साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के साथ एक रंगकर्मी के रुप में भी बनाई पहचान
व्यक्तिगत परिचय
नाम: डॉ सुरेश वशिष्ठ
जन्मतिथि: 14 मार्च 1956
जन्म स्थान: बरवाला गाँव, दिल्ली
शिक्षा: एम.ए (हिन्दी) बी.एड. पी-एच.डी.
संप्रत्ति: साहित्यकार और रंगकर्मी, कथाकार, नाटककार और उपन्यासकार सेवानिवृत्त प्राचार्य
संपर्क: एफ. 189, फेस-2, न्यू पालम विहार, सैक्टर- 112, गुरुग्राम (हरियाणा), ई-मेल: sureshvashisht@gmail.com
मोबा.: 9654404416
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BY- ओ.पी. पाल
साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा के लेखकों ने विभिन्न विधाओं में साहित्य संवर्धन करके समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया है। ऐसे ही साहित्यकारों में शुमार डॉ. सुरेश वशिष्ठ अपनी लेखनी के जरिए साहित्यिक और सांस्कृतिक साधना करने में जुटे हैं। उन्होंने एक रंगकर्मी, नाटककार, कथाकार और उन्यासकार के अलावा रंगकर्मी के रुप में सामाजिक सरोकारों के मुददों को उजागर करते हुए बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं और अतीत से रुबरु कराने का प्रयास किया है। शिक्षाविद् और प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सुरेश वशिष्ठ ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनछुए पहलुओं को भी उजागर किया है, जिसमें कोई भी लेखक और कलाकार यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करके अपनी संस्कृति से विमुख होती युवा पीढ़ी को प्रेरित कर सकता है।
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वरिष्ठ साहित्यकार एवं लेखक डॉ. सुरेश वशिष्ठ का जन्म 14 मार्च 1956 को दिल्ली के बरवाला गाँव में पं. रघुवीर सिंह शर्मा व इन्द्रावती के घर में हुआ। उनके परिवार की पृष्ठभूमि में पीढ़ियों से धार्मिक और संस्कृति स्थापन की रही है। 1690 के दशक में मेरे पूर्वज श्री श्री 1008 श्री कृपाराम जी महाराज आमेर राज्य (राजस्थान) में स्थित (अब जयपुर) बालानंद मठ के मठाधीश रहे। 1692 में श्री श्री 1008 श्री बालानंद जी महाराज के संग कृपाराम जी वैष्णवों के चतुर्थ संप्रदाय के विशाल धार्मिक लश्कर और आमेर के राजकुमार जयसिंह के साथ औरंगजेब से अपनी धार्मिक शर्ते मनवाने आए और नजफगढ़ के निर्दयी सुलतान नजफ खां का संहार भी किया। उसके बाद पीढ़ियों की लम्बी परम्परा में मेरे पूर्वज ईश्वरीय भक्ति का निर्वहन और धार्मिक प्रवचन करते रहे। साल 1692 में ही दिल्ली के घने जंगल में प्रवास किया और वहीं आगे चलकर बरवाला गाँव बस गया। वशिष्ठ के पूर्वज ठाकुरद्वारे की पूजा-अर्चना में पुजारी रहे और वाचन भी करते थे। उनके पिताजी श्री पं.रघुवीर सिंह शर्मा दिल्ली के शिक्षा विभाग में शिक्षक, मुख्य शिक्षक और सहायक शिक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। वहीं धार्मिक पुस्तकों का लेखन भी करते रहे। वैष्णव धर्म एवं दर्शन, वैदिक धर्म एवं दर्शन, पूर्व पुरुष और सृष्टि विस्तार जैसी असंख्य पुस्तकों का लेखन उन्होंने किया। परिवार के ऐसे परिवेश ने उनका प्रेरित होना स्वाभाविक था, जिसके चलते उन्हं लिखने की प्रेरणा मिलती रही है। बकौल डॉ. सुरेश वशिष्ठ, उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव बरवाला में ही हुई। जबकि उच्च शिक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज महाविद्यालय से पूरी की। बाद में उन्होंने जामिया विश्वविद्यालयनई दिल्ली से 'हिन्दी नाटक और रंगमंच: बर्टोल्ट ब्रेख्त का प्रभाव' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि हासिल की। उन्होंने दिल्ली सरकार के अधीनस्थ विद्यालयों में प्रवक्ता (हिन्दी) के पद पर अनेक वर्षों तक कार्य किया। इसके बाद साल 2006 में 'संघ लोक सेवा आयोग, दिल्ली' द्वारा उनकी प्रधानाचार्य पर नियुक्ति हुई और इसी पद से वे 31 मार्च-2018 को सेवानिवृत्त हुए।
साहित्यिक अभिरुचि के चलते उन्होंने शुरू में व्रत कथाओं को लिखना शुरु किया। जब वे नौवीं कक्षा में थे, तो हरियाणा के सोनीपत के एक गाँव में उनके मामा उनके पिताजी को हरियाणा के किसी गाँव में हुई घटना सुना रहे थे, तो उन्होंने भी उसे सुना और अगले दिन उसे अपनी कलम से लिख डाला। इस पर उनके एक सहपाठी ने शिक्षक से उसके नोवल लिखने की शिकायत की। इस पर शिक्षक ने आँखें तरेरी और जो लिखा था, उसे दिखाने को कहा। उनके मन में था कि उसे डाँट पड़ेगी, लेकिन शिक्षक ने जब उनकी लिखी कहानी को पढ़ा और पूछा कि यह सब लिखने का ऑइडिया कैसे आया, बताने पर मुझे शाबाशी मिली और वह उनकी पहली कहानी थी। लेखन और साहित्यिक सफर में परेशानी को लेकर डा. वशिष्ठ का कहना है कि लिखना दिलचस्प भी है और दुखदाई भी। लेकिन यथार्थ में जो हो रहा है, उसे लेखन का विषय बनाया जाना चाहिए। उसके बाद उन्हें कथा-कहानी और शेरो-शायरी और फिर अभिनय का शौक चर्राया। उन दिनों, हरियाणा और दिल्ली के देहात में 'साँग' बहुत लोकप्रिय नाट्य था और उन्हें भी साँग में वर्णित किस्से बहुत दिलचस्प लगते थे। रामलीला और कृष्णलीला की मंडलियाँ भी दशहरा व जन्माष्टमी के आस-पास गाँव में होती थी, जिन्हें देखकर और कथा सुनकर उनका भी मन अभिनय करने को लुभाता था। उनका यह शौंक भी कक्षा नौ में पूरा हुआ, जब स्कूल के एक उत्सव में 'श्रवण कुमार' नामक नाटक में पहली बार अभिनय किया। उनके अभिनय को खूब सराहा गया। फिर उन्होंने कॉलेज में अभिनय के साथ नाट्य लेखन की शुरुआत की और उनका पहला और प्रसिद्ध नाटक 'पर्दा उठने दो!' इतना प्रसिद्ध हुआ कि उन दिनों उसके पूरे भारत में पाँच हजार से ज्यादा शो हुए। 'पर्दा उठने दो!' को नजीमाबाद दूरदर्शन, 'दृष्टि' बिजनौर, 'अभिनय' बीकानेर, 'इप्टा' जयपुर, 'राजस्थान संगीत अकादमी' जयपुर, 'दुर्गा नाट्य मंच' जम्मू, 'छवि नाट्य मंच' और 'शाकुतम नाटय मंच' दिल्ली, 'आर.आर. बाबा गर्ल्स कॉलेज' बटाला इत्यादि असंख्य संस्थाओं ने इस नाटक के बहुत से प्रदर्शन मंचों पर किए। उन्हीं दिनों उन्होंने एक हरियाणवी नाटक 'कातिल कौन' भी लिखा गया था, जो जाट कॉलेज सोनीपत में मनफूल सिंह ढांगी के निर्देशन में कई जगहों पर उसे खेला गया। वहीं नुक्कड़ों और चौराहों पर भी उनके लिखे नाटकों को लोगों ने खूब पसंद किया गया। उनके लिखे अन्य नाटकों में अभी हाल ही में 'एक अजेय योद्घा' और 'रंग बदलेगा जरूर!', सुनो दास्तान-1919 इत्यादि नाटकों का मंचन हो रहा है। उनकी कहानियों और लघु कथाओं को भी लोग बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते हैं और प्रतिक्रिया भी देते रहे हैं। उन्होंने गजलें और कविताएँ बहुत कम लिखी, जबकि