रेजी उनके कार्य क्षेत्र के लिए एक विषय है, लेकिन हिन्दी भाषा रगो में रची बसी है और हरियाणवी मां बोली है। 
यहां से मिली मंजिल 
आवाज के जादूगर रविन्द्र कुमार उर्फ रवि यादव  ने बताया कि उनकी इस रचनात्मक यात्रा में जनवरी 2019 में एक नया पड़ाव उस समय आया, जब उन्होंने इसी परंपरा पर आधारित नवाचारी प्रकल्प प्रारंभ किया। बोलता साहित्य-विद रवि यादव नामक इस यूट्यूब चैनल के माध्यम से उन्होंने फिर नए प्रयोग करने शुरु किए। इसी माध्यम से वह अभी तक शताधिक लघुकथाएं, करीब एक दर्जन कहानियां, डेढ़ सौ से ज्यादा कविताएं, काफी ज्यादा संख्या में समीक्षाएं, संस्मरण, पत्र आदि रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर प्रसारित कर चुके हैं। यही नहीं वह विभिन्न प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन भी कर चुके हैं तथा प्रसारित संस्मरणों पर आधारित कुटुंब नामक एक ई-बुक भी लॉन्च कर चुके हैं। हरियाणवी संस्कृति से जुड़ी तस्वीरों पर आधारित वह 6 हरियाणवी पंक्तियों को लिखकर हरियाणवी रीति रिवाज, परंपराओं आदि से दूर जाते समाज और खासतौर से अनभिज्ञ नई पीढ़ी नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं। ऑनलाइन रेडियो बोल हरियाणा ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न से चलता है और दुनिया भर के साथ देश में इसका प्रसारण होता है। उन्होंने बताया कि कथा कहानी कार्यक्रम में 400 से ज्यादा लघुकथाओं का प्रसारण हुआ इसके साथ-साथ बड़ी कहानियां एवं कविताओं का भी प्रसारण रेडियो बोल हरियाणा पर हुआ।
पुरस्कार व सम्मान 
अपनी इस अनूठी साहित्यिक कला की साधना में जुटे रविन्द्र रवि को अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका है, जिनमें प्रमुख रुप से बोल हरियाणा गौरव सम्मान, लघुकथा हितैषी सम्मान, हिंदी गूंज पुरस्कार, हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी सेवी सम्मान, शिक्षा के क्षेत्र में आउट स्टैंडिंग टीचर ऑफ डेल्ही शिक्षक सम्मान, वेस्ट दिल्ली जोनल बेस्ट टीचर अवॉर्ड, यूनेस्को के वर्ल्ड वाइड न्यूज लेटर में सम्मान के अलावा अनेक सामाजिक,साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से भी अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। 
युवाओं को संस्कृति से जोड़ना जरुरी 
आधुनिक युग में लोक कला एवं संस्कृति को लेकर रविन्द्र कुमार रवि का कहना है कि हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत सदियों पुरानी और समृद्ध रही है। हरियाणा की लोक संस्कृति, कला, रंगमंच और साहित्य ने सदा से समाज को दिशा दी है। इस आधुनिक युग में भी लोक कला और संस्कृति ने अपना विशिष्ट स्थान बए रखा है। हालांकि तकनीक और आधुनिकता के प्रभाव, व्यवसायिकता के कारण इन कलाओं में बदलाव नजर आने लगा है। ऐसे में खासतौर से युवाओं को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए उन्हें लोक कला, संगीत व अभिनय के प्रति प्रेरित करने की जरुरत है। जब तक युवा अपनी संस्कृति को नहीं अपनाएंगे, तब तक कोई भी कला जीवित नहीं रह सकती। 
16June-2025

सोमवार, 9 जून 2025

साक्षात्कार: समाज को नई दिशा देने में साहित्य की अहम भूमिका: अनामिका वालिया

देशभक्ति से ओतप्रोत वीर रस की कविताओं के लेखन व काव्यपाठ से बनाई पहचान 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: अनामिका वालिया 
जन्म तिथि: 19 मई 1989 
जन्म स्थान: कैथल, (हरियाणा) 
शिक्षा: एम.ए. (अंग्रेजी) 
सम्प्रति: लेक्चरार(शिक्षा विभाग हरियाणा), लेखक एवं कवियत्री 
संपर्क: यमुनानगर(हरियाणा), मोबा. 9034848291 
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BY-ओ.पी. पाल 
हिंदी साहित्य के क्षेत्र में हरियाणवी संस्कृति के संवर्धन के लिए लेखक अपनी अलग अलग विधाओं में साहित्य साधना करते आ रहे हैं। ऐसे ही साहित्यकारों में कवियत्री अनामिका वालिया भी समाजिक सरोकारों के मुद्दों पर अपने रचना संसार को आगे बढ़ा रही हैं। देशभक्ति और समाज में महिलाओं के मुद्दे पर भी कविताओं का लेखन और मंच से समाज को सकारात्मक संदेश देते हुए उन्होंने परिवार से मिली विरासत को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। शिक्षाविद्, लेखिका एवं कवियत्री अनामिका वालिया शर्मा ने अपने साहित्यिक सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से बातचीत करते हुए कुछ ऐसे पहलुओं का भी जिक्र किया है, जिसमें उनका मत है कि साहित्य के बिना समाज की कल्पना करना बेमाने है, क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है। 
