सोमवार, 14 जुलाई 2025

चौपाल: लोक कला एवं संस्कृति अतीत की विरासत: डा. सीमा वत्स

लोक नृत्य और गीतकार के साथ सामाजिक गतिविधियों ने भी दी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: डा. सीमा वत्स 
जन्मतिथि: 4 मई 1981 
जन्म स्थान: घरौंडा, जिला करनाल (हरियाणा) 
शिक्षा:पीएचडी(अंग्रेजी),एमए(अंग्रेजी),एमएससी, बीएड, लोक नृत्य और संगीत कोर्स 
संप्रत्ति: शिक्षिका, कवियत्रि, हरियाणवी लोक कलाकार 
संपर्क: मोबाइल नंबर 9654609425, ईमेल आईडी seemavats02@gmail.com 
BY-ओ.पी. पाल 
रियाणवी संस्कृति में लोक कला एवं संगीत की परंपरा की विरासत को संजोने के लिए लोक कलाकार अपनी अलग अलग विधाओं में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी कला के रंग बिखेर रहे हैं। ऐसे ही कलाकारों में महिला लोक कलाकार डा. सीमा वत्स भी कविताओं और गीत संगीत के साथ लोक नृत्य की कला को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। अपनी लोक कला के जरिए वह लिंग भेदभाव, नारी विमर्श और सामाजिक सरोकार के मुद्दों को लेकर समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रही है। खासकर वह नई पीढ़ी को लोक कला एवं संस्कृति की शिक्षा देकर उन्हें अपनी परंपराओं से जुड़े रहने का भी संदेश दे रही हैं। अपनी लोक नृत्य और गीत संगीत के सफर को लेकर एक शिक्षिका, कवियत्री और लोक कलाकार डा. सीमा वत्स ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान कई ऐसे पहलुओं को भी रखा है, जिसमें लोक कला, संगीत और संस्कृति एक अतीत की विरासत ही नहीं है, बल्कि भविष्य का आधार भी हैं, जिससे अपनी संस्कृति को जीवंत रखने के साथ युवा पीढ़ी को आत्मिक, रचनात्मक और सामाजिक रूप से समृद्ध बनाना संभव है। 
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रियाणा की लोक कलाकार डा. सीमा शर्मा वत्स का जन्म 4 मई 1981 को करनाल जिले के घरौंडा में मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हरिकिशन शर्मा और श्रीमती कमला देवी के घर में हुआ। घर परिवार में कोई किसी तरह का साहित्यिक या सांस्कृतिक माहौल नहीं था। लेकिन घरों में तीज़ त्यौहार शादी ब्याह आदि समारोह में गीत, संगीत, नृत्य, अभिनय जैसी कलाकारी देखने को जरुर मिलती रही। उनकी प्राइमरी से इंटरमिडिएट की शिक्षा सरकारी स्कूल में हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने आर्य कालेज में दाखिला लिया और स्नातक की द्वितीय शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही महज 19 साल की आयु में परिवार वालों ने विवाह कर दिया और अगले वर्ष मातृत्व सुख और गृहस्थ जीवन की जिम्मेवारियों के साथ पढ़ाई को जारी रखना और लोक कला को जीवित रखना उनके लिए संघर्षशील जीवन रहा। उस समय इतने साधन भी नहीं होते थे, जिसके कारण वह एमए अंग्रेजी फाइनल की परीक्षा भी नहीं दे सकी और उनकी उच्च शिक्षा अधूरी पड़ गई। हालांकि कुछ समय बाद उन्होंने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से पीजीडीसीए के लिए फॉर्म भरा और किसी तरह उसे पूरा भी किया, चूंकि बचपन से ही उन्हें गीत संगीत की अभिरुचि के साथ साहित्यिक का भी शोक था। इसलिए मन की आवाज को दबाकर भी नहीं रख सकती थी और साहित्य प्रेम उसे आकर्षित करता रहा। इसीलिए उन्होंने दोबारा से एमए (अंग्रेजी) की शिक्षा पूरी की। इसके बाद वह पीएचडी पूरी करने में भी कामयाब रही। जीवन के ऐसे उतार चढ़ाव के बीच उन्होंने अपना हौंसला कायम रखा और उन्होंने लोक कला में नृत्य विधा को अपने से दूर नहीं होने दिया। लोक संस्कृति में नृत्य और गीत की अभिरुचि के चलते ही उन्होंने ग्रेजुएशन में संगीत विषय को चुना था। बकौल डा. सीमा शर्मा, जब स्कूल में पढ़ रही थी तो एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए बच्चों का चयन किया जा रहा था, इसके लिए शिक्षिका ने उनसे भी गीत सुना और डांस कराया। उन्हें उनका डांस बहुत पसंद आया। इसलिए इस कार्यक्रम के लिए गीत ‘कोठे चढ़ ललकारूँ दिखे ओ मेरा दामन लयाइए..’, के लिए उसका नृत्य के लिए चयन कर लिया गया। इस गीत पर उनकी ताई भी नृत्य करती थी और वह ढोलक बजाया करती थी। सौभाग्य से स्कूल के इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में हरियाणा के मुख्यमंत्री भी अतिथि के रुप में शामिल हुए, जिन्होंने उनके गीत पर नृत्य को सराहते हुए ईनाम स्वरुप कुछ धनराशि भी भेंट की। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। इसके बाद उनका लोक नृत्य के प्रति रुझान बढ़ता गया। दूसरी ओर उन्हें स्कूल में किसी विषय पर कविता पाठ का अवसर मिलता तो वह अपनी कविता लिखकर प्रस्तुति देती थी। उनकी कला एवं साहित्यिक गतिविधियों तथा लेखन का फोकस सामाजिक सरोकार के मुद्दे रहे हैं। वह लिंग भेदभाव को कम करने की दिशा में भी लगातार समाज को नई दिशा देने का प्रयास कर रही है, जिसमें थर्ड जेंडरों के भी कार्य करना शामिल है। डा. सीमा शर्मा गीता जयंती, जिला स्तरीय कार्यक्रमों, कवि सम्मेलन और काव्य गोष्ठी, रेडियो आकाशवाणी आदि में अपने लोक नृत्य का प्रदर्शन कर चुकी हैं।विश्वविद्यालयों और डीओई आदि के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वह जूरी सदस्य के रुप में भी जिम्मेदारी निभा रही हैं। उन्हें कार्यस्थल और घर की कक्षाओं में सांस्कृतिक प्रभारी और कोरियोग्राफर के अलावा जिला राज्य स्तरीय कार्यक्रमों में कोरियोग्राफर के रुप में कार्य करने का भी अनुभव है। यूजीसी और साझा काव्य संग्रह में शोध पत्र के अलावा उनकी कविताएं, कहानी, ग़ज़लें और लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। वह गीत और संगीत में निर्देशक तौर पर भी कार्य कर रही हैं। उनका प्रयास हमेशा हरियाणवी लोककला और संस्कृति को अपने जीवन में उतारकर उसके संवर्धन के लिए कार्य करने का है। 
सामाजिक सेवा में सक्रीय 
लोक नृत्य कलाकार एवं कवियत्री डा. सीमा शर्मा साहित्यिक एवं लोक कला के क्षेत्र में अपना हुनर का प्रदर्शन करने के अलावा विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा, ड्रॉप आउट छात्रों यानी पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाकर उन्हें शिक्षा से जोड़ रही हैं। वहीं वे ट्रांसजेंडरों के उत्थान के लिए सामाजिक गतिविधियों में भी सक्रीय है। बतौर शिक्षिका उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि उनकी एक छात्रा कक्षा बारह में फेल हो गई थी। निराश वह छात्रा उनके पास आकर रोने लगी और बताने लगी कि उनके घरवाले उन्हें आगे नहीं पढ़ाएंगे और उसकी शादी करने को कह रहे हैं। इस पर डा. सीमा ने छात्रा की मम्मी को बुलाकर उसे एक साल पढ़ाने का आग्रह किया और दोबारा 12वीं कक्षा में प्रवेशा करया, जो इस बार उत्तीर्ण हुई और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करके उसने नौकरी हासिल करके यह साबित कर दिया कि जीवन में मौके मिलेंगे तो निश्चित रुप से अवसर भी बदलेंगे। 
पुरस्कार व सम्मान 
लोक कलाकार डा. सीमा वत्स को लोक कला व संगीत में अनेक पुरस्कार व सम्मानों से नवाजा जा चुका है। भारत नेपाल साहित्य सम्मेलन में स्वर साधना मंच द्वारा उन्हें काव्य सयंदन सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। वहीं उन्हें गोपाल दास नीरज साहित्य समूह साहित्य सम्मान, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान, कला सांस्कृतिक साहित्य सम्मान, सनिधा साहित्य श्री सम्मान, राष्ट्र शक्ति शिरोमणि सम्मान, बी एम बी एक्सीलेंस अवार्ड और लखनऊ में हेल्प यू नारी अस्मिता सम्मान से भी पुरस्कृत किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें सार्थक सेवा समिति, आशा रंगलाल जगदेव फाउंडेशन और श्री शक्ति स्वरूपा भव्य भारत की दिव्य विभूति जैसी संस्थाएं सम्मानित कर चुकी है। 
आधुनिक युग में परंपरागत विधाओं में चुनौती 
हरियाणा की लोक नृत्य कलाकार डा. सीमा वत्स का इस आधुनिक युग में लोक कला एवं संस्कृति के सामने चुनौतियों को लेकर कहना है कि इंटरनेट व सोशलमीडिया के प्रभाव लोक कला, रंगमंच, अभिनय, संस्कृति और साहित्य जैसी परंपरागत विधाओं में देखा जा रहा है। खासकर युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर होती जा रही है, जिसके कारण पहले की तुलना में कला एवं संस्कृति के प्रति की रुचि कुछ कम होना स्वाभाविक है। खासतौर से डिजिटल युग में पारंपरिक कलाओं की जगह आधुनिक, तकनीकी और त्वरित मनोरंजन के साधन बन गये और युवाओं को ओटीटी प्लेटफॉर्म्स, सोशल मीडिया, गेमिंग और रील्स जैसी चीजें भाने लगी हैं। जबकि जबकि लोक कला या साहित्य जैसे क्षेत्र ही समाज को सकारात्मक ऊर्जा और अपनी संस्कृति से जोड़े रखता है। ऐसे में इस बात की आवश्यकता है कि युवाओं को साहित्य और लोक कला व संस्कृति के प्रति प्रेरित करने की दिशा में स्कूली और कालेज स्तर पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। वहीं सरकारी और निजी स्तर पर लोक कला व संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन देने की जरुरत है, ताकि सामाजिक दृष्टि से भी लोककला और साहित्य जैसी सांस्कृतिक विरासत को जीवंत रखा जा सके। 
14July-2025

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