सोमवार, 1 मई 2023

चौपाल: लोक कला की विभिन्न विधाओं को जीवंत कर रहे इन्द्र सिंह लाम्बा

गीत लेखन व रागनी गायन के साथ लोकनृत्य में भी हासिल की है विशेषज्ञता 

BY--ओ.पी. पाल 

रियाणा के लेखक, कलाकार, गायक हरियाणवी लोक कला, संस्कृति एवं सभ्यता को जीवंत रखते हुए उसे देश विदेश में पहचान देने में जुटे हुए हैं। ऐसे ही लोक कलाकारों में शुमार इन्द्र सिंह लाम्बा, हिसार दूरदर्शन से लोक गायन में बी+श्रेणी के लोक कलाकार है, जो लोक कला और संस्कृति को लेकर इतने संजीदा हैं कि उन्होंने अपनी अलग अलग शैली में अपनी कला के प्रदर्शन से सभी को चौंकाया है। यानी वे गीत लेखन, गायन, अभिनय और लोक नृत्य जैसी विधाओं के जरिए समाज को सीधे अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का संदेश दे रहे हैं। इसी मकसद से लाम्बा ने परिवार से विरासत में मिली सभी विधाओं में देशभक्ति, सामाजिक कुरीतियां और भक्ति भाव पर फोकस करते हुए उसे आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। लोक संपर्क एवं सांस्कृतिक विभाग में कलाकार के पद से सेवानिवृत्त लोक कलाकार इन्द्र सिंह लाम्बा ने हरिभूमि संवाददाता से बातचीत के दौरान विभिन्न शैलियों में अपनी लोक कला के सफर के अनुभवों को साझा किया। 

रियाणा के रागनी गायक कलाकार इन्द्र सिंह लाम्बा का जन्म भिवानी जिले की तोशाम तहसील के गांव बजीना में 06 अगस्त 1961 को हरीचन्द के परिवार में हुआ। लाम्बा के पिता आकाशवाणी रोहतक से मान्यता प्राप्त लोक कलाकर थे। उनके चाचा, ताऊ, दादा और पड़दाता भी लोक गायक रहे। इसलिए उन्हें रागनी गायन और सांग की कला विरासत में मिली, जिसे लाम्बा आगे बढ़ा रहे हैं। लोक कलाकार इन्द्र सिंह लाम्बा ने बताया कि उन्होंने गायन की प्रारंभिक शिक्षा अपने चाचा चाचा धर्मनाथ को ही गुरु बनाकर ली, जो उस समय रामलीला, प्रचारक तथा लेखक थे। सांगं व रागनी गायन का माहौल उन्हें चूंकि परिवार से बचपन में ही मिला। उन्होंने बताया कि जब वह गांव के ही प्राइमरी स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, स्कूल में हर शनिवार को बच्चों कुछ ना कुछ खेल या सांस्कृतिक गतिविधियां करवाई जाती थी। तब उनकी उम्र मात्र 8 साल थी। अध्यापक ने उन्हें अपनी मेज पर खड़ा कर दिया और कुछ सुनाने के लिए कहा। तब मैने सकुचाते हुए राजा हरीशचन्द्र के किस्से से एक रागनी सुनाई। जिसके बोल थे: घडिया ठाके चला हरीचन्द पाणी ढ़ाण लाग्या, करके पिछली बात याद, दरिया पै रोण लागग्या। इस पर सभी बच्चों ने और अध्यापकों ने खूब तालियां बजाई और मुझे ईनाम में मीठी गोली दी। तभी से वह और अन्य एक साथी के साथ प्राइमरी स्कूल में रोजाना सुबह की प्रार्थना करवाते थे। छठी कक्षा में ढाणी मांटू हाई स्कूल में दाखिला लिया। वहां भी दसवी काक्षा तक पढ़ा और सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी करने के साथ स्कूल की प्रार्थना करवाने का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया। यहीं से उन्होंने साल 1976 में मैट्रिक पास की। उसी दौरान उनके फूफा मांगेराम और चाचा धर्मनाथ सांग का बेड़ा बनाया। इसके लिए उनका भी ऑडिशन हुआ और उन्होंने सांग में मुख्य करेक्टर (बड़ी रागी) का लगभग चार साल तक अभिनय किया। सांग के लिए गायन के साथ-साथ नृत्य भी करना होता था। फिर साल 1980 में मुझे जिला लोक सम्पर्क विभाग नारनौल के कलाकार के पद पर नौकरी मिली। नौकरी के दौरान फिर एक दिन मन में विचार आया कि कुछ लिखना चाहिए और उन्होंने एक एक भजन ‘प्यार हैजी, हैजी, जगत में बड़ा बताया प्यार, बिना इस दुनिया में जीना है बेकार’ लिखा। उन्होंने यही भजन 1982 में आकावावाणी रोहतक से पहली बार गाया था, जो आकाशवाणी केंद्र से बहुत बार प्रसारित किया गया। वह सरकारी नौकरी से कलाकार पद से साल 2019 सेवानिवृत्त हुए। खास बात ये है कि रागनी गायक और लोक नृत्य के विशेषज्ञ माने जा रहे इन्द्र सिंह लाम्बा ने गीत लेखन और अभिनय जैसी विधा में भी अपनी छाप छोड़ी है। 