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हिला साहित्यकार अनामिका वालिया का जन्म 19 मई 1989 को जिला कैथल में देशबंधु वालिया और दमयंती वालिया के घर में हुआ। उनके नाना स्वर्गीय रमेश चंद्र ने आज़ाद हिंद फौज के सेनानी के रूप में और उसके बाद सेना में भर्ती होकर देश की सेवा की। इसलिए देशभक्ति और देश प्रेम भी विरासत में मिला। जबकि मामा स्वर्गीय अमरजीत अहलूवालिया कविता लेखन किया करते थे, तो उन्हें साहित्यिक माहौल मिलने के कारण बचपन में कविता लेखन में रुचि पैदा हुई। शायद यही कारण है कि उन्होंने 13-14 वर्ष की आयु से कविता लेखन शुरू कर दिया था। उनके कविता लेखन में ओज विधा रही और देशभक्ति से परिपूर्ण कविताएं लिखना शुरू किया। पहली कविता साहित्य सभा कैथल के मंच से चौदह वर्ष की आयु में पढ़ी, जहां वह अपने पिता के साथ कार्यक्रम में पहुंची थी। उन्हें वो दिन आज भी याद है, जब कार्यक्रम के समापन के बाद एक शख्स उनके पास आए और जिन्होंने कहा कि तुमने बहुत अच्छी कविता पढ़ी और उसकी सराहना की, लेकिन उन्होंने सवाल किया कि ये कविता तुमने तो नहीं लिखी होगी? जब उसने बताया कि ये कविता उसने खुद लिखी है, तो वह बोले कि इतनी कम उम्र में कोई इस तरह की कविता नहीं लिख सकता? यह सुनकर उसने बताय कि आप अपनी पसंद का कोई भी विषय उन्हें दीजिए और वह अभी आपको कविता लिखकर दिखा देगी। तब उन्होंने मुस्करा कर उनके सर पर हाथ रखा और आशीर्वाद देते हुए कहा कि अब यकीन हो गया कि कविता तुमने ही लिखी है। अनामिका की प्रारंभिक शिक्षा कैथल और उच्च शिक्षा अंबाला शहर से पूरी हुई। अंबाला के एमडीएसडी कॉलेज से स्नातक की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ग्रेजुएशन की परीक्षा में पूरे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में द्वितीय व अंबाला ज़िले में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसके लिए उन्हें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा के द्वारा गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया था। भाषण प्रतियोगिता में नेशनल यूथ फेस्टिवल में पूरे उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए पहला स्थान प्राप्त किया, जिसके लिए हरियाणा सरकार द्वारा सम्मानित किया गया। साल 2014 से शिक्षा विभाग हरियाणा में अंग्रेजी लेक्चरर के तौर पर अपनी सेवाएं देना प्रारंभ किया। एक शिक्षिका के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर आधारित विभिन्न नाटकों का लेखन एवं निर्देशन भी किया, जो राज्य स्तर पर प्रथम स्थान के लिए शिक्षा विभाग को ओर से उन्हें सम्मानित किया गया। साल 2018 में हरियाणा के यमुनानगर ज़िले में विवाह हुआ। परिवार और दो जुड़वां बेटियों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए साहित्यिक सफर को आगे बढ़ाना आसान नहीं था, लेकिन परिवार के सहयोग और साहित्य के प्रति अपने समर्पण से अपने इस सफर को निरंतर जारी रखा। वर्तमान में अपने परिवार के साथ यमुना नगर में रहकर अध्यापन और साहित्य सेवा कर रही हैं। उनके साहित्यिक गतिविधियों को परिवार के लोगों के प्रोत्साहन भी अहम रहा है। उन्होंने अपनी कविताओं के लेखन में देश, समाज और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर फोकस किया है। वहीं उन्होंने सैनिकों के शौर्य का जयगान तो कभी राजनीतिक पर व्यंग्यात्मक कविताओं को भी साहित्य मंच पर उतारा है। उनकी एक प्रसिद्ध रचना 'बेटियां मैदान में उतार दूं' स्कूल कॉलेज की बच्चियों को इतनी पसंद आई कि विभिन्न प्रतियोगियों में उन्होंने इसे प्रस्तुत किया और पुरस्कार प्राप्त किए। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में होने वाले कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करना प्रारंभ किया और देश के अनेक प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों पर काव्यपाठ किया। 
साहित्य की स्थिति बेहतर 
आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कवियत्री एवं लेखक अनामिका वालिया का कहना है कि आज भी साहित्यिक लेखन प्रगति पर है और नई युवा पीढ़ी भी साहित्य क्षेत्र में बेहतर लेखन कर रही है, जिससे कहा जा सकता है कि साहित्य बेहतर स्थिति में है। हालांकि सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य लेखन ज्यादा बढ़ा है। इससे भी युवा पीढ़ी साहित्य के प्रति आकर्षित हो रही है। इसके बावजूद साहित्य जगत में एक बात आहत करने वाली है, कि साहित्यिक मंचों पर कविताओं के नाम पर चुटकले और अश्लीलता परोसी जा रही है, जिस पर अंकुश लगाना जरुरी है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है, इसलिए साहित्यकारों और लेखकों को युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति के प्रति प्रेरित करने वाला साहित्य सृजन करने की जरुरत है, ताकि समाज को सकारात्मक संदेश दिया जा सके। मसलन विशुद्ध साहित्य की रचना बेहद जरुरी है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
महिला कवियत्री अनामिका वालिया ने अल्प आयु में ही कविताओं का लेखन शुरु कर दिया था और वीर रस की कविताओं के संकलन के रुप में 2014 में पहली काव्य पुस्तक 'एक और इंकलाब' पाठकों के सामने आई। उनकी इस प्रकाशित पुस्तक में देश प्रेम और महिला सशक्तिकरण से संबंधित कविताओं को समायोजित किया गया है। उनकी रचनाएं विभिन्न समाचार पत्र व पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो रही हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
साहित्यकार अनामिका वालिया को हरियाणा सरकार गोल्ड मेडल से सम्मानित कर चुकी है। साहित्य क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें नारायणी फाउंडेशन के रूपा राजपूत सम्मान, रोटरी क्लब के ऑनरेरी मेंबर सम्मान मिला है। वहीं भारत विकास परिषद अंबाला शहर और पंचनद शोध संस्थान यमुना नगर द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें देश व विभिन्न राज्यों की साहित्यिक एवं प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा काव्य मंचों से अनेक पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। 
09June-2025

मंगलवार, 3 जून 2025

चौपाल: फिल्मों की कहानियां समाज को देती हैं सकारात्मक संदेश: संजय सैनी

फिल्मी पटकथा लेखन के साथ अभिनय और निर्देशन में भी बनाई पहचान 
          व्यक्तिगत परिचय 
नाम: संजय संजू सैनी 
जन्मतिथि: 10 अक्टूबर 1990 
जन्म स्थान: गाँव बिरौली, जिला जींद (हरियाणा)
शिक्षा: स्नातकोत्तर (वनस्पति विज्ञान और मनोविज्ञान), डीएवी कॉलेज चंडीगढ 
संप्रत्ति: लेखक और निर्देशक 
संपर्क: मोबाइल नंबर- 9996436999 
By-ओ.पी. पाल 
रियाणवी लोक कलाकारों ने हरियाणवी संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं की पहचान देश विदेश तक पहुंचाई है, जिसमें हरियाणवी फिल्मों, लोक संस्कृति से जुड़ी रागनी, सांग तथा लोक संगीत के क्षेत्र में अलग विधाओं में कलाकारों के हुनर अपनी अलग ही पहचान रखता है। ऐसे ही संजय संजू सैनी ऐसे कलाकार है, जिन्होंने एक छोटे से गांव से बॉलीवुड तक अपने अभिनय का सफर तय किया है। उन्होंने कई फिल्मों और वेबसीरीज की कहानियां लिखी और उन पर बनी फिल्मों का निर्देशन के अभिनय की भूमिका भी निभाई है। उन्होंने अपने लेखन, फिल्म अभिनय और निर्देशन के सफर को लेकर हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे पहलुओं का जिक्र किया, जिसमें कला की हर विधा समाजिक सरोकार के मुद्दों में सकारात्मक संदेशों का समावेश करने में सक्षम है। 
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रियाणा संस्कृति संवर्धन में जुटे लेखक एवं निर्देशक संजय संजू सैनी का जन्म 10 अक्टूबर 1990 को जींद जिले के गांव बरौली में एक किसान परिवार में कंवर सिंह और इंदू देवी के घर हुआ। उनके पिता हरियाणा सरकार के शिक्षा विभाग में अध्यापक पद पर कार्यरत रहे, जबकि माता गृहणी हैं। उनका परिवार बड़ा है और दादा किसान थे और उनके पिता चार भाईयों के साथ नौकरी करने के अलवा खेती बाड़ी में भी हाथ बंटाते थे। परिवार में उनके चाचा पंजाबी भाषा के अध्यापक हैं, जो सुरजीत बिंदरखिया की कैसेजट से आते थे और एक लाल बैटरी, जिसमें म्यूज़िक की भी व्यवस्था थी उससे वह सुनता था। हरियाणवी में उन्होंने बचपन में ही सुनील दूजानिया और रामकेश जीवनपुरीया को भी सुना है। शायद उसी के कारण उन्हें बचपन में कला व संगीत में अभिरुचि होने लगी। उनके गांव की ही एक टोली रागनी गाने और गढवे बैंजो बजाकर गाती थी, तो वह भी चोरी छिपे उनके साथ रहता था। बकौल संजय सैनी, पहली बार उन्हें लिखने का एहसास उस समय हुआ था, जब उनके दोस्त के उपर प्रस्ताव लिखना