लम्बी कहानियाँ, लघु कहानियाँ, यात्रा-वृतांत, बाल उपन्यास और नाटक ही ज्यादा लिखे हैं। उनके लेखन के फोकस में यथार्थ को दिखाना रहा है, क्योंकि रचनाकार की नजर यथार्थ पर जरूर रहनी चाहिए। हालांकि प्रेम प्रसंग और युवा धड़कने भी कुछेक कहानियों में उकेरे गए हैं। वहीं लोक कहानियों और बाल कथाओं में नैतिक ज्ञान भी सर्वोपरि रहा है। हरियाणवी उनकी मात्रभाषा है लेकिन वह अपना लेखन हिन्दी में ही करते हैं, हालांकि उन्होंने बहुत पहले कुछेक हरियाणवी लोककथाएँ लिखी थी, जिनमें से कुछ लोककथाओं को लोरांद विश्वविद्यालय, बुद्धापेस्त (हंगरी) में भारोपीय भाषा परिवार में शामिल किया गया था, जहां उनके एक मित्र इम्रे बंगा ने भी इसकी पुष्टि की, जहां हिन्दी की एकमात्र प्रोफेसर डॉ. मारिया और उस वक्त प्रसिद्ध साहित्यकार असगर वजाहत भी हंगरी में ही पढ़ाया करते थे। उनकी कहानियां, लघुकथाएं, हिंदी के लोकनाट्य और कला रंग और लोक (आलोचना) जैसे आलेख और साक्षात्कार देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।
शोध कार्य
लेखक डॉ. सुरेश वशिष्ठ के साहित्य पर पीएचडी और एमफिल की उपाधि के लिए शोधकार्य भी हुए। इनमें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में नाटककार: सुरेश वशिष्ठ विषय पर अश्वनी कुमार ने शोध कार्य पूरा किया, तो वहीं मुदरै कामराज विश्वविद्यालय, मुदरै में संदीप कुमार ने सुरेश वशिष्ठ के साहित्य में नारी और मनीषा ने सुरेश वशिष्ठ की कहानियों में लोक-संस्कृति पर शोध कार्य किया है। डा. सुरेश वशिष्ठ कला एवं साहित्य की अखिल भारतीय संस्था 'संस्कार भारती' में पिछले पच्चीस वर्षों से हरियाणा में, प्रांत उपाध्यक्ष, प्रांत नाट्य प्रमुख, प्रांत साहित्य प्रमुख जैसे विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते रहे हैं। वहीं वे तीन वर्ष तक केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार) में सदस्य रहे। इसके अलावा कला, रंग-कर्म और लेखन से संबंधित अनेक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं।
प्रकाशित पुस्तकें
वरिष्ठ साहित्यकार डा. सुरेश वरिष्ठ ने करीब तीन दर्जन नाटक, करीब पाँच सौ कहानियाँ, दो दर्जन बाल पुस्तकें और पाँच उपन्यास लिखे हैं। उनके कहानी संग्रहो में प्रमुख रुप से खुरदरी जमीन, चली पिया के देश, सिपाही की रस्म, घेरती दीवारें, बहती धारा, लोकताल, श्रंगारण, नीर बहे, ताल मधुरम्, झीनी-झीनी रोशनी(भाग-एक), छलकते कलश(भाग-दो), भुला नहीं सका हूँ (खंड-एक) कहानियाँ, रक्तचरित्र (खंड-दो) कहानियाँ, अधूरी दास्तान(खंड-तीन) कहानियाँ, सफर कभी रुका नहीं (खंड-चार) कहानियाँ, निर्झर नीर (खंड-पांच) कहानिया, सरवर ताल (खंड-छह) कहानियाँ, लघु कहानियाँ-मुझे बोलने दो! अंधा संगीतज्ञ, रक्तबीज व हिन्दुत्व स्वाह!, लघुकथाएँ-लाल लकीरें, अंधेरे गलियारे, काले मेघ, सूखे डबरा व रंगे हुए सियार, बाल लघुकथाएं-आँगन में खिले फूल के अलावा तीन खंडों में आधी डगर सुर्खियों में हैं। इसके उनके उपन्यासों में नीलगगन का विज्ञान (बाल उपन्यास), नन्ही चिरैया (बाल उपन्यास), कलिकृत्त (बाल उपन्यास), रुद्रदेव के कारनामे (बाल उपन्यास) के अलावा लावा व मेव दंश शामिल हैं। उनके नाटक की 16 पुस्तकों में पर्दा उठने दो, रेत के ढेर पर, सैलाबगंज का नुक्कड, खुदा का