सोमवार, 8 मई 2023

साक्षात्कार: लोक संस्कृति में निहीत विधाओं के बिना साहित्य अधूरा: लहणा सिंहं अत्री

सांग विधा के लेखक के रुप में बनाई अपनी पहचान 
व्यक्तिगत परिचय 
नाम: लहणा सिंह अत्री 
जन्मतिथि: 03 दिसंबर 1950 
जन्म स्थान: फफड़ाना (करनाल) 
शिक्षा: स्नात्तक 
सम्प्रत्ति: भूतपूर्व सहायक, महर्षि दयानन्द विश्व विद्यालय रोहतक 
BY--ओ.पी. पाल 
साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा की परंपरागत लोक संस्कृति और कलाओं को जीवंत करने में लोक कलाकार ही नहीं, बल्कि साहित्यकार भी अपने लेखन के जरिए नया आयाम देने में जुटे हुए हैं। ऐसे ही साहित्यकारों में प्रदेश की संस्कृति में प्राचीन सांग और रागनी की परंपरा को अपनी रचनाओं का हिस्सा बनाने वाले लहणा सिंह अत्री ने यह संदेश दिया है कि बिना लोक संस्कृति की विधाओं के बिना साहित्य क्षेत्र अधूरा है। जहां उन्होंने अपनी रचना लेखन में सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर सांग और रागनियों के अलावा आध्यात्मिक गीत भी लिखे हैं, तो वहीं सम सामयिक घटनाओं को भी अपनी रचनाओं में समाहित करके सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार किया। साहित्य जगत में उन्होंने सांग परंपरा के लेखक के रुप में पहचान बनाई है। उनकी रचनाओं में सात सांग ऐसे हैं, जिनकी कहानी किसी लेखक या किसी किताब में नहीं है। प्रदेश में गुमनाम सांगियों और लोक कवियों को पहचान देने में योगदान करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार लहणा सिंह अत्री ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में अपने साहित्यिक सफर के बारे में जानकारी देते हुए कई ऐसे अनुछुए पहलुओं का भी जिक्र किया है, जिससे उनके साहित्य लेखन में लोक संस्कृति के रस का मिश्रण मिलता है। 
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रियाणा साहित्य अकादमी से सम्मानित साहित्यकार लहणा सिंह अत्री का जन्म तीन दिसंबर 1950 को करनाल जिले के फफड़ाना गांव में एक साधाराण मध्यम वर्गीय परिवार में पं. अमीलाल एवं शरती देवी के घर हुआ। उनके परिवार या आसपास के किसी भी परिवार में कोई साहित्यिक माहौल नहीं था। लहणा सिंह ने अपने जीवन के बारे में बताया कि पिता के ममेरे भाई पंडित लखमीचंद जींद के गांव भंभेवा में उच्च कोटि के गायक कलाकार एवं कवि पंडित मांगेराम के शिष्य जरुर हुए। सही मायने में उन्होंने उनकी गायन प्रतिभा से ही प्रभावित होकर ही उन्होंने भी उन्हें अपना गुरु धारण किया। सांग देखने का शौंक बचपन से ही था। इसलिए उनके मन में यही कसक रहती थी कि ये कवि लोग रागनी, सांग लिखते हैं तो वह क्यों नहीं लिख सकता? इसी अभिरुचि में वह भी बचपन में ही कुछ लिखने का प्रयास करने लगे। शुरुआत में वह जो लिखते थे उसे फाडकर फेंक देते थे और मजाक बनने के भय से किसी को दिखाने का साहस नहीं था। एक बार उन्होंने पंचायत चुनाव को लेकर अपनी ऐसी पहली रचना लिखी और सुनाई तो उसे सुनकर गांव वालों ने उसकी खूब प्रशंसा की। उसके बाद वह जो भी लिखते थे उसे संजोने लगे। इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए गुरु की तलाश हुई तो जुलाई 1988 उन्होंने गुरु धारण किया और उस समय काफी समसामयिक रचना और दो सांग लिख चुका था, लेकिन उसकी भनक गुरु को नहीं लगने दी और इसका उन्होंने अपने गुरु को सरप्राइज दिया। इसी जुनून में वह आगे बढ़ते रहे तो साल 1992-93 से उनका संबंध आकाशवाणी से हुआ और कविता पाठ के तौर पर वह अपनी रचनाएं सुनाने लगे, जहां उनके लिखे चार सांग आकाशवाणी से प्रसारित हुए। सच तो यही है कि उसे साहित्यिक क्षेत्र में यहीं से पहचान मिलना शुरु हुआ और इस मुकाम तक पहुंचा, कि एक साहित्यकार, लेखक एवं कवि के रुप में उन्हें साहित्यक संस्थाओं से सम्मान मिलने लगे। उनकी पुस्तक ‘चाल दिखाद्यूं अजब नजारा’ पर 2016 में हरियाणा साहित्य अकादमी से मिले 31 हजार रुपये के श्रेष्ठ कृति पुरस्कार ने उनका हौंसला बढ़ाया और अब साल 2021 में ढ़ाई लाख रुपये के जनकवि मेहर सिंह सम्मान ने उनकी साहित्यिक साधना की सफलता की गवाही दी। 
