सोमवार, 24 जून 2024

चौपाल: सामाजिक सरोकार से जुड़ी रागनी गायक सुमित सातरोड की कला

इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़ लोक कला के क्षेत्र में बनाई पहचान 
      व्यक्तिगत परिचय 
नाम: सुमित सातरोड 
जन्मतिथि: 01 जनवरी 1974 
जन्म स्थान: गांव सात रोड, हिसार 
शिक्षा:जू. इंजीनियर इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन 
संप्रत्ति: ‍लोक गायक 
संपर्क: गांव सातरोड, हिसार, मोबा. 9812459261 
By--ओ.पी. पाल 
रियाणवी लोक कला एवं संस्कृति में रसी बसी सांग और रागनियों की गूंज सात समंदर पार तक सुनाई देती है। इसका श्रेय सूबे के लोक कलाकारों को है, जिसमें हरियाणवी लोक संस्कृति की अलख जगाने के लिए अलग विधाओं में हरियाणा को पहचान दी है। ऐसे ही लोक कलाकारों में हिसार के सुमित सातरोड ऐसे रागनी गायक हैं, जिन्होंने सामाजिक, आध्यात्मिक, वीर रस की गाथाओं की विधाओं में अपनी अलग पहचान बनाई है। वहीं सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को रागनी गायन के जरिए समाज के सामने परोसते हैं। सुमित ने समाज को सकारात्मक दिशा देने के लिए इंजीनियर की नौकरी को त्यागकर रागनी गायन शैली को अपनाया है। लोक कला के क्षेत्र में गायन शैली के दो दशक से ज्यादा के सफर को लेकर बुलंदिया छूते सुमित सातरोड ने हरिभूमि संवाददाता से हुई बातचीत में कई ऐसे अनुछुए पहलुओं को उजागर किया है, कि लोक कला के जरिए समाज में फैली कुरितियों को दूर करके सामाजिक समरसता की अलख जगाई जा सकती है। 
रियाणा की गायन शैली की परंपरा को आगे बढ़ाते आ रहे लोक गायक सुमित सातरोड का जन्म 01 जनवरी 1974 को हिसार में गांव सातरोड में एक सामान्य परिवार में शिवकुमार शर्मा व संतोष देवी के घर में हुआ। जब वह तेरह साल के थे तो 1987 में उनके पिता का निधन हो गया था, जो एक सरकारी नौकरी में थे। पिता के निधन से पूर्व हमारी माता जी को नौकरी मिली, जिन्होंने हमारे लालन पालन और पढ़ाई का पूरा ध्यान रखा और इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में इंजीनियरिंग भी कराई। बकौल सुमित उन्हें बचपन से ही संगीत का बहुत शौंक था, परंतु परिवार में किसी प्रकार का कोई संगीत या कला का माहौल नहीं था और परिवार में उनके अलावा किसी अन्य सदस्य की इस क्षेत्र रुचि थी। सुमित को बचपन से नृत्य का अधिक शौंक रहा। उनके गांव में हर छह महीने में गायन के लिए हरियाणा के सुप्रसिद्ध लोकगायक मास्टर सतबीर सिंह भैंसवाल आते थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब अपने गांव में मास्टर सतबीर सिंह भैंसवाल का गाना सुना, तो उन्हें पहली बार यह अहसास हुआ कि इस लोक गायकी से अच्छा कुछ नहीं है और तभी से उन्होंने भी अपना सारा ध्यान इसी लोक गायन संस्कृति पर केंद्रित करना शुरु कर दिया। उनके गायन शैली की शुरुआत साल 2000 भजन से की, जिसके बाद इतिहास और गाथाओं से जुड़े किस्सों पर रागनी गायन शुरु किया। हालांकि इसके लिए उन्हें घर परिवार और अपने संघी साथियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने सब बातों