घर, हुकूमत उनकी, बेला की पुकार,गलत फैसला, अंधे शहर में, सुनो दास्तान-1919, एक अजेय यौद्धा, नी हिन्द तेरी शान बदले, रंग बदलेगा जरूर!, नाटक संग्रह-अष्टरंग व नाट्य द्ववम् के अलावा लघुनाटक संग्रह बहते दरिया के साथ लघु नाटक और लघुकथाएँ बेरंग चेहरे शामिल हैं। उनके आधा दर्जन कविता संग्रह में पसर गई आवाज, तलाश जारी है, अंश अभी शेष है, रसधार, बरगद की छाँव और हुई सुहानी भोर है चर्चा में हैं। उनकी तीन पुस्तकें आलोचनात्मक भी प्रकाशित है, जिनमें हिन्दी नाटक और रंगमंच, हिन्दी के लोकनाट्य तथा कला रंग और लोक: दिशा एवं दृष्टि शामिल हैं।
पुरस्कार व सम्मान
वरिष्ठ कहानीकार और लेखक डा. सुरेश वशिष्ठ को साहित्य संवर्धन और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए अनेक पुरस्कार एवं सम्मानों से अलंकृत किया गया है। प्रमुख पुरस्कारों में हिन्दी साहित्यकार गौरव सम्मान, साहित्यकार सम्मान, साहित्य आराधना सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, सारस्वत सम्मान, साहित्य सृजन से राष्ट्र अर्चन,प्रस्तुत आलेख सम्मान, सामाजिक गौरव पुरूस्कार, विमल शुभ स्मृति साहित्य रत्न सम्मान, शब्द शक्ति सम्मान, प्रतिष्ठा महोत्सव एवं विश्व-शान्ति सम्मान, डा.राधाकृष्णन सहस्त्राब्दि राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान, शिक्षक गौरव सम्मान, गौरक्षक एवं कला सम्मान के अलावा उनकी ‘पुस्तक पर्दा उठने दो’ को भी पुरस्कृत किया जा चुका है।
आधुनिक युग में साहित्य
वरिष्ठ साहित्यकार डा. सुरेश वशिष्ठ का आधुनिक युग में साहित्य की स्थिति को लेकर कहना है कि साहित्य कभी मर नहीं सकता और बदलते परिवेश में सोशल मीडिया और टीवी ने पुस्तकों से ध्यान हटाया है, लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया पर आज भी साहित्य खूब पढ़ा जा रहा है और पाठक प्रतिक्रिया भी खूब दे रहे हैं। आज इंटरनेट या सोशल साइट पर साहित्य का पाठक पहले से ज्यादा सक्रिय दिखलाई पड़ता है। उनका मानना है कि पुस्तकें पढ़ना कम हो सकता है, लेकिन साहित्य पढ़ा जाना आज भी जारी है। विगत की घटी घटनाओं को जानने और यथार्थ में हो रही घटनाओं पर से उसकी पैनी नजरें हटी नहीं हैं। जहाँ तक पुस्तकें पढ़ने के कम होने का सवाल है, उसके लिए बाजारीकरण और सरकारें दोषी हैं। साहित्य के प्रति बुजुर्ग हों या युवा वर्ग, वह आज भी उतना ही लालायित दिखता है, जितना पहले था। खासकर युवा पीढ़ी सटीक शब्दावली में वर्णित अच्छा साहित्य पढ़ने की इच्छुक रहती है। तब, कोरी कल्पना या ख्यालों की उड़ान से अलग यथार्थ की हकीकत को कथ्य में समाहित करना लेखक का दायित्व भी है। पाठकों को जागरुक और साहित्य के प्रति प्रेरित करने के लिए साहित्यकारों व लेखकों का दायित्व है कि वह अच्छा और रुचिकर लिखे, जिसमें यथार्थ नजर आए, क्योंकि पाठक तो सच जानना ही चाहता है। आज देखा जा रहा है कि चौतरफा कुकुरमुत्तों की तरह लेखक उग आए हैं,या उगाए जा रहे हैं। लिखने की सामर्थ्य जिनमें नहीं वे भी महान लेखक होने की ढ़ोंढी पीट रहे हैं। उनकी नजर में लेखक जन्मजात होते हैं, उन्हें जबरन इजाद नहीं किया जा सकता। लेखक बनाए जाते रहेंगे तो लेखन में गिरावट आना जारी रहेगा। ऐसा नहीं होना चाहिए।
04Aug-2025
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