समाजिक सरोकार पर रहा लेखन का फोकस 
साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने अपने लेखन का फोकस हमेशा समाज पर रखा है। उसमें सम सामयिक रचना हो या सांग, उन्होंने दहेज प्रथा, बाल विवाह ,भ्रूण हत्या, अशिक्षा, फैमिली प्लैनिंग आदि पर लिखा है। उनके सात सांग ऐसे हैं, जिनकी कहानी किसी भी लेखक या किसी किताब में मौजूद नहीं है। इन सांगों की कहानियां भले ही काल्पनिक लगती हैं, लेकिन वह सब सत्य घटनाओं पर आधारित है। हां, उन्हें रोचक बनाने के लिए शब्दजाल का तड़का लगाना एक लेखक के लिए जरुरी भी है। आज के साहित्य में गुणवत्ता को दरकिनार किया जा रहा है। वह खुद तो सांग परंपरा के लेखक है और इस विधा में आज के लेखक शुद्धि-अशुद्धि पर ध्यान नहीं देते, जिसके पतन का कारण वह मटके वालों को मानते हैं, जो मूल तर्ज छोड़कर फिल्मी धुनों पर गाते हैं। हिंदी साहित्य में एक कविता पर जोर दिया जाता है, जो मुक्तक कहलाती है। बिन छंद-बंद की कविता कैसी? एक लघु कविता का चलन चला है। लघु कविता और मुक्त का पता ही नहीं चलता, वह कहना क्या चाहता है? 
युवाओं को साहित्य का ज्ञान जरुरी 
साहित्यकार लहणा अत्री ने आज के आधुनिक युग में साहित्य के सामने आ रही चुनौतियों को लेकर कहा कि इसके लिए इंटरनेट और स्मार्टफोन के साथ समाज और सरकार की नीतियां भी जिम्मेदार हैं। यह भी सत्य है कि आज का युवा पुस्तक पढ़ना ही पसंद नहीं करता और उसका उद्देश्य सिर्फ सिलेबस की किताब पढ़कर डिग्री लेना ही रह गया है। जबकि हमारे धार्मिक ग्रंथ है, बड़े-बड़े साहित्यकारों और कवियों की पुस्तकों में ज्ञान का भंडार है, जिन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए पढ़ना भी जरूरी है। तभी अपने अपने अतीत, अपनी संस्कृति का कोई परिज्ञान युवाओं को मिल सकता है। हम लेखकों, साहित्यकारों और लोक कलाकारों का भी दायित्व है कि वह सामाजिक परंपरा और साहित्य के प्रति युवा पीढ़ी को प्रेरित करने के लिए अच्छे साहित्य का सृजन करें। 
प्रकाशित पुस्तकें 
साहित्यकार लहणा सिंह अत्री की प्रकाशित सात पुस्तकों में चार सांग संग्रह हैं, जिनमें किस्मत के खेल निराले व त्रिवेणी तथा तीन कदम ओर प्रमुख हैं, जबकि उनके रागनी संग्रह क्यां का करै गुमान बावले, भजन संग्रह चाल दिखायूँ अजब नजारा तथा हरियाणवी महाकाव्य महाभारत का सार के अलावा शिव विवाह, बल्लभगढ का नाहर, राम रत्न का ब्याह, नज्मा, प्रीतकौर चंद्रपाल, हीरामल-जमाल भी उनकी कृतियां सुर्खियों में हैं। उन्हें पुस्तकें पढ़ना, लिखना और रेडियो सुनने का शोंक है। 
पुरस्कार व सम्मान 
हरियाणा साहित्य अकादमी ने लहणा सिंह अत्री को साल 2021 के लिए ढ़ाई लाख रुपये के जनकवि मेहर सिंह सम्मान से नवाजा है। इसके अलावा उन्हें हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति पुरस्कार, हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से हिन्दी विभाग कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय का सम्मान, साहित्य सभा कैथल का सम्मान, हिन्दी साहित्य प्रेरक संस्था, जींद का सम्मान, वैद्य हुक्म चन्द अग्रवाल फाउंडेशन घरौंडा तथा निर्मला स्मृति साहित्यक समिति, चरखी दादरी द्वारा पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा चुका है। ब्राह्मण सभा, असंध ने परशुराम जयंती पर पगड़ी भेंट कर सम्मान किया। इसके अलावा उन्हें विभिन्न सामाजिक एवं साहित्यिक संस्थाओं के मंच से सम्मान मिल चुके हैं। 
08May-2023

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