को नजरअंदाज करते हुए अपने लक्ष्य की तरफ ध्यान केंद्रित रखा और अपनी राह पर आगे बढ़ता रहा। वैसे भी हरियाणवी कवियों में से पंडित लखमी चंद मुख्य रुप से उनका आदर्श रहे, वहीं लोक गायन शैली में पं. लखमी के शिष्य पंडित मांगेराम और शहीद कवि जाट मेहर सिंह की गायन शैली से भी वह बहुत प्रभावित हैं। हरियाणा की लोक संस्कृति और समाजिक सरोकारों के मुद्दों पर उनकी रागनी गायकी का फोकस रहा है। सुमित सातरोड की गायन शैली में आध्यात्मिक व सामाजिक शास्त्र और श्रृंगार रस का समावेश भी रहा है। 
सम्मान व पुरस्कार 
रागनी गायक शैली के लोक कलाकार सुमित सातरोड ने विभिन्न विधाओं में अपनी कला के हुनर से हरियाणा ही नहीं, देश के कई राज्यों में सांस्कृतिक मंचों पर सम्मान पाया है। इसमें बाबा रामदेव की बायोपिक में गौ माता के भजन के ही करीब 15 सांस्कृतिक रत्न के रुप में पतंजलि योगपीठ से सांस्कृतिक अवार्ड शामिल हैं। इसके अलावा रागनी प्रतियोगिताओं और गांवों के मंच पर सैकड़ो पुरस्कार सम्मान उनके नाम दर्ज हैं।
संस्कृति की खातिर छोड़ी नौकरी 
लोक गायक सुमित सातरोड ने सामाजिक, अध्यात्म और लोक संस्कृति को अपनी कला से आगे बढ़ाने के लिए दस साल की इंजीनियरिंग की नौकरी को छोड़ दिया था। उनका कहना है कि नौकरी से ज्यादा अच्छा लोक गायकी के क्षेत्र में बेहतर करियर दिखा और उन्होंने अपनी कला के माध्यम से समाज और संस्कृति को सामयिक मुद्दों पर आधारित गायन शैली में उजागर करके सम्मान पाया है, उससे उनकी लोक गायक के रुप में बढ़ती मांग से लोकप्रियता भी बढ़ी है। सुमित का कहना है कि हरियाणा में पहले पहले नाट्य स्वांग का प्रचलन शुरू हुआ था, इसके बाद फिर सन 1920 के आसपास पंडित लखमी चंद ने रागनी गायन के दौर की शुरुआत की, जिसमें इसमें मटका, बेंजो, हारमोनियम सब बजाए जाते हैं। जो आज हम जैसे लोक गायक भी गाते हैं, उसमें पैसा भले ही कम हो। पर इज्जत बहुत है। 
सोशल मीडिया का प्रभाव चिंतनीय 
आज के इस आधुनिक युग में साहित्य, लोककला और लोक गीतों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। आज के इस सोशल मीडिया युग में हमारे मूल गीतों को दबाया जा रहा है, क्योंकि नाबालिग बच्चों के हाथों में मोबाइल फोन है और वह इस आकर्षण में फंसते जा रहे हैं। यही कारण है कि हमारे बच्चों का हमारी मूल संस्कृति के प्रति कम रुझान है और इससे समाज पर दृष्ट प्रभाव पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर शादी विवाह के अवसर पर पिता पुत्र भाई बहन और परिवार के सभी सदस्य ऐसे गीतों पर नृत्य करते हैं, जिनका कोई ओचित्य नहीं है। हमें अपनी मूल संस्कृति की तरह आकर्षित करें, इसके लिए सोशल मीडिया बहुत बड़ा प्लेटफार्म है, जो हमारे पुराने कवियों ने हर संदर्भ में जो कविताएं लिखी हैं उनको आज के दौर के द्विअर्थी गीतों के साथ काई तुलना नहीं हो सकती। इसलिए हम सबको मिलकर अपना ध्यान सकारात्मक और सामाजिक रिति रिवाज तथा संस्कृति पर भी केंद्रित करने की ज्यादा जरुरत है। 
24June-2024

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