था। संजू ने मॉय बेस्ट फ्रेंड को अलग अलग तरीक़े से चार बार लिख दिया था। इसमें एक बार हास्य, फिर दुखास, इसके बाद गंभीर और अंत में गुस्सैल तरीके से लिखा, तो उनके अध्यापक ने हंसते हुए उनकी पीठ थपथपाई थी। दरअसल यह लिखने का कारण था कि सबके दोस्त एक जैसे कैसे हो सकते है? सबके किरदार मिलते जुलते कैसे हो सकते हैं, लेकिन उनका दोस्त अलग है और वह दुनिया की भीड से अलग रहेगा। उन्होंने बताया कि एक बार वह अपने दोस्त के साथ गलती से 'चंडीगढ में पंजाब कला भवन सेक्टर 16 गया, जहां उन्होंने 'बिच्छू', 'सातवाँ घोड़ा' 'कोर्ट मार्शल' थिएटर देखा और फिर वहीं का होकर रह गया। यानी वहां एक्टरों को घंटो तैयारी करते देखा और एक्टरों को देखना उनकी एक आदत बन गई और आज वह भी बिना पहचान बताए यही कर रहे हैं और वहां बैठकर एक्टर और डायरेक्टर को काम करते देखता हैं। उनकी पहली कृति एक कविता थी, जो कि एक न्यूज़ चैनल की वेबसाइट पर प्रकाशित हुई थी। दरअसल वह कालेज के दिनों में पढ़ाई करते समय से ही फिल्म की कहानी लिखने लगे थे। उन्होंने एमएससी की पढ़ाई के दौरान रॉकी मेंटल की कहानी लिखी और सौभाग्यवश इसे चयनित कर लिया गया। इसके बाद मन में आया कि उन्हें लेखन कार्य को अपना करियर बनाना चाहिए और इसी फील्ड में अपने करियर को आगे बढ़ाने का फैसला किया। हाल ही में उनके कुछ प्रोजेक्ट बड़े प्रोडक्शन हाउस से आने वाले हैं। सैनी ने बताया कि उनके ⁠फ़िल्मों का सफ़र कुछ ऐसा रहा कि फ़िल्म की कहानी लिखने और अपनी लिखी फ़िल्म थिएटर में देखने का मौका मिल गया था, लेकिन तब भी उनका इधर काम करने का इरादा कम ही था। ⁠लेकिन उनकी लिखी हुई पहली दोनों कहानियों पर फ़िल्म बनी, तो उनका खुद पर भरोसे के साथ आत्मविश्वास बढ़ने लगा और उन्हें लगा कि जो वह करने आया था वह उसी राह पर हैं। 
यहां से मिली मंजिल 
लेखक एवं निर्देशक संजय सैनी ने बताया कि खेल में उन्होंने कबड्डी खेली है और राज्य स्तर के टूर्नामेंट तक खेला। जब भी कोई खेल प्रतियोगिता होती है, तो हरियाणा के पहलवानों का दबदबा हमेशा देखने को मिला है। उन्होंने जब कालेज की पढ़ाई के दौरान ही खेलों पर ही फिल्म 'रॉकी मेंटल' की कहानी लिखी और उसे फिल्म के लिए चुना गया। उन्होंने वेबसीरीज फिल्म अखाड़ा (एक और दो), स्कैम, पिंकी भाभी के किरदार की पटकथा भी लिखी और अभिनय भी किया। अखाड़ा के लिए उन्हें हिफ्फा से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड भी मिल चुका है। पलवानो और उनके संघर्ष पर ही आधारित फिल्म 'अखाड़ा' वेबसीरीज को लेकर लेखक संजय सैनी काफी चर्चा में है। इसके निर्माण के लिए उन्होंने काफी समय तक हरियाणा के विभिन्न गांवों और छोटे कस्बों में शोध कार्य करके कुश्ती जैसे खेल पर यह वेब सिरीज लिखी है। वर्तमान में वह बॉलीवुड में दो हिंदी फ़िल्म, एक वेब सीरीज़ में बतौर लेखक और निर्देशक की भूमिका में कार्यरत हैं। गैंगस्टर और रियल लाइफ स्टोरी पर भी उन्होंने कार्य किया। 
डाक्टर न बनने का मलाल 
फिल्म निर्देशक संजय संजू सैनी का कहना है कि उन्हें इस बात का मलाल रहेगा कि वह डाक्टर नहीं बन पाए। मन में यह ऐसी पीड़ा बस गई कि नौकरी करना उनकी किस्मत में नहीं था, क्यों कि उनका लेखन की तरफ ज्यादा रूझान बढ़ता गया। घंटो बॉयलोजी की पढ़ाई करने के कारण किताबों के साथ समय बीताना अच्छा लगता था, जिसमें शरतचंद्र, धर्मवीर भारती, दिनकर और सुरेंद्र मोहन पाढक से लेकर समकालीन लेखक सत्य व्यास, प्रवीण झा प्रियकां ओम और मिनाक्षी सिंह सुनीत करोथवाल तक को पढता रहता था। इसके साथ वह असमंजस में रहे कि यदि फिल्म लाइन का कोई भरोसा नहीं, फ़िल्म बन भी गई तो चलेगी या नहीं इसका डर अलग रहा। इन सभी सवालों का जवाब उन्हें उनके स्वर्गीय दादा हवा सिंह ने देते हुए दिया कि बेटा खेती कौनसा सिक्योर है? लेकिन हमने भी तो जीवन निकाल लिया और उतार चढ़ाव आना जिंदगी का हिस्सा है। इसलिए जो कर रहे हो उस पर ध्यान रखते हुए शिद्दत से काम करो। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और नहीं सोचा। तब से वह लगातार कहानियों का लेखन करते आ रहे हैं और उन पर फिल्में भी बन रही हैं। आज के आधुनिक युग में साहित्य और संस्कृति के सामन चुनौतियों को लेकर संजय सैनी का कहना है कि ऐसे समय में खासतौर से युवाओं में रुचि बढ़ी है, बदलाव केवल इतना है कि इसके लिए आज कल इंटरनेट युग में सोशल मिडिया और ओटीटी ने उनके लिए नए रास्ते खोले। ⁠हालांकि समाज में संस्कृति से जोड़ने की दिशा में युवाओं को प्रेरित करने की जरूरत है। हालांकि युवा वर्ग स्वयं अपनी दिशा और प्रेरणा तलाश लेते है, जिन्हें केवल मार्गदर्शन की जरुरत है। 