बाधाओं के बावजूद नहीं डिगा हौंसला 

लोक संपर्क एवं सांस्कृतिक कार्य विभाग में एक कलाकार के पद पर काम करने के लिए कई बार उन्हें महिला का अभिनय तक करना पड़ता था। रात को सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद नाटक करते थे, जिसमें उसके कमला का अभिनय करना होता था, जहां कमला को देखने के लिए महिलाओं और लड़कियों का हजुम लग जाता था और आवाज आती थी कि कमला कितनी मलूक है। गायन के साथ अभिनय के लिए उसे अपने गांव के लोगों का भरपूर प्यार मिला। कला के क्षेत्र में कलाकारों के जीवन में बाधाएं तो अनेक आती हैं, लेकिन उनके साथ ऐसी घटना हुई कि उसका बुरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने बताया कि एक बार सांग में सुख भार कर यानि ऊंचा कूद-कूद नाच रहा था, तो तख्त टूट गया और उसके बीच से नीचे निकल गया। इसमें गहरी चोटों के कारण उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन कहावत है कि ‘जिन्दगी से जो ना हारे, वो संवारे जिन्दगी, ठोकरें खाकर ही बनता आदमी है आदमी। आजमाइस का यही दस्तूर है, तो क्या हुआ, चल मुसाफ़िर तेरी मन्जिल दूर है तो क्या हुआ’…। इसके बावजूद उन्होंने कोई परवाह किये बिना अपनी लोक कला को निरंतर जारी रखा, जिसका सकारात्मक परिणाम उनके सामने है और वह रागनी गायन में ही नहीं लोक कला की कई विधाओं के रुप में अपनी पहचान बना चुके हैं। 

हरियाणवी फिल्मों में की भागीदारी 

लोक कलाकार लाम्बा ने अपने लिखे गीतों पर रागनी गायन आकाशवाणी रोहतक और हिसार दूरदर्शन पर भी किया है। इसके अलावा उन्होंने हरियाणा कला परिषद की निदेशक उषा शर्मा के निर्देशन में तीज, करवा चौथ, होईमाता, रक्षाबंधन, कुंआ पूजन, जैसी ट्रेडिश्नल टेलीफिल्मों में गीत लिखने और गाने के साथ अभिनय की भूमिका भी निभाई है। वहीं यशपाल शर्मा के निर्देशन में बनी हरियाणवी फिल्म दादा लखमी में गायन के साथ अभिनय भी किया है। इसके अलावा उन्होंने हरियाणवी फिल्मों गौरव की स्वीटी, स्कैम, मैं भी सरपंच, पुनर्जन्म में भी लेखन, गायन व अभिनय किया है। इसके अलावा सपना चौधरी, अंजली राघव व सोनाली के साथ संगीत क्षेत्र में अपनी कला शैलियों का प्रदर्शन किया है। 

पाश्चत्य संस्कृति से हुआ ह्रास 

लोक कलाकार लाम्बा मानते हैं कि इस आधुनिक युग में साहित्य, लोक कला और लोक गीतों भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। इसका कारण किशोर तथा युवा वर्ग पथ भटक रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति की तरफ युवाओं का बढ़ता रुझान सामाजिक दृष्टि बहुत ही घातक है। लोक कलाकारों पक्के साज पर गाने के कारण रागनियों के श्रोताओं में भी बहुत कमी देखी जा रही है। इसका कारण घड़वा रागनी गायन भी है, जिसमें अश्लील चुटकले बेहुदी रागनी और भद्दी टिप्पणी भी आज की युवा पीढ़ी को हरियाणवी सांग और रागनी गायन शैली के प्रति भटका रही है। युवा पीढ़ी को अपनी लोक कला और संस्कृति के लिए प्रेरित करने के लिए कलाकारों को द्विअर्थी गीत लेखन और गायन शैली को त्यागकर गुरु शिष्य परंपरा का निर्वहन करने की जरुरत है। मसलन ऐसा लेखन, गायन, अभिनय होना चाहिए, जो परिवार एक साथ बैठकर सुन सके। अपनी लोक कला व संस्कृति को पुनर्जीवित रखने के कला क्षेत्र के लोग सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ेंगे तो समाज और संस्कृति को ऐसे दुष्परिणामों से बचाया जा सकता है। 

01May-2023

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