02June-2025

सोमवार, 26 मई 2025

साक्षात्कार: सामाजिक उत्थान का माध्यम है साहित्य सृजन: कृष्ण कुमार

कविता, गजल, लघुकथा, व्यंग्य जैसी विधाओं में लेखन से मिली पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: कृष्ण कुमार निर्माण 
जन्म तिथि: 15 जून 1975 
जन्म स्थान: गांव व पोस्ट बरोदा, गोहाना, जिला सोनीपत,(हरियाणा) 
शिक्षा: एमए (हिंदी),बीएड,एलएलबी, पत्रकारिता डिप्लोमा 
सम्प्रति:स्वतंत्र लेखन, कवि, एवं शिक्षा विभाग हरियाणा में अधिकारी
संपर्क:निर्माण सदन, शांति नगर,करनाल, मोबा-9034875740, ई मेल kknsec@gmail. com 
--BY-ओ.पी. पाल 
साहित्य जगत में लेखन केवल साहित्य संवर्धन ही नहीं है, बल्कि सामाजिक उत्थान में भी साहित्य की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसा साहित्य सृजन करते आ रहे मूर्धन्य विद्वानों का भी मत है कि साहित्य के बिना समाज की कल्पना करना असंभव है। समाज को नई दिशा देने के मकसद से ही साहित्यकार अपनी विभिन्न विधाओं में लेखन करने में जुटे हैं। ऐसे ही लेखकों में साहित्य साधाना में जुटे साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण भी सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों को उजागर करके आलेख, कविताओं और सामयिक विषयों पर अपने रचना संसार को दिशा देने में जुटे हुए हैं। हिंदी और हरियाणवी भाषा में साहित्य संवर्धन करते आ रहे साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे तथ्यों का जिक्र किया है, जिसमें वह कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, व्यंग्य, समसामयिक विषयों पर लेखन करके समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी परंपराओं से जुड़े रहने का सकारात्मक संदेश दे रहे हैं। 
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साहित्यकार एवं लेखक कृष्ण कुमार निर्माण का जन्म 15 जून 1975 को हरियाणा के सोनीपत जिले में गोहाना तहसील के गांव बरोदा में भूप सिंह निनानिया और श्रीमती रतनी देहड़ान के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई साहित्यिक माहौल तो नहीं रहा, लेकिन उनके बड़े ताया लेखन करके रागनी का गायन करते थे। जबकि पिता को भी पढ़ने और रागनी गाया करते थे। उनके पिता और अक्सर उन्हें सांग दिखाने भी ले जाया करते थे, शायद इसी से प्रभावित होकर उनमें भी साहित्यिक व सांस्कृतिक के प्रति कब रुझान बढ़ने लगा और उन्हें ठीक से याद भी नहीं है कि कब उनमें यह लिखने का गुण आ गये। उन्हें ऐसा लगता है कि मेरे ताया रघबीर सिंह की ही प्रेरणा है कि उन्हें विरासत में साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में लेखन मिला, इसका जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक 'बखत-बखत के बोल' में भी किया है। वहीं स्कूली शिक्षकों ने भी उनकी इस प्रतिभा को निखारने में सहयोग दिया। वह स्कूली शिक्षा के दौरान स्कूल में होने वाले हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लेकर भाषण प्रतियोगिता, काव्य पाठ और अभिनय करते थे और इन सभी विधाओं में उसने पहला स्थान हासिल किया। उन्हें राज्य स्तर पर श्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ कमण्टेटर का खिताब भी हासिल हुआ है। बकौल कृष्ण कुमार, बचपन से ही सांग देखकर और ताऊ जी को सुन-सुनकर उन्होंने जिस माहौल को महसूस किया, उसी की वजह से साहित्य सृजन के लिए उनके लेखन की शुरुआत हुई। हालांकि सबसे पहले तो हरियाणवी में रागनी लिखना शुरू किया। जब वह आठवीं कक्षा में थे तो उन्होंने अपनी पहली रचना लिखी, जिसे उनके ने कई आध्यात्मिक कार्यक्रमों में भी गाया और उन्होंने उसे स्वयं भी सुना। इसी बीच निरंकारी मिशन द्वारा एक गीत संग्रह 'हर का भजन करया कर' प्रकाशित हुआ, जो कि पहली बार सार्वजनिक भी हुआ और फिर अखबारों में प्रकाशित हुआ। अखबारों में उनकी रचनाएं छपने के क्रम से उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक भी था, जिसमें हिसार में उनके साहित्यिक गुरु मोहन स्नेही की प्रेरणा मिली। इसी प्रेरणा और बढ़ते रुझानों के चलते उन्हें राज्य कवि उदयभानु हंस के साथ भी मंच पर कविता पढ़ने का अवसर मिला और यहीं से हिंदी में भी साहितय लिखने का क्रम आगे बढ़ा ओर प्रकाशित भी हुआ। उन्होंने बताया कि उनके लेखन के क्रम ने गति पकड़ी और विभिन्न कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ भी करते रहे। वहीं उनके कई साझा संग्रह भी आए, लेकिन एक मित्र ने कहा कि आप इतने दिनों से लिख रहे हो, अपना खुद का संग्रह लिखकर भ छपवाओं। इसके बाद उन्होंने हरियाणवी लघु कविताओं का संग्रह लिख, जिसकी भूमिका सुविख्यात साहित्यकार सत्यवीर नाहड़िया ने लिखी है। जहां तक साहित्यिक सफर में परेशानियों का सवाल है उसके लिखे साहित्य के लेखन में कई बार आई, लेकिन ऐसी समस्याएं जल्द हल हो गई। एक ऐसा दिलचस्प किस्सा भी उस समय सामने आया, जब रेवाड़ी में वह अपना कविता पाठ करके मंच से नीचे उतर रहे थे तो युगदृष्टा बाबा हरदेव सिंह जी ने उनकी लिखी रचना को लिखित में मुझे मांगा, जिससे उनका उत्साह बढ़ना भी स्वाभाविक था। आज वह कविता, ग़ज़ल, लघुकथा, व्यंग्य, समसामयिक विषयों पर लेख लिख रहे हैं और कुंडली, लघुकविता, लघुकथा भी उनके साहित्यक साधना की विधाओं में शुमार हैं। उनके उनके साहित्य लेखन का फोकस जनपक्ष की व्यथा, जातिगत भेदभाव, किसानों की दुर्दशा और नारी अधिकार जैसे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर ज्यादा रहा है। उनके आलेख, कविताएं और रचनाएं देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में भी अनवरतप्रकाशित होती रही है। वहीं हिसार दूरदर्शन से उनके काव्य की अनेक बार प्रस्तुतियां प्रसारित हो चुकी है। उन्होंने हरियाणावी साहित्य अकादमी बनाने के लिए आंदोलन भी चलाए और इसके लिए सरकार को पत्र भी लिखे हैं।
सोशल मीडिया से बड़ी चुनौती 
आधुनिक युग में भी निश्चित रूप से साहित्य की स्थिति सर्वोच्च बनी है, मगर सोशल मीडिया के दौर में थोड़ा चुनौती भी कहा जा सकता है। इस आभासी दुनिया में जहाँ सकारात्मकता है, वहीं काफी चीजें अनुचित भी हैं। ऐसा भी नहीं है कि साहित्य के पाठको में कमी आई है, बल्कि मुद्रित पुस्तकों के मुकाबले ऑनलाइन पाठ पठन कुछ ज्यादा हो गया है। वहीं इस बाजारीकरण के दौरे में अर व्यक्ति व्यस्त है और मोबाइल को ही अपने जीवन की प्रक्रियाओं का जरिया बना लिया है। साहित्य और संस्कृति से दूर होती युवा पीढ़ी को लेकर उनका कहना है 'भूखे पटे भजन होए न गोपाला' वाली कहावत ऐसे माहौल में सटीक भी है, जब युवाओं पर करियर को लेकर दबाब बढ़ रहा है। लेकिन ऐसे में युवाओं को साहित्य के लिए प्रेरित करने की ज्यादा आवश्यकता है, जो उन्हें नई राह देने के साथ उनके आत्मसम्बल भी बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकता है। युवाओं को साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए उनके स्तर और बदलते युग के साहित्य लेखन की जरुरत है। लेकिन लेखक और साहित्यकारों द्वारा साहित्य तो ज्यादा लिखा जा रहा है, लेकिन उसमें गिरावट नजर आने लगी है और यह बहुत ही तकलीफदेह है कि आज साहित्य भी दो खांचों में बांटा जा रहा है। असल में साहित्य वही है जो कालजयी हो और आम जनमानस की पीड़ा को प्रभावी तरीके से व्यक्त करता हो। इसके लिए खासतौर से युवाओं को साहित्य से जोड़ने के लिए स्कूल और कॉलेजों स्तर पर में सहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यशालाओं को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार कृष्ण कुमार निर्माण की प्रकाशित पुस्तकों में हरियाणवी लघुकविता संग्रह 'बखत बखत के बोल', हिंदी आलेख संग्रह 'प्रसंगवश', हिंदी काव्य संग्रह 'कविता के बहाने व शब्द बोलते हैं', हरियाणवी ग़ज़ल संग्रह 'बखत-बखत की बात', हरियाणवी लघुकविता संग्रह 'घणा बदलग्गा यार जमाना', व्यंग्य संग्रह 'हल्के-फुल्के व्यंग्य', हरियाणवी कुंडली संग्रह 'मन के जालै', आलेख संग्रह 'संयोगवश'(समय का दसतावेज) शामिल हैं। इसके आलवा उनके साझा संग्रह में हरयाणवी गीत संग्रह 'हर का भजन करया कर', करनाल के कवियों का संग्रह 'कविप्रिया', लघुकविता संग्रह 'हरियाणवी जिंदाबाद' हरियाणा के लघुकथाकार 'ख्यालों का चरागाँ' दूरदर्शन द्वारा प्रकाशित बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ-आवाज-ए हिंदुस्तान भी उनकी उपलब्धियां हैं। 
पुरस्कार व सम्मान 
हिंदी और हरियाणवी साहित्य में योगदान के लिए साहित्यकार कृष्ण कुमार को अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उन्हें 'हिंदी श्री' सम्मान, श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान, हरियाणवी साहित्य गौरव अवार्ड, श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान, साहित्य सभा कैथल व नेपाल की संस्था द्वारा पुरस्कारों से नवाजा गया है। वहीं कवि सम्मेलनों के मंचों पर भी उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं। 
  26May-2025

सोमवार, 19 मई 2025

चौपाल: समाज व संस्कृति के संवर्धन में लोक कलाओं की अहम भूमिका: सोनिया

लोक नृत्य और शास्त्रीय नृत्य कथक से सांस्कृतिक का विकास करने में जुटी कलाकार 
           व्यक्तिगत परिचय 
नाम: सोनिया 
जन्मतिथि: 24 सितंबर 2001 
जन्म स्थान: गांव ससोली, जिला यमुनानगर 
शिक्षा: ग्रेज्युएट 
संप्रत्ति: लोक नृत्य, लोक कलाकार 
संपर्क: गांव ससोली, जिला यमुनानगर, मोबा: 8295083765 
BY--ओ.पी. पाल 
रियाण की समृद्ध लोक संस्कृति के संवर्धन में जुटे लोक कलाकारों ने विभिन्न विधाओं के माध्यम से अपनी कला में नई दिशा देने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि हरियाणवी कला, संस्कृति और परंपराओं की देश-विदेशों तक अलख जगाई है। ऐसे ही कलाकारों में प्रतिभावान सोनिया अपने लोक नृत्य की कला को ऐसी धार देने में जुटी हैं, जिसमें उनका लोक नृत्य, केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि संस्कृति का वाहक बनकर धर्म, संस्कार और आत्म-चिंतन को जोड़ने का सबब बनता जा रहा है। लोक नृत्य के साथ वह भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक की विधा में अपने कदम बढ़ा रही हैं। हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत के दौरान युवा लोक कलाकार सोनिया ने अपनी लोक कला के सफर को लेकर कुछ ऐसे पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें वह अपनी कला लोक परंपरा और शास्त्रीय साधना से एक ऐसा सांस्कृतिक पुल बनाया जा सकता है, जो नई पीढ़ी अपनी जड़ों से जोड़कर समाज को सकारात्मक विचारधारा के साथ नई दिशा देने में सक्षम है। 
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रियाणा की प्रतिभाशाली लोक कलाकार सोनिया का जन्म जन्म 24 सितंबर 2001 को यमुनानगर जिले के ससोली गाँव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में सुरेंद्र कुमार और श्रीमति करनैलो देवी के घर में हुआ। उनके परिवार में कोई सांस्कृतिक या कला का माहौल नहीं था। सोनिया की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई, उनके पिता कभी-कभी रिक्शा चलाकर भी परिवार का पालन पोषण करने का प्रयास करते थे, जबकि माता नगर पालिका में कच्ची कर्मचारी के रूप में कार्यरत हैं और आज भी उनका परिवार मां की आय पर आधारशिला हैं। इसका कारण यह था कि कोराना काल में घर में ब्रजपात हुआ और उनके पिता का दुर्भाग्यवश निधन हो गया, उस समय वह गुरु नानक गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर में स्नातक प्रथम वर्ष की पढ़ाई कर रही थी। पिताजी के निधन के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बढ़ने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ समय के लिए बाधित रही। लेकिन परिवार की जिम्मेदारी संभाल रही मां ने बेटे के अभाव में भी घर में तीन बेटियों का आत्मबल कभी कम नहीं होने दिया और आर्थिक चुनौतियों के बीच माँ के धैर्य और हमारी एकजुटता ने हमें आगे बढ़ने की शक्ति दी। बकौल सोनिया, उन्हें बचपन से ही नृत्य और अभिनय बेहद पसंद थे और खासतौर से नृत्य में अभिरुचि थी। जब भी कोई फिल्म देखती, तो उसके नृत्य को कॉपी करने की कोशिश करती और उसके संवादों की तरह अभिनय भी करती थी। कभी कमरे में अकेले, तो कभी किसी पारिवारिक आयोजन में जैसे ही संगीत बजता या कोई सीन मन को छूता, मेरा मन नृत्य और अभिनय की ओर खिंच जाता था। वह अभी अपने भविष्य से अनजान थी, लेकिन अहसास होता था कि उसकी राह राह कला की दुनिया से होकर ही जाती है और समय के साथ यह रुचि ही उनकी साधना बन गई और अब लोकनृत्य ही उसकी कला की पहचान बन चुकी है। उन्होंने बताया कि 12वीं की शिक्षा पूरी करने के बाद उसे गुरु नानक गर्ल्स कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करते हुए कॉलेज के यूथ फेस्टिवल में उन्हें हरियाणवी लोक नृत्य के ग्रुप डांस में भाग लेने का अवसर मिला, जो दर्शकों के सामने उनकी पहली लोकनृत्य की प्रस्तुति थी, जहां उनकी कला को तालियों से मिली सराहना ने आत्मविश्वास को ऐसे बढ़ाया कि उनका मन पूरी तरह नृत्य में रच-बस गया। कॉलेज में ही उन्होंने हरियाणवी लोकनृत्य की बारीकियाँ सीखी थीं, जिसके बाद उन्होंने कई शूटिंग के दौरान बैकग्राउंड डांसर के रूप में काम करना शुरू किया। इसी दौरान उन्हें स्वर्गीय सिंगर राजू पंजाबी के साथ एक गाने में मुख्य भूमिका में भी काम करने का अवसर मिला। हालांकि इस क्षेत्र में मेहनत के मुकाबले पारिश्रमिक बहुत कम था और कार्यशैली असंगठित, विशेष रूप से बैकग्राउंड कलाकारों के लिए रही। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि अपनी कला को एक सृजनात्मक, सम्मानजनक और स्थायी मंच पर ले जाएं। उनका कहना है उनकी कला यात्रा आसान नहीं रही, लेकिन हर मोड़ उनके लिए एक नई सीख लेकर आया। जब उन्होंने हरियाणवी लोकनृत्य और भारतीय शास्त्रीय नृत्य की दुनिया में कदम रखा, तब यह सिर्फ एक शौक नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार थी। गाँव की बेटी होने के नाते कई बार सामाजिक सीमाएं भी सामने आईं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल उठे, मंच पर खड़े होने को नजरों से तौला गया। परिवार और समाज के कुछ लोग शुरू में रोक-टोक करते थे, पर उन्होंने हार नहीं मानी। जब उनका नाम अखबारों में मंचों की तस्वीरें के साथ आने लगा तो धीरे-धीरे समाज की आवाजें खुद ही शांत होती चली गई और आज वही राह उसे पहचान और सम्मान दिला रही है। उनकी लोक कला की इस यात्रा में अभी मंज़िलें तो बहुत बाकी हैं। 
हरियाणवी संस्कृति सर्वोपरि 
हरियाणा की मिट्टी में जन्मी और उसी सांस्कृतिक धड़कनों में पली-बढ़ी सोनिया अपनी कला को केवल मंच की प्रस्तुति नहीं, बल्कि आत्मिक यात्रा मानती है। हरियाणवी लोक नृत्य में गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू, भाषा, लोकगीत, हंसी-मजाक और संघर्ष सब कुछ समाहित करते हुए हरियाणा संस्कृति को सर्वोपरि रखा है। अब सोनिया का झुकाव भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक की ओर भी है, जिसकी विद्या को पूरी श्रद्धा और लगन से सीख रही हैं, क्योंकि इसमें केवल ताल और गति नहीं, बल्कि गहराई से भाव, कथा और आत्मिक अनुशासन छिपा है। कथक की हर मुद्राएं, हर भाव-अभिनय मुझे भीतर तक छूते हैं और उनकी कला को एक नई दिशा प्रदान करते हैं। उनका कहना है कि अपनी कला में उनका लक्ष्य नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने का है, ताकि समाज को सकारात्मक विचारधारा के साथ नई दिशा मिल सके और उनकी कला मनोरंजन नहीं, बल्कि संस्कृति का वाहक बनकर धर्म, संस्कार और आत्म-चिंतन से जुड़ सके। 
लोक कलाओं के सामने चुनौतियां 
युवा लोक नृत्य कलाकार सोनिया का इस आधुनिक युग में लोक कला और संस्कृति की चुनौतियों को लेकर कहना है कि हमारी लोक नृत्य, संगीत, और रंगमंच जैसी पारंपरिक कलाओं को कहीं न कहीं संघर्ष करना पड़ रहा है, जिसका कारण डिजिटल माध्यमों ने मंचों को स्क्रीन में बदल दिया है। इसी कारण कभी समाज की आत्म रहीं लोक कलाएं अब सीमित मंचों और सीमित दर्शकों तक सिमटती जा रही हैं। हालांकि अभिनय और संगीत की विधाएं आज भी जीवित हैं, लेकिन व्यावसायिकता और दिखावे का प्रभाव पारंपरिकता, भावनात्मकता और सच्चे कलात्मक प्रयासों की पहचान को मुश्किल करता नजर आ रहा है। लेकिन आज समाज, खासतौर से युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने की जरुरत है, ताकि इन कलाओं को केवल संग्रहालयों में ही नहीं, जीवंत मंचों पर भी जीवंत देखा जा सके। वहीं यह दुर्भाग्यपूर्ण सत्य है कि आज की युवा पीढ़ी की लोक कला, रंगमंच, अभिनय और साहित्य जैसी सांस्कृतिक विधाओं में रुचि कम होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण है तेज़ी से बदलती जीवनशैली और सोशल मीडिया का प्रभुत्व, जिसने त्वरित मनोरंजन को प्राथमिकता बना दिया है। जबकि लोक कलाएं केवल प्रस्तुति नहीं होतीं, वह हमारे इतिहास, हमारी सभ्यता और हमारे मूल्य प्रणाली की जीवंत अभिव्यक्ति होती हैं। इसलिए हरियाणवी लोक नृत्य, रंगमंच और संगीत जैसे पाठ्यक्रमों को स्कूली स्तर पर लागू करके हर स्कूल में युवाओं को प्रेरित करने के लिए अनिवार्य करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को भी लोक कला और नृत्य को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं बनानी चाहिए, ताकि कलाकारों को आर्थिक और सामाजिक सहायता मिल सके, जिससे वे अपनी कला को सशक्त रूप से प्रस्तुत कर सकें। 